०१० मैत्रेयशापः

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

दशमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

व्यासजीका जाना, मैत्रेयजीका धृतराष्ट्र और दुर्योधनसे पाण्डवोंके प्रति सद्भावका अनुरोध तथा दुर्योधनके अशिष्ट व्यवहारसे रुष्ट होकर उसे शाप देना

मूलम् (वचनम्)

धृतराष्ट्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमेतन्महाप्राज्ञ यथा वदसि नो मुने।
अहं चैव विजानामि सर्वे चेमे नराधिपाः ॥ १ ॥

मूलम्

एवमेतन्महाप्राज्ञ यथा वदसि नो मुने।
अहं चैव विजानामि सर्वे चेमे नराधिपाः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्र बोले— महाप्राज्ञ मुने! आप जैसा कहते हैं, यही ठीक है। मैं भी इसे ही ठीक मानता हूँ तथा ये सब राजालोग भी इसीका अनुमोदन करते हैं॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भवांश्च मन्यते साधु यत् कुरूणां महोदयम्।
तदेव विदुरोऽप्याह भीष्मो द्रोणश्च मां मुने ॥ २ ॥

मूलम्

भवांश्च मन्यते साधु यत् कुरूणां महोदयम्।
तदेव विदुरोऽप्याह भीष्मो द्रोणश्च मां मुने ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुने! आप भी वही उत्तम मानते हैं जो कुरुवंशके महान् अभ्युदयका कारण है। मुने! यही बात विदुर, भीष्म और द्रोणाचार्यने भी मुझे कही है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि त्वहमनुग्राह्यः कौरव्येषु दया यदि।
अन्वशाधि दुरात्मानं पुत्रं दुर्योधनं मम ॥ ३ ॥

मूलम्

यदि त्वहमनुग्राह्यः कौरव्येषु दया यदि।
अन्वशाधि दुरात्मानं पुत्रं दुर्योधनं मम ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि आपका मुझपर अनुग्रह है और यदि कौरव-कुलपर आपकी दया है तो आप मेरे दुरात्मा पुत्र दुर्योधनको स्वयं ही शिक्षा दीजिये॥३॥

मूलम् (वचनम्)

व्यास उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयमायाति वै राजन् मैत्रेयो भगवानृषिः।
अन्विष्य पाण्डवान् भ्रातॄनिहैत्यस्मद्दिदृक्षया ॥ ४ ॥

मूलम्

अयमायाति वै राजन् मैत्रेयो भगवानृषिः।
अन्विष्य पाण्डवान् भ्रातॄनिहैत्यस्मद्दिदृक्षया ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

व्यासजीने कहा— राजन्! ये महर्षि भगवान् मैत्रेय आ रहे हैं। पाँचों पाण्डवबन्धुओंसे मिलकर अब ये हमलोगोंसे मिलनेके लिये यहाँ आते हैं॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष दुर्योधनं पुत्रं तव राजन् महानृषिः।
अनुशास्ता यथान्यायं शमायास्य कुलस्य च ॥ ५ ॥

मूलम्

एष दुर्योधनं पुत्रं तव राजन् महानृषिः।
अनुशास्ता यथान्यायं शमायास्य कुलस्य च ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! ये महर्षि ही इस कुलकी शान्तिके लिये तुम्हारे पुत्र दुर्योधनको यथायोग्य शिक्षा देंगे॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रूयाद् यदेष कौरव्य तत् कार्यमविशङ्कया।
अक्रियायां तु कार्यस्य पुत्रं ते शप्स्यते रुषा ॥ ६ ॥

मूलम्

ब्रूयाद् यदेष कौरव्य तत् कार्यमविशङ्कया।
अक्रियायां तु कार्यस्य पुत्रं ते शप्स्यते रुषा ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुनन्दन! मैत्रेय जो कुछ कहें, उसे निःशंक होकर करना चाहिये। यदि उनके बताये हुए कार्यकी अवहेलना की गयी तो वे कुपित होकर तुम्हारे पुत्रको शाप दे देंगे॥६॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वा ययौ व्यासो मैत्रेयः प्रत्यदृश्यत।
पूजया प्रतिजग्राह सपुत्रस्तं नराधिपः ॥ ७ ॥

मूलम्

एवमुक्त्वा ययौ व्यासो मैत्रेयः प्रत्यदृश्यत।
पूजया प्रतिजग्राह सपुत्रस्तं नराधिपः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! ऐसा कहकर व्यासजी चले गये और मैत्रेयजी आते हुए दिखायी दिये। राजा धृतराष्ट्रने पुत्रसहित उनकी अगवानी की और स्वागत-सत्कारके साथ उन्हें अपनाया॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्घ्याद्याभिः क्रियाभिर्वै विश्रान्तं मुनिसत्तमम्।
प्रश्रयेणाब्रवीद् राजा धृतराष्ट्रोऽम्बिकासुतः ॥ ८ ॥

मूलम्

अर्घ्याद्याभिः क्रियाभिर्वै विश्रान्तं मुनिसत्तमम्।
प्रश्रयेणाब्रवीद् राजा धृतराष्ट्रोऽम्बिकासुतः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाद्य, अर्घ्य आदि उपचारोंद्वारा पूजित हो जब मुनिश्रेष्ठ मैत्रेय विश्राम कर चुके, तब अम्बिकानन्दन राजा धृतराष्ट्रने नम्रतापूर्वक पूछा—॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुखेनागमनं कच्चिद् भगवन् कुरुजाङ्गलान्।
कच्चित् कुशलिनो वीरा भ्रातरः पञ्च पाण्डवाः ॥ ९ ॥

मूलम्

सुखेनागमनं कच्चिद् भगवन् कुरुजाङ्गलान्।
कच्चित् कुशलिनो वीरा भ्रातरः पञ्च पाण्डवाः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भगवन्! इस कुरुदेशमें आपका आगमन सुख-पूर्वक तो हुआ है न? वीर भ्राता पाँचों पाण्डव तो कुशलसे हैं न?॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समये स्थातुमिच्छन्ति कच्चिच्च भरतर्षभाः।
कच्चित्‌ कुरूणां सौभ्रात्रमव्युच्छिन्नं भविष्यति ॥ १० ॥

मूलम्

समये स्थातुमिच्छन्ति कच्चिच्च भरतर्षभाः।
कच्चित्‌ कुरूणां सौभ्रात्रमव्युच्छिन्नं भविष्यति ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘क्या वे भरतश्रेष्ठ पाण्डव अपनी प्रतिज्ञापर स्थिर रहना चाहते हैं? क्या कौरवोंमें उत्तम भ्रातृभाव अखण्ड बना रहेगा?’॥१०॥

मूलम् (वचनम्)

मैत्रेय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तीर्थयात्रामनुक्रामन् प्राप्तोऽस्मि कुरुजाङ्गलान् ।
यदृच्छया धर्मराजं दृष्टवान् काम्यके वने ॥ ११ ॥

मूलम्

तीर्थयात्रामनुक्रामन् प्राप्तोऽस्मि कुरुजाङ्गलान् ।
यदृच्छया धर्मराजं दृष्टवान् काम्यके वने ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैत्रेयजीने कहा— राजन्! मैं तीर्थयात्राके प्रसंगसे घूमता हुआ अकस्मात् कुरुजांगल देशमें चला आया हूँ। काम्यकवनमें धर्मराज युधिष्ठिरसे भी मेरी भेंट हुई थी॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं जटाजिनसंवीतं तपोवननिवासिनम् ।
समाजग्मुर्महात्मानं द्रष्टुं मुनिगणाः प्रभो ॥ १२ ॥

मूलम्

तं जटाजिनसंवीतं तपोवननिवासिनम् ।
समाजग्मुर्महात्मानं द्रष्टुं मुनिगणाः प्रभो ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! जटा और मृगचर्म धारण करके तपोवनमें निवास करनेवाले उन महात्मा धर्मराजको देखनेके लिये वहाँ बहुत-से मुनि पधारे थे॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्राश्रौषं महाराज पुत्राणां तव विभ्रमम्।
अनयं द्यूतरूपेण महाभयमुपस्थितम् ॥ १३ ॥

मूलम्

तत्राश्रौषं महाराज पुत्राणां तव विभ्रमम्।
अनयं द्यूतरूपेण महाभयमुपस्थितम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! वहीं मैंने सुना कि तुम्हारे पुत्रोंकी बुद्धि भ्रान्त हो गयी है। वे द्यूतरूपी अनीतिमें प्रवृत्त हो गये और इस प्रकार जूएके रूपमें उनके ऊपर बड़ा भारी भय उपस्थित हो गया है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽहं त्वामनुप्राप्तः कौरवाणामवेक्षया ।
सदा ह्यभ्यधिकः स्नेहः प्रीतिश्च त्वयि मे प्रभो ॥ १४ ॥

मूलम्

ततोऽहं त्वामनुप्राप्तः कौरवाणामवेक्षया ।
सदा ह्यभ्यधिकः स्नेहः प्रीतिश्च त्वयि मे प्रभो ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सुनकर मैं कौरवोंकी दशा देखनेके लिये तुम्हारे पास आया हूँ। राजन्! तुम्हारे ऊपर सदासे ही मेरा स्नेह और प्रेम अधिक रहा है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैतदौपयिकं राजंस्त्वयि भीष्मे च जीवति।
यदन्योन्येन ते पुत्रा विरुध्यन्ते कथंचन ॥ १५ ॥

मूलम्

नैतदौपयिकं राजंस्त्वयि भीष्मे च जीवति।
यदन्योन्येन ते पुत्रा विरुध्यन्ते कथंचन ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! तुम्हारे और भीष्मके जीते-जी यह उचित नहीं जान पड़ता कि तुम्हारे पुत्र किसी प्रकार आपसमें विरोध करें॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेढीभूतः स्वयं राजन् निग्रहे प्रग्रहे भवान्।
किमर्थमनयं घोरमुत्पद्यन्तमुपेक्षसे ॥ १६ ॥

मूलम्

मेढीभूतः स्वयं राजन् निग्रहे प्रग्रहे भवान्।
किमर्थमनयं घोरमुत्पद्यन्तमुपेक्षसे ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! तुम स्वयं इन सबको बाँधकर नियन्त्रणमें रखनेके लिये खंभेके समान हो; फिर पैदा होते हुए इस घोर अन्यायकी क्यों उपेक्षा कर रहे हो॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दस्यूनामिव यद् वृत्तं सभायां कुरुनन्दन।
तेन न भ्राजसे राजंस्तापसानां समागमे ॥ १७ ॥

मूलम्

दस्यूनामिव यद् वृत्तं सभायां कुरुनन्दन।
तेन न भ्राजसे राजंस्तापसानां समागमे ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुनन्दन! तुम्हारी सभामें डाकुओंकी भाँति जो बर्ताव किया गया है, उसके कारण तुम तपस्वी मुनियोंके समुदायमें शोभा नहीं पा रहे हो॥१७॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो व्यावृत्य राजानं दुर्योधनममर्षणम्।
उवाच श्लक्ष्णया वाचा मैत्रेयो भगवानृषिः ॥ १८ ॥

मूलम्

ततो व्यावृत्य राजानं दुर्योधनममर्षणम्।
उवाच श्लक्ष्णया वाचा मैत्रेयो भगवानृषिः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तदनन्तर महर्षि भगवान् मैत्रेय अमर्षशील राजा दुर्योधनकी ओर मुड़कर उससे मधुर वाणीमें इस प्रकार बोले॥१८॥

मूलम् (वचनम्)

मैत्रेय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुर्योधन महाबाहो निबोध वदतां वर।
वचनं मे महाभाग ब्रुवतो यद्धितं तव ॥ १९ ॥

मूलम्

दुर्योधन महाबाहो निबोध वदतां वर।
वचनं मे महाभाग ब्रुवतो यद्धितं तव ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैत्रेयजीने कहा— महाबाहु दुर्योधन! तुम वक्ताओंमें श्रेष्ठ हो; मेरी एक बात सुनो। महाभाग! मैं तुम्हारे हितकी बात बता रहा हूँ॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मा द्रुहः पाण्डवान् राजन् कुरुष्व प्रियमात्मनः।
पाण्डवानां कुरूणां च लोकस्य च नरर्षभ ॥ २० ॥

मूलम्

मा द्रुहः पाण्डवान् राजन् कुरुष्व प्रियमात्मनः।
पाण्डवानां कुरूणां च लोकस्य च नरर्षभ ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! तुम पाण्डवोंसे द्रोह न करो। नरश्रेष्ठ! अपना, पाण्डवोंका, कुरुकुलका तथा सम्पूर्ण जगत्‌का प्रिय साधन करो॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते हि सर्वे नरव्याघ्राः शूरा विक्रान्तयोधिनः।
सर्वे नागायुतप्राणा वज्रसंहनना दृढाः ॥ २१ ॥

मूलम्

ते हि सर्वे नरव्याघ्राः शूरा विक्रान्तयोधिनः।
सर्वे नागायुतप्राणा वज्रसंहनना दृढाः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्योंमें श्रेष्ठ सब पाण्डव शूरवीर, पराक्रमी और युद्धकुशल हैं। उन सबमें दस हजार हाथियोंका बल है। उनका शरीर वज्रके समान दृढ़ है॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्यव्रतधराः सर्वे सर्वे पुरुषमानिनः।
हन्तारो देवशत्रूणां रक्षसां कामरूपिणाम् ॥ २२ ॥
हिडिम्बबकमुख्यानां किर्मीरस्य च रक्षसः।

मूलम्

सत्यव्रतधराः सर्वे सर्वे पुरुषमानिनः।
हन्तारो देवशत्रूणां रक्षसां कामरूपिणाम् ॥ २२ ॥
हिडिम्बबकमुख्यानां किर्मीरस्य च रक्षसः।

अनुवाद (हिन्दी)

वे सब-के-सब सत्यव्रतधारी और अपने पौरुषपर अभिमान रखनेवाले हैं। इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले देवद्रोही हिडिम्ब आदि राक्षसोंका तथा राक्षसजातीय किर्मीरका वध भी उन्होंने ही किया है॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इतः प्रद्रवतां रात्रौ यः स तेषां महात्मनाम् ॥ २३ ॥
आवृत्य मार्गं रौद्रात्मा तस्थौ गिरिरिवाचलः।
तं भीमः समरश्लाघी बलेन बलिनां वरः ॥ २४ ॥
जघान पशुमारेण व्याघ्रः क्षुद्रमृगं यथा।
पश्य दिग्विजये राजन् यथा भीमेन पातितः ॥ २५ ॥
जरासंधो महेष्वासो नागायुतबलो युधि।
सम्बन्धी वासुदेवश्च श्यालाः सर्वे च पार्षताः ॥ २६ ॥

मूलम्

इतः प्रद्रवतां रात्रौ यः स तेषां महात्मनाम् ॥ २३ ॥
आवृत्य मार्गं रौद्रात्मा तस्थौ गिरिरिवाचलः।
तं भीमः समरश्लाघी बलेन बलिनां वरः ॥ २४ ॥
जघान पशुमारेण व्याघ्रः क्षुद्रमृगं यथा।
पश्य दिग्विजये राजन् यथा भीमेन पातितः ॥ २५ ॥
जरासंधो महेष्वासो नागायुतबलो युधि।
सम्बन्धी वासुदेवश्च श्यालाः सर्वे च पार्षताः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यहाँसे रातमें जब वे महात्मा पाण्डव चले जा रहे थे, उस समय उनका मार्ग रोककर भयंकर और पर्वतके समान विशालकाय किर्मीर उनके सामने खड़ा हो गया। युद्धकी श्लाघा रखनेवाले बलवानोंमें श्रेष्ठ भीमसेनने उस राक्षसको बलपूर्वक पकड़कर पशुकी तरह वैसे ही मार डाला, जैसे व्याघ्र छोटे मृगको मार डालता है। राजन्! देखो, दिग्विजयके समय भीमसेनने उस महान् धनुर्धर राजा जरासंधको भी युद्धमें मार गिराया, जिसमें दस हजार हाथियोंका बल था। (यह भी स्मरण रखना चाहिये कि) वसुदेवनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण उनके सम्बन्धी हैं तथा द्रुपदके सभी पुत्र उनके साले हैं॥२३—२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कस्तान् युधि समासीत जरामरणवान् नरः।
तस्य ते शम एवास्तु पाण्डवैर्भरतर्षभ ॥ २७ ॥

मूलम्

कस्तान् युधि समासीत जरामरणवान् नरः।
तस्य ते शम एवास्तु पाण्डवैर्भरतर्षभ ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जरा और मृत्युके वशमें रहनेवाला कौन मनुष्य युद्धमें उन पाण्डवोंका सामना कर सकता है। भरतकुल-भूषण! ऐसे महापराक्रमी पाण्डवोंके साथ तुम्हें शान्तिपूर्वक मिलकर ही रहना चाहिये॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुरु मे वचनं राजन् मा मन्युवशमन्वगाः।

मूलम्

कुरु मे वचनं राजन् मा मन्युवशमन्वगाः।

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! तुम मेरी बात मानो; क्रोधके वशमें न होओ॥२७॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं तु ब्रुवतस्तस्य मैत्रेयस्य विशाम्पते ॥ २८ ॥
ऊरुं गजकराकारं करेणाभिजघान सः।
दुर्योधनः स्मितं कृत्वा चरणेनोल्लिखन् महीम् ॥ २९ ॥

मूलम्

एवं तु ब्रुवतस्तस्य मैत्रेयस्य विशाम्पते ॥ २८ ॥
ऊरुं गजकराकारं करेणाभिजघान सः।
दुर्योधनः स्मितं कृत्वा चरणेनोल्लिखन् महीम् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! मैत्रेयजी जब इस प्रकार कह रहे थे, उस समय दुर्योधनने मुसकराकर हाथीके सूँड़के समान अपनी जाँघको हाथसे ठोंका और पैरसे पृथ्वीको कुरेदने लगा॥२८-२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न किंचिदुक्त्वा दुर्मेधास्तस्थौ किंचिदवाङ्‌मुखः।
तमशुश्रूषमाणं तु विलिखन्तं वसुंधराम् ॥ ३० ॥
दृष्ट्वा दुर्योधनं राजन्‌ मैत्रेयं कोप आविशत्।
स कोपवशमापन्नो मैत्रेयो मुनिसत्तमः ॥ ३१ ॥

मूलम्

न किंचिदुक्त्वा दुर्मेधास्तस्थौ किंचिदवाङ्‌मुखः।
तमशुश्रूषमाणं तु विलिखन्तं वसुंधराम् ॥ ३० ॥
दृष्ट्वा दुर्योधनं राजन्‌ मैत्रेयं कोप आविशत्।
स कोपवशमापन्नो मैत्रेयो मुनिसत्तमः ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस दुर्बुद्धिने मैत्रेयजीको कुछ भी उत्तर न दिया। वह अपने मुँहको कुछ नीचा किये चुपचाप खड़ा रहा। राजन्! मैत्रेयजीने देखा, दुर्योधन सुनना नहीं चाहता, वह पैरोंसे धरतीको कुरेद रहा है। यह देख उनके मनमें क्रोध जाग उठा। फिर तो वे मुनिश्रेष्ठ मैत्रेय कोपके वशीभूत हो गये॥३०-३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विधिना सम्प्रणुदितः शापायास्य मनो दधे।
ततः स वार्युपस्पृश्य कोपसंरक्तलोचनः।
मैत्रेयो धार्तराष्ट्रं तमशपद् दुष्टचेतसम् ॥ ३२ ॥

मूलम्

विधिना सम्प्रणुदितः शापायास्य मनो दधे।
ततः स वार्युपस्पृश्य कोपसंरक्तलोचनः।
मैत्रेयो धार्तराष्ट्रं तमशपद् दुष्टचेतसम् ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विधातासे प्रेरित होकर उन्होंने दुर्योधनको शाप देनेका विचार किया। तदनन्तर मैत्रेयने क्रोधसे लाल आँखें करके जलका आचमन किया और उस दुष्ट चित्तवाले धृतराष्ट्रपुत्रको इस प्रकार शाप दिया—॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्मात् त्वं मामनादृत्य नेमां वाचं चिकीर्षसि।
तस्मादस्याभिमानस्य सद्यः फलमवाप्नुहि ॥ ३३ ॥

मूलम्

यस्मात् त्वं मामनादृत्य नेमां वाचं चिकीर्षसि।
तस्मादस्याभिमानस्य सद्यः फलमवाप्नुहि ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘दुर्योधन! तू मेरा अनादर करके मेरी बात मानना नहीं चाहता; अतः तू इस अभिमानका तुरंत फल पा ले॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वदभिद्रोहसंयुक्तं युद्धमुत्पत्स्यते महत् ।
तत्र भीमो गदाघातैस्तवोरुं भेत्स्यते बली ॥ ३४ ॥

मूलम्

त्वदभिद्रोहसंयुक्तं युद्धमुत्पत्स्यते महत् ।
तत्र भीमो गदाघातैस्तवोरुं भेत्स्यते बली ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तेरे द्रोहके कारण बड़ा भारी युद्ध छिड़ेगा, उसमें बलवान् भीमसेन अपनी गदाकी चोटसे तेरी जाँघ तोड़ डालेंगे’॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्येवमुक्ते वचने धृतराष्ट्रो महीपतिः।
प्रसादयामास मुनिं नैतदेवं भवेदिति ॥ ३५ ॥

मूलम्

इत्येवमुक्ते वचने धृतराष्ट्रो महीपतिः।
प्रसादयामास मुनिं नैतदेवं भवेदिति ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके ऐसा कहनेपर महाराज धृतराष्ट्रने मुनिको प्रसन्न किया और कहा—‘भगवन्! ऐसा न हो’॥३५॥

मूलम् (वचनम्)

मैत्रेय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

शमं यास्यति चेत् पुत्रस्तव राजन् यदा तदा।
शापो न भविता तात विपरीते भविष्यति ॥ ३६ ॥

मूलम्

शमं यास्यति चेत् पुत्रस्तव राजन् यदा तदा।
शापो न भविता तात विपरीते भविष्यति ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैत्रेयजीने कहा— राजन्! जब तुम्हारा पुत्र शान्ति धारण करेगा (पाण्डवोंसे वैर-विरोध न करके मेल-मिलाप कर लेगा), तब यह शाप इसपर लागू न होगा। तात! यदि इसने विपरीत बर्ताव किया तो यह शाप इसे अवश्य भोगना पड़ेगा॥३६॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

विलक्षयंस्तु राजेन्द्रो दुर्योधनपिता तदा।
मैत्रेयं प्राह किर्मीरः कथं भीमेन पातितः ॥ ३७ ॥

मूलम्

विलक्षयंस्तु राजेन्द्रो दुर्योधनपिता तदा।
मैत्रेयं प्राह किर्मीरः कथं भीमेन पातितः ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तब दुर्योधनके पिता महाराज धृतराष्ट्रने भीमसेनके बलका विशेष परिचय पानेके लिये मैत्रेयजीसे पूछा—‘मुने! भीमने किर्मीरको कैसे मारा?’॥३७॥

मूलम् (वचनम्)

मैत्रेय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाहं वक्ष्यामि ते भूयो न ते शुश्रूषते सुतः।
एष ते विदुरः सर्वमाख्यास्यति गते मयि ॥ ३८ ॥

मूलम्

नाहं वक्ष्यामि ते भूयो न ते शुश्रूषते सुतः।
एष ते विदुरः सर्वमाख्यास्यति गते मयि ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैत्रेयजीने कहा— राजन्! तुम्हारा पुत्र मेरी बात सुनना नहीं चाहता, अतः मैं तुमसे इस समय फिर कुछ नहीं कहूँगा। ये विदुरजी मेरे चले जानेपर वह सारा प्रसंग तुम्हें बतायेंगे॥३८॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्येवमुक्त्वा मैत्रेयः प्रातिष्ठत यथाऽऽगतम्।
किर्मीरवधसंविग्नो बहिर्दुर्योधनो ययौ ॥ ३९ ॥

मूलम्

इत्येवमुक्त्वा मैत्रेयः प्रातिष्ठत यथाऽऽगतम्।
किर्मीरवधसंविग्नो बहिर्दुर्योधनो ययौ ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! ऐसा कहकर मैत्रेयजी जैसे आये थे वैसे ही चले गये। किर्मीरवधका समाचार सुनकर उद्विग्न हो दुर्योधन भी बाहर निकल गया॥३९॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि मैत्रेयशापे दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत अरण्यपर्वमें मैत्रेयशापविषयक दसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१०॥