श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
नवमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
व्यासजीके द्वारा सुरभि और इन्द्रके उपाख्यानका वर्णन तथा उनका पाण्डवोंके प्रति दया दिखलाना
मूलम् (वचनम्)
धृतराष्ट्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगवन् नाहमप्येतद् रोचये द्यूतसम्भवम्।
मन्ये तद्विधिनाऽऽकृष्य कारितोऽस्मीति वै मुने ॥ १ ॥
मूलम्
भगवन् नाहमप्येतद् रोचये द्यूतसम्भवम्।
मन्ये तद्विधिनाऽऽकृष्य कारितोऽस्मीति वै मुने ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धृतराष्ट्रने कहा— भगवन्! यह जूएका खेल मुझे भी पसंद नहीं था। मुने! मैं तो ऐसा समझता हूँ कि विधाताने मुझे बलपूर्वक खींचकर इस कार्यमें लगा दिया॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैतद् रोचयते भीष्मो न द्रोणो विदुरो न च।
गान्धारी नेच्छति द्यूतं तत्र मोहात् प्रवर्तितम् ॥ २ ॥
मूलम्
नैतद् रोचयते भीष्मो न द्रोणो विदुरो न च।
गान्धारी नेच्छति द्यूतं तत्र मोहात् प्रवर्तितम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्म, द्रोण और विदुरको भी यह द्यूतका आयोजन अच्छा नहीं लगता था। गान्धारी भी नहीं चाहती थी कि जूआ खेला जाय; परंतु मैंने मोहवश सबको जूएमें लगा दिया॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परित्यक्तुं न शक्नोमि दुर्योधनमचेतनम्।
पुत्रस्नेहेन भगवन् जानन्नपि प्रियव्रत ॥ ३ ॥
मूलम्
परित्यक्तुं न शक्नोमि दुर्योधनमचेतनम्।
पुत्रस्नेहेन भगवन् जानन्नपि प्रियव्रत ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! प्रियव्रत! मैं यह जानता हूँ कि दुर्योधन अविवेकी है, तो भी पुत्रस्नेहके कारण मैं उसका त्याग नहीं कर सकता॥३॥
मूलम् (वचनम्)
व्यास उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
वैचित्रवीर्य नृपते सत्यमाह यथा भवान्।
दृढं विद्मः परं पुत्रं परं पुत्रान्न विद्यते ॥ ४ ॥
मूलम्
वैचित्रवीर्य नृपते सत्यमाह यथा भवान्।
दृढं विद्मः परं पुत्रं परं पुत्रान्न विद्यते ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
व्यासजी बोले— राजन्! विचित्रवीर्यनन्दन! तुम ठीक कहते हो, हम अच्छी तरह जानते हैं कि पुत्र परम प्रिय वस्तु है। पुत्रसे बढ़कर संसारमें और कुछ नहीं है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्रोऽप्यश्रुनिपातेन सुरभ्या प्रतिबोधितः ।
अन्यैः समृद्धैरप्यर्थैर्न सुतान्मन्यते परम् ॥ ५ ॥
मूलम्
इन्द्रोऽप्यश्रुनिपातेन सुरभ्या प्रतिबोधितः ।
अन्यैः समृद्धैरप्यर्थैर्न सुतान्मन्यते परम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुरभिने पुत्रके लिये आँसू बहाकर इन्द्रको भी यह बात समझायी थी, जिससे वे अन्य समृद्धिशाली पदार्थोंसे सम्पन्न होनेपर भी पुत्रसे बढ़कर दूसरी किसी वस्तुको नहीं मानते हैं॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्र ते कीर्तयिष्यामि महदाख्यानमुत्तमम्।
सुरभ्याश्चैव संवादमिन्द्रस्य च विशाम्पते ॥ ६ ॥
मूलम्
अत्र ते कीर्तयिष्यामि महदाख्यानमुत्तमम्।
सुरभ्याश्चैव संवादमिन्द्रस्य च विशाम्पते ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनेश्वर! इस विषयमें मैं तुम्हें एक परम उत्तम इतिहास सुनाता हूँ; जो सुरभि तथा इन्द्रके संवादके रूपमें है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रिविष्टपगता राजन् सुरभी प्रारुदत् किल।
गवां माता पुरा तात तामिन्द्रोऽन्वकृपायत ॥ ७ ॥
मूलम्
त्रिविष्टपगता राजन् सुरभी प्रारुदत् किल।
गवां माता पुरा तात तामिन्द्रोऽन्वकृपायत ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! पहलेकी बात है, गोमाता सुरभि स्वर्गलोकमें जाकर फूट-फूटकर रोने लगी। तात! उस समय इन्द्रको उसपर बड़ी दया आयी॥७॥
मूलम् (वचनम्)
इन्द्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
किमिदं रोदिषि शुभे कच्चित् क्षेमं दिवौकसाम्।
मानुषेष्वथ वा गोषु नैतदल्पं भविष्यति ॥ ८ ॥
मूलम्
किमिदं रोदिषि शुभे कच्चित् क्षेमं दिवौकसाम्।
मानुषेष्वथ वा गोषु नैतदल्पं भविष्यति ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्रने पूछा— शुभे! तुम क्यों इस तरह रो रही हो? देवलोकवासियोंकी कुशल तो है न? मनुष्यों तथा गौओंमें तो सब लोग कुशलसे हैं न? तुम्हारा यह रोदन किसी अल्प कारणसे नहीं हो सकता?॥८॥
मूलम् (वचनम्)
सुरभिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
विनिपातो न वः कश्चिद् दृश्यते त्रिदशाधिप।
अहं तु पुत्रं शोचामि तेन रोदिमि कौशिक ॥ ९ ॥
मूलम्
विनिपातो न वः कश्चिद् दृश्यते त्रिदशाधिप।
अहं तु पुत्रं शोचामि तेन रोदिमि कौशिक ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुरभिने कहा— देवेश्वर! आपलोगोंकी अवनति नहीं दिखायी देती। इन्द्र! मुझे तो अपने पुत्रके लिये शोक हो रहा है, इसीसे रोती हूँ॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पश्यैनं कर्षकं क्षुद्रं दुर्बलं मम पुत्रकम्।
प्रतोदेनाभिनिघ्नन्तं लाङ्गलेन च पीडितम् ॥ १० ॥
मूलम्
पश्यैनं कर्षकं क्षुद्रं दुर्बलं मम पुत्रकम्।
प्रतोदेनाभिनिघ्नन्तं लाङ्गलेन च पीडितम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देखो, इस नीच किसानको जो मेरे दुर्बल बेटेको बार-बार कोड़ेसे पीट रहा है और वह हलसे जुतकर अत्यन्त पीड़ित हो रहा है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निषीदमानं सोत्कण्ठं वध्यमानं सुराधिप।
कृपाविष्टास्मि देवेन्द्र मनश्चोद्विजते मम।
एकस्तत्र बलोपेतो धुरमुद्वहतेऽधिकाम् ॥ ११ ॥
अपरोऽप्यबलप्राणः कृशो धमनिसंततः ।
कृच्छ्रादुद्वहते भारं तं वै शोचामि वासव ॥ १२ ॥
वध्यमानः प्रतोदेन तुद्यमानः पुनः पुनः।
नैव शक्नोति तं भारमुद्वोढुं पश्य वासव ॥ १३ ॥
मूलम्
निषीदमानं सोत्कण्ठं वध्यमानं सुराधिप।
कृपाविष्टास्मि देवेन्द्र मनश्चोद्विजते मम।
एकस्तत्र बलोपेतो धुरमुद्वहतेऽधिकाम् ॥ ११ ॥
अपरोऽप्यबलप्राणः कृशो धमनिसंततः ।
कृच्छ्रादुद्वहते भारं तं वै शोचामि वासव ॥ १२ ॥
वध्यमानः प्रतोदेन तुद्यमानः पुनः पुनः।
नैव शक्नोति तं भारमुद्वोढुं पश्य वासव ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुरेश्वर! वह तो विश्रामके लिये उत्सुक होकर बैठ रहा है और वह किसान उसे डंडे मारता है। देवेन्द्र! यह देखकर मुझे अपने बच्चेके प्रति बड़ी दया हो आयी है और मेरा मन उद्विग्न हो उठा है। वहाँ दो बैलोंमेंसे एक तो बलवान् है जो भारयुक्त जूएको खींच सकता है; परंतु दूसरा निर्बल है, प्राणशून्य-सा जान पड़ता है। वह इतना दुबला-पतला हो गया है कि उसके सारे शरीरमें फैली हुई नाड़ियाँ दीख रही हैं। वह बड़े कष्टसे उस भारयुक्त जूएको खींच पाता हैं। वासव! मुझे उसीके लिये शोक हो रहा है। इन्द्र! देखो-देखो, चाबुकसे मार-मारकर उसे बार-बार पीड़ा दी जा रही है, तो भी उस जूएके भारको वहन करनेमें वह असमर्थ हो रहा है॥११—१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽहं तस्य शोकार्ता विरौमि भृशदुःखिता।
अश्रूण्यावर्तयन्ती च नेत्राभ्यां करुणायती ॥ १४ ॥
मूलम्
ततोऽहं तस्य शोकार्ता विरौमि भृशदुःखिता।
अश्रूण्यावर्तयन्ती च नेत्राभ्यां करुणायती ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यही देखकर मैं शोकसे पीड़ित हो अत्यन्त दुःखी हो गयी हूँ और करुणामग्न हो दोनों नेत्रोंसे आँसू बहाती हुई रो रही हूँ॥१४॥
मूलम् (वचनम्)
शक्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तव पुत्रसहस्रेषु पीड्यमानेषु शोभने।
किं कृपायितवत्यत्र पुत्र एकत्र हन्यति ॥ १५ ॥
मूलम्
तव पुत्रसहस्रेषु पीड्यमानेषु शोभने।
किं कृपायितवत्यत्र पुत्र एकत्र हन्यति ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्रने कहा— कल्याणी! तुम्हारे तो सहस्रों पुत्र इसी प्रकार पीड़ित हो रहे हैं, फिर तुमने एक ही पुत्रके मार खानेपर यहाँ इतनी करुणा क्यों दिखायी?॥१५॥
मूलम् (वचनम्)
सुरभिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि पुत्रसहस्राणि सर्वत्र समतैव मे।
दीनस्य तु सतः शक्र पुत्रस्याभ्यधिका कृपा ॥ १६ ॥
मूलम्
यदि पुत्रसहस्राणि सर्वत्र समतैव मे।
दीनस्य तु सतः शक्र पुत्रस्याभ्यधिका कृपा ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुरभि बोली— देवेन्द्र! यदि मेरे सहस्रों पुत्र हैं, तो मैं उन सबके प्रति समानभाव ही रखती हूँ; परंतु दीन-दुःखी पुत्रके प्रति अधिक दया उमड़ आती है॥१६॥
मूलम् (वचनम्)
व्यास उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदिन्द्रः सुरभीवाक्यं निशम्य भृशविस्मितः।
जीवितेनापि कौरव्य मेनेऽभ्यधिकमात्मजम् ॥ १७ ॥
मूलम्
तदिन्द्रः सुरभीवाक्यं निशम्य भृशविस्मितः।
जीवितेनापि कौरव्य मेनेऽभ्यधिकमात्मजम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
व्यासजी कहते हैं— कुरुराज! सुरभिकी यह बात सुनकर इन्द्र बड़े विस्मित हो गये। तबसे वे पुत्रको प्राणोंसे भी अधिक प्रिय मानने लगे॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रववर्ष च तत्रैव सहसा तोयमुल्बणम्।
कर्षकस्याचरन् विघ्नं भगवान् पाकशासनः ॥ १८ ॥
मूलम्
प्रववर्ष च तत्रैव सहसा तोयमुल्बणम्।
कर्षकस्याचरन् विघ्नं भगवान् पाकशासनः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय वहाँ पाकशासन भगवान् इन्द्रने किसानके कार्यमें विघ्न डालते हुए सहसा भयंकर वर्षा की॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद् यथा सुरभिः प्राह समवेतास्तु ते तथा।
सुतेषु राजन् सर्वेषु हीनेष्वभ्यधिका कृपा ॥ १९ ॥
मूलम्
तद् यथा सुरभिः प्राह समवेतास्तु ते तथा।
सुतेषु राजन् सर्वेषु हीनेष्वभ्यधिका कृपा ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रसंगमें सुरभिने जैसा कहा है, वह ठीक है, कौरव और पाण्डव सभी मिलकर तुम्हारे ही पुत्र हैं। परंतु राजन्! सब पुत्रोंमें जो हीन हों, दयनीय दशामें पड़े हों, उन्हींपर अधिक कृपा होनी चाहिये॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यादृशो मे सुतः पाण्डुस्तादृशो मेऽसि पुत्रक।
विदुरश्च महाप्राज्ञः स्नेहादेतद् ब्रवीम्यहम् ॥ २० ॥
मूलम्
यादृशो मे सुतः पाण्डुस्तादृशो मेऽसि पुत्रक।
विदुरश्च महाप्राज्ञः स्नेहादेतद् ब्रवीम्यहम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वत्स! जैसे पाण्डु मेरे पुत्र हैं, वैसे ही तुम भी हो, उसी प्रकार महाज्ञानी विदुर भी हैं। मैंने स्नेहवश ही तुमसे ये बातें कही हैं॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चिराय तव पुत्राणां शतमेकश्च भारत।
पाण्डोः पञ्चैव लक्ष्यन्ते तेऽपि मन्दाः सुदुःखिताः ॥ २१ ॥
मूलम्
चिराय तव पुत्राणां शतमेकश्च भारत।
पाण्डोः पञ्चैव लक्ष्यन्ते तेऽपि मन्दाः सुदुःखिताः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! दीर्घकालसे तुम्हारे एक सौ एक पुत्र हैं, किंतु पाण्डुके पाँच ही पुत्र देखे जाते हैं। वे भी भोले-भाले, छल-कपटसे रहित हैं और अत्यन्त दुःख उठा रहे हैं॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथं जीवेयुरत्यन्तं कथं वर्धेयुरित्यपि।
इति दीनेषु पार्थेषु मनो मे परितप्यते ॥ २२ ॥
मूलम्
कथं जीवेयुरत्यन्तं कथं वर्धेयुरित्यपि।
इति दीनेषु पार्थेषु मनो मे परितप्यते ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वे कैसे जीवित रहेंगे और कैसे वृद्धिको प्राप्त होंगे?’ इस प्रकार कुन्तीके उन दीन पुत्रोंके प्रति सोचते हुए मेरे मनमें बड़ा संताप होता है॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि पार्थिव कौरव्याञ्जीवमानानिहेच्छसि ।
दुर्योधनस्तव सुतः शमं गच्छतु पाण्डवैः ॥ २३ ॥
मूलम्
यदि पार्थिव कौरव्याञ्जीवमानानिहेच्छसि ।
दुर्योधनस्तव सुतः शमं गच्छतु पाण्डवैः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! यदि तुम चाहते हो कि समस्त कौरव यहाँ जीवित रहें तो तुम्हारा पुत्र दुर्योधन पाण्डवोंसे मेल करके शान्तिपूर्वक रहे॥२३॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि सुरभ्युपाख्याने नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत अरण्यपर्वमें सुरभि-उपाख्यानविषयक नवाँ अध्याय पूरा हुआ॥९॥