००७ व्यासकृतकौरवनिवारणम्

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

सप्तमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

दुर्योधन, दुःशासन, शकुनि और कर्णकी सलाह, पाण्डवोंका वध करनेके लिये उनका वनमें जानेकी तैयारी तथा व्यासजीका आकर उनको रोकना

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्वा च विदुरं प्राप्तं राज्ञा च परिसान्त्वितम्।
धृतराष्ट्रात्मजो राजा पर्यतप्यत दुर्मतिः ॥ १ ॥

मूलम्

श्रुत्वा च विदुरं प्राप्तं राज्ञा च परिसान्त्वितम्।
धृतराष्ट्रात्मजो राजा पर्यतप्यत दुर्मतिः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! विदुर आ गये और राजा धृतराष्ट्रने उन्हें सान्त्वना देकर रख लिया, यह सुनकर दुष्ट बुद्धिवाला धृतराष्ट्रकुमार राजा दुर्योधन संतप्त हो उठा॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स सौबलेयमानाय्य कर्णदुःशासनौ तथा।
अब्रवीद् वचनं राजा प्रविश्याबुद्धिजं तमः ॥ २ ॥

मूलम्

स सौबलेयमानाय्य कर्णदुःशासनौ तथा।
अब्रवीद् वचनं राजा प्रविश्याबुद्धिजं तमः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसने शकुनि, कर्ण और दुःशासनको बुलाकर अज्ञानजनित मोहमें मग्न हो इस प्रकार कहा—॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष प्रत्यागतो मन्त्रो धृतराष्ट्रस्य धीमतः।
विदुरः पाण्डुपुत्राणां सुहृद् विद्वान् हिते रतः ॥ ३ ॥

मूलम्

एष प्रत्यागतो मन्त्रो धृतराष्ट्रस्य धीमतः।
विदुरः पाण्डुपुत्राणां सुहृद् विद्वान् हिते रतः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘बुद्धिमान् पिताजीका यह मन्त्री विदुर फिर लौट आया। विदुर विद्वान् होनेके साथ ही पाण्डवोंका सुहृद् और उन्हींके हितसाधनमें संलग्न रहनेवाला है॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यावदस्य पुनर्बुद्धिं विदुरो नापकर्षति।
पाण्डवानयने तावन्मन्त्रयध्वं हितं मम ॥ ४ ॥

मूलम्

यावदस्य पुनर्बुद्धिं विदुरो नापकर्षति।
पाण्डवानयने तावन्मन्त्रयध्वं हितं मम ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यह पिताजीके विचारको पुनः पाण्डवोंके लौटा लानेकी ओर जबतक नहीं खींचता, तभीतक मेरे हित-साधनके विषयमें तुमलोग कोई उत्तम सलाह दो॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ पश्याम्यहं पार्थान् प्राप्तानिह कथंचन।
पुनः शोषं गमिष्यामि निरम्बुर्निरवग्रहः ॥ ५ ॥

मूलम्

अथ पश्याम्यहं पार्थान् प्राप्तानिह कथंचन।
पुनः शोषं गमिष्यामि निरम्बुर्निरवग्रहः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यदि मैं किसी प्रकार पाण्डवोंको यहाँ आया देख लूँगा तो जलका भी परित्याग करके स्वेच्छासे अपने शरीरको सुखा डालूँगा॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विषमुद्बन्धनं चैव शस्त्रमग्निप्रवेशनम् ।
करिष्ये न हि तानृद्धान् पुनर्द्रष्टुमिहोत्सहे ॥ ६ ॥

मूलम्

विषमुद्बन्धनं चैव शस्त्रमग्निप्रवेशनम् ।
करिष्ये न हि तानृद्धान् पुनर्द्रष्टुमिहोत्सहे ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं जहर खा लूँगा, फाँसी लगा लूँगा, अपने-आपको ही शस्त्रसे मार दूँगा अथवा जलती आगमें प्रवेश कर जाऊँगा; परंतु पाण्डवोंको फिर बढ़ते या फलते-फूलते नहीं देख सकूँगा’॥६॥

मूलम् (वचनम्)

शकुनिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं बालिशमतिं राजन्नास्थितोऽसि विशाम्पते।
गतास्ते समयं कृत्वा नैतदेवं भविष्यति ॥ ७ ॥

मूलम्

किं बालिशमतिं राजन्नास्थितोऽसि विशाम्पते।
गतास्ते समयं कृत्वा नैतदेवं भविष्यति ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शकुनि बोला— राजन्! तुम भी क्या नादान बच्चोंके-से विचार रखते हो? पाण्डव प्रतिज्ञा करके वनमें गये हैं। वे उस प्रतिज्ञाको तोड़कर लौट आवें, ऐसा कभी नहीं होगा॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्यवाक्यस्थिताः सर्वे पाण्डवा भरतर्षभ।
पितुस्ते वचनं तात न ग्रहीष्यन्ति कर्हिचित् ॥ ८ ॥

मूलम्

सत्यवाक्यस्थिताः सर्वे पाण्डवा भरतर्षभ।
पितुस्ते वचनं तात न ग्रहीष्यन्ति कर्हिचित् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतवंशशिरोमणे! सब पाण्डव सत्य वचनका पालन करनेमें संलग्न हैं। तात! वे तुम्हारे पिताकी बात कभी स्वीकार नहीं करेंगे॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथवा ते ग्रहीष्यन्ति पुनरेष्यन्ति वा पुरम्।
निरस्य समयं सर्वे पणोऽस्माकं भविष्यति ॥ ९ ॥

मूलम्

अथवा ते ग्रहीष्यन्ति पुनरेष्यन्ति वा पुरम्।
निरस्य समयं सर्वे पणोऽस्माकं भविष्यति ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अथवा यदि वे तुम्हारे पिताकी बात मान लेंगे और प्रतिज्ञा तोड़कर इस नगरमें आ जायँगे तो हमारा व्यवहार इस प्रकार होगा॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वे भवामो मध्यस्था राज्ञश्छन्दानुवर्तिनः।
छिद्रं बहु प्रपश्यन्तः पाण्डवानां सुसंवृताः ॥ १० ॥

मूलम्

सर्वे भवामो मध्यस्था राज्ञश्छन्दानुवर्तिनः।
छिद्रं बहु प्रपश्यन्तः पाण्डवानां सुसंवृताः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हम सब लोग राजाकी आज्ञाका पालन करते हुए मध्यस्थ हो जायँगे और छिपे-छिपे पाण्डवोंके बहुत-से छिद्र देखते रहेंगे॥१०॥

मूलम् (वचनम्)

दुःशासन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमेतन्महाप्राज्ञ यथा वदसि मातुल।
नित्यं हि मे कथयतस्तव बुद्धिर्विरोचते ॥ ११ ॥

मूलम्

एवमेतन्महाप्राज्ञ यथा वदसि मातुल।
नित्यं हि मे कथयतस्तव बुद्धिर्विरोचते ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुःशासनने कहा— महाबुद्धिमान् मामाजी! आप जैसा कहते हैं, वही मुझे भी ठीक जान पड़ता है। आपके मुखसे जो विचार प्रकट होता है, वह मुझे सदा अच्छा लगता है॥११॥

मूलम् (वचनम्)

कर्ण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

काममीक्षामहे सर्वे दुर्योधन तवेप्सितम्।
ऐकमत्यं हि नो राजन् सर्वेषामेव लक्षये ॥ १२ ॥

मूलम्

काममीक्षामहे सर्वे दुर्योधन तवेप्सितम्।
ऐकमत्यं हि नो राजन् सर्वेषामेव लक्षये ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कर्ण बोला— दुर्योधन! हम सब लोग तुम्हारी अभिलषित कामनाकी पूर्तिके लिये सचेष्ट हैं। राजन्! इस विषयमें हम सभीका एक मत दिखायी देता है॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नागमिष्यन्ति ते धीरा अकृत्वा कालसंविदम्।
आगमिष्यन्ति चेन्मोहात् पुनर्द्यूतेन तान् जय ॥ १३ ॥

मूलम्

नागमिष्यन्ति ते धीरा अकृत्वा कालसंविदम्।
आगमिष्यन्ति चेन्मोहात् पुनर्द्यूतेन तान् जय ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धीरबुद्धि पाण्डव निश्चित समयकी अवधिको पूर्ण किये बिना यहाँ नहीं आयँगे; और यदि वे मोहवश आ भी जायँ तो तुम पुनः जूएके द्वारा उन्हें जीत लेना॥१३॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तस्तु कर्णेन राजा दुर्योधनस्तदा।
नातिहृष्टमनाः क्षिप्रमभवत् स पराङ्‌मुखः ॥ १४ ॥

मूलम्

एवमुक्तस्तु कर्णेन राजा दुर्योधनस्तदा।
नातिहृष्टमनाः क्षिप्रमभवत् स पराङ्‌मुखः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! कर्णके ऐसा कहनेपर उस समय राजा दुर्योधनको अधिक प्रसन्नता नहीं हुई। उसने तुरंत ही अपना मुँह फेर लिया॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपलभ्य ततः कर्णो विवृत्य नयने शुभे।
रोषाद् दुःशासनं चैव सौबलं च तमेव च ॥ १५ ॥
उवाच परमक्रुद्ध उद्यम्यात्मानमात्मना ।
अथो मम मतं यत् तु तन्निबोधत भूमिपाः ॥ १६ ॥

मूलम्

उपलभ्य ततः कर्णो विवृत्य नयने शुभे।
रोषाद् दुःशासनं चैव सौबलं च तमेव च ॥ १५ ॥
उवाच परमक्रुद्ध उद्यम्यात्मानमात्मना ।
अथो मम मतं यत् तु तन्निबोधत भूमिपाः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब उसके आशयको समझकर कर्णने रोषसे अपनी सुन्दर आँखें फाड़कर दुःशासन, शकुनि और दुर्योधनकी ओर देखते हुए स्वयं ही उत्साहमें भरकर अत्यन्त क्रोधपूर्वक कहा—‘भूमिपालो! इस विषयमें मेरा जो मत है, उसे सुन लो॥१५-१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रियं सर्वे करिष्यामो राज्ञः किङ्करपाणयः।
न चास्य शक्नुमः स्थातुं प्रिये सर्वे ह्यतन्द्रिताः ॥ १७ ॥

मूलम्

प्रियं सर्वे करिष्यामो राज्ञः किङ्करपाणयः।
न चास्य शक्नुमः स्थातुं प्रिये सर्वे ह्यतन्द्रिताः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘हम सब लोग राजा दुर्योधनके किंकर और भुजाएँ हैं; अतः हम सब मिलकर इनका प्रिय कार्य करेंगे; परंतु हम आलस्य छोड़कर इनके प्रियसाधनमें लग नहीं पाते॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वयं तु शस्त्राण्यादाय रथानास्थाय दंशिताः।
गच्छामः सहिता हन्तुं पाण्डवान् वनगोचरान् ॥ १८ ॥

मूलम्

वयं तु शस्त्राण्यादाय रथानास्थाय दंशिताः।
गच्छामः सहिता हन्तुं पाण्डवान् वनगोचरान् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मेरी राय यह है कि हम कवच पहनकर अपने-अपने रथपर आरूढ़ हो अस्त्र-शस्त्र लेकर वनवासी पाण्डवोंको मारनेके लिये एक साथ उनपर धावा करें॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषु सर्वेषु शान्तेषु गतेष्वविदितां गतिम्।
निर्विवादा भविष्यन्ति धार्तराष्ट्रास्तथा वयम् ॥ १९ ॥

मूलम्

तेषु सर्वेषु शान्तेषु गतेष्वविदितां गतिम्।
निर्विवादा भविष्यन्ति धार्तराष्ट्रास्तथा वयम् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जब वे सभी मरकर शान्त जो जायँ और अज्ञात गतिको अर्थात्र परलोकको पहुँच जायँ, तब धृतराष्ट्रके पुत्र तथा हम सब लोग सारे झगड़ोंसे दूर हो जायँगे॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यावदेव परिद्यूना यावच्छोकपरायणाः ।
यावन्मित्रविहीनाश्च तावच्छक्या मतं मम ॥ २० ॥

मूलम्

यावदेव परिद्यूना यावच्छोकपरायणाः ।
यावन्मित्रविहीनाश्च तावच्छक्या मतं मम ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वे जबतक क्लेशमें पड़े हैं, जबतक शोकमें डूबे हुए हैं और जबतक मित्रों एवं सहायकोंसे वंचित हैं, तभीतक युद्धमें जीते जा सकते हैं, मेरा तो यही मत है’॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य तद् वचनं श्रुत्वा पूजयन्तः पुनः पुनः।
बाढमित्येव ते सर्वे प्रत्यूचुः सूतजं तदा ॥ २१ ॥

मूलम्

तस्य तद् वचनं श्रुत्वा पूजयन्तः पुनः पुनः।
बाढमित्येव ते सर्वे प्रत्यूचुः सूतजं तदा ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कर्णकी यह बात सुनकर सबने बार-बार उसकी सराहना की और कर्णकी बातके उत्तरमें सबके मुखसे यही निकला—‘बहुत अच्छा, बहुत अच्छा’॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वा सुसंरब्धा रथैः सर्वे पृथक्पृथक्।
निर्ययुः पाण्डवान् हन्तुं सहिताः कृतनिश्चयाः ॥ २२ ॥

मूलम्

एवमुक्त्वा सुसंरब्धा रथैः सर्वे पृथक्पृथक्।
निर्ययुः पाण्डवान् हन्तुं सहिताः कृतनिश्चयाः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार आपसमें बातचीत करके रोष और जोशमें भरे हुए वे सब पृथक्-पृथक् रथोंपर बैठकर पाण्डवोंके वधका निश्चय करके एक साथ नगरसे बाहर निकले॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तान् प्रस्थितान् परिज्ञाय कृष्णद्वैपायनः प्रभुः।
आजगाम विशुद्धात्मा दृष्ट्वा दिव्येन चक्षुषा ॥ २३ ॥

मूलम्

तान् प्रस्थितान् परिज्ञाय कृष्णद्वैपायनः प्रभुः।
आजगाम विशुद्धात्मा दृष्ट्वा दिव्येन चक्षुषा ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्हें वनकी ओर प्रस्थान करते जान शक्तिशाली महर्षि शुद्धात्मा श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास दिव्य दृष्टिसे सब कुछ देखकर सहसा वहाँ आये॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रतिषिध्याथ तान्‌ सर्वान् भगवाल्ँलोकपूजितः।
प्रज्ञाचक्षुषमासीनमुवाचाभ्येत्य सत्वरम् ॥ २४ ॥

मूलम्

प्रतिषिध्याथ तान्‌ सर्वान् भगवाल्ँलोकपूजितः।
प्रज्ञाचक्षुषमासीनमुवाचाभ्येत्य सत्वरम् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन लोकपूजित भगवान् व्यासने उन सबको रोका और सिंहासनपर बैठे हुए प्रज्ञाचक्षु धृतराष्ट्रके पास शीघ्र आकर कहा॥२४॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि व्यासागमने सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत अरण्यपर्वमें व्यासजीके आगमनसे सम्बन्ध रखनेवाला सातवाँ अध्याय पूरा हुआ॥७॥