श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
षष्ठोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
धृतराष्ट्रका संजयको भेजकर विदुरको वनसे बुलवाना और उनसे क्षमा-प्रार्थना
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
गते तु विदुरे राजन्नाश्रमं पाण्डवान् प्रति।
धृतराष्ट्रो महाप्राज्ञः पर्यतप्यत भारत ॥ १ ॥
मूलम्
गते तु विदुरे राजन्नाश्रमं पाण्डवान् प्रति।
धृतराष्ट्रो महाप्राज्ञः पर्यतप्यत भारत ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! जब विदुरजी पाण्डवोंके आश्रमपर चले गये, तब महाबुद्धिमान् राजा धृतराष्ट्रको बड़ा पश्चात्ताप हुआ॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विदुरस्य प्रभावं च संधिविग्रहकारितम्।
विवृद्धिं च परां मत्वा पाण्डवानां भविष्यति ॥ २ ॥
मूलम्
विदुरस्य प्रभावं च संधिविग्रहकारितम्।
विवृद्धिं च परां मत्वा पाण्डवानां भविष्यति ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने सोचा, विदुर संधि और विग्रह आदिकी नीतिको अच्छी तरह जानते हैं, जिसके कारण उनका बहुत बड़ा प्रभाव है। वे पाण्डवोंके पक्षमें हो गये तो भविष्यमें उनका महान् अभ्युदय होगा॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स सभाद्वारमागम्य विदुरस्मारमोहितः ।
समक्षं पार्थिवेन्द्राणां पपाताविष्टचेतनः ॥ ३ ॥
मूलम्
स सभाद्वारमागम्य विदुरस्मारमोहितः ।
समक्षं पार्थिवेन्द्राणां पपाताविष्टचेतनः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विदुरका स्मरण करके वे मोहित-से हो गये और सभाभवनके द्वारपर आकर सब राजाओंके देखते-देखते अचेत होकर पृथ्वीपर गिर पड़े॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तु लब्ध्वा पुनः संज्ञां समुत्थाय महीतलात्।
समीपोपस्थितं राजा संजयं वाक्यमब्रवीत् ॥ ४ ॥
मूलम्
स तु लब्ध्वा पुनः संज्ञां समुत्थाय महीतलात्।
समीपोपस्थितं राजा संजयं वाक्यमब्रवीत् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर होशमें आनेपर वे पृथ्वीसे उठ खड़े हुए और समीप आये हुए संजयसे इस प्रकार बोले—॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भ्राता मम सुहृच्चैव साक्षाद् धर्म इवापरः।
तस्य स्मृत्याद्य सुभृशं हृदयं दीर्यतीव मे ॥ ५ ॥
मूलम्
भ्राता मम सुहृच्चैव साक्षाद् धर्म इवापरः।
तस्य स्मृत्याद्य सुभृशं हृदयं दीर्यतीव मे ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘संजय! विदुर मेरे भाई और सुहृद् हैं। वे साक्षात् दूसरे धर्मके समान हैं। उनकी याद आनेसे आज मेरा हृदय अत्यन्त विदीर्ण-सा होने लगा है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमानयस्व धर्मज्ञं मम भ्रातरमाशु वै।
इति ब्रुवन् स नृपतिः कृपणं पर्यदेवयत् ॥ ६ ॥
मूलम्
तमानयस्व धर्मज्ञं मम भ्रातरमाशु वै।
इति ब्रुवन् स नृपतिः कृपणं पर्यदेवयत् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तुम मेरे धर्मज्ञ भ्राता विदुरको शीघ्र यहाँ बुला लाओ।’ ऐसा कहते हुए राजा धृतराष्ट्र दीनभावसे फूट-फूटकर रोने लगे॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पश्चात्तापाभिसंतप्तो विदुरस्मारमोहितः ।
भ्रातृस्नेहादिदं राजा संजयं वाक्यमब्रवीत् ॥ ७ ॥
मूलम्
पश्चात्तापाभिसंतप्तो विदुरस्मारमोहितः ।
भ्रातृस्नेहादिदं राजा संजयं वाक्यमब्रवीत् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज धृतराष्ट्र विदुरकी याद आनेसे मोहित हो पश्चात्तापसे खिन्न हो उठे और भ्रातृस्नेहवश संजयसे पुनः इस प्रकार बोले—॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गच्छ संजय जानीहि भ्रातरं विदुरं मम।
यदि जीवति रोषेण मया पापेन निर्धुतः ॥ ८ ॥
मूलम्
गच्छ संजय जानीहि भ्रातरं विदुरं मम।
यदि जीवति रोषेण मया पापेन निर्धुतः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय! जाओ, मेरे भाई विदुरका पता लगाओ। मुझ पापीने क्रोधवश उन्हें निकाल दिया। वे जीवित तो हैं न?॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हि तेन मम भ्रात्रा सुसूक्ष्ममपि किंचन।
व्यलीकं कृतपूर्वं वै प्राज्ञेनामितबुद्धिना ॥ ९ ॥
मूलम्
न हि तेन मम भ्रात्रा सुसूक्ष्ममपि किंचन।
व्यलीकं कृतपूर्वं वै प्राज्ञेनामितबुद्धिना ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अपरिमित बुद्धिवाले मेरे उन विद्वान् भाईने पहले कभी कोई छोटा-सा भी अपराध नहीं किया है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स व्यलीकं परं प्राप्तो मत्तः परमबुद्धिमान्।
त्यक्ष्यामि जीवितं प्राज्ञ तं गच्छानय संजय ॥ १० ॥
मूलम्
स व्यलीकं परं प्राप्तो मत्तः परमबुद्धिमान्।
त्यक्ष्यामि जीवितं प्राज्ञ तं गच्छानय संजय ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘बुद्धिमान् संजय! मुझसे परम मेधावी विदुरका बड़ा अपराध हुआ। तुम जाकर उन्हें ले आओ, नहीं तो मैं प्राण त्याग दूँगा’॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा राज्ञस्तमनुमान्य च।
संजयो बाढमित्युक्त्वा प्राद्रवत् काम्यकं प्रति ॥ ११ ॥
सोऽचिरेण समासाद्य तद् वनं यत्र पाण्डवाः।
रौरवाजिनसंवीतं ददर्शाथ युधिष्ठिरम् ॥ १२ ॥
विदुरेण सहासीनं ब्राह्मणैश्च सहस्रशः।
भ्रातृभिश्चाभिसंगुप्तं देवैरिव पुरंदरम् ॥ १३ ॥
मूलम्
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा राज्ञस्तमनुमान्य च।
संजयो बाढमित्युक्त्वा प्राद्रवत् काम्यकं प्रति ॥ ११ ॥
सोऽचिरेण समासाद्य तद् वनं यत्र पाण्डवाः।
रौरवाजिनसंवीतं ददर्शाथ युधिष्ठिरम् ॥ १२ ॥
विदुरेण सहासीनं ब्राह्मणैश्च सहस्रशः।
भ्रातृभिश्चाभिसंगुप्तं देवैरिव पुरंदरम् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाका यह वचन सुनकर संजयने उनका आदर करते हुए ‘बहुत अच्छा’ कहकर काम्यकवनको प्रस्थान किया। जहाँ पाण्डव रहते थे, उस वनमें शीघ्र ही पहुँचकर संजयने देखा, राजा युधिष्ठिर मृगचर्म धारण करके विदुरजी तथा सहस्रों ब्राह्मणोंके साथ बैठे हुए हैं। और देवताओंसे घिरे हुए इन्द्रकी भाँति अपने भाइयोंसे सुरक्षित हैं॥११—१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
युधिष्ठिरमुपागम्य पूजयामास संजयः ।
भीमार्जुनयमाश्चापि तद्युक्तं प्रतिपेदिरे ॥ १४ ॥
मूलम्
युधिष्ठिरमुपागम्य पूजयामास संजयः ।
भीमार्जुनयमाश्चापि तद्युक्तं प्रतिपेदिरे ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरके पास पहुँचकर संजयने उनका सम्मान किया। फिर भीम, अर्जुन और नकुल-सहदेवने संजयका यथोचित सत्कार किया॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राज्ञा पृष्टः स कुशलं सुखासीनश्च संजयः।
शशंसागमने हेतुमिदं चैवाब्रवीद् वचः ॥ १५ ॥
मूलम्
राज्ञा पृष्टः स कुशलं सुखासीनश्च संजयः।
शशंसागमने हेतुमिदं चैवाब्रवीद् वचः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा युधिष्ठिरके कुशल-प्रश्न करनेके पश्चात् जब संजय सुखपूर्वक बैठ गया, तब अपने आनेका कारण बताते हुए उसने इस प्रकार कहा॥१५॥
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजा स्मरति ते क्षत्तर्धृतराष्ट्रोऽम्बिकासुतः।
तं पश्य गत्वा त्वं क्षिप्रं संजीवय च पार्थिवम्॥१६॥
मूलम्
राजा स्मरति ते क्षत्तर्धृतराष्ट्रोऽम्बिकासुतः।
तं पश्य गत्वा त्वं क्षिप्रं संजीवय च पार्थिवम्॥१६॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजयने कहा— विदुरजी! अम्बिकानन्दन महाराज धृतराष्ट्र आपको स्मरण करते हैं। आप जल्दी चलकर उनसे मिलिये और उन्हें जीवनदान दीजिये॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽनुमान्य नरश्रेष्ठान् पाण्डवान् कुरुनन्दनान्।
नियोगाद् राजसिंहस्य गन्तुमर्हसि सत्तम ॥ १७ ॥
मूलम्
सोऽनुमान्य नरश्रेष्ठान् पाण्डवान् कुरुनन्दनान्।
नियोगाद् राजसिंहस्य गन्तुमर्हसि सत्तम ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
साधुशिरोमणे! आप कुरुकुलको आनन्दित करनेवाले इन नरश्रेष्ठ पाण्डवोंसे आदरपूर्वक विदा लेकर महाराजके आदेशसे शीघ्र उनके पास चलें॥१७॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तस्तु विदुरो धीमान् स्वजनवल्लभः।
युधिष्ठिरस्यानुमते पुनरायाद् गजाह्वयम् ॥ १८ ॥
तमब्रवीन्महातेजा धृतराष्ट्रोऽम्बिकासुतः ।
दिष्ट्या प्राप्तोऽसि धर्मज्ञ दिष्ट्या स्मरसि मेऽनघ ॥ १९ ॥
मूलम्
एवमुक्तस्तु विदुरो धीमान् स्वजनवल्लभः।
युधिष्ठिरस्यानुमते पुनरायाद् गजाह्वयम् ॥ १८ ॥
तमब्रवीन्महातेजा धृतराष्ट्रोऽम्बिकासुतः ।
दिष्ट्या प्राप्तोऽसि धर्मज्ञ दिष्ट्या स्मरसि मेऽनघ ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! स्वजनोंके परम प्रिय बुद्धिमान् विदुरजीसे जब संजयने इस प्रकार कहा, तब वे युधिष्ठिरकी अनुमति लेकर फिर हस्तिनापुरमें आये। वहाँ महातेजस्वी अम्बिकानन्दन धृतराष्ट्रने उनसे कहा—‘धर्मज्ञ विदुर! तुम आ गये, यह मेरे बड़े सौभाग्यकी बात है। अनघ! यह भी मेरे सौभाग्यकी बात है कि तुम मुझे भूले नहीं॥१८-१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अद्य रात्रौ दिवा चाहं त्वत्कृते भरतर्षभ।
प्रजागरे प्रपश्यामि विचित्रं देहमात्मनः ॥ २० ॥
मूलम्
अद्य रात्रौ दिवा चाहं त्वत्कृते भरतर्षभ।
प्रजागरे प्रपश्यामि विचित्रं देहमात्मनः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भरतकुलभूषण! मैं आज दिन-रात तुम्हारे लिये जागते रहनेके कारण अपने शरीरकी विचित्र दशा देख रहा हूँ’॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽङ्कमानीय विदुरं मूर्धन्याघ्राय चैव ह।
क्षम्यतामिति चोवाच यदुक्तोऽसि मयानघ ॥ २१ ॥
मूलम्
सोऽङ्कमानीय विदुरं मूर्धन्याघ्राय चैव ह।
क्षम्यतामिति चोवाच यदुक्तोऽसि मयानघ ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा कहकर राजा धृतराष्ट्रने विदुरको अपने हृदयसे लगा लिया और उनका मस्तक सूँघते हुए कहा—‘निष्पाप विदुर! मैंने तुमसे जो अप्रिय बात कह दी है, उसके लिये मुझे क्षमा करो’॥२१॥
मूलम् (वचनम्)
विदुर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षान्तमेव मया राजन् गुरुर्मे परमो भवान्।
एषोऽहमागतः शीघ्रं त्वद्दर्शनपरायणः ॥ २२ ॥
भवन्ति हि नरव्याघ्र पुरुषा धर्मचेतसः।
दीनाभिपातिनो राजन् नात्र कार्या विचारणा ॥ २३ ॥
मूलम्
क्षान्तमेव मया राजन् गुरुर्मे परमो भवान्।
एषोऽहमागतः शीघ्रं त्वद्दर्शनपरायणः ॥ २२ ॥
भवन्ति हि नरव्याघ्र पुरुषा धर्मचेतसः।
दीनाभिपातिनो राजन् नात्र कार्या विचारणा ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विदुरने कहा— राजन्! मैंने तो सब क्षमा कर ही दिया है। आप मेरे परम गुरु हैं। मैं शीघ्रतापूर्वक आपके दर्शनके लिये आया हूँ। नरश्रेष्ठ! धर्मात्मा पुरुष दीन जनोंकी ओर अधिक झुकते हैं। आपको इसके लिये मनमें विचार नहीं करना चाहिये॥२२-२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाण्डोः सुता यादृशा मे तादृशास्तव भारत।
दीना इतीव मे बुद्धिरभिपन्नाद्य तान् प्रति ॥ २४ ॥
मूलम्
पाण्डोः सुता यादृशा मे तादृशास्तव भारत।
दीना इतीव मे बुद्धिरभिपन्नाद्य तान् प्रति ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! मेरे लिये जैसे पाण्डुके पुत्र हैं, वैसे ही आपके भी। परंतु पाण्डव इन दिनों दीन दशामें हैं, अतः उनके प्रति मेरे हृदयका झुकाव हो गया॥२४॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्योन्यमनुनीयैवं भ्रातरौ द्वौ महाद्युती।
विदुरो धृतराष्ट्रश्च लेभाते परमां मुदम् ॥ २५ ॥
मूलम्
अन्योन्यमनुनीयैवं भ्रातरौ द्वौ महाद्युती।
विदुरो धृतराष्ट्रश्च लेभाते परमां मुदम् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! वे दोनों महातेजस्वी भाई विदुर और धृतराष्ट्र एक-दूसरेसे अनुनय-विनय करके अत्यन्त प्रसन्न हो गये॥२५॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि विदुरप्रत्यागमने षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत अरण्यपर्वमें विदुरप्रत्यागमनविषयक छठा अध्याय पूरा हुआ॥६॥