००५ विदुरनिर्वासः

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

पञ्चमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

पाण्डवोंका काम्यकवनमें प्रवेश और विदुरजीका वहाँ जाकर उनसे मिलना और बातचीत करना

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाण्डवास्तु वने वासमुद्दिश्य भरतर्षभाः।
प्रययुर्जाह्नवीकूलात् कुरुक्षेत्रं सहानुगाः ॥ १ ॥

मूलम्

पाण्डवास्तु वने वासमुद्दिश्य भरतर्षभाः।
प्रययुर्जाह्नवीकूलात् कुरुक्षेत्रं सहानुगाः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! भरतवंश-शिरोमणि पाण्डव वनवासके लिये गंगाजीके तटसे अपने साथियोंसहित कुरुक्षेत्रमें गये॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सरस्वतीदृषद्वत्यौ यमुनां च निषेव्य ते।
ययुर्वनेनैव वनं सततं पश्चिमां दिशम् ॥ २ ॥

मूलम्

सरस्वतीदृषद्वत्यौ यमुनां च निषेव्य ते।
ययुर्वनेनैव वनं सततं पश्चिमां दिशम् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने क्रमशः सरस्वती, दृषद्वती और यमुना नदीका सेवन करते हुए एक वनसे दूसरे वनमें प्रवेश किया। इस प्रकार वे निरन्तर पश्चिम दिशाकी ओर बढ़ते गये॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः सरस्वतीकूले समेषु मरुधन्वसु।
काम्यकं नाम ददृशुर्वनं मुनिजनप्रियम् ॥ ३ ॥

मूलम्

ततः सरस्वतीकूले समेषु मरुधन्वसु।
काम्यकं नाम ददृशुर्वनं मुनिजनप्रियम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर सरस्वती-तट तथा मरुभूमि एवं वन्य प्रदेशोंकी यात्रा करते हुए उन्होंने काम्यकवनका दर्शन किया, जो ऋषि-मुनियोंके समुदायको बहुत ही प्रिय था॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र ते न्यवसन् वीरा वने बहुमृगद्विजे।
अन्वास्यमाना मुनिभिः सान्त्व्यमानाश्च भारत ॥ ४ ॥

मूलम्

तत्र ते न्यवसन् वीरा वने बहुमृगद्विजे।
अन्वास्यमाना मुनिभिः सान्त्व्यमानाश्च भारत ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! उस वनमें बहुत-से पशु-पक्षी निवास करते थे। वहाँ मुनियोंने उन्हें बिठाया और बहुत सान्त्वना दी। फिर वे वीर पाण्डव वहीं रहने लगे॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विदुरस्त्वथ पाण्डूनां सदा दर्शनलालसः।
जगामैकरथेनैव काम्यकं वनमृद्धिमत् ॥ ५ ॥

मूलम्

विदुरस्त्वथ पाण्डूनां सदा दर्शनलालसः।
जगामैकरथेनैव काम्यकं वनमृद्धिमत् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इधर विदुरजी सदा पाण्डवोंको देखनेके लिये उत्सुक रहा करते थे। वे एकमात्र रथके द्वारा काम्यकवनमें गये, जो वनोचित सम्पत्तियोंसे भरा-पूरा था॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो गत्वा विदुरः काम्यकं त-
च्छीघ्रैरश्वैर्वाहिना स्यन्दनेन ।
ददर्शासीनं धर्मात्मानं विविक्ते
सार्धं द्रौपद्या भ्रातृभिर्ब्राह्मणैश्च ॥ ६ ॥

मूलम्

ततो गत्वा विदुरः काम्यकं त-
च्छीघ्रैरश्वैर्वाहिना स्यन्दनेन ।
ददर्शासीनं धर्मात्मानं विविक्ते
सार्धं द्रौपद्या भ्रातृभिर्ब्राह्मणैश्च ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शीघ्रगामी अश्वोंद्वारा खींचे जानेवाले रथसे काम्यक-वनमें पहुँचकर विदुरजीने देखा धर्मात्मा युधिष्ठिर एकान्त प्रदेशमें द्रौपदी, भाइयों तथा ब्राह्मणोंके साथ बैठे हैं॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽपश्यद् विदुरं तूर्णमारा-
दभ्यायान्तं सत्यसंधः स राजा।
अथाब्रवीद् भ्रातरं भीमसेनं
किं नु क्षत्ता वक्ष्यति नः समेत्य ॥ ७ ॥

मूलम्

ततोऽपश्यद् विदुरं तूर्णमारा-
दभ्यायान्तं सत्यसंधः स राजा।
अथाब्रवीद् भ्रातरं भीमसेनं
किं नु क्षत्ता वक्ष्यति नः समेत्य ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सत्यप्रतिज्ञ राजा युधिष्ठिरने जब बड़ी उतावलीके साथ विदुरजीको अपने निकट आते देखा तब भाई भीमसेनसे कहा—‘ये विदुरजी हमारे पास आकर न जाने क्या कहेंगे॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कच्चिन्नायं वचनात् सौबलस्य
समाह्वाता देवनायोपयातः ।
कच्चित् क्षुद्रः शकुनिर्नायुधानि
जेष्यत्यस्मान् पुनरेवाक्षवत्याम् ॥ ८ ॥

मूलम्

कच्चिन्नायं वचनात् सौबलस्य
समाह्वाता देवनायोपयातः ।
कच्चित् क्षुद्रः शकुनिर्नायुधानि
जेष्यत्यस्मान् पुनरेवाक्षवत्याम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ये शकुनिके कहनेसे हमें फिर जूआ खेलनेके लिये बुलाने तो नहीं आ रहे हैं। कहीं नीच शकुनि हमें फिर द्यूत-सभामें बुलाकर हमारे आयुधोंको तो जीत नहीं लेगा॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समाहूतः केनचिदाद्रवेति
नाहं शक्तो भीमसेनापयातुम् ।
गाण्डीवे च संशयिते कथं नु
राज्यप्राप्तिः संशयिता भवेन्नः ॥ ९ ॥

मूलम्

समाहूतः केनचिदाद्रवेति
नाहं शक्तो भीमसेनापयातुम् ।
गाण्डीवे च संशयिते कथं नु
राज्यप्राप्तिः संशयिता भवेन्नः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भीमसेन! आओ, कहकर यदि कोई मुझे (युद्ध या द्यूतके लिये) बुलावे तो मैं पीछे नहीं हट सकता। ऐसी दशामें यदि हम गाण्डीव धनुष किसी तरह जूएमें हार गये तो हमारी राज्य-प्राप्ति संशयमें पड़ जायगी’॥९॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत उत्थाय विदुरं पाण्डवेयाः
प्रत्यगृह्णन् नृपते सर्व एव।
तैः सत्कृतः स च तानाजमीढो
यथोचितं पाण्डुपुत्रान् समेयात् ॥ १० ॥

मूलम्

तत उत्थाय विदुरं पाण्डवेयाः
प्रत्यगृह्णन् नृपते सर्व एव।
तैः सत्कृतः स च तानाजमीढो
यथोचितं पाण्डुपुत्रान् समेयात् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! तदनन्तर सब पाण्डवोंने उठकर विदुरजीकी अगवानी की। उनके द्वारा किया हुआ यथोचित स्वागत-सत्कार ग्रहण करके अजमीढवंशी विदुर पाण्डवोंसे मिले॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समाश्वस्तं विदुरं ते नरर्षभा-
स्ततोऽपृच्छन्नागमनाय हेतुम् ।
स चापि तेभ्यो विस्तरतः शशंस
यथावृत्तो धृतराष्ट्रोऽम्बिकेयः ॥ ११ ॥

मूलम्

समाश्वस्तं विदुरं ते नरर्षभा-
स्ततोऽपृच्छन्नागमनाय हेतुम् ।
स चापि तेभ्यो विस्तरतः शशंस
यथावृत्तो धृतराष्ट्रोऽम्बिकेयः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विदुरजीके आदर-सत्कार पानेपर नरश्रेष्ठ पाण्डवोंने उनसे वनमें आनेका कारण पूछा। उनके पूछनेपर विदुरने भी अम्बिकानन्दन राजा धृतराष्ट्रने जैसा बर्ताव किया था, वह सब विस्तारपूर्वक कह सुनाया॥११॥

मूलम् (वचनम्)

विदुर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवोचन्मां धृतराष्ट्रोऽनुगुप्त-
मजातशत्रो परिगृह्याभिपूज्य ।
एवं गते समतामभ्युपेत्य
पथ्यं तेषां मम चैव ब्रवीहि ॥ १२ ॥

मूलम्

अवोचन्मां धृतराष्ट्रोऽनुगुप्त-
मजातशत्रो परिगृह्याभिपूज्य ।
एवं गते समतामभ्युपेत्य
पथ्यं तेषां मम चैव ब्रवीहि ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विदुरजी बोले— अजातशत्रो! राजा धृतराष्ट्रने मुझे अपना रक्षक समझकर बुलाया और मेरा आदर करके कहा—‘विदुर! आजकी परिस्थितिमें समभाव रखकर तुम ऐसा कोई उपाय बताओ जो मेरे और पाण्डवोंके लिये हितकर हो’॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मयाप्युक्तं यत् क्षेमं कौरवाणां
हितं पथ्यं धृतराष्ट्रस्य चैव।
तद् वै तस्मै न रुचामभ्युपैति
ततश्चाहं क्षेममन्यन्न मन्ये ॥ १३ ॥

मूलम्

मयाप्युक्तं यत् क्षेमं कौरवाणां
हितं पथ्यं धृतराष्ट्रस्य चैव।
तद् वै तस्मै न रुचामभ्युपैति
ततश्चाहं क्षेममन्यन्न मन्ये ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब मैंने भी ऐसी बातें बतायीं जो सर्वथा उचित तथा कौरववंश एवं धृतराष्ट्रके लिये भी हितकर और लाभदायक थीं। वह बात उनको नहीं रुची और मैं उसके सिवा दूसरी कोई बात उचित नहीं समझता था॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परं श्रेयः पाण्डवेया मयोक्तं
न मे तच्च श्रुतवानाम्बिकेयः।
यथाऽऽतुरस्येव हि पथ्यमन्नं
न रोचते स्मास्य तदुच्यमानम् ॥ १४ ॥

मूलम्

परं श्रेयः पाण्डवेया मयोक्तं
न मे तच्च श्रुतवानाम्बिकेयः।
यथाऽऽतुरस्येव हि पथ्यमन्नं
न रोचते स्मास्य तदुच्यमानम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डवो! मैंने दोनों पक्षके लिये परम कल्याणकी बात बतायी थी, परंतु अम्बिकानन्दन महाराज धृतराष्ट्रने मेरी वह बात नहीं सुनी। जैसे रोगीको हितकर भोजन अच्छा नहीं लगता, उसी प्रकार राजा धृतराष्ट्रको मेरी कही हुई हितकर बात भी पसंद नहीं आती॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न श्रेयसे नीयतेऽजातशत्रो
स्त्री श्रोत्रियस्येव गृहे प्रदुष्टा।
ध्रुवं न रोचेद् भरतर्षभस्य
पतिः कुमार्या इव षष्टिवर्षः ॥ १५ ॥

मूलम्

न श्रेयसे नीयतेऽजातशत्रो
स्त्री श्रोत्रियस्येव गृहे प्रदुष्टा।
ध्रुवं न रोचेद् भरतर्षभस्य
पतिः कुमार्या इव षष्टिवर्षः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अजातशत्रो! जैसे श्रोत्रियके घरकी दुष्टा स्त्री श्रेयके मार्गपर नहीं लायी जा सकती, उसी प्रकार राजा धृतराष्ट्रको कल्याणके मार्गपर लाना असम्भव है। जैसे कुमारी कन्याको साठ वर्षका बूढ़ा पति अच्छा नहीं लगता, उसी प्रकार भरतश्रेष्ठ धृतराष्ट्रको मेरी कही हुई बात निश्चय ही नहीं रुचती॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ध्रुवं विनाशो नृप कौरवाणां
न वै श्रेयो धृतराष्ट्रः परैति।
यथा च पर्णे पुष्करस्यावसिक्तं
जलं न तिष्ठेत्‌ पथ्यमुक्तं तथास्मिन् ॥ १६ ॥

मूलम्

ध्रुवं विनाशो नृप कौरवाणां
न वै श्रेयो धृतराष्ट्रः परैति।
यथा च पर्णे पुष्करस्यावसिक्तं
जलं न तिष्ठेत्‌ पथ्यमुक्तं तथास्मिन् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! राजा धृतराष्ट्र कल्याणकारी उपाय नहीं ग्रहण करते हैं, अतः यह निश्चय जान पड़ता है कि कौरवकुलका विनाश अवश्यम्भावी है। जैसे कमलके पत्तेपर डाला हुआ जल नहीं ठहर सकता, उसी प्रकार कही हुई हितकर बात राजा धृतराष्ट्रके मनमें स्थान नहीं पाती है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः क्रुद्धो धृतराष्ट्रोऽब्रवीन्मां
यस्मिन् श्रद्धा भारत तत्र याहि।
नाहं भूयः कामये त्वां सहायं
महीमिमां पालयितुं पुरं वा ॥ १७ ॥

मूलम्

ततः क्रुद्धो धृतराष्ट्रोऽब्रवीन्मां
यस्मिन् श्रद्धा भारत तत्र याहि।
नाहं भूयः कामये त्वां सहायं
महीमिमां पालयितुं पुरं वा ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय राजा धृतराष्ट्रने कुपित होकर मुझसे कहा—‘भारत! जिसपर तुम्हारी श्रद्धा हो वहीं चले जाओ। अब मैं इस राज्य अथवा नगरका पालन करनेके लिये तुम्हारी सहायता नहीं चाहता’॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽहं त्यक्तो धृतराष्ट्रेण राज्ञा
प्रशासितुं त्वामुपयातो नरेन्द्र ।
तद् वै सर्वं यन्मयोक्तं सभायां
तद् धार्यतां यत् प्रवक्ष्यामि भूयः ॥ १८ ॥

मूलम्

सोऽहं त्यक्तो धृतराष्ट्रेण राज्ञा
प्रशासितुं त्वामुपयातो नरेन्द्र ।
तद् वै सर्वं यन्मयोक्तं सभायां
तद् धार्यतां यत् प्रवक्ष्यामि भूयः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेन्द्र! इस प्रकार राजा धृतराष्ट्रने मुझे त्याग दिया है; अतः मैं तुम्हें उपदेश देनेके लिये आया हूँ। मैंने सभामें जो कुछ कहा था और पुनः इस समय जो कुछ कह रहा हूँ, वह सब तुम धारण करो॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्लेशैस्तीव्रैर्युज्यमानः सपत्नैः
क्षमां कुर्वन् कालमुपासते यः।
संवर्धयन् स्तोकमिवाग्निमात्मवान्
स वै भुङ्क्ते पृथिवीमेक एव ॥ १९ ॥

मूलम्

क्लेशैस्तीव्रैर्युज्यमानः सपत्नैः
क्षमां कुर्वन् कालमुपासते यः।
संवर्धयन् स्तोकमिवाग्निमात्मवान्
स वै भुङ्क्ते पृथिवीमेक एव ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो शत्रुओंद्वारा दुःसह कष्ट दिये जानेपर भी क्षमा करते हुए अनुकूल अवसरकी प्रतीक्षा करता है; तथा जिस प्रकार थोड़ी-सी आगको भी लोग घास-फूसके द्वारा प्रज्वलित करके बढ़ा लेते हैं, वैसे ही जो मनको वशमें रखकर अपनी शक्ति और सहायकोंको बढ़ाता है, वह अकेला ही सारी पृथ्वीका उपभोग करता है॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्याविभक्तं वसु राजन् सहायै-
स्तस्य दुःखेऽप्यंशभाजः सहायाः ।
सहायानामेष संग्रहणेऽध्युपायः
सहायाप्तौ पृथिवीप्राप्तिमाहुः ॥ २० ॥

मूलम्

यस्याविभक्तं वसु राजन् सहायै-
स्तस्य दुःखेऽप्यंशभाजः सहायाः ।
सहायानामेष संग्रहणेऽध्युपायः
सहायाप्तौ पृथिवीप्राप्तिमाहुः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! जिसका धन सहायकोंके लिये बँटा नहीं है; अर्थात् जिसके धनको सहायक भी अपना ही समझकर भोगते हैं, उसके दुःखमें भी वे सब लोग हिस्सा बँटाते हैं। सहायकोंके संग्रहका यही उपाय है। सहायकोंकी प्राप्ति हो जानेपर पृथ्वीकी ही प्राप्ति हो गयी, ऐसा कहा जाता है॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्यं श्रेष्ठं पाण्डव विप्रलापं
तुल्यं चान्नं सह भोज्यं सहायैः।
आत्मा चैषामग्रतो न स्म पूज्य
एवंवृत्तिर्वर्धते भूमिपालः ॥ २१ ॥

मूलम्

सत्यं श्रेष्ठं पाण्डव विप्रलापं
तुल्यं चान्नं सह भोज्यं सहायैः।
आत्मा चैषामग्रतो न स्म पूज्य
एवंवृत्तिर्वर्धते भूमिपालः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डुनन्दन! व्यर्थकी बकवादसे रहित सत्य बोलना ही श्रेष्ठ है। अपने सहायक भाई-बन्धुओंके साथ बैठकर समान अन्नका भोजन करना चाहिये। उन सबके आगे अपनी मान-बड़ाई तथा पूजाकी बातें नहीं करनी चाहिये। ऐसा बर्ताव करनेवाला भूपाल सदा उन्नतिशील होता है॥२१॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं करिष्यामि यथा ब्रवीषि
परां बुद्धिमुपगम्याप्रमत्तः ।
यच्चाप्यन्यद्देशकालोपपन्नं
तद् वै वाच्यं तत् करिष्यामि कृत्स्नम् ॥ २२ ॥

मूलम्

एवं करिष्यामि यथा ब्रवीषि
परां बुद्धिमुपगम्याप्रमत्तः ।
यच्चाप्यन्यद्देशकालोपपन्नं
तद् वै वाच्यं तत् करिष्यामि कृत्स्नम् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— विदुरजी! मैं उत्तम बुद्धिका आश्रय ले सतत सावधान रहकर आप जैसा कहते हैं वैसा ही करूँगा। और भी देश-कालके अनुसार आप जो कर्तव्य उचित समझें, वह बतावें। मैं उसका पूर्णरूपसे पालन करूँगा॥२२॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि विदुरनिर्वासे पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत अरण्यपर्वमें विदुरनिर्वासनविषयक पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५॥