००२ शौनकादिब्राह्मणोपदेशः

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

द्वितीयोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

धनके दोष, अतिथिसत्कारकी महत्ता तथा कल्याणके उपायोंके विषयमें धर्मराज युधिष्ठिरसे ब्राह्मणों तथा शौनकजीकी बातचीत

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभातायां तु शर्वर्यां तेषामक्लिष्टकर्मणाम्।
वनं यियासतां विप्रास्तस्थुर्भिक्षाभुजोऽग्रतः ॥ १ ॥

मूलम्

प्रभातायां तु शर्वर्यां तेषामक्लिष्टकर्मणाम्।
वनं यियासतां विप्रास्तस्थुर्भिक्षाभुजोऽग्रतः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! जब रात बीती और प्रभातका उदय हुआ तथा अनायास ही महान् पराक्रम करनेवाले पाण्डव वनकी ओर जानेके लिये उद्यत हुए, उस समय भिक्षान्नभोजी ब्राह्मण साथ चलनेके लिये उनके सामने खड़े हो गये॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तानुवाच ततो राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
वयं हि हृतसर्वस्वा हृतराज्या हृतश्रियः ॥ २ ॥
फलमूलाशनाहारा वनं गच्छाम दुःखिताः।
वनं च दोषबहुलं बहुव्यालसरीसृपम् ॥ ३ ॥

मूलम्

तानुवाच ततो राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
वयं हि हृतसर्वस्वा हृतराज्या हृतश्रियः ॥ २ ॥
फलमूलाशनाहारा वनं गच्छाम दुःखिताः।
वनं च दोषबहुलं बहुव्यालसरीसृपम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिरने उनसे कहा—‘ब्राह्मणो! हमारा राज्य, लक्ष्मी और सर्वस्व जूएमें हरण कर लिया गया है। हम फल, मूल तथा अन्नके आहार-पर रहनेका निश्चय करके दुःखी होकर वनमें जा रहे हैं। वनमें बहुत-से दोष हैं। वहाँ सर्प-बिच्छू आदि असंख्य भयंकर जन्तु हैं॥२-३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परिक्लेशश्च वो मन्ये ध्रुवं तत्र भविष्यति।
ब्राह्मणानां परिक्लेशो दैवतान्यपि सादयेत्।
किं पुनर्मामितो विप्रा निवर्तध्वं यथेष्टतः ॥ ४ ॥

मूलम्

परिक्लेशश्च वो मन्ये ध्रुवं तत्र भविष्यति।
ब्राह्मणानां परिक्लेशो दैवतान्यपि सादयेत्।
किं पुनर्मामितो विप्रा निवर्तध्वं यथेष्टतः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं समझता हूँ, वहाँ आपलोगोंको अवश्य ही महान् कष्टका सामना करना पड़ेगा। ब्राह्मणोंको दिया हुआ क्लेश तो देवताओंका भी विनाश कर सकता है, फिर मेरी तो बात ही क्या है? अतः ब्राह्मणो! आपलोग यहाँसे अपने अभीष्ट स्थानको लौट जायँ’॥४॥

मूलम् (वचनम्)

ब्राह्मणा ऊचुः

विश्वास-प्रस्तुतिः

गतिर्या भवतां राजंस्तां वयं गन्तुमुद्यताः।
नार्हस्यस्मान् परित्यक्तुं भक्तान् सद्धर्मदर्शिनः ॥ ५ ॥

मूलम्

गतिर्या भवतां राजंस्तां वयं गन्तुमुद्यताः।
नार्हस्यस्मान् परित्यक्तुं भक्तान् सद्धर्मदर्शिनः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणोंने कहा— राजन्! आपकी जो गति होगी उसे भुगतनेके लिये हम भी उद्यत हैं। हम आपके भक्त तथा उत्तम धर्मपर दृष्टि रखनेवाले हैं। इसलिये आपको हमारा परित्याग नहीं करना चाहिये॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनुकम्पां हि भक्तेषु देवता ह्यपि कुर्वते।
विशेषतो ब्राह्मणेषु सदाचारावलम्बिषु ॥ ६ ॥

मूलम्

अनुकम्पां हि भक्तेषु देवता ह्यपि कुर्वते।
विशेषतो ब्राह्मणेषु सदाचारावलम्बिषु ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवता भी अपने भक्तोंपर विशेषतः सदाचारपरायण ब्राह्मणोंपर तो अवश्य ही दया करते हैं॥६॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ममापि परमा भक्तिर्ब्राह्मणेषु सदा द्विजाः।
सहायविपरिभ्रंशस्त्वयं सादयतीव माम् ॥ ७ ॥
आहरेयुरिमे येऽपि फलमूलमधूनि च।
त इमे शोकजैर्दुःखैर्भ्रातरो मे विमोहिताः ॥ ८ ॥

मूलम्

ममापि परमा भक्तिर्ब्राह्मणेषु सदा द्विजाः।
सहायविपरिभ्रंशस्त्वयं सादयतीव माम् ॥ ७ ॥
आहरेयुरिमे येऽपि फलमूलमधूनि च।
त इमे शोकजैर्दुःखैर्भ्रातरो मे विमोहिताः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— विप्रगण! मेरे मनमें भी ब्राह्मणोंके प्रति उत्तम भक्ति है, किंतु यह सब प्रकारके सहायक साधनोंका अभाव ही मुझे दुःखमग्न-सा किये देता है। जो फल-मूल एवं शहद आदि आहार जुटाकर ला सकते थे वे ही ये मेरे भाई शोकजनित दुःखसे मोहित हो रहे हैं॥७-८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्रौपद्या विप्रकर्षेण राज्यापहरणेन च।
दुःखार्दितानिमान् क्लेशैर्नाहं योक्तुमिहोत्सहे ॥ ९ ॥

मूलम्

द्रौपद्या विप्रकर्षेण राज्यापहरणेन च।
दुःखार्दितानिमान् क्लेशैर्नाहं योक्तुमिहोत्सहे ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्रौपदीके अपमान तथा राज्यके अपहरणके कारण ये दुःखसे पीडित हो रहे हैं, अतः मैं इन्हें (आहार जुटानेका आदेश देकर) अधिक क्लेशमें नहीं डालना चाहता॥९॥

मूलम् (वचनम्)

ब्राह्मणा ऊचुः

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्मत्पोषणजा चिन्ता मा भूत् ते हृदि पार्थिव।
स्वयमाहृत्य चान्नानि त्वानुयास्यामहे वयम् ॥ १० ॥

मूलम्

अस्मत्पोषणजा चिन्ता मा भूत् ते हृदि पार्थिव।
स्वयमाहृत्य चान्नानि त्वानुयास्यामहे वयम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मण बोले— पृथ्वीनाथ! आपके हृदयमें हमारे पालन-पोषणकी चिन्ता नहीं होनी चाहिये। हम स्वयं ही अपने लिये अन्न आदिकी व्यवस्था करके आपके साथ चलेंगे॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनुध्यानेन जप्येन विधास्यामः शिवं तव।
कथाभिश्चाभिरम्याभिः सह रंस्यामहे वयम् ॥ ११ ॥

मूलम्

अनुध्यानेन जप्येन विधास्यामः शिवं तव।
कथाभिश्चाभिरम्याभिः सह रंस्यामहे वयम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हम आपके अभीष्टचिन्तन और जपके द्वारा आपका कल्याण करेंगे तथा आपको सुन्दर-सुन्दर कथाएँ सुनाकर आपके साथ ही प्रसन्नतापूर्वक वनमें विचरेंगे॥११॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमेतन्न संदेहो रमेऽहं सततं द्विजैः।
न्यूनभावात् तु पश्यामि प्रत्यादेशमिवात्मनः ॥ १२ ॥

मूलम्

एवमेतन्न संदेहो रमेऽहं सततं द्विजैः।
न्यूनभावात् तु पश्यामि प्रत्यादेशमिवात्मनः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने कहा— महात्माओ! आपका कहना ठीक है। इसमें संदेह नहीं कि मैं सदा ब्राह्मणोंके साथ रहनेमें ही प्रसन्नताका अनुभव करता हूँ, किंतु इस समय धन आदिसे हीन होनेके कारण मैं देख रहा हूँ कि मेरे लिये यह अपकीर्तिकी-सी बात है॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं द्रक्ष्यामि वः सर्वान् स्वयमाहृतभोजनान्।
मद्भक्त्या क्लिश्यतोऽनर्हान् धिक् पापान् धृतराष्ट्रजान् ॥ १३ ॥

मूलम्

कथं द्रक्ष्यामि वः सर्वान् स्वयमाहृतभोजनान्।
मद्भक्त्या क्लिश्यतोऽनर्हान् धिक् पापान् धृतराष्ट्रजान् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप सब लोग स्वयं ही आहार जुटाकर भोजन करें, यह मैं कैसे देख सकूँगा? आपलोग कष्ट भोगनेके योग्य नहीं हैं, तो भी मेरे प्रति स्नेह होनेके कारण इतना क्लेश उठा रहे हैं। धृतराष्ट्रके पापी पुत्रोंको धिक्कार है॥१३॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्त्वा स नृपः शोचन् निषसाद महीतले।
तमध्यात्मरतो विद्वान् शौनको नाम वै द्विजः ॥ १४ ॥
योगे सांख्ये च कुशलो राजानमिदमब्रवीत् ॥ १५ ॥

मूलम्

इत्युक्त्वा स नृपः शोचन् निषसाद महीतले।
तमध्यात्मरतो विद्वान् शौनको नाम वै द्विजः ॥ १४ ॥
योगे सांख्ये च कुशलो राजानमिदमब्रवीत् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! इतना कहकर धर्मराज युधिष्ठिर शोकमग्न हो चुपचाप पृथ्वीपर बैठ गये। उस समय अध्यात्मविषयमें रत अर्थात् परमात्म-चिन्तनमें तत्पर विद्वान् ब्राह्मण शौनकने, जो कर्मयोग और सांख्ययोग—दोनों ही निष्ठाओंके विचारमें प्रवीण थे, राजासे इस प्रकार कहा—॥१४—१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शोकस्थानसहस्राणि भयस्थानशतानि च ।
दिवसे दिवसे मूढमाविशन्ति न पण्डितम् ॥ १६ ॥

मूलम्

शोकस्थानसहस्राणि भयस्थानशतानि च ।
दिवसे दिवसे मूढमाविशन्ति न पण्डितम् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शोकके सहस्रों और भयके सैकड़ों स्थान हैं। वे मूढ़ मनुष्यपर प्रतिदिन अपना प्रभाव डालते हैं; परंतु ज्ञानी पुरुषपर वे प्रभाव नहीं डाल सकते॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हि ज्ञानविरुद्धेषु बहुदोषेषु कर्मसु।
श्रेयोघातिषु सज्जन्ते बुद्धिमन्तो भवद्विधाः ॥ १७ ॥

मूलम्

न हि ज्ञानविरुद्धेषु बहुदोषेषु कर्मसु।
श्रेयोघातिषु सज्जन्ते बुद्धिमन्तो भवद्विधाः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अनेक दोषोंसे युक्त, ज्ञानविरुद्ध एवं कल्याणनाशक कर्मोंमें आप-जैसे ज्ञानवान् पुरुष नहीं फँसते हैं॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अष्टाङ्गां बुद्धिमाहुर्यां सर्वाश्रेयोऽभिघातिनीम् ।
श्रुतिस्मृतिसमायुक्तां राजन् सा त्वय्यवस्थिता ॥ १८ ॥

मूलम्

अष्टाङ्गां बुद्धिमाहुर्यां सर्वाश्रेयोऽभिघातिनीम् ।
श्रुतिस्मृतिसमायुक्तां राजन् सा त्वय्यवस्थिता ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! योगके आठ अंग—यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधिसे सम्पन्न, समस्त अमंगलोंका नाश करनेवाली तथा श्रुतियों और स्मृतियोंके स्वाध्यायसे भलीभाँति दृढ़ की हुई जो उत्तम बुद्धि कही गयी है, वह आपमें स्थित है॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्थकृच्छ्रेषु दुर्गेषु व्यापत्सु स्वजनस्य च।
शारीरमानसैर्दुःखैर्न सीदन्ति भवद्विधाः ॥ १९ ॥

मूलम्

अर्थकृच्छ्रेषु दुर्गेषु व्यापत्सु स्वजनस्य च।
शारीरमानसैर्दुःखैर्न सीदन्ति भवद्विधाः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अर्थसंकट, दुस्तर दुःख तथा स्वजनोंपर आयी हुई विपत्तियोंमें आप-जैसे ज्ञानी शारीरिक और मानसिक दुःखोंसे पीडित नहीं होते॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रूयतां चाभिधास्यामि जनकेन यथा पुरा।
आत्मव्यवस्थानकरा गीताः श्लोका महात्मना ॥ २० ॥

मूलम्

श्रूयतां चाभिधास्यामि जनकेन यथा पुरा।
आत्मव्यवस्थानकरा गीताः श्लोका महात्मना ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पूर्वकालमें महात्मा राजा जनकने अन्तःकरणको स्थिर करनेवाले कुछ श्लोकोंका गान किया था। मैं उन श्लोकोंका वर्णन करता हूँ, आप सुनिये—॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनोदेहसमुत्थाभ्यां दुःखाभ्यामर्दितं जगत् ।
तयोर्व्याससमासाभ्यां शमोपायमिमं शृणु ॥ २१ ॥

मूलम्

मनोदेहसमुत्थाभ्यां दुःखाभ्यामर्दितं जगत् ।
तयोर्व्याससमासाभ्यां शमोपायमिमं शृणु ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सारा जगत् मानसिक और शारीरिक दुःखोंसे पीडित है। उन दोनों प्रकारके दुःखोंकी शान्तिका यह उपाय संक्षेप और विस्तारसे सुनिये॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्याधेरनिष्टसंस्पर्शाच्छ्रमादिष्टविवर्जनात् ।
दुःखं चतुर्भिः शारीरं कारणैः सम्प्रवर्तते ॥ २२ ॥

मूलम्

व्याधेरनिष्टसंस्पर्शाच्छ्रमादिष्टविवर्जनात् ।
दुःखं चतुर्भिः शारीरं कारणैः सम्प्रवर्तते ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘रोग, अप्रिय घटनाओंकी प्राप्ति, अधिक परिश्रम तथा प्रिय वस्तुओंका वियोग—इन चार कारणोंसे शारीरिक दुःख प्राप्त होता है॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदा तत्प्रतिकाराच्च सततं चाविचिन्तनात्।
आधिव्याधिप्रशमनं क्रियायोगद्वयेन तु ॥ २३ ॥

मूलम्

तदा तत्प्रतिकाराच्च सततं चाविचिन्तनात्।
आधिव्याधिप्रशमनं क्रियायोगद्वयेन तु ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘समयपर इन चारों कारणोंका प्रतीकार करना एवं कभी भी उसका चिन्तन न करना—ये दो क्रियायोग (दुःखनिवारक उपाय) हैं। इन्हींसे आधि-व्याधिकी शान्ति होती है॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मतिमन्तो ह्यतो वैद्याः शमं प्रागेव कुर्वते।
मानसस्य प्रियाख्यानैः सम्भोगोपनयैर्नृणाम् ॥ २४ ॥

मूलम्

मतिमन्तो ह्यतो वैद्याः शमं प्रागेव कुर्वते।
मानसस्य प्रियाख्यानैः सम्भोगोपनयैर्नृणाम् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अतः बुद्धिमान् तथा विद्वान् पुरुष प्रिय वचन बोलकर तथा हितकर भोगोंकी प्राप्ति कराकर पहले मनुष्योंके मानसिक दुःखोंका ही निवारण किया करते हैं॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मानसेन हि दुःखेन शरीरमुपतप्यते।
अयःपिण्डेन तप्तेन कुम्भसंस्थमिवोदकम् ॥ २५ ॥

मूलम्

मानसेन हि दुःखेन शरीरमुपतप्यते।
अयःपिण्डेन तप्तेन कुम्भसंस्थमिवोदकम् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘क्योंकि मनमें दुःख होनेपर शरीर भी संतप्त होने लगता है; ठीक वैसे ही, जैसे तपाया हुआ लोहेका गोला डाल देनेपर घड़ेमें रखा हुआ शीतल जल भी गरम हो जाता है॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मानसं शमयेत् तस्माज्ज्ञानेनाग्निमिवाम्बुना ।
प्रशान्ते मानसे ह्यस्य शारीरमुपशाम्यति ॥ २६ ॥

मूलम्

मानसं शमयेत् तस्माज्ज्ञानेनाग्निमिवाम्बुना ।
प्रशान्ते मानसे ह्यस्य शारीरमुपशाम्यति ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इसलिये जलसे अग्निको शान्त करनेकी भाँति ज्ञानके द्वारा मानसिक दुःखको शान्त करना चाहिये। मनका दुःख मिट जानेपर मनुष्यके शरीरका दुःख भी दूर हो जाता है॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनसो दुःखमूलं तु स्नेह इत्युपलभ्यते।
स्नेहात् तु सज्जते जन्तुर्दुःखयोगमुपैति च ॥ २७ ॥

मूलम्

मनसो दुःखमूलं तु स्नेह इत्युपलभ्यते।
स्नेहात् तु सज्जते जन्तुर्दुःखयोगमुपैति च ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मनके दुःखका मूल कारण क्या है? इसका पता लगानेपर ‘स्नेह’ (संसारमें आसक्ति)-की ही उपलब्धि होती है। इसी स्नेहके कारण ही जीव कहीं आसक्त होता और दुःख पाता है॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्नेहमूलानि दुःखानि स्नेहजानि भयानि च।
शोकहर्षौ तथाऽऽयासः सर्वं स्नेहात् प्रवर्तते ॥ २८ ॥
स्नेहाद् भावोऽनुरागश्च प्रजज्ञे विषये तथा।
अश्रेयस्कावुभावेतौ पूर्वस्तत्र गुरुः स्मृतः ॥ २९ ॥

मूलम्

स्नेहमूलानि दुःखानि स्नेहजानि भयानि च।
शोकहर्षौ तथाऽऽयासः सर्वं स्नेहात् प्रवर्तते ॥ २८ ॥
स्नेहाद् भावोऽनुरागश्च प्रजज्ञे विषये तथा।
अश्रेयस्कावुभावेतौ पूर्वस्तत्र गुरुः स्मृतः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘दुःखका मूल कारण है आसक्ति। आसक्तिसे ही भय होता है। शोक, हर्ष तथा क्लेश—इन सबकी प्राप्ति भी आसक्तिके कारण ही होती है। आसक्तिसे ही विषयोंमें भाव और अनुराग होते हैं। ये दोनों ही अमंगलकारी हैं। इनमें भी पहला अर्थात् विषयोंके प्रति भाव महान् अनर्थकारक माना गया है॥२८-२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कोटराग्निर्यथाशेषं समूलं पादपं दहेत्।
धर्मार्थौ तु तथाल्पोऽपि रागदोषो विनाशयेत् ॥ ३० ॥

मूलम्

कोटराग्निर्यथाशेषं समूलं पादपं दहेत्।
धर्मार्थौ तु तथाल्पोऽपि रागदोषो विनाशयेत् ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जैसे खोखलेमें लगी हुई आग सम्पूर्ण वृक्षको जड़-मूलसहित जलाकर भस्म कर देती है, उसी प्रकार विषयोंके प्रति थोड़ी-सी भी आसक्ति धर्म और अर्थ दोनोंका नाश कर देती है॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विप्रयोगे न तु त्यागी दोषदर्शी समागमे।
विरागं भजते जन्तुर्निर्वैरो निरवग्रहः ॥ ३१ ॥

मूलम्

विप्रयोगे न तु त्यागी दोषदर्शी समागमे।
विरागं भजते जन्तुर्निर्वैरो निरवग्रहः ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘विषयोंके प्राप्त न होनेपर जो उनका त्याग करता है, वह त्यागी नहीं है; अपितु जो विषयोंके प्राप्त होनेपर भी उनमें दोष देखकर उनका परित्याग करता है, वस्तुतः वही त्यागी है—वही वैराग्यको प्राप्त होता है। उसके मनमें किसीके प्रति द्वेषभाव न होनेके कारण वह निर्वैर तथा बन्धनमुक्त होता है॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मात् स्नेहं न लिप्सेत मित्रेभ्यो धनसंचयात्।
स्वशरीरसमुत्थं च ज्ञानेन विनिवर्तयेत् ॥ ३२ ॥

मूलम्

तस्मात् स्नेहं न लिप्सेत मित्रेभ्यो धनसंचयात्।
स्वशरीरसमुत्थं च ज्ञानेन विनिवर्तयेत् ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इसलिये मित्रों तथा धनराशिको पाकर इनके प्रति स्नेह (आसक्ति) न करे। अपने शरीरसे उत्पन्न हुई आसक्तिको ज्ञानसे निवृत्त करे॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्ञानान्वितेषु युक्तेषु शास्त्रज्ञेषु कृतात्मसु।
न तेषु सज्जते स्नेहः पद्मपत्रेष्विवोदकम् ॥ ३३ ॥

मूलम्

ज्ञानान्वितेषु युक्तेषु शास्त्रज्ञेषु कृतात्मसु।
न तेषु सज्जते स्नेहः पद्मपत्रेष्विवोदकम् ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो ज्ञानी, योगयुक्त, शास्त्रज्ञ तथा मनको वशमें रखनेवाले हैं, उनपर आसक्तिका प्रभाव उसी प्रकार नहीं पड़ता, जैसे कमलके पत्तेपर जल नहीं ठहरता॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागाभिभूतः पुरुषः कामेन परिकृष्यते।
इच्छा संजायते तस्य ततस्तृष्णा विवर्धते ॥ ३४ ॥
तृष्णा हि सर्वपापिष्ठा नित्योद्वेगकरी स्मृता।
अधर्मबहुला चैव घोरा पापानुबन्धिनी ॥ ३५ ॥

मूलम्

रागाभिभूतः पुरुषः कामेन परिकृष्यते।
इच्छा संजायते तस्य ततस्तृष्णा विवर्धते ॥ ३४ ॥
तृष्णा हि सर्वपापिष्ठा नित्योद्वेगकरी स्मृता।
अधर्मबहुला चैव घोरा पापानुबन्धिनी ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘रागके वशीभूत हुए पुरुषको काम अपनी ओर आकृष्ट कर लेता है। फिर उसके मनमें कामभोगकी इच्छा जाग उठती है। तत्पश्चात् तृष्णा बढ़ने लगती है। तृष्णा सबसे बढ़कर पापिष्ठ (पापमें प्रवृत्त करनेवाली) तथा नित्य उद्वेग करनेवाली बतायी गयी है। उसके द्वारा प्रायः अधर्म ही होता है। वह अत्यन्त भयंकर पापाबन्धनमें डालनेवाली है॥३४-३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

या दुस्त्यजा दुर्मतिभिर्या न जीर्यति जीर्यतः।
योऽसौ प्राणान्तिको रोगस्तां तृष्णां त्यजतः सुखम् ॥ ३६ ॥

मूलम्

या दुस्त्यजा दुर्मतिभिर्या न जीर्यति जीर्यतः।
योऽसौ प्राणान्तिको रोगस्तां तृष्णां त्यजतः सुखम् ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘खोटी बुद्धिवाले मनुष्योंके लिये जिसे त्यागना अत्यन्त कठिन है, जो शरीरके जरासे जीर्ण हो जानेपर भी स्वयं जीर्ण नहीं होती तथा जिसे प्राणनाशक रोग बताया गया है, उस तृष्णाको जो त्याग देता है, उसीको सुख मिलता है॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनाद्यन्ता तु सा तृष्णा अन्तर्देहगता नृणाम्।
विनाशयति भूतानि अयोनिज इवानलः ॥ ३७ ॥

मूलम्

अनाद्यन्ता तु सा तृष्णा अन्तर्देहगता नृणाम्।
विनाशयति भूतानि अयोनिज इवानलः ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यह तृष्णा यद्यपि मनुष्योंके शरीरके भीतर ही रहती है, तो भी इसका कहीं आदि-अन्त नहीं है। लोहेके पिण्डकी आगके समान यह तृष्णा प्राणियोंका विनाश कर देती है॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथैधः स्वसमुत्थेन वह्निना नाशमृच्छति।
तथाकृतात्मा लोभेन सहजेन विनश्यति ॥ ३८ ॥

मूलम्

यथैधः स्वसमुत्थेन वह्निना नाशमृच्छति।
तथाकृतात्मा लोभेन सहजेन विनश्यति ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जैसे काष्ठ अपनेसे ही उत्पन्न हुई आगसे जलकर भस्म हो जाता है, उसी प्रकार जिसका मन वशमें नहीं है, वह मनुष्य अपने शरीरके साथ उत्पन्न हुए लोभके द्वारा स्वयं नष्ट हो जाता है॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजतः सलिलादग्नेश्चोरतः स्वजनादपि ।
भयमर्थवतां नित्यं मृत्योः प्राणभृतामिव ॥ ३९ ॥

मूलम्

राजतः सलिलादग्नेश्चोरतः स्वजनादपि ।
भयमर्थवतां नित्यं मृत्योः प्राणभृतामिव ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘धनवान् मनुष्योंको राजा, जल, अग्नि, चोर तथा स्वजनोंसे भी सदा उसी प्रकार भय बना रहता है, जैसे सब प्राणियोंको मृत्युसे॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा ह्यामिषमाकाशे पक्षिभिः श्वापदैर्भुवि।
भक्ष्यते सलिले मत्स्यैस्तथा सर्वत्र वित्तवान् ॥ ४० ॥

मूलम्

यथा ह्यामिषमाकाशे पक्षिभिः श्वापदैर्भुवि।
भक्ष्यते सलिले मत्स्यैस्तथा सर्वत्र वित्तवान् ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जैसे मांसके टुकड़ेको आकाशमें पक्षी, पृथ्वीपर हिंस्र जन्तु तथा जलमें मछलियाँ खा जाती हैं, उसी प्रकार धनवान् पुरुषको सब लोग सर्वत्र नोचते रहते हैं॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्थ एव हि केषांचिदनर्थं भजते नृणाम्।
अर्थश्रेयसि चासक्तो न श्रेयो विन्दते नरः ॥ ४१ ॥

मूलम्

अर्थ एव हि केषांचिदनर्थं भजते नृणाम्।
अर्थश्रेयसि चासक्तो न श्रेयो विन्दते नरः ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कितने ही मनुष्योंके लिये अर्थ ही अनर्थका कारण बन जाता है; क्योंकि अर्थद्वारा सिद्ध होनेवाले श्रेय (सांसारिक भोग)-में आसक्त मनुष्य वास्तविक कल्याणको नहीं प्राप्त होता॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मादर्थागमाः सर्वे मनोमोहविवर्धनाः ।
कार्पण्यं दर्पमानौ च भयमुद्वेग एव च ॥ ४२ ॥
अर्थजानि विदुः प्राज्ञाः दुःखान्येतानि देहिनाम्।
अर्थस्योत्पादने चैव पालने च तथा क्षये ॥ ४३ ॥
सहन्ति च महद् दुःखं घ्नन्ति चैवार्थकारणात्।
अर्था दुःखं परित्यक्तुं पालिताश्चैव शत्रवः ॥ ४४ ॥

मूलम्

तस्मादर्थागमाः सर्वे मनोमोहविवर्धनाः ।
कार्पण्यं दर्पमानौ च भयमुद्वेग एव च ॥ ४२ ॥
अर्थजानि विदुः प्राज्ञाः दुःखान्येतानि देहिनाम्।
अर्थस्योत्पादने चैव पालने च तथा क्षये ॥ ४३ ॥
सहन्ति च महद् दुःखं घ्नन्ति चैवार्थकारणात्।
अर्था दुःखं परित्यक्तुं पालिताश्चैव शत्रवः ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इसलिये धन-प्राप्तिके सभी उपाय मनमें मोह बढ़ानेवाले हैं। कृपणता, घमण्ड, अभिमान, भय और उद्वेग इन्हें विद्वानोंने देहधारियोंके लिये धनजनित दुःख माना है। धनके उपार्जन, संरक्षण तथा व्ययमें मनुष्य महान् दुःख सहन करते हैं और धनके ही कारण एक-दूसरेको मार डालते हैं। धनको त्यागनेमें भी महान् दुःख होता है और यदि उसकी रक्षा की जाय तो वह शत्रुका-सा काम करता है1॥४२—४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुःखेन चाधिगम्यन्ते तस्मान्नाशं न चिन्तयेत्।
असंतोषपरा मूढाः संतोषं यान्ति पण्डिताः ॥ ४५ ॥

मूलम्

दुःखेन चाधिगम्यन्ते तस्मान्नाशं न चिन्तयेत्।
असंतोषपरा मूढाः संतोषं यान्ति पण्डिताः ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘धनकी प्राप्ति भी दुःखसे ही होती है। इसलिये उसका चिन्तन न करे; क्योंकि धनकी चिन्ता करना अपना नाश करना है। मूर्ख मनुष्य सदा असंतुष्ट रहते हैं और विद्वान् पुरुष संतुष्ट॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्तो नास्ति पिपासायाः संतोषः परमं सुखम्।
तस्मात् संतोषमेवेह परं पश्यन्ति पण्डिताः ॥ ४६ ॥

मूलम्

अन्तो नास्ति पिपासायाः संतोषः परमं सुखम्।
तस्मात् संतोषमेवेह परं पश्यन्ति पण्डिताः ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘धनकी प्यास कभी बुझती नहीं है; अतः संतोष ही परम सुख है। इसीलिये ज्ञानीजन संतोषको ही सबसे उत्तम समझते हैं॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनित्यं यौवनं रूपं जीवितं रत्नसंचयः।
ऐश्वर्यं प्रियसंवासो गृध्येत् तत्र न पण्डितः ॥ ४७ ॥

मूलम्

अनित्यं यौवनं रूपं जीवितं रत्नसंचयः।
ऐश्वर्यं प्रियसंवासो गृध्येत् तत्र न पण्डितः ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यौवन, रूप, जीवन, रत्नोंका संग्रह, ऐश्वर्य तथा प्रियजनोंका एकत्र निवास—ये सभी अनित्य हैं; अतः विद्वान् पुरुष उनकी अभिलाषा न करे॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्यजेत संचयांस्तस्मात्तज्जान् क्लेशान् सहेत च।
न हि संचयवान् कश्चिद् दृश्यते निरुपद्रवः।
अतश्च धार्मिकैः पुंभिरनीहार्थः प्रशस्यते ॥ ४८ ॥

मूलम्

त्यजेत संचयांस्तस्मात्तज्जान् क्लेशान् सहेत च।
न हि संचयवान् कश्चिद् दृश्यते निरुपद्रवः।
अतश्च धार्मिकैः पुंभिरनीहार्थः प्रशस्यते ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इसलिये धन-संग्रहका त्याग करे और उसके त्यागसे जो क्लेश हो, उसे धैर्यपूर्वक सह ले। जिनके पास धनका संग्रह है, ऐसा कोई भी मनुष्य उपद्रवरहित नहीं देखा जाता। अतः धर्मात्मा पुरुष उसी धनकी प्रशंसा करते हैं जो दैवेच्छासे न्यायपूर्वक स्वतः प्राप्त हो गया हो॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मार्थं यस्य वित्तेहा वरं तस्य निरीहता।
प्रक्षालनाद्धि पंकस्य श्रेयो न स्पर्शनं नृणाम् ॥ ४९ ॥

मूलम्

धर्मार्थं यस्य वित्तेहा वरं तस्य निरीहता।
प्रक्षालनाद्धि पंकस्य श्रेयो न स्पर्शनं नृणाम् ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो धर्म करनेके लिये धनोपार्जनकी इच्छा करता है उसका धनकी इच्छा न करना ही अच्छा है। कीचड़ लगाकर धोनेकी अपेक्षा मनुष्योंके लिये उसका स्पर्श न करना ही श्रेष्ठ है॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युधिष्ठिरैवं सर्वेषु न स्पृहां कर्तुमर्हसि।
धर्मेण यदि ते कार्यं विमुक्तेच्छो भवार्थतः ॥ ५० ॥

मूलम्

युधिष्ठिरैवं सर्वेषु न स्पृहां कर्तुमर्हसि।
धर्मेण यदि ते कार्यं विमुक्तेच्छो भवार्थतः ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘युधिष्ठिर! इस प्रकार आपके लिये किसी भी वस्तुकी अभिलाषा करनी उचित नहीं है। यदि आपको धर्मसे ही प्रयोजन हो तो धनकी इच्छाका सर्वथा त्याग कर दें’॥५०॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नार्थोपभोगलिप्सार्थमियमर्थेप्सुता मम ।
भरणार्थं तु विप्राणां ब्रह्मन् काङ्क्षे न लोभतः ॥ ५१ ॥

मूलम्

नार्थोपभोगलिप्सार्थमियमर्थेप्सुता मम ।
भरणार्थं तु विप्राणां ब्रह्मन् काङ्क्षे न लोभतः ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने कहा— ब्रह्मन्! मैं जो धन चाहता हूँ वह इसलिये नहीं कि मुझे धनसम्बधी भोग भोगनेकी इच्छा है। मैं तो ब्राह्मणोंके भरण-पोषणके लिये ही धनकी इच्छा रखता हूँ, लोभवश नहीं॥५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं ह्यस्मद्विधो ब्रह्मन् वर्तमानो गृहाश्रमे।
भरणं पालनं चापि न कुर्यादनुयायिनाम् ॥ ५२ ॥

मूलम्

कथं ह्यस्मद्विधो ब्रह्मन् वर्तमानो गृहाश्रमे।
भरणं पालनं चापि न कुर्यादनुयायिनाम् ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विप्रवर! गृहस्थ-आश्रममें रहनेवाला मेरे-जैसा पुरुष अपने अनुयायियोंका भरण-पोषण भी न करे, यह कैसे उचित हो सकता है?॥५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संविभागो हि भूतानां सर्वेषामेव दृश्यते।
तथैवापचमानेभ्यः प्रदेयं गृहमेधिना ॥ ५३ ॥

मूलम्

संविभागो हि भूतानां सर्वेषामेव दृश्यते।
तथैवापचमानेभ्यः प्रदेयं गृहमेधिना ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गृहस्थके भोजनमें देवता, पितर, मनुष्य एवं समस्त प्राणियोंका हिस्सा देखा जाता है। गृहस्थका यह धर्म है कि वह अपने हाथसे भोजन न बनानेवाले संन्यासी आदिको अवश्य पका-पकाया अन्न दे॥५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तृणानि भूमिरुदकं वाक् चतुर्थी च सूनृता।
सतामेतानि गेहेषु नोच्छिद्यन्ते कदाचन ॥ ५४ ॥

मूलम्

तृणानि भूमिरुदकं वाक् चतुर्थी च सूनृता।
सतामेतानि गेहेषु नोच्छिद्यन्ते कदाचन ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आसनके लिये तृण (कुश), बैठनेके लिये स्थान, जल और चौथी मधुर वाणी, सत्पुरुषोंके घरमें इन चार वस्तुओंका अभाव कभी नहीं होता॥५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देयमार्तस्य शयनं स्थितश्रान्तस्य चासनम्।
तृषितस्य च पानीयं क्षुधितस्य च भोजनम् ॥ ५५ ॥

मूलम्

देयमार्तस्य शयनं स्थितश्रान्तस्य चासनम्।
तृषितस्य च पानीयं क्षुधितस्य च भोजनम् ॥ ५५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रोग आदिसे पीड़ित मनुष्यको सोनेके लिये शय्या, थके-माँदे हुएको बैठनेके लिये आसन, प्यासेको पानी और भूखेको भोजन तो देना ही चाहिये॥५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चक्षुर्दद्यान्मनो दद्याद् वाचं दद्यात्‌ सुभाषिताम्।
उत्थाय चासनं दद्यादेष धर्मः सनातनः।
प्रत्युत्थायाभिगमनं कुर्यान्न्यायेन चार्चनम् ॥ ५६ ॥

मूलम्

चक्षुर्दद्यान्मनो दद्याद् वाचं दद्यात्‌ सुभाषिताम्।
उत्थाय चासनं दद्यादेष धर्मः सनातनः।
प्रत्युत्थायाभिगमनं कुर्यान्न्यायेन चार्चनम् ॥ ५६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो अपने घरपर आ जाय, उसे प्रेमभरी दृष्टिसे देखे, मनसे उसके प्रति उत्तम भाव रखे, उससे मीठे वचन बोले और उठकर उसके लिये आसन दे। यह गृहस्थका सनातन धर्म है। अतिथिको आते देख उठकर उसकी अगवानी और यथोचित रीतिसे उसका आदर-सत्कार करे॥५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अग्निहोत्रमनड्‌वांश्च ज्ञातयोऽतिथिबान्धवाः ।
पुत्रा दाराश्च भृत्याश्च निर्दहेयुरपूजिताः ॥ ५७ ॥

मूलम्

अग्निहोत्रमनड्‌वांश्च ज्ञातयोऽतिथिबान्धवाः ।
पुत्रा दाराश्च भृत्याश्च निर्दहेयुरपूजिताः ॥ ५७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि गृहस्थ मनुष्य अग्निहोत्र, साँड, जाति-भाई, अतिथि-अभ्यागत, बन्धु-बान्धव, स्त्री-पुत्र तथा भृत्यजनोंका आदर-सत्कार न करे तो वे अपनी क्रोधाग्निसे उसे जला सकते हैं॥५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आत्मार्थं पाचयेन्नान्नं न वृथा घातयेत् पशून्।
न च तत् स्वयमश्नीयाद्‌ विधिवद् यन्न निर्वपेत् ॥ ५८ ॥

मूलम्

आत्मार्थं पाचयेन्नान्नं न वृथा घातयेत् पशून्।
न च तत् स्वयमश्नीयाद्‌ विधिवद् यन्न निर्वपेत् ॥ ५८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

केवल अपने लिये अन्न न पकावे (देवता-पितरों एवं अतिथियोंके उद्‌देश्यसे ही भोजन बनानेका विधान है), निकम्मे पशुओंकी भी हिंसा न करे और जिस वस्तुको विधिपूर्वक देवता आदिके लिये अर्पित न करे, उसे स्वयं भी न खाय॥५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्वभ्यश्च श्वपचेभ्यश्च वयोभ्यश्चावपेद् भुवि।
वैश्वदेवं हि नामैतत् सायं प्रातश्च दीयते ॥ ५९ ॥

मूलम्

श्वभ्यश्च श्वपचेभ्यश्च वयोभ्यश्चावपेद् भुवि।
वैश्वदेवं हि नामैतत् सायं प्रातश्च दीयते ॥ ५९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुत्तों, चाण्डालों और कौवोंके लिये पृथ्वीपर अन्न डाल दे। यह वैश्वदेव नामक महान् यज्ञ है, जिसका अनुष्ठान प्रातःकाल और सायंकालमें भी किया जाता है॥५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विघसाशी भवेत् तस्मान्नित्यं चामृतभोजनः।
विघसो भुक्तशेषं तु यज्ञशेषं तथामृतम् ॥ ६० ॥

मूलम्

विघसाशी भवेत् तस्मान्नित्यं चामृतभोजनः।
विघसो भुक्तशेषं तु यज्ञशेषं तथामृतम् ॥ ६० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः गृहस्थ मनुष्य प्रतिदिन विघस एवं अमृत भोजन करे। घरके सब लोगोंके भोजन कर लेनेपर जो अन्न शेष रह जाय उसे ‘विघस’ कहते हैं तथा बलि-वैश्वदेवसे बचे हुए अन्नका नाम ‘अमृत’ है॥६०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चक्षुर्दद्यान्मनो दद्याद् वाचं दद्याच्च सूनृताम्।
अनुव्रजेदुपासीत स यज्ञः पञ्चदक्षिणः ॥ ६१ ॥

मूलम्

चक्षुर्दद्यान्मनो दद्याद् वाचं दद्याच्च सूनृताम्।
अनुव्रजेदुपासीत स यज्ञः पञ्चदक्षिणः ॥ ६१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतिथिको नेत्र दे (उसे प्रेमभरी दृष्टिसे देखे), मन दे (मनसे हित-चिन्तन करे) तथा मधुर वाणी प्रदान करे (सत्य, प्रिय, हितकी बात कहे)। जब वह जाने लगे तब कुछ दूरतक उसके पीछे-पीछे जाय और जबतक वह घरपर रहे तबतक उसके पास बैठे (उसकी सेवामें लगा रहे)। यह पाँच प्रकारकी दक्षिणाओंसे युक्त अतिथि-यज्ञ है॥६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यो दद्यादपरिक्लिष्टमन्नमध्वनि वर्तते ।
श्रान्तायादृष्टपूर्वाय तस्य पुण्यफलं महत् ॥ ६२ ॥

मूलम्

यो दद्यादपरिक्लिष्टमन्नमध्वनि वर्तते ।
श्रान्तायादृष्टपूर्वाय तस्य पुण्यफलं महत् ॥ ६२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो गृहस्थ अपरिचित थके-माँदे पथिकको प्रसन्नतापूर्वक भोजन देता है, उसे महान् पुण्यफलकी प्राप्ति होती है॥६२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं यो वर्तते वृत्तिं वर्तमानो गृहाश्रमे।
तस्य धर्मं परं प्राहुः कथं वा विप्र मन्यसे॥६३॥

मूलम्

एवं यो वर्तते वृत्तिं वर्तमानो गृहाश्रमे।
तस्य धर्मं परं प्राहुः कथं वा विप्र मन्यसे॥६३॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्मन्! जो गृहस्थ इस वृत्तिसे रहता है, उसके लिये उत्तम धर्मकी प्राप्ति बतायी गयी है, अथवा इस विषयमें आपकी क्या सम्मति है?॥६३॥

मूलम् (वचनम्)

शौनक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहो बत महत् कष्टं विपरीतमिदं जगत्।
येनापत्रपते साधुरसाधुस्तेन तुष्यति ॥ ६४ ॥

मूलम्

अहो बत महत् कष्टं विपरीतमिदं जगत्।
येनापत्रपते साधुरसाधुस्तेन तुष्यति ॥ ६४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शौनकजीने कहा— अहो! बहुत दुःखकी बात है, इस जगत्‌में विपरीत बातें दिखायी देती हैं। साधु पुरुष जिस कर्मसे लज्जित होते हैं, दुष्ट मनुष्योंको उसीसे प्रसन्नता प्राप्त होती है॥६४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शिश्नोदरकृतेऽप्राज्ञः करोति विघसं बहु।
मोहरागवशाक्रान्त इन्द्रियार्थवशानुगः ॥ ६५ ॥

मूलम्

शिश्नोदरकृतेऽप्राज्ञः करोति विघसं बहु।
मोहरागवशाक्रान्त इन्द्रियार्थवशानुगः ॥ ६५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अज्ञानी मनुष्य अपनी जननेन्द्रिय तथा उदरकी तृप्तिके लिये मोह एवं रागके वशीभूत हो विषयोंका अनुसरण करता हुआ नाना प्रकारकी विषय-सामग्रीको यज्ञावशेष मानकर उसका संग्रह करता है॥६५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ह्रियते बुध्यमानोऽपि नरो हारिभिरिन्द्रियैः।
विमूढसंज्ञो दुष्टाश्वैरुद्भ्रान्तैरिव सारथिः ॥ ६६ ॥

मूलम्

ह्रियते बुध्यमानोऽपि नरो हारिभिरिन्द्रियैः।
विमूढसंज्ञो दुष्टाश्वैरुद्भ्रान्तैरिव सारथिः ॥ ६६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

समझदार मनुष्य भी मनको हर लेनेवाली इन्द्रियोंद्वारा विषयोंकी ओर खींच लिया जाता है। उस समय उसकी विचारशक्ति मोहित हो जाती है। जैसे दुष्ट घोड़े वशमें न होनेपर सारथिको कुमार्गमें घसीट ले जाते हैं, यही दशा उस अजितेन्द्रिय पुरुषकी भी होती है॥६६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

षडिन्द्रियाणि विषयं समागच्छन्ति वै यदा।
तदा प्रादुर्भवत्येषां पूर्वसंकल्पजं मनः ॥ ६७ ॥

मूलम्

षडिन्द्रियाणि विषयं समागच्छन्ति वै यदा।
तदा प्रादुर्भवत्येषां पूर्वसंकल्पजं मनः ॥ ६७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब मन और पाँचों इन्द्रियाँ अपने विषयोंमें प्रवृत्त होती हैं, उस समय प्राणियोंके पूर्वसंकल्पके अनुसार उसीकी वासनासे वासित मन विचलित हो उठता है॥६७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनो यस्येन्द्रियस्येह विषयान् याति सेवितुम्।
तस्यौत्सुक्यं सम्भवति प्रवृत्तिश्चोपजायते ॥ ६८ ॥

मूलम्

मनो यस्येन्द्रियस्येह विषयान् याति सेवितुम्।
तस्यौत्सुक्यं सम्भवति प्रवृत्तिश्चोपजायते ॥ ६८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मन जिस इन्द्रियके विषयोंका सेवन करने जाता है, उसीमें उस विषयके प्रति उत्सुकता भर जाती है और वह इन्द्रिय उस विषयके उपभोगमें प्रवृत्त हो जाती है॥६८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः संकल्पबीजेन कामेन विषयेषुभिः।
विद्धः पतति लोभाग्नौ ज्योतिर्लोभात् पतङ्गवत् ॥ ६९ ॥

मूलम्

ततः संकल्पबीजेन कामेन विषयेषुभिः।
विद्धः पतति लोभाग्नौ ज्योतिर्लोभात् पतङ्गवत् ॥ ६९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर संकल्प ही जिसका बीज है, उस कामके द्वारा विषयरूपी बाणोंसे बिंधकर मनुष्य ज्योतिके लोभसे पतंगकी भाँति लोभकी आगमें गिर पड़ता है॥६९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो विहारैराहारैर्मोहितश्च यथेप्सया ।
महामोहे सुखे मग्नो नात्मानमवबुध्यते ॥ ७० ॥

मूलम्

ततो विहारैराहारैर्मोहितश्च यथेप्सया ।
महामोहे सुखे मग्नो नात्मानमवबुध्यते ॥ ७० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद इच्छानुसार आहार-विहारसे मोहित हो महामोहमय सुखमें निमग्न रहकर वह मनुष्य अपने आत्माके ज्ञानसे वंचित हो जाता है॥७०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं पतति संसारे तासु तास्विह योनिषु।
अविद्याकर्मतृष्णाभिर्भ्राम्यमाणोऽथ चक्रवत् ॥ ७१ ॥

मूलम्

एवं पतति संसारे तासु तास्विह योनिषु।
अविद्याकर्मतृष्णाभिर्भ्राम्यमाणोऽथ चक्रवत् ॥ ७१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार अविद्या, कर्म और तृष्णाद्वारा चक्रकी भाँति भ्रमण करता हुआ मनुष्य संसारकी विभिन्न योनियोंमें गिरता है॥७१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मादिषु तृणान्तेषु भूतेषु परिवर्तते।
जले भुवि तथाऽऽकाशे जायमानः पुनः पुनः ॥ ७२ ॥

मूलम्

ब्रह्मादिषु तृणान्तेषु भूतेषु परिवर्तते।
जले भुवि तथाऽऽकाशे जायमानः पुनः पुनः ॥ ७२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर तो ब्रह्मासे लेकर तृणपर्यन्त सभी प्राणियोंमें तथा जल, भूमि और आकाशमें वह मनुष्य बारंबार जन्म लेकर चक्कर लगाता रहता है॥७२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अबुधानां गतिस्त्वेषा बुधानामपि मे शृणु।
ये धर्मे श्रेयसि रता विमोक्षरतयो जनाः ॥ ७३ ॥

मूलम्

अबुधानां गतिस्त्वेषा बुधानामपि मे शृणु।
ये धर्मे श्रेयसि रता विमोक्षरतयो जनाः ॥ ७३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह अविवेकी पुरुषोंकी गति बतायी गयी है। अब आप मुझसे विवेकी पुरुषोंकी गतिका वर्णन सुनें। जो धर्म एवं कल्याणमार्गमें तत्पर हैं और मोक्षके विषयमें जिनका निरन्तर अनुराग है, वे विवेकी हैं॥७३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदिदं वेदवचनं कुरु कर्म त्यजेति च।
तस्माद् धर्मानिमान्‌ सर्वान्‌ नाभिमानात्‌ समाचरेत् ॥ ७४ ॥

मूलम्

तदिदं वेदवचनं कुरु कर्म त्यजेति च।
तस्माद् धर्मानिमान्‌ सर्वान्‌ नाभिमानात्‌ समाचरेत् ॥ ७४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वेदकी यह आज्ञा है कि कर्म करो और कर्म छोड़ो; अतः आगे बताये जानेवाले इन सभी धर्मोंका अहंकारशून्य होकर अनुष्ठान करना चाहिये॥७४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इज्याध्ययनदानानि तपः सत्यं क्षमा दमः।
अलोभ इति मार्गोऽयं धर्मस्याष्टविधः स्मृतः ॥ ७५ ॥

मूलम्

इज्याध्ययनदानानि तपः सत्यं क्षमा दमः।
अलोभ इति मार्गोऽयं धर्मस्याष्टविधः स्मृतः ॥ ७५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यज्ञ, अध्ययन, दान, तप, सत्य, क्षमा, मन और इन्द्रियोंका संयम तथा लोभका परित्याग—ये धर्मके आठ मार्ग हैं॥७५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्र पूर्वश्चतुर्वर्गः पितृयाणपथे स्थितः।
कर्तव्यमिति यत् कार्यं नाभिमानात् समाचरेत् ॥ ७६ ॥

मूलम्

अत्र पूर्वश्चतुर्वर्गः पितृयाणपथे स्थितः।
कर्तव्यमिति यत् कार्यं नाभिमानात् समाचरेत् ॥ ७६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इनमें पहले बताये हुए चार धर्म पितृयानके मार्गमें स्थित हैं; अर्थात् इन चारोंका सकामभावसे अनुष्ठान करनेपर ये पितृयानमार्गसे ले जाते हैं। अग्निहोत्र और संध्योपासनादि जो अवश्य करनेयोग्य कर्म हैं, उन्हें कर्तव्य-बुद्धिसे ही अभिमान छोड़कर करे॥७६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्तरो देवयानस्तु सद्भिराचरितः सदा।
अष्टाङ्गेनैव मार्गेण विशुद्धात्मा समाचरेत् ॥ ७७ ॥

मूलम्

उत्तरो देवयानस्तु सद्भिराचरितः सदा।
अष्टाङ्गेनैव मार्गेण विशुद्धात्मा समाचरेत् ॥ ७७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अन्तिम चार धर्मोंको देवयानमार्गका स्वरूप बताया गया है। साधु पुरुष सदा उसी मार्गका आश्रय लेते हैं। आगे बताये जानेवाले आठ अंगोंसे युक्त मार्गद्वारा अपने अन्तःकरणको शुद्ध करके कर्तव्य-कर्मोंका कर्तृत्वके अभिमानसे रहित होकर पालन करे॥७७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सम्यक्संकल्पसंबन्धात्‌ सम्यक् चेन्द्रियनिग्रहात् ।
सम्यग्व्रतविशेषाच्च सम्यक् च गुरुसेवनात् ॥ ७८ ॥
सम्यगाहारयोगाच्च सम्यक् चाध्ययनागमात् ।
सम्यक्कर्मोपसंन्यासात्‌ सम्यक् चित्तनिरोधनात् ॥ ७९ ॥

मूलम्

सम्यक्संकल्पसंबन्धात्‌ सम्यक् चेन्द्रियनिग्रहात् ।
सम्यग्व्रतविशेषाच्च सम्यक् च गुरुसेवनात् ॥ ७८ ॥
सम्यगाहारयोगाच्च सम्यक् चाध्ययनागमात् ।
सम्यक्कर्मोपसंन्यासात्‌ सम्यक् चित्तनिरोधनात् ॥ ७९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पूर्णतया संकल्पोंको एक ध्येयमें लगा देनेसे, इन्द्रियोंको भली प्रकार वशमें कर लेनेसे, अहिंसादि व्रतोंका अच्छी प्रकार पालन करनेसे, भली प्रकार गुरुकी सेवा करनेसे, यथायोग्य योगसाधनोपयोगी आहार करनेसे, वेदादिका भली प्रकार अध्ययन करनेसे, कर्मोंको भलीभाँति भगवत्समर्पण करनेसे और चित्तका भली प्रकार निरोध करनेसे मनुष्य परम कल्याणको प्राप्त होता है॥७८-७९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं कर्माणि कुर्वन्ति संसारविजिगीषवः।
रागद्वेषविनिर्मुक्ता ऐश्वर्यं देवता गताः ॥ ८० ॥

मूलम्

एवं कर्माणि कुर्वन्ति संसारविजिगीषवः।
रागद्वेषविनिर्मुक्ता ऐश्वर्यं देवता गताः ॥ ८० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संसारको जीतनेकी इच्छावाले बुद्धिमान् पुरुष इसी प्रकार राग-द्वेषसे मुक्त होकर कर्म करते हैं। इन्हीं नियमोंके पालनसे देवतालोग ऐश्वर्यको प्राप्त हुए हैं॥८०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रुद्राः साध्यास्तथाऽऽदित्या वसवोऽथ तथाश्विनौ।
योगैश्वर्येण संयुक्ता धारयन्ति प्रजा इमाः ॥ ८१ ॥

मूलम्

रुद्राः साध्यास्तथाऽऽदित्या वसवोऽथ तथाश्विनौ।
योगैश्वर्येण संयुक्ता धारयन्ति प्रजा इमाः ॥ ८१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रुद्र, साध्य, आदित्य, वसु तथा दोनों अश्विनीकुमार योगजनित ऐश्वर्यसे युक्त होकर इन प्रजाजनोंका धारण-पोषण करते हैं॥८१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा त्वमपि कौन्तेय शममास्थाय पुष्कलम्।
तपसा सिद्धिमन्विच्छ योगसिद्धिं च भारत ॥ ८२ ॥

मूलम्

तथा त्वमपि कौन्तेय शममास्थाय पुष्कलम्।
तपसा सिद्धिमन्विच्छ योगसिद्धिं च भारत ॥ ८२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीनन्दन! इसी प्रकार आप भी मन और इन्द्रियोंको भलीभाँति वशमें करके तपस्याद्वारा सिद्धि तथा योगजनित ऐश्वर्य प्राप्त करनेकी चेष्टा कीजिये॥८२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पितृमातृमयी सिद्धिः प्राप्ता कर्ममयी च ते।
तपसा सिद्धिमन्विच्छ द्विजानां भरणाय वै ॥ ८३ ॥

मूलम्

पितृमातृमयी सिद्धिः प्राप्ता कर्ममयी च ते।
तपसा सिद्धिमन्विच्छ द्विजानां भरणाय वै ॥ ८३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यज्ञ, युद्धादि कर्मोंसे प्राप्त होनेवाली सिद्धि पितृ-मातृमयी (परलोक और इहलोकमें भी लाभ पहुँचानेवाली) है, जो आपको प्राप्त हो चुकी है। अब तपस्याद्वारा वह योगसिद्धि प्राप्त करनेका प्रयत्न कीजिये जिससे ब्राह्मणोंका भरण-पोषण हो सके॥८३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिद्धा हि यद् यदिच्छन्ति कुर्वते तदनुग्रहात्।
तस्मात्तपः समास्थाय कुरुष्वात्ममनोरथम् ॥ ८४ ॥

मूलम्

सिद्धा हि यद् यदिच्छन्ति कुर्वते तदनुग्रहात्।
तस्मात्तपः समास्थाय कुरुष्वात्ममनोरथम् ॥ ८४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सिद्ध पुरुष जो-जो वस्तु चाहते हैं, उसे अपने तपके प्रभावसे प्राप्त कर लेते हैं। अतः आप तपस्याका आश्रय लेकर अपने मनोरथकी पूर्ति कीजिये॥८४॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि पाण्डवानां प्रव्रजने द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत अरण्यपर्वमें पाण्डवोंका प्रव्रजन (वनगमन)-विषयक दूसरा अध्याय पूरा हुआ॥२॥


  1. धनके लोभसे मनुष्य धनके रक्षककी हत्या कर डालते हैं। ↩︎