००१ पौरप्रत्यागमनम्

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
Misc Detail

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

सूचना (हिन्दी)

श्रीमहाभारतम्
वनपर्व

भागसूचना

अरण्यपर्व
प्रथमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

पाण्डवोंका वनगमन, पुरवासियोंद्वारा उनका अनुगमन और युधिष्ठिरके अनुरोध करनेपर उनमेंसे बहुतोंका लौटना तथा पाण्डवोंका प्रमाणकोटितीर्थमें रात्रिवास

विश्वास-प्रस्तुतिः

नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत्॥

मूलम्

नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अन्तर्यामी नारायणस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण, (उनके नित्यसखा) नरस्वरूप नरश्रेष्ठ अर्जुन, (उनकी लीला प्रकट करनेवाली) भगवती सरस्वती और (उन लीलाओंका संकलन करनेवाले) महर्षि वेदव्यासको नमस्कार करके जय (महाभारत)-का पाठ करना चाहिये।

मूलम् (वचनम्)

जनमेजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं द्यूतजिताः पार्थाः कोपिताश्च दुरात्मभिः।
धार्तराष्ट्रैः सहामात्यैर्निकृत्या द्विजसत्तम ॥ १ ॥
श्राविताः परुषा वाचः सृजद्भिर्वैरमुत्तमम्।
किमकुर्वत कौरव्या मम पूर्वपितामहाः ॥ २ ॥

मूलम्

एवं द्यूतजिताः पार्थाः कोपिताश्च दुरात्मभिः।
धार्तराष्ट्रैः सहामात्यैर्निकृत्या द्विजसत्तम ॥ १ ॥
श्राविताः परुषा वाचः सृजद्भिर्वैरमुत्तमम्।
किमकुर्वत कौरव्या मम पूर्वपितामहाः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनमेजयने पूछा— विप्रवर! मन्त्रियोंसहित धृतराष्ट्रके दुरात्मा पुत्रोंने जब इस प्रकार कपटपूर्वक कुन्तीकुमारोंको जूएमें हराकर कुपित कर दिया और घोर वैरकी नींव डालते हुए उन्हें अत्यन्त कठोर बातें सुनायीं, तब मेरे पूर्वपितामह युधिष्ठिर आदि कुरुवंशियोंने क्या किया?॥१-२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं चैश्वर्यविभ्रष्टाः सहसा दुःखमेयुषः।
वने विजह्रिरे पार्थाः शक्रप्रतिमतेजसः ॥ ३ ॥

मूलम्

कथं चैश्वर्यविभ्रष्टाः सहसा दुःखमेयुषः।
वने विजह्रिरे पार्थाः शक्रप्रतिमतेजसः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तथा जो सहसा ऐश्वर्यसे वंचित हो जानेके कारण महान् दुःखमें पड़ गये थे, उन इन्द्रके तुल्य तेजस्वी पाण्डवोंने वनमें किस प्रकार विचरण किया?॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

के वै तानन्ववर्तन्त प्राप्तान् व्यसनमुत्तमम्।
किमाचाराः किमाहाराः क्व च वासो महात्मनाम् ॥ ४ ॥

मूलम्

के वै तानन्ववर्तन्त प्राप्तान् व्यसनमुत्तमम्।
किमाचाराः किमाहाराः क्व च वासो महात्मनाम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस भारी संकटमें पड़े हुए पाण्डवोंके साथ वनमें कौन-कौन गये थे? वनमें वे किस आचार-व्यवहारसे रहते थे? क्या खाते थे? और उन महात्माओंका निवास-स्थान कहाँ था?॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं च द्वादश समा वने तेषां महामुने।
व्यतीयुर्ब्राह्मणश्रेष्ठ शूराणामरिघातिनाम् ॥ ५ ॥

मूलम्

कथं च द्वादश समा वने तेषां महामुने।
व्यतीयुर्ब्राह्मणश्रेष्ठ शूराणामरिघातिनाम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महामुने! ब्राह्मणश्रेष्ठ! शत्रुओंका संहार करनेवाले उन शूरवीर महारथियोंके बारह वर्ष वनमें किस प्रकार बीते?॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं च राजपुत्री सा प्रवरा सर्वयोषिताम्।
पतिव्रता महाभागा सततं सत्यवादिनी ॥ ६ ॥
वनवासमदुःखार्हा दारुणं प्रत्यपद्यत ।
एतदाचक्ष्व मे सर्वं विस्तरेण तपोधन ॥ ७ ॥

मूलम्

कथं च राजपुत्री सा प्रवरा सर्वयोषिताम्।
पतिव्रता महाभागा सततं सत्यवादिनी ॥ ६ ॥
वनवासमदुःखार्हा दारुणं प्रत्यपद्यत ।
एतदाचक्ष्व मे सर्वं विस्तरेण तपोधन ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तपोधन! संसारकी समस्त सुन्दरियोंमें श्रेष्ठ, पतिव्रता एवं सदा सत्य बोलनेवाली वह महाभागा राजकुमारी द्रौपदी, जो दुःख भोगनेके योग्य कदापि नहीं थी, वनवासके भयंकर कष्टको कैसे सह सकी? यह सब मुझे विस्तारपूर्वक बतलाइये॥६-७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रोतुमिच्छामि चरितं भूरिद्रविणतेजसाम् ।
कथ्यमानं त्वया विप्र परं कौतूहलं हि मे ॥ ८ ॥

मूलम्

श्रोतुमिच्छामि चरितं भूरिद्रविणतेजसाम् ।
कथ्यमानं त्वया विप्र परं कौतूहलं हि मे ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्मन्! मैं आपके द्वारा कहे जाते हुए महान् पराक्रम और तेजसे सम्पन्न पाण्डवोंके चरित्रको सुनना चाहता हूँ। इसके लिये मेरे मनमें अत्यन्त कौतूहल हो रहा है॥८॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं द्यूतजिताः पार्थाः कोपिताश्च दुरात्मभिः।
धार्तराष्ट्रैः सहामात्यैर्निर्ययुर्गजसाह्वयात् ॥ ९ ॥

मूलम्

एवं द्यूतजिताः पार्थाः कोपिताश्च दुरात्मभिः।
धार्तराष्ट्रैः सहामात्यैर्निर्ययुर्गजसाह्वयात् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजीने कहा— राजन्! इस प्रकार मन्त्रियोंसहित दुरात्मा धृतराष्ट्रपुत्रोंद्वारा जूएमें पराजित करके क्रुद्ध किये हुए कुन्तीकुमार हस्तिनापुरसे बाहर निकले॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वर्धमानपुरद्वारादभिनिष्क्रम्य पाण्डवाः ।
उदङ्‌मुखाः शस्त्रभृतः प्रययुः सह कृष्णया ॥ १० ॥

मूलम्

वर्धमानपुरद्वारादभिनिष्क्रम्य पाण्डवाः ।
उदङ्‌मुखाः शस्त्रभृतः प्रययुः सह कृष्णया ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वर्धमानपुरकी दिशामें स्थित नगरद्वारसे निकलकर शस्त्रधारी पाण्डवोंने द्रौपदीके साथ उत्तराभिमुख होकर यात्रा आरम्भ की॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इन्द्रसेनादयश्चैव भृत्याः परि चतुर्दश।
रथैरनुययुः शीघ्रैः स्त्रिय आदाय सर्वशः ॥ ११ ॥

मूलम्

इन्द्रसेनादयश्चैव भृत्याः परि चतुर्दश।
रथैरनुययुः शीघ्रैः स्त्रिय आदाय सर्वशः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्रसेन आदि चौदहसे अधिक सेवक सारी स्त्रियोंको शीघ्रगामी रथोंपर बिठाकर उनके पीछे-पीछे चले॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गतानेतान् विदित्वा तु पौराः शोकाभिपीडिताः।
गर्हयन्तोऽसकृद् भीष्मविदुरद्रोणगौतमान् ॥ १२ ॥
ऊचुर्विगतसंत्रासाः समागम्य परस्परम् ।

मूलम्

गतानेतान् विदित्वा तु पौराः शोकाभिपीडिताः।
गर्हयन्तोऽसकृद् भीष्मविदुरद्रोणगौतमान् ॥ १२ ॥
ऊचुर्विगतसंत्रासाः समागम्य परस्परम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डव वनकी ओर गये हैं, यह जानकर हस्तिनापुरके निवासी शोकसे पीडित हो बिना किसी भयके भीष्म, विदुर, द्रोण और कृपाचार्यकी बारंबार निन्दा करते हुए एक-दूसरेसे मिलकर इस प्रकार कहने लगे॥१२॥

मूलम् (वचनम्)

पौरा ऊचुः

विश्वास-प्रस्तुतिः

नेदमस्ति कुलं सर्वं न वयं न च नो गृहाः॥१३॥
यत्र दुर्योधनः पापः सौबलेनाभिपालितः।
कर्णदुःशासनाभ्यां च राज्यमेतच्चिकीर्षति ॥ १४ ॥

मूलम्

नेदमस्ति कुलं सर्वं न वयं न च नो गृहाः॥१३॥
यत्र दुर्योधनः पापः सौबलेनाभिपालितः।
कर्णदुःशासनाभ्यां च राज्यमेतच्चिकीर्षति ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरवासी बोले— अहो! हमारा यह समस्त कुल, हम तथा हमारे घर-द्वार अब सुरक्षित नहीं हैं; क्योंकि यहाँ पापात्मा दुर्योधन सुबलपुत्र शकुनिसे पालित हो कर्ण और दुःशासनकी सम्मतिसे इस राज्यका शासन करना चाहता है॥१३-१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न तत् कुलं न चाचारो न धर्मोऽर्थः कुतः सुखम्।
यत्र पापसहायोऽयं पापो राज्यं चिकीर्षति ॥ १५ ॥

मूलम्

न तत् कुलं न चाचारो न धर्मोऽर्थः कुतः सुखम्।
यत्र पापसहायोऽयं पापो राज्यं चिकीर्षति ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जहाँ पापियोंकी ही सहायतासे यह पापाचारी राज्य करना चाहता है वहाँ हमलोगोंके कुल, आचार, धर्म और अर्थ भी नहीं रह सकते, फिर सुख तो रह ही कैसे सकता है?॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुर्योधनो गुरुद्वेषी त्यक्ताचारसुहृज्जनः ।
अर्थलुब्धोऽभिमानी च नीचः प्रकृतिनिर्घृणः ॥ १६ ॥

मूलम्

दुर्योधनो गुरुद्वेषी त्यक्ताचारसुहृज्जनः ।
अर्थलुब्धोऽभिमानी च नीचः प्रकृतिनिर्घृणः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्योधन गुरुजनोंसे द्वेष रखनेवाला है। उसने सदाचार और पाण्डवों-जैसे सुहृदोंको त्याग दिया है। वह अर्थलोलुप, अभिमानी, नीच और स्वभावतः ही निष्ठुर है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नेयमस्ति मही कृत्स्ना यत्र दुर्योधनो नृपः।
साधु गच्छामहे सर्वे यत्र गच्छन्ति पाण्डवाः ॥ १७ ॥

मूलम्

नेयमस्ति मही कृत्स्ना यत्र दुर्योधनो नृपः।
साधु गच्छामहे सर्वे यत्र गच्छन्ति पाण्डवाः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जहाँ दुर्योधन राजा है, वहाँकी यह सारी पृथ्वी नहींके बराबर है, अतः यही ठीक होगा कि हम सब लोग वहीं चलें जहाँ पाण्डव जा रहे हैं॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सानुक्रोशा महात्मानो विजितेन्द्रियशत्रवः ।
ह्रीमन्तः कीर्तिमन्तश्च धर्माचारपरायणाः ॥ १८ ॥

मूलम्

सानुक्रोशा महात्मानो विजितेन्द्रियशत्रवः ।
ह्रीमन्तः कीर्तिमन्तश्च धर्माचारपरायणाः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डवगण दयालु, महात्मा, जितेन्द्रिय, शत्रुविजयी, लज्जाशील, यशस्वी, धर्मात्मा तथा सदाचारपरायण हैं॥१८॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वानुजग्मुस्ते पाण्डवांस्तान् समेत्य च।
ऊचुः प्राञ्जलयः सर्वे कौन्तेयान् माद्रिनन्दनान् ॥ १९ ॥

मूलम्

एवमुक्त्वानुजग्मुस्ते पाण्डवांस्तान् समेत्य च।
ऊचुः प्राञ्जलयः सर्वे कौन्तेयान् माद्रिनन्दनान् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— ऐसा कहकर वे पुरवासी पाण्डवोंके पास गये और उन कुन्तीकुमारों तथा माद्रीपुत्रोंसे मिलकर वे सब-के-सब हाथ जोड़कर इस प्रकार बोले—॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्व गमिष्यथ भद्रं वस्त्यक्त्वास्मान् दुःखभागिनः।
वयमप्यनुयास्यामो यत्र यूयं गमिष्यथ ॥ २० ॥

मूलम्

क्व गमिष्यथ भद्रं वस्त्यक्त्वास्मान् दुःखभागिनः।
वयमप्यनुयास्यामो यत्र यूयं गमिष्यथ ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पाण्डवो! आपलोगोंका कल्याण हो। हम आपके वियोगसे बहुत दुःखी हैं। आपलोग हमें छोड़कर कहाँ जा रहे हैं? आप जहाँ जायँगे वहीं हम भी आपके साथ चलेंगे॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अधर्मेण जितान् श्रुत्वा युष्मांस्त्यक्तघृणैः परैः।
उद्विग्नाः स्मो भृशं सर्वे नास्मान् हातुमिहार्हथ ॥ २१ ॥
भक्तानुरक्तान् सुहृदः सदा प्रियहिते रतान्।
कुराजाधिष्ठिते राज्ये न विनश्येम सर्वशः ॥ २२ ॥

मूलम्

अधर्मेण जितान् श्रुत्वा युष्मांस्त्यक्तघृणैः परैः।
उद्विग्नाः स्मो भृशं सर्वे नास्मान् हातुमिहार्हथ ॥ २१ ॥
भक्तानुरक्तान् सुहृदः सदा प्रियहिते रतान्।
कुराजाधिष्ठिते राज्ये न विनश्येम सर्वशः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘निर्दयी शत्रुओंने आपको अधर्मपूर्वक जूएमें हराया है, यह सुनकर हम सब लोग अत्यन्त उद्विग्न हो उठे हैं। आपलोग हमारा त्याग न करें; क्योंकि हम आपके सेवक हैं, प्रेमी हैं, सुहृद् हैं और सदा आपके प्रिय एवं हितमें संलग्न रहनेवाले हैं। आपके बिना इस दुष्ट राजाके राज्यमें रहकर हम नष्ट होना नहीं चाहते॥२१-२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रूयतां चाभिधास्यामो गुणदोषान् नरर्षभाः।
शुभाशुभाधिवासेन संसर्गः कुरुते यथा ॥ २३ ॥

मूलम्

श्रूयतां चाभिधास्यामो गुणदोषान् नरर्षभाः।
शुभाशुभाधिवासेन संसर्गः कुरुते यथा ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नरश्रेष्ठ पाण्डवो! शुभ और अशुभ आश्रयमें रहनेपर वहाँका संसर्ग मनुष्यमें जैसे गुण-दोषोंकी सृष्टि करता है, उनका हम वर्णन करते हैं, सुनिये॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वस्त्रमापस्तिलान् भूमिं गन्धो वासयते यथा।
पुष्पाणामधिवासेन तथा संसर्गजा गुणाः ॥ २४ ॥

मूलम्

वस्त्रमापस्तिलान् भूमिं गन्धो वासयते यथा।
पुष्पाणामधिवासेन तथा संसर्गजा गुणाः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जैसे फूलोंके संसर्गमें रहनेपर उनकी सुगन्ध वस्त्र, जल, तिल और भूमिको भी सुवासित कर देती है, उसी प्रकार संसर्गजनित गुण भी अपना प्रभाव डालते हैं॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मोहजालस्य योनिर्हि मूढैरेव समागमः।
अहन्यहनि धर्मस्य योनिः साधुसमागमः ॥ २५ ॥

मूलम्

मोहजालस्य योनिर्हि मूढैरेव समागमः।
अहन्यहनि धर्मस्य योनिः साधुसमागमः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मूढ मनुष्योंसे मिलना-जुलना मोहजालकी उत्पत्तिका कारण होता है। इसी प्रकार साधु-महात्माओंका रंग प्रतिदिन धर्मकी प्राप्ति करानेवाला है॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मात् प्राज्ञैश्च वृद्धैश्च सुस्वभावैस्तपस्विभिः।
सद्भिश्च सह संसर्गः कार्यः शमपरायणैः ॥ २६ ॥

मूलम्

तस्मात् प्राज्ञैश्च वृद्धैश्च सुस्वभावैस्तपस्विभिः।
सद्भिश्च सह संसर्गः कार्यः शमपरायणैः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इसलिये विद्वानों, वृद्ध पुरुषों तथा उत्तम स्वभाववाले शान्तिपरायण तपस्वी सत्पुरुषोंका संग करना चाहिये॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

येषां त्रीण्यवदातानि विद्या योनिश्च कर्म च।
ते सेव्यास्तैः समास्या हि शास्त्रेभ्योऽपि गरीयसी ॥ २७ ॥
निरारम्भा ह्यपि वयं पुण्यशीलेषु साधुषु।
पुण्यमेवाप्नुयामेह पापं पापोपसेवनात् ॥ २८ ॥

मूलम्

येषां त्रीण्यवदातानि विद्या योनिश्च कर्म च।
ते सेव्यास्तैः समास्या हि शास्त्रेभ्योऽपि गरीयसी ॥ २७ ॥
निरारम्भा ह्यपि वयं पुण्यशीलेषु साधुषु।
पुण्यमेवाप्नुयामेह पापं पापोपसेवनात् ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जिन पुरुषोंके विद्या, जाति और कर्म—ये तीनों उज्ज्वल हों, उनका सेवन करना चाहिये; क्योंकि उन महापुरुषोंके साथ बैठना शास्त्रोंके स्वाध्यायसे भी बढ़कर है। हमलोग अग्निहोत्र आदि शुभ कर्मोंका अनुष्ठान नहीं करते, तो भी पुण्यात्मा साधुपुरुषोंके समुदायमें रहनेसे हमें पुण्यकी ही प्राप्ति होगी। इसी प्रकार पापीजनोंके सेवनसे हम पापके ही भागी होंगे॥२७-२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असतां दर्शनात् स्पर्शात् संजल्पाच्च सहासनात्।
धर्माचाराः प्रहीयन्ते सिद्ध्यन्ति च न मानवाः ॥ २९ ॥

मूलम्

असतां दर्शनात् स्पर्शात् संजल्पाच्च सहासनात्।
धर्माचाराः प्रहीयन्ते सिद्ध्यन्ति च न मानवाः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘दुष्ट मनुष्योंके दर्शन, स्पर्श, उनके साथ वार्तालाप अथवा उठने-बैठनेसे धार्मिक आचारोंकी हानि होती है। इसलिये वैसे मनुष्योंको कभी सिद्धि नहीं प्राप्त होती॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बुद्धिश्च हीयते पुंसां नीचैः सह समागमात्।
मध्यमैर्मध्यतां याति श्रेष्ठतां याति चोत्तमैः ॥ ३० ॥

मूलम्

बुद्धिश्च हीयते पुंसां नीचैः सह समागमात्।
मध्यमैर्मध्यतां याति श्रेष्ठतां याति चोत्तमैः ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नीच पुरुषोंका साथ करनेसे मनुष्योंकी बुद्धि नष्ट होती है। मध्यम श्रेणीके मनुष्योंका साथ करनेसे मध्यम होती है और उत्तम पुरुषोंका संग करनेसे उत्तरोत्तर श्रेष्ठ होती है॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनीचैर्नाप्यविषयैर्नाधर्मिष्ठैर्विशेषतः ।
ये गुणाः कीर्तिता लोके धर्मकामार्थसम्भवाः।
लोकाचारेषु सम्भूता वेदोक्ताः शिष्टसम्मताः ॥ ३१ ॥

मूलम्

अनीचैर्नाप्यविषयैर्नाधर्मिष्ठैर्विशेषतः ।
ये गुणाः कीर्तिता लोके धर्मकामार्थसम्भवाः।
लोकाचारेषु सम्भूता वेदोक्ताः शिष्टसम्मताः ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उत्तम, प्रसिद्ध एवं विशेषतः धर्मिष्ठ मनुष्योंने लोकमें धर्म, अर्थ और कामकी उत्पत्तिके हेतुभूत जो वेदोक्त गुण (साधन) बताये हैं वे ही लोकाचारमें प्रकट होते हैं—लोगोंद्वारा काममें लाये जाते हैं और शिष्ट पुरुष उन्हींका आदर करते हैं॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते युष्मासु समस्ताश्च व्यस्ताश्चैवेह सद्‌गुणाः।
इच्छामो गुणवन्मध्ये वस्तुं श्रेयोऽभिकाङ्क्षिणः ॥ ३२ ॥

मूलम्

ते युष्मासु समस्ताश्च व्यस्ताश्चैवेह सद्‌गुणाः।
इच्छामो गुणवन्मध्ये वस्तुं श्रेयोऽभिकाङ्क्षिणः ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वे सभी सद्‌गुण पृथक्-पृथक् और एक साथ आपलोगोंमें विद्यमान हैं, अतः हमलोग कल्याणकी इच्छासे आप-जैसे गुणवान् पुरुषोंके बीचमें रहना चाहते हैं’॥३२॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

धन्या वयं यदस्माकं स्नेहकारुण्ययन्त्रिताः।
असतोऽपि गुणानाहुर्ब्राह्मणप्रमुखाः प्रजाः ॥ ३३ ॥

मूलम्

धन्या वयं यदस्माकं स्नेहकारुण्ययन्त्रिताः।
असतोऽपि गुणानाहुर्ब्राह्मणप्रमुखाः प्रजाः ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने कहा— हमलोग धन्य हैं; क्योंकि ब्राह्मण आदि प्रजावर्गके लोग हमारे प्रति स्नेह और करुणाके पाशमें बँधकर जो गुण हमारे अंदर नहीं हैं, उन गुणोंको भी हममें बतला रहे हैं॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदहं भ्रातृसहितः सर्वान् विज्ञापयामि वः।
नान्यथा तद्धि कर्तव्यमस्मत्स्नेहानुकम्पया ॥ ३४ ॥

मूलम्

तदहं भ्रातृसहितः सर्वान् विज्ञापयामि वः।
नान्यथा तद्धि कर्तव्यमस्मत्स्नेहानुकम्पया ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भाइयोंसहित मैं आप सब लोगोंसे कुछ निवेदन करता हूँ। आपलोग हमपर स्नेह और कृपा करके उसके पालनसे मुख न मोड़ें॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीष्मः पितामहो राजा विदुरो जननी च मे।
सुहृज्जनश्च प्रायो मे नगरे नागसाह्वये ॥ ३५ ॥

मूलम्

भीष्मः पितामहो राजा विदुरो जननी च मे।
सुहृज्जनश्च प्रायो मे नगरे नागसाह्वये ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(आपलोगोंको मालूम होना चाहिये कि) हमारे पितामह भीष्म, राजा धृतराष्ट्र, विदुरजी, मेरी माता तथा प्रायः अन्य सगे-सम्बन्धी भी हस्तिनापुरमें ही हैं॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते त्वस्मद्धितकामार्थं पालनीयाः प्रयत्नतः।
युष्माभिः सहिताः सर्वे शोकसंतापविह्वलाः ॥ ३६ ॥

मूलम्

ते त्वस्मद्धितकामार्थं पालनीयाः प्रयत्नतः।
युष्माभिः सहिताः सर्वे शोकसंतापविह्वलाः ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे सब लोग आपलोगोंके साथ ही शोक और संतापसे व्याकुल हैं, अतः आपलोग हमारे हितकी इच्छा रखकर उन सबका यत्नपूर्वक पालन करें॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निवर्ततागता दूरं समागमनशापिताः ।
स्वजने न्यासभूते मे कार्या स्नेहान्विता मतिः ॥ ३७ ॥

मूलम्

निवर्ततागता दूरं समागमनशापिताः ।
स्वजने न्यासभूते मे कार्या स्नेहान्विता मतिः ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अच्छा, अब लौट जाइये, आपलोग बहुत दूर चले आये हैं। मैं अपनी शपथ दिलाकर अनुरोध करता हूँ कि आपलोग मेरे साथ न चलें। मेरे स्वजन आपके पास धरोहरके रूपमें हैं। उनके प्रति आपलोगोंके हृदयमें स्नेहभाव रहना चाहिये॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतद्धि मम कार्याणां परमं हृदि संस्थितम्।
कृता तेन तु तुष्टिर्मे सत्कारश्च भविष्यति ॥ ३८ ॥

मूलम्

एतद्धि मम कार्याणां परमं हृदि संस्थितम्।
कृता तेन तु तुष्टिर्मे सत्कारश्च भविष्यति ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे हृदयमें स्थित सब कार्योंमें यही कार्य सबसे उत्तम है, आपके द्वारा इसके किये जानेपर मुझे महान् संतोष प्राप्त होगा और इसीसे मेरा सत्कार भी हो जायगा॥३८॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथानुमन्त्रितास्तेन धर्मराजेन ताः प्रजाः।
चक्रुरार्तस्वरं घोरं हा राजन्निति संहताः ॥ ३९ ॥

मूलम्

तथानुमन्त्रितास्तेन धर्मराजेन ताः प्रजाः।
चक्रुरार्तस्वरं घोरं हा राजन्निति संहताः ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! धर्मराजके द्वारा इस प्रकार विनयपूर्वक अनुरोध किये जानेपर उन समस्त प्रजाओंने ‘हा! महाराज!’ ऐसा कहकर एक ही साथ भयंकर आर्तनाद किया॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुणान् पार्थस्य संस्मृत्य दुःखार्ताः परमातुराः।
अकामाः संन्यवर्तन्त समागम्याथ पाण्डवान् ॥ ४० ॥

मूलम्

गुणान् पार्थस्य संस्मृत्य दुःखार्ताः परमातुराः।
अकामाः संन्यवर्तन्त समागम्याथ पाण्डवान् ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीपुत्र युधिष्ठिरके गुणोंका स्मरण करके प्रजावर्गके लोग दुःखसे पीडित और अत्यन्त आतुर हो गये। उनकी पाण्डवोंके साथ जानेकी इच्छा पूर्ण नहीं हो सकी। वे केवल उनसे मिलकर लौट आये॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निवृत्तेषु तु पौरेषु रथानास्थाय पाण्डवाः।
आजग्मुर्जाह्नवीतीरे प्रमाणाख्यं महावटम् ॥ ४१ ॥

मूलम्

निवृत्तेषु तु पौरेषु रथानास्थाय पाण्डवाः।
आजग्मुर्जाह्नवीतीरे प्रमाणाख्यं महावटम् ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरवासियोंके लौट जानेपर पाण्डवगण रथोंपर बैठकर गंगाजीके किनारे प्रमाणकोटि नामक महान् वटके समीप आये॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते तं दिवसशेषेण वटं गत्वा तु पाण्डवाः।
ऊषुस्तां रजनीं वीराः संस्पृश्य सलिलं शुचि ॥ ४२ ॥

मूलम्

ते तं दिवसशेषेण वटं गत्वा तु पाण्डवाः।
ऊषुस्तां रजनीं वीराः संस्पृश्य सलिलं शुचि ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संध्या होते-होते उस वटके निकट पहुँचकर शूरवीर पाण्डवोंने पवित्र जलका स्पर्श (आचमन और संध्यावन्दन आदि) करके वह रात वहीं व्यतीत की॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उदकेनैव तां रात्रिमूषुस्ते दुःखकर्षिताः।
अनुजग्मुश्च तत्रैतान् स्नेहात्‌ केचिद् द्विजातयः ॥ ४३ ॥

मूलम्

उदकेनैव तां रात्रिमूषुस्ते दुःखकर्षिताः।
अनुजग्मुश्च तत्रैतान् स्नेहात्‌ केचिद् द्विजातयः ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुःखसे पीड़ित हुए वे पाँचों पाण्डुकुमार उस रातमें केवल जल पीकर ही रह गये। कुछ ब्राह्मण-लोग भी इन पाण्डवोंके साथ स्नेहवश वहाँतक चले आये थे॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

साग्नयोऽनग्नयश्चैव सशिष्यगणबान्धवाः ।
स तैः परिवृतो राजा शुशुभे ब्रह्मवादिभिः ॥ ४४ ॥

मूलम्

साग्नयोऽनग्नयश्चैव सशिष्यगणबान्धवाः ।
स तैः परिवृतो राजा शुशुभे ब्रह्मवादिभिः ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनमेंसे कुछ साग्नि (अग्निहोत्री) थे और कुछ निरग्नि। उन्होंने अपने शिष्यों तथा भाई-बन्धुओंको भी साथ ले लिया था। वेदोंका स्वाध्याय करनेवाले उन ब्राह्मणोंसे घिरे हुए राजा युधिष्ठिरकी बड़ी शोभा हो रही थी॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषां प्रादुष्कृताग्नीनां मुहुर्ते रम्यदारुणे।
ब्रह्मघोषपुरस्कारः संजल्पः समजायत ॥ ४५ ॥

मूलम्

तेषां प्रादुष्कृताग्नीनां मुहुर्ते रम्यदारुणे।
ब्रह्मघोषपुरस्कारः संजल्पः समजायत ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संध्याकालकी नैसर्गिक शोभासे रमणीय तथा राक्षस-पिशाचादिके संचरणका समय होनेसे अत्यन्त भयंकर प्रतीत होनेवाले उस मुहूर्तमें अग्नि प्रज्वलित करके वेद-मन्त्रोंके घोषपूर्वक अग्निहोत्र करनेके बाद उन ब्राह्मणोंमें परस्पर संवाद होने लगा॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजानं तु कुरुश्रेष्ठं ते हंसमधुरस्वराः।
आश्वासयन्तो विप्राग्र्याः क्षपां सर्वां व्यनोदयन् ॥ ४६ ॥

मूलम्

राजानं तु कुरुश्रेष्ठं ते हंसमधुरस्वराः।
आश्वासयन्तो विप्राग्र्याः क्षपां सर्वां व्यनोदयन् ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हंसके समान मधुर स्वरमें बोलनेवाले उन श्रेष्ठ ब्राह्मणोंने कुरुकुलरत्न राजा युधिष्ठिरको आश्वासन देते हुए सारी रात उनका मनोरंजन किया॥४६॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि पौरप्रत्यागमने प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत अरण्यपर्वमें पुरवासियोंके लौटनेसे सम्बन्ध रखनेवाला पहला अध्याय पूरा हुआ॥१॥