श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
एकाशीतितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
धृतराष्ट्रकी चिन्ता और उनका संजयके साथ वार्तालाप
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
वनं गतेषु पार्थेषु निर्जितेषु दुरोदरे।
धृतराष्ट्रं महाराज तदा चिन्ता समाविशत् ॥ १ ॥
मूलम्
वनं गतेषु पार्थेषु निर्जितेषु दुरोदरे।
धृतराष्ट्रं महाराज तदा चिन्ता समाविशत् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! जब पाण्डव जूएमें हारकर वनमें चले गये, तब राजा धृतराष्ट्रको बड़ी चिन्ता हुई॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं चिन्तयानमासीनं धृतराष्ट्र जनेश्वरम्।
निःश्वसन्तमनेकाग्रमिति होवाच संजयः ॥ २ ॥
मूलम्
तं चिन्तयानमासीनं धृतराष्ट्र जनेश्वरम्।
निःश्वसन्तमनेकाग्रमिति होवाच संजयः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज धृतराष्ट्रको लंबी साँस खींचते और उद्विग्नचित्त होकर चिन्तामें डूबे हुए देख संजयने इस प्रकार कहा॥२॥
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवाप्य वसुसम्पूर्णां वसुधां वसुधाधिप।
प्रव्राज्य पाण्डवान् राज्याद् राजन् किमनुशोचसि ॥ ३ ॥
मूलम्
अवाप्य वसुसम्पूर्णां वसुधां वसुधाधिप।
प्रव्राज्य पाण्डवान् राज्याद् राजन् किमनुशोचसि ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय बोले— पृथ्वीनाथ! यह धन-रत्नोंसे सम्पन्न वसुधाका राज्य पाकर और पाण्डवोंको अपने देशसे निकालकर अब आप क्यों शोकमग्न हो रहे हैं?॥३॥
मूलम् (वचनम्)
धृतराष्ट्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अशोच्यत्वं कुतस्तेषां येषां वैरं भविष्यति।
पाण्डवैर्युद्धशौण्डैर्हि बलवद्भिर्महारथैः ॥ ४ ॥
मूलम्
अशोच्यत्वं कुतस्तेषां येषां वैरं भविष्यति।
पाण्डवैर्युद्धशौण्डैर्हि बलवद्भिर्महारथैः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धृतराष्ट्रने कहा— जिन लोगोंका युद्धकुशल बलवान् महारथी पाण्डवोंसे वैर होगा, वे शोकमग्न हुए बिना कैसे रह सकते हैं?॥४॥
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तवेदं स्वकृतं राजन् महद् वैरमुपस्थितम्।
विनाशो येन लोकस्य सानुबन्धो भविष्यति ॥ ५ ॥
मूलम्
तवेदं स्वकृतं राजन् महद् वैरमुपस्थितम्।
विनाशो येन लोकस्य सानुबन्धो भविष्यति ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय बोले— राजन्! यह आपकी अपनी ही की हुई करतूत है, जिससे यह महान् वैर उपस्थित हुआ है और इसीके कारण सम्पूर्ण जगत्का सगे-सम्बन्धियों-सहित विनाश हो जायगा॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वार्यमाणो हि भीष्मेण द्रोणेन विदुरेण च।
पाण्डवानां प्रियां भार्यां द्रौपदीं धर्मचारिणीम् ॥ ६ ॥
प्राहिणोदानयेहेति पुत्रो दुर्योधनस्तव ।
सूतपुत्रं सुमन्दात्मा निर्लज्जः प्रातिकामिनम् ॥ ७ ॥
मूलम्
वार्यमाणो हि भीष्मेण द्रोणेन विदुरेण च।
पाण्डवानां प्रियां भार्यां द्रौपदीं धर्मचारिणीम् ॥ ६ ॥
प्राहिणोदानयेहेति पुत्रो दुर्योधनस्तव ।
सूतपुत्रं सुमन्दात्मा निर्लज्जः प्रातिकामिनम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्म, द्रोण और विदुरने बार-बार मना किया तो भी आपके मूढ़ और निर्लज्ज पुत्र दुर्योधनने सूतपुत्र प्रातिकामी-को यह आदेश देकर भेजा कि तुम पाण्डवोंकी प्यारी पत्नी धर्मचारिणी द्रौपदीको सभामें ले आओ॥६-७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्मै देवाः प्रयच्छन्ति पुरुषाय पराभवम्।
बुद्धिं तस्यापकर्षन्ति सोऽवाचीनानि पश्यति ॥ ८ ॥
बुद्धौ कलुषभूतायां विनाशे समुपस्थिते।
अनयो नयसंकाशो हृदयान्नापसर्पति ॥ ९ ॥
मूलम्
यस्मै देवाः प्रयच्छन्ति पुरुषाय पराभवम्।
बुद्धिं तस्यापकर्षन्ति सोऽवाचीनानि पश्यति ॥ ८ ॥
बुद्धौ कलुषभूतायां विनाशे समुपस्थिते।
अनयो नयसंकाशो हृदयान्नापसर्पति ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवतालोग जिस पुरुषको पराजय देना चाहते हैं, उसकी बुद्धि ही पहले हर लेते हैं, इससे वह सब कुछ उलटा ही देखने लगता है। विनाशकाल उपस्थित होनेपर जब बुद्धि मलिन हो जाती है, उस समय अन्याय ही न्यायके समान जान पड़ता है और वह हृदयसे किसी प्रकार नहीं निकलता॥८-९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनर्थाश्चार्थरूपेण अर्थाश्चानर्थरूपिणः ।
उत्तिष्ठन्ति विनाशाय नूनं तच्चास्य रोचते ॥ १० ॥
मूलम्
अनर्थाश्चार्थरूपेण अर्थाश्चानर्थरूपिणः ।
उत्तिष्ठन्ति विनाशाय नूनं तच्चास्य रोचते ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय उस पुरुषके विनाशके लिये अनर्थ ही अर्थरूपसे और अर्थ भी अनर्थरूपसे उसके सामने उपस्थित होते हैं और निश्चय ही अर्थरूपमें आया हुआ अनर्थ ही उसे अच्छा लगता है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न कालो दण्डमुद्यम्य शिरः कृन्तति कस्यचित्।
कालस्य बलमेतावद् विपरीतार्थदर्शनम् ॥ ११ ॥
मूलम्
न कालो दण्डमुद्यम्य शिरः कृन्तति कस्यचित्।
कालस्य बलमेतावद् विपरीतार्थदर्शनम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
काल डंडा या तलवार लेकर किसीका सिर नहीं काटता। कालका बल इतना ही है कि वह प्रत्येक वस्तुके विषयमें मनुष्यकी विपरीत बुद्धि कर देता है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसादितमिदं घोरं तुमुलं लोमहर्षणम्।
पाञ्चालीमपकर्षद्भिः सभामध्ये तपस्विनीम् ॥ १२ ॥
अयोनिजां रूपवतीं कुले जातां विभावसोः।
को नु तां सर्वधर्मज्ञां परिभूय यशस्विनीम् ॥ १३ ॥
पर्यानयेत् सभामध्ये विना दुर्द्यूतदेविनम्।
स्त्रीधर्मिणी वरारोहा शोणितेन परिप्लुता ॥ १४ ॥
एकवस्त्राथ पाञ्चाली पाण्डवानभ्यवैक्षत ।
हतस्वान् हृतराज्यांश्च हृतवस्त्रान् हृतश्रियः ॥ १५ ॥
विहीनान् सर्वकामेभ्यो दासभावमुपागतान् ।
धर्मपाशपरिक्षिप्तानशक्तानिव विक्रमे ॥ १६ ॥
मूलम्
आसादितमिदं घोरं तुमुलं लोमहर्षणम्।
पाञ्चालीमपकर्षद्भिः सभामध्ये तपस्विनीम् ॥ १२ ॥
अयोनिजां रूपवतीं कुले जातां विभावसोः।
को नु तां सर्वधर्मज्ञां परिभूय यशस्विनीम् ॥ १३ ॥
पर्यानयेत् सभामध्ये विना दुर्द्यूतदेविनम्।
स्त्रीधर्मिणी वरारोहा शोणितेन परिप्लुता ॥ १४ ॥
एकवस्त्राथ पाञ्चाली पाण्डवानभ्यवैक्षत ।
हतस्वान् हृतराज्यांश्च हृतवस्त्रान् हृतश्रियः ॥ १५ ॥
विहीनान् सर्वकामेभ्यो दासभावमुपागतान् ।
धर्मपाशपरिक्षिप्तानशक्तानिव विक्रमे ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पांचालराजकुमारी द्रौपदी तपस्विनी है। उसका जन्म किसी मानवी स्त्रीके गर्भसे नहीं हुआ है, वह अग्निके कुलमें उत्पन्न हुई और अनुपम सुन्दरी है। वह सब धर्मोंको जाननेवाली तथा यशस्विनी है। उसे भरी सभामें खींचकर लानेवाले दुष्टोंने भयंकर तथा रोंगटे खड़े कर देनेवाले घमासान युद्धकी सम्भावना उत्पन्न कर दी है। अधर्मपूर्वक जूआ खेलनेवाले दुर्योधनके सिवा कौन है, जो द्रौपदीको सभामें बुला सके। सुन्दर शरीरवाली पांचालराजकुमारी स्त्रीधर्मसे युक्त (रजस्वला) थी। उसका वस्त्र रक्तसे सना हुआ था। वह एक ही साड़ी पहने हुए थी। उसने सभामें आकर पाण्डवोंको देखा। उन पाण्डवोंके धन, राज्य, वस्त्र और लक्ष्मी सबका अपहरण हो चुका था। वे सम्पूर्ण मनोवांछित भोगोंसे वंचित हो दासभावको प्राप्त हो गये थे। धर्मके बन्धनमें बँधे रहनेके कारण वे पराक्रम दिखानेमें भी असमर्थ-से हो रहे थे॥१२—१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रुद्धां चानर्हतीं कृष्णां दुःखितां कुरुसंसदि।
दुर्योधनश्च कर्णश्च कटुकान्यभ्यभाषताम् ॥ १७ ॥
मूलम्
क्रुद्धां चानर्हतीं कृष्णां दुःखितां कुरुसंसदि।
दुर्योधनश्च कर्णश्च कटुकान्यभ्यभाषताम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनकी यह दशा देखकर कृष्णा क्रोध और दुःखमें डूब गयी। वह तिरस्कारके योग्य कदापि न थी, तो भी कौरवोंकी सभामें दुर्योधन और कर्णने उसे कटु वचन सुनाये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति सर्वमिदं राजन्नाकुलं प्रतिभाति मे।
मूलम्
इति सर्वमिदं राजन्नाकुलं प्रतिभाति मे।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! ये सारी बातें मुझे महान् दुःखको निमन्त्रण देनेवाली जान पड़ती हैं॥१७॥
मूलम् (वचनम्)
धृतराष्ट्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्याः कृपणचक्षुर्भ्यां प्रदह्येतापि मेदिनी ॥ १८ ॥
मूलम्
तस्याः कृपणचक्षुर्भ्यां प्रदह्येतापि मेदिनी ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धृतराष्ट्रने कहा— संजय! द्रौपदीके उन दीनतापूर्ण नेत्रोंद्वारा यह सारी पृथ्वी दग्ध हो सकती थी॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपि शेषं भवेदद्य पुत्राणां मम संजय।
भरतानां स्त्रियः सर्वा गान्धार्या सह संगताः ॥ १९ ॥
प्राक्रोशन् भैरवं तत्र दृष्ट्वा कृष्णां सभागताम्।
धर्मिष्ठां धर्मपत्नीं च रूपयौवनशालिनीम् ॥ २० ॥
मूलम्
अपि शेषं भवेदद्य पुत्राणां मम संजय।
भरतानां स्त्रियः सर्वा गान्धार्या सह संगताः ॥ १९ ॥
प्राक्रोशन् भैरवं तत्र दृष्ट्वा कृष्णां सभागताम्।
धर्मिष्ठां धर्मपत्नीं च रूपयौवनशालिनीम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय! उसके अभिशापसे मेरे सभी पुत्रोंका आज ही संहार हो जाता, परंतु उसने सब कुछ चुपचाप सह लिया। जिस समय रूप और यौवनसे सुशोभित होनेवाली पाण्डवोंकी धर्मपरायणा धर्मपत्नी कृष्णा सभामें लायी गयी, उस समय वहाँ उसे देखकर भरतवंशकी सभी स्त्रियाँ गान्धारीके साथ मिलकर बड़े भयानक स्वरसे विलाप एवं चीत्कार करने लगीं॥१९-२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रजाभिः सह संगम्य ह्यनुशोचन्ति नित्यशः।
अग्निहोत्राणि सायाह्ने न चाहूयन्त सर्वशः ॥ २१ ॥
ब्राह्मणाः कुपिताश्चासन् द्रौपद्याः परिकर्षणे।
मूलम्
प्रजाभिः सह संगम्य ह्यनुशोचन्ति नित्यशः।
अग्निहोत्राणि सायाह्ने न चाहूयन्त सर्वशः ॥ २१ ॥
ब्राह्मणाः कुपिताश्चासन् द्रौपद्याः परिकर्षणे।
अनुवाद (हिन्दी)
ये सारी स्त्रियाँ प्रजावर्गकी स्त्रियोंके साथ मिलकर रात-दिन सदा इसीके लिये शोक करती रहती हैं। उस दिन द्रौपदीका वस्त्र खींचे जानेके कारण सब ब्राह्मण कुपित हो उठे थे, अतः सायंकाल हमारे घरोंमें उन्होंने अग्निहोत्रतक नहीं किया॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसीन्निष्ठानको घोरो निर्घातश्च महानभूत् ॥ २२ ॥
दिव उल्काश्चापतन्त राहुश्चार्कमुपाग्रसत् ।
अपर्वणि महाघोरं प्रजानां जनयन् भयम् ॥ २३ ॥
मूलम्
आसीन्निष्ठानको घोरो निर्घातश्च महानभूत् ॥ २२ ॥
दिव उल्काश्चापतन्त राहुश्चार्कमुपाग्रसत् ।
अपर्वणि महाघोरं प्रजानां जनयन् भयम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय प्रलयकालीन मेघोंकी भयानक गर्जनाके समान भारी आवाजके साथ बड़े जोरकी आँधी चलने लगी। वज्रपातका-सा अत्यन्त कर्कश शब्द होने लगा। आकाशसे उल्काएँ गिरने लगीं तथा राहुने बिना पर्वके ही सूर्यको ग्रस लिया और प्रजाके लिये अत्यन्त घोर भय उपस्थित कर दिया॥२२-२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथैव रथशालासु प्रादुरासीद्धुताशनः ।
ध्वजाश्चापि व्यशीर्यन्त भरतानामभूतये ॥ २४ ॥
मूलम्
तथैव रथशालासु प्रादुरासीद्धुताशनः ।
ध्वजाश्चापि व्यशीर्यन्त भरतानामभूतये ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार हमारी रथशालाओंमें आग लग गयी और रथोंकी ध्वजाएँ जलकर खाक हो गयीं, जो भरत-वंशियोंके लिये अमंगलकी सूवना देनेवाली थीं॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुर्योधनस्याग्निहोत्रे प्राक्रोशन् भैरवं शिवाः।
तास्तदा प्रत्यभाषन्त रासभाः सर्वतो दिशः ॥ २५ ॥
मूलम्
दुर्योधनस्याग्निहोत्रे प्राक्रोशन् भैरवं शिवाः।
तास्तदा प्रत्यभाषन्त रासभाः सर्वतो दिशः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुर्योधनके अग्निहोत्रगृहमें गीदड़ियाँ आकर भयंकर स्वरसे हुँआ-हुँआ करने लगीं। उनकी आवाज सुनते ही चारों दिशाओंमें गधे रेंकने लगे॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रातिष्ठत ततो भीष्मो द्रोणेन सह संजय।
कृपश्च सोमदत्तश्च बाह्लीकश्च महामनाः ॥ २६ ॥
ततोऽहमब्रुवं तत्र विदुरेण प्रचोदितः।
वरं ददानि कृष्णायै काङ्क्षितं यद् यदिच्छति ॥ २७ ॥
मूलम्
प्रातिष्ठत ततो भीष्मो द्रोणेन सह संजय।
कृपश्च सोमदत्तश्च बाह्लीकश्च महामनाः ॥ २६ ॥
ततोऽहमब्रुवं तत्र विदुरेण प्रचोदितः।
वरं ददानि कृष्णायै काङ्क्षितं यद् यदिच्छति ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय! यह सब देखकर द्रोणके साथ भीष्म, कृपाचार्य, सोमदत्त और महामना बाह्लीक वहाँसे उठकर चले गये। तब मैंने विदुरकी प्रेरणासे वहाँ यह बात कही—‘मैं कृष्णाको मनोवांछित वर दूँगा। वह जो कुछ चाहे, माँग सकती है’॥२६-२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवृणोत् तत्र पाञ्चाली पाण्डवानामदासताम्।
सरथान् सधनुष्कांश्चाप्यनुज्ञासिषमप्यहम् ॥ २८ ॥
मूलम्
अवृणोत् तत्र पाञ्चाली पाण्डवानामदासताम्।
सरथान् सधनुष्कांश्चाप्यनुज्ञासिषमप्यहम् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब वहाँ पांचालीने यह वर माँगा कि पाण्डवलोग दासभावसे मुक्त हो जायँ। मैंने भी रथ और धनुष आदिके सहित पाण्डवोंको उनकी समस्त सम्पत्तिके साथ इन्द्रप्रस्थ लौट जानेकी आज्ञा दे दी थी॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथाब्रवीन्महाप्राज्ञो विदुरः सर्वधर्मवित् ।
एतदन्तास्तु भरता यद् वः कृष्णा सभां गता ॥ २९ ॥
यैषा पाञ्चालराजस्य सुता सा श्रीरनुत्तमा।
पाञ्चाली पाण्डवानेतान् दैवसृष्टोपसर्पति ॥ ३० ॥
मूलम्
अथाब्रवीन्महाप्राज्ञो विदुरः सर्वधर्मवित् ।
एतदन्तास्तु भरता यद् वः कृष्णा सभां गता ॥ २९ ॥
यैषा पाञ्चालराजस्य सुता सा श्रीरनुत्तमा।
पाञ्चाली पाण्डवानेतान् दैवसृष्टोपसर्पति ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर सब धर्मोंके ज्ञाता परम बुद्धिमान् विदुरने कहा—‘भरतवंशियो! यह कृष्णा जो तुम्हारी सभामें लायी गयी, यही तुम्हारे विनाशका कारण होगा। यह जो पांचालराजकी पुत्री है, वह परम उत्तम लक्ष्मी ही है। देवताओंकी आज्ञासे ही पांचाली इन पाण्डवोंकी सेवा करती है॥२९-३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्याः पार्थाः परिक्लेशं न क्षंस्यन्ते ह्यमर्षणाः।
वृष्णयो वा महेष्वासाः पाञ्चाला वा महारथाः ॥ ३१ ॥
तेन सत्याभिसंधेन वासुदेवेन रक्षिताः।
आगमिष्यति बीभत्सुः पाञ्चालैः परिवारितः ॥ ३२ ॥
मूलम्
तस्याः पार्थाः परिक्लेशं न क्षंस्यन्ते ह्यमर्षणाः।
वृष्णयो वा महेष्वासाः पाञ्चाला वा महारथाः ॥ ३१ ॥
तेन सत्याभिसंधेन वासुदेवेन रक्षिताः।
आगमिष्यति बीभत्सुः पाञ्चालैः परिवारितः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कुन्तीके पुत्र अमर्षमें भरे हुए हैं। द्रौपदीको जो यहाँ इस प्रकार क्लेश दिया गया है, इसे वे कदापि सहन नहीं करेंगे। सत्यप्रतिज्ञ भगवान् श्रीकृष्णसे सुरक्षित महान् धनुर्धर वृष्णिवंशी अथवा महारथी पांचाल वीर भी इसे नहीं सहेंगे। अर्जुन पांचाल वीरोंसे घिरे हुए अवश्य आयेंगे॥३१-३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषां मध्ये महेष्वासो भीमसेनो महाबलः।
आगमिष्यति धुन्वानो गदां दण्डमिवान्तकः ॥ ३३ ॥
मूलम्
तेषां मध्ये महेष्वासो भीमसेनो महाबलः।
आगमिष्यति धुन्वानो गदां दण्डमिवान्तकः ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उनके बीचमें महाधनुर्धर महाबली भीमसेन होंगे, जो दण्डपाणि यमराजकी भाँति गदा घुमाते हुए युद्धके लिये आयेंगे॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो गाण्डीवनिर्घोषं श्रुत्वा पार्थस्य धीमतः।
गदावेगं च भीमस्य नालं सोढुं नराधिपाः ॥ ३४ ॥
मूलम्
ततो गाण्डीवनिर्घोषं श्रुत्वा पार्थस्य धीमतः।
गदावेगं च भीमस्य नालं सोढुं नराधिपाः ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उस समय परम बुद्धिमान् अर्जुनके गाण्डीव धनुषकी टंकार सुनकर और भीमसेनकी गदाका महान् वेग देखकर कोई भी राजा उनका सामना करनेमें समर्थ न हो सकेंगे॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र मे रोचते नित्यं पार्थैः साम न विग्रहः।
कुरुभ्यो हि सदा मन्ये पाण्डवान् बलवत्तरान् ॥ ३५ ॥
मूलम्
तत्र मे रोचते नित्यं पार्थैः साम न विग्रहः।
कुरुभ्यो हि सदा मन्ये पाण्डवान् बलवत्तरान् ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अतः मुझे तो पाण्डवोंके साथ सदा शान्ति बनाये रखनेकी ही नीति अच्छी लगती है। उनके साथ युद्ध करना मुझे पसंद नहीं है। मैं पाण्डवोंको सदा ही कौरवोंसे अधिक बलवान् मानता हूँ॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा हि बलवान् राजा जरासंधो महाद्युतिः।
बाहुप्रहरणेनैव भीमेन निहतो युधि ॥ ३६ ॥
मूलम्
तथा हि बलवान् राजा जरासंधो महाद्युतिः।
बाहुप्रहरणेनैव भीमेन निहतो युधि ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘क्योंकि महान् तेजस्वी और बलवान् राजा जरासंधको भीमसेनने बाहुरूपी शस्त्रसे ही युद्धमें मार गिराया था॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य ते शम एवास्तु पाण्डवैर्भरतर्षभ।
उभयोः पक्षयोर्युक्तं क्रियतामविशङ्कया ॥ ३७ ॥
मूलम्
तस्य ते शम एवास्तु पाण्डवैर्भरतर्षभ।
उभयोः पक्षयोर्युक्तं क्रियतामविशङ्कया ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भरतवंशशिरोमणे! अतः पाण्डवोंके साथ आपको शान्ति ही बनाये रखनी चाहिये। दोनों पक्षोंके लिये यही उचित है। आप निःशंक होकर यही उपाय करें॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं कृते महाराज परं श्रेयस्त्वमाप्स्यसि।
एवं गावल्गणे क्षत्ता धर्मार्थसहितं वचः ॥ ३८ ॥
उक्तवान् न गृहीतं वै मया पुत्रहितैषिणा ॥ ३९ ॥
मूलम्
एवं कृते महाराज परं श्रेयस्त्वमाप्स्यसि।
एवं गावल्गणे क्षत्ता धर्मार्थसहितं वचः ॥ ३८ ॥
उक्तवान् न गृहीतं वै मया पुत्रहितैषिणा ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाराज! ऐसा करनेपर आप परम कल्याणके भागी होंगे।’ संजय! इस प्रकार विदुरने मुझसे धर्म और अर्थयुक्त बातें कही थीं; किंतु पुत्रका हित चाहनेवाला होकर भी मैंने उनकी बात नहीं मानी॥३८-३९॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शतसाहस्र्यां संहितायां वैयासिक्यां सभापर्वणि अनुद्यूतपर्वणि धृतराष्ट्रसंजयसंवादे एकाशीतितमोऽध्यायः॥८१॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार व्यासनिर्मित श्रीमहाभारतनामक एक लाख श्लोकोंकी संहितामें सभापर्वके अन्तर्गत अनुद्यूतपर्वमें धृतराष्ट्रसंजयसंवादविषयक इक्यासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥८१॥
सूचना (हिन्दी)
(सभापर्व सम्पूर्णम्)