०८० कौरवाश्वासनम्

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

अशीतितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

वनगमनके समय पाण्डवोंकी चेष्टा और प्रजाजनोंकी शोकातुरताके विषयमें धृतराष्ट्र तथा विदुरका संवाद और शरणागत कौरवोंको द्रोणाचार्यका आश्वासन

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमागतमथो राजा विदुरं दीर्घदर्शिनम्।
साशङ्क इव पप्रच्छ धृतराष्ट्रोऽम्बिकासुतः ॥ १ ॥

मूलम्

तमागतमथो राजा विदुरं दीर्घदर्शिनम्।
साशङ्क इव पप्रच्छ धृतराष्ट्रोऽम्बिकासुतः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! दूरदर्शी विदुरजीके आनेपर अम्बिकानन्दन राजा धृतराष्ट्रने शंकित-सा होकर पूछा॥१॥

मूलम् (वचनम्)

धृतराष्ट्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं गच्छति कौन्तेयो धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः।
भीमसेनः सव्यसाची माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ ॥ २ ॥

मूलम्

कथं गच्छति कौन्तेयो धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः।
भीमसेनः सव्यसाची माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्र बोले— विदुर! कुन्तीनन्दन धर्मपुत्र युधिष्ठिर किस प्रकार जा रहे हैं? भीमसेन, अर्जुन, नकुल और सहदेव—ये चारों पाण्डव भी किस प्रकार यात्रा करते हैं?॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धौम्यश्चैव कथं क्षत्तर्द्रौपदी च यशस्विनी।
श्रोतुमिच्छाम्यहं सर्वं तेषां शंस विचेष्टितम् ॥ ३ ॥

मूलम्

धौम्यश्चैव कथं क्षत्तर्द्रौपदी च यशस्विनी।
श्रोतुमिच्छाम्यहं सर्वं तेषां शंस विचेष्टितम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरोहित धौम्य तथा यशस्विनी द्रौपदी भी कैसे जा रही है? मैं उन सबकी पृथक्-पृथक् चेष्टाओंको सुनना चाहता हूँ, तुम मुझसे कहो॥३॥

मूलम् (वचनम्)

विदुर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

वस्त्रेण संवृत्य मुखं कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
बाहू विशालौ सम्पश्यन् भीमो गच्छति पाण्डवः ॥ ४ ॥

मूलम्

वस्त्रेण संवृत्य मुखं कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
बाहू विशालौ सम्पश्यन् भीमो गच्छति पाण्डवः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विदुर बोले— कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर वस्त्रसे मुँह ढँककर जा रहे हैं। पाण्डुकुमार भीमसेन अपनी विशाल भुजाओंकी ओर देखते हुए जाते हैं॥ ४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिकता वपन् सव्यसाची राजानमनुगच्छति।
माद्रीपुत्रः सहदेवो मुखमालिप्य गच्छति ॥ ५ ॥

मूलम्

सिकता वपन् सव्यसाची राजानमनुगच्छति।
माद्रीपुत्रः सहदेवो मुखमालिप्य गच्छति ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सव्यसाची अर्जुन बालू बिखेरते हुए राजा युधिष्ठिरके पीछे-पीछे जा रहे हैं। माद्रीकुमार सहदेव अपने मुँहपर मिट्टी पोतकर जाते हैं॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पांसूपलिप्तसर्वाङ्गो नकुलश्चित्तविह्वलः ।
दर्शनीयतमो लोके राजानमनुगच्छति ॥ ६ ॥

मूलम्

पांसूपलिप्तसर्वाङ्गो नकुलश्चित्तविह्वलः ।
दर्शनीयतमो लोके राजानमनुगच्छति ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

लोकमें अत्यन्त दर्शनीय मनोहर रूपवाले नकुल अपने सब अंगोंमें धूल लपेटकर व्याकुलचित हो राजा युधिष्ठिरका अनुसरण कर रहे हैं॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृष्णा तु केशौः प्रच्छाद्य मुखमायतलोचना।
दर्शनीया प्ररुदती राजानमनुगच्छति ॥ ७ ॥

मूलम्

कृष्णा तु केशौः प्रच्छाद्य मुखमायतलोचना।
दर्शनीया प्ररुदती राजानमनुगच्छति ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परम सुन्दरी विशाललोचना कृष्णा अपने केशोंसे ही मुँह ढँककर रोती हुई राजाके पीछे-पीछे जा रही है॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धौम्यौ रौद्राणि सामानि याम्यानि च विशाम्पते।
गायन् गच्छति मार्गेषु कुशानादाय पाणिना ॥ ८ ॥

मूलम्

धौम्यौ रौद्राणि सामानि याम्यानि च विशाम्पते।
गायन् गच्छति मार्गेषु कुशानादाय पाणिना ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! पुरोहित धौम्यजी हाथमें कुश लेकर रुद्र तथा यमदेवतासम्बन्धी साम-मन्त्रोंका गान करते हुए आगे-आगे मार्गपर चल रहे हैं॥८॥

मूलम् (वचनम्)

धृतराष्ट्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

विविधानीह रूपाणि कृत्वा गच्छन्ति पाण्डवाः।
तन्ममाचक्ष्व विदुर कस्मादेवं व्रजन्ति ते ॥ ९ ॥

मूलम्

विविधानीह रूपाणि कृत्वा गच्छन्ति पाण्डवाः।
तन्ममाचक्ष्व विदुर कस्मादेवं व्रजन्ति ते ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्रने पूछा— विदुर! पाण्डवलोग यहाँ जो भिन्न-भिन्न प्रकारकी चेष्टाएँ करते हुए यात्रा कर रहे हैं, उसका क्या रहस्य है, यह बताओ। वे क्यों इस प्रकार जा रहे हैं?॥

मूलम् (वचनम्)

विदुर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

निकृतस्यापि ते पुत्रैर्हृते राज्ये धनेषु च।
न धर्माच्चलते बुद्धिर्धर्मराजस्य धीमतः ॥ १० ॥

मूलम्

निकृतस्यापि ते पुत्रैर्हृते राज्ये धनेषु च।
न धर्माच्चलते बुद्धिर्धर्मराजस्य धीमतः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विदुर बोले— महाराज! यद्यपि आपके पुत्रोंने छलपूर्ण बर्ताव किया है। पाण्डवोंका राज्य और धन सब कुछ चला गया है तो भी परम बुद्धिमान् धर्मराज युधिष्ठिरकी बुद्धि धर्मसे विचलित नहीं हो रही है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

योऽसौ राजा घृणी नित्यं धार्तराष्ट्रेषु भारत।
निकृत्या भ्रंशितः क्रोधान्नोन्मीलयति लोचने ॥ ११ ॥

मूलम्

योऽसौ राजा घृणी नित्यं धार्तराष्ट्रेषु भारत।
निकृत्या भ्रंशितः क्रोधान्नोन्मीलयति लोचने ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! राजा युधिष्ठिर आपके पुत्रोंपर सदा दयाभाव बनाये रखते थे, किंतु इन्होंने छलपूर्ण जूएका आश्रय लेकर उन्हें राज्यसे वंचित किया है, इससे उनके मनमें बड़ा क्रोध है और इसीलिये वे अपनी आँखोंको नहीं खोलते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाहं जनं निर्दहेयं दृष्ट्वा घोरेण चक्षुषा।
स पिधाय मुखं राजा तस्माद् गच्छति पाण्डवः ॥ १२ ॥

मूलम्

नाहं जनं निर्दहेयं दृष्ट्वा घोरेण चक्षुषा।
स पिधाय मुखं राजा तस्माद् गच्छति पाण्डवः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं भयानक दृष्टिसे देखकर किसी (निरपराधी) मनुष्यको भस्म न कर डालूँ’ इसी भयसे पाण्डुपुत्र राजा युधिष्ठिर अपना मुँह ढँककर जा रहे हैं॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा च भीमो व्रजति तन्मे निगदतः शृणु।
बाह्वोर्बले नास्ति समो ममेति भरतर्षभ ॥ १३ ॥

मूलम्

यथा च भीमो व्रजति तन्मे निगदतः शृणु।
बाह्वोर्बले नास्ति समो ममेति भरतर्षभ ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब भीमसेन जिस प्रकार चल रहे हैं, उसका रहस्य बताता हूँ, सुनिये! भरतश्रेष्ठ! उन्हें इस बातका अभिमान है कि बाहुबलमें मेरे समान दूसरा कोई नहीं है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाहू विशालौ कृत्वासौ तेन भीमोऽपि गच्छति।
बाहू विदर्शयन् राजन् बाहुद्रविणदर्पितः ॥ १४ ॥
चिकीर्षन् कर्म शत्रुभ्यो बाहुद्रव्यानुरूपतः।

मूलम्

बाहू विशालौ कृत्वासौ तेन भीमोऽपि गच्छति।
बाहू विदर्शयन् राजन् बाहुद्रविणदर्पितः ॥ १४ ॥
चिकीर्षन् कर्म शत्रुभ्यो बाहुद्रव्यानुरूपतः।

अनुवाद (हिन्दी)

इसीलिये वे अपनी विशाल भुजाओंकी ओर देखते हुए यात्रा करते हैं। राजन्! अपने बाहुबलरूपी वैभवपर उन्हें गर्व है। अतः वे अपनी दोनों भुजाएँ दिखाते हुए शत्रुओंसे बदला लेनेके लिये अपने बाहुबलके अनुरूप ही पराक्रम करना चाहते हैं॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रदिशञ्छरसम्पातान् कुन्तीपुत्रोऽर्जुनस्तदा ॥ १५ ॥
सिकता वपन् सव्यसाची राजानमनुगच्छति।
असक्ताः सिकतास्तस्य यथा सम्प्रति भारत।
असक्तं शरवर्षाणि तथा मोक्ष्यति शत्रुषु ॥ १६ ॥

मूलम्

प्रदिशञ्छरसम्पातान् कुन्तीपुत्रोऽर्जुनस्तदा ॥ १५ ॥
सिकता वपन् सव्यसाची राजानमनुगच्छति।
असक्ताः सिकतास्तस्य यथा सम्प्रति भारत।
असक्तं शरवर्षाणि तथा मोक्ष्यति शत्रुषु ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीपुत्र सव्यसाची अर्जुन उस समय राजाके पीछे-पीछे जो बालू बिखेरते हुए यात्रा कर रहे थे, उसके द्वारा वे शत्रुओंपर बाण बरसानेकी अभिलाषा व्यक्त करते थे। भारत! इस समय उनके गिराये हुए बालूके कण जैसे आपसमें संसक्त न होते हुए लगातार गिरते हैं, उसी प्रकार वे शत्रुओंपर परस्पर संसक्त न होनेवाले असंख्य बाणोंकी वर्षा करेंगे॥१५-१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न मे कश्चिद् विजानीयान्मुखमद्येति भारत।
मुखमालिप्य तेनासौ सहदेवोऽपि गच्छति ॥ १७ ॥

मूलम्

न मे कश्चिद् विजानीयान्मुखमद्येति भारत।
मुखमालिप्य तेनासौ सहदेवोऽपि गच्छति ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! ‘आज इस दुर्दिनमें कोई मेरे मुँहको पहचान न ले’ यही सोचकर सहदेव अपने मुँहमें मिट्टी पोतकर जा रहे हैं॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाहं मनांस्याददेयं मार्गे स्त्रीणामिति प्रभो।
पांसूलिप्तसर्वाङ्गो नकुलस्तेन गच्छति ॥ १८ ॥

मूलम्

नाहं मनांस्याददेयं मार्गे स्त्रीणामिति प्रभो।
पांसूलिप्तसर्वाङ्गो नकुलस्तेन गच्छति ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! ‘मार्गमें मैं स्त्रियोंका चित्त न चुरा लूँ’ इस भयसे नकुल अपने सारे अंगोंमें धूल लगाकर यात्रा करते हैं॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकवस्त्रा प्ररुदती मुक्तकेशी रजस्वला।
शोणितेनाक्तवसना द्रौपदी वाक्यमब्रवीत् ॥ १९ ॥

मूलम्

एकवस्त्रा प्ररुदती मुक्तकेशी रजस्वला।
शोणितेनाक्तवसना द्रौपदी वाक्यमब्रवीत् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्रौपदीके शरीरपर एक ही वस्त्र था, उसके बाल खुले हुए थे, वह रजस्वला थी और उसके कपड़ोंमें रक्त (रज)-का दाग लगा हुआ था, उसने रोते हुए यह बात कही थी॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्कृतेऽहमिदं प्राप्ता तेषां वर्षे चतुर्दशे।
हतपत्यो हतसुता हतबन्धुजनप्रियाः ॥ २० ॥
बहुशोणितदिग्धाङ्ग्यो मुक्तकेश्यो रजस्वलाः ।
एवं कृतोदका भार्याः प्रवेक्ष्यन्ति गजाह्वयम् ॥ २१ ॥

मूलम्

यत्कृतेऽहमिदं प्राप्ता तेषां वर्षे चतुर्दशे।
हतपत्यो हतसुता हतबन्धुजनप्रियाः ॥ २० ॥
बहुशोणितदिग्धाङ्ग्यो मुक्तकेश्यो रजस्वलाः ।
एवं कृतोदका भार्याः प्रवेक्ष्यन्ति गजाह्वयम् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जिनके अन्यायसे आज मैं इस दशाको पहुँची हूँ, आजके चौदहवें वर्षमें उनकी स्त्रियाँ भी अपने पति, पुत्र और बन्धु-बान्धवोंके मारे जानेसे उनकी लाशोंके पास लोट-लोटकर रोयेंगी और अपने अंगोंमें रक्त तथा धूल लपेटे, बाल खोले हुए, अपने सगे-सम्बन्धियोंको तिलांजलि दे इसी प्रकार हस्तिनापुरमें प्रवेश करेंगी’॥२०-२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृत्वा तु नैर्ऋतान्‌ दर्भान् धीरो धौम्यः पुरोहितः।
सामानि गायन् याम्यानि पुरतो याति भारत ॥ २२ ॥

मूलम्

कृत्वा तु नैर्ऋतान्‌ दर्भान् धीरो धौम्यः पुरोहितः।
सामानि गायन् याम्यानि पुरतो याति भारत ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! धीरस्वभाववाले पुरोहित धौम्यजी कुशोंका अग्रभाग नैर्ऋत्यकोणकी ओर करके यमदेवतासम्बन्धी साम-मन्त्रोंका गान करते हुए पाण्डवोंके आगे-आगे जा रहे हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हतेषु भारतेष्वाजौ कुरूणां गुरवस्तदा।
एवं सामानि गास्यन्तीत्युक्त्वा धौम्योऽपि गच्छति ॥ २३ ॥

मूलम्

हतेषु भारतेष्वाजौ कुरूणां गुरवस्तदा।
एवं सामानि गास्यन्तीत्युक्त्वा धौम्योऽपि गच्छति ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धौम्यजी यह कहकर गये थे कि युद्धमें कौरवोंके मारे जानेपर उनके गुरु भी इसी प्रकार कभी सामगान करेंगे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हा हा गच्छन्ति नो नाथाः समवेक्षध्वमीदृशम्।
अहो धिक् कुरुवृद्धानां बालानामिव चेष्टितम् ॥ २४ ॥
राष्ट्रेभ्यः पाण्डुदायादाल्ँलोभान्निर्वासयन्ति ये ।
अनाथाः स्म वयं सर्वे वियुक्ताः पाण्डुनन्दनैः ॥ २५ ॥
दुर्विनीतेषु लुब्धेषु का प्रीतिः कौरवेषु नः।
इति पौराः सुदुःखार्ताः क्रोशन्ति स्म पुनः पुनः ॥ २६ ॥

मूलम्

हा हा गच्छन्ति नो नाथाः समवेक्षध्वमीदृशम्।
अहो धिक् कुरुवृद्धानां बालानामिव चेष्टितम् ॥ २४ ॥
राष्ट्रेभ्यः पाण्डुदायादाल्ँलोभान्निर्वासयन्ति ये ।
अनाथाः स्म वयं सर्वे वियुक्ताः पाण्डुनन्दनैः ॥ २५ ॥
दुर्विनीतेषु लुब्धेषु का प्रीतिः कौरवेषु नः।
इति पौराः सुदुःखार्ताः क्रोशन्ति स्म पुनः पुनः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! उस समय नगरके लोग अत्यन्त दुःखसे आतुर हो बार-बार चिल्लाकर कह रहे थे कि ‘हाय! हाय! हमारे स्वामी पाण्डव चले जा रहे हैं। अहो! कौरवोंमें जो बड़े-बूढ़े लोग हैं, उनकी यह बालकोंकी-सी चेष्टा तो देखो। धिक्कार है उनके इस बर्तावको! ये कौरव लोभवश महाराज पाण्डुके पुत्रोंको राज्यसे निकाल रहे हैं। इन पाण्डुपुत्रोंसे वियुक्त होकर हम सब लोग आज अनाथ हो गये। इन लोभी और उद्दण्ड कौरवोंके प्रति हमारा प्रेम कैसे हो सकता है?॥२४—२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमाकारलिङ्गैस्ते व्यवसायं मनोगतम् ।
कथयन्तश्च कौन्तेया वनं जग्मुर्मनस्विनः ॥ २७ ॥

मूलम्

एवमाकारलिङ्गैस्ते व्यवसायं मनोगतम् ।
कथयन्तश्च कौन्तेया वनं जग्मुर्मनस्विनः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! इस प्रकार मनस्वी कुन्तीपुत्र अपनी आकृति एवं चिह्नोंके द्वारा अपने आन्तरिक निश्चयको प्रकट करते हुए वनको गये हैं॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं तेषु नराग्र्येषु निर्यत्सु गजसाह्वयात्।
अनभ्रे विद्युतश्चासन् भूमिश्च समकम्पत ॥ २८ ॥
राहुरग्रसदादित्यमपर्वणि विशाम्पते ।
उल्का चाप्यपसव्येन पुरं कृत्वा व्यशीर्यत ॥ २९ ॥

मूलम्

एवं तेषु नराग्र्येषु निर्यत्सु गजसाह्वयात्।
अनभ्रे विद्युतश्चासन् भूमिश्च समकम्पत ॥ २८ ॥
राहुरग्रसदादित्यमपर्वणि विशाम्पते ।
उल्का चाप्यपसव्येन पुरं कृत्वा व्यशीर्यत ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हस्तिनापुरसे उन नरश्रेष्ठ पाण्डवोंके निकलते ही बिना बादलके बिजली गिरने लगी, पृथ्वी काँप उठी। राजन्! बिना पर्व (अमावस्या)-के ही राहुने सूर्यको ग्रस लिया था और नगरको दायें रखकर उल्का गिरी थी॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रत्याहरन्ति क्रव्यादा गृध्रगोमायुवायसाः ।
देवायतनचैत्येषु प्राकाराट्टालकेषु च ॥ ३० ॥

मूलम्

प्रत्याहरन्ति क्रव्यादा गृध्रगोमायुवायसाः ।
देवायतनचैत्येषु प्राकाराट्टालकेषु च ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गीध, गीदड़ और कौवे आदि मांसाहारी जन्तु नगरके मन्दिरों, देववृक्षों, चहारदीवारी तथा अट्‌टालिकाओंपर मांस और हड्डी आदि लाकर गिराने लगे थे॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमेते महोत्पाताः प्रादुरासन् दुरासदाः।
भरतानामभावाय राजन् दुर्मन्त्रिते तव ॥ ३१ ॥

मूलम्

एवमेते महोत्पाताः प्रादुरासन् दुरासदाः।
भरतानामभावाय राजन् दुर्मन्त्रिते तव ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! इस प्रकार आपकी दुर्मन्त्रणाके कारण ऐसे-ऐसे अपशकुनरूप दुर्दम्य एवं महान् उत्पात प्रकट हुए हैं, जो भरतवंशियोंके विनाशकी सूचना दे रहे हैं॥३१॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं प्रवदतोरेव तयोस्तत्र विशाम्पते।
धृतराष्ट्रस्य राज्ञश्च विदुरस्य च धीमतः ॥ ३२ ॥
नारदश्च सभामध्ये कुरूणामग्रतः स्थितः।
महर्षिभिः परिवृतो रौद्रं वाक्यमुवाच ह ॥ ३३ ॥

मूलम्

एवं प्रवदतोरेव तयोस्तत्र विशाम्पते।
धृतराष्ट्रस्य राज्ञश्च विदुरस्य च धीमतः ॥ ३२ ॥
नारदश्च सभामध्ये कुरूणामग्रतः स्थितः।
महर्षिभिः परिवृतो रौद्रं वाक्यमुवाच ह ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! इस प्रकार राजा धृतराष्ट्र और बुद्धिमान् विदुर जब दोनों वहाँ बातचीत कर रहे थे, उसी समय सभामें महर्षियोंसे घिरे हुए देवर्षि नारद कौरवोंके सामने आकर खड़े हो गये और यह भयंकर वचन बोले—॥३२-३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इतश्चतुर्दशे वर्षे विनक्ष्यन्तीह कौरवाः।
दुर्योधनापराधेन भीमार्जुनबलेन च ॥ ३४ ॥

मूलम्

इतश्चतुर्दशे वर्षे विनक्ष्यन्तीह कौरवाः।
दुर्योधनापराधेन भीमार्जुनबलेन च ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आजसे चौदहवें वर्षमें दुर्योधनके अपराधसे भीम और अर्जुनके पराक्रमद्वारा कौरवकुलका नाश हो जायगा’॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्त्वा दिवमाक्रम्य क्षिप्रमन्तरधीयत ।
ब्राह्मीं श्रियं सुविपुलां बिभ्रद् देवर्षिसत्तमः ॥ ३५ ॥

मूलम्

इत्युक्त्वा दिवमाक्रम्य क्षिप्रमन्तरधीयत ।
ब्राह्मीं श्रियं सुविपुलां बिभ्रद् देवर्षिसत्तमः ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा कहकर विशाल ब्रह्मतेज धारण करनेवाले देवर्षि-प्रवर नारद आकाशमें जाकर सहसा अन्तर्धान हो गये॥

मूलम् (वचनम्)

(धृतराष्ट्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

किमब्रुवन् नागरिकाः किं वै जानपदा जनाः।
मह्यं तत्त्वेन चाचक्ष्व क्षत्तः सर्वमशेषतः॥

मूलम्

किमब्रुवन् नागरिकाः किं वै जानपदा जनाः।
मह्यं तत्त्वेन चाचक्ष्व क्षत्तः सर्वमशेषतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्रने पूछा— विदुर! जब पाण्डव वनको जाने लगे, उस समय नगर और देशके लोग क्या कह रहे थे, ये सब बातें मुझे पूर्णरूपसे ठीक-ठीक बताओ।

मूलम् (वचनम्)

विदुर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्रा येऽन्ये वदन्त्यथ।
तच्छृणुष्व महाराज वक्ष्यते च मया तव॥

मूलम्

ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्रा येऽन्ये वदन्त्यथ।
तच्छृणुष्व महाराज वक्ष्यते च मया तव॥

अनुवाद (हिन्दी)

विदुर बोले— महाराज! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा अन्यलोग इस घटनाके सम्बन्धमें जो कुछ कहते हैं, वह सुनिये, मैं आपसे सब बातें बता रहा हूँ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हा हा गच्छन्ति नो नाथाः समवेक्षध्वमीदृशम्।
इति पौराः सुदुःखार्ताः शोचन्ति स्म समन्ततः॥

मूलम्

हा हा गच्छन्ति नो नाथाः समवेक्षध्वमीदृशम्।
इति पौराः सुदुःखार्ताः शोचन्ति स्म समन्ततः॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डवोंके जाते समय समस्त पुरवासी दुःखसे आतुर हो सब ओर शोकमें डूबे हुए थे और इस प्रकार कह रहे थे—‘हाय! हाय! हमारे स्वामी, हमारे रक्षक वनमें चले जा रहे हैं। भाइयो! देखो, धृतराष्ट्रके पुत्रोंका यह कैसा अन्याय है?’

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदहृष्टमिवाकूजं गतोत्सवमिवाभवत् ।
नगरं हास्तिनपुरं सस्त्रीवृद्धकुमारकम् ॥

मूलम्

तदहृष्टमिवाकूजं गतोत्सवमिवाभवत् ।
नगरं हास्तिनपुरं सस्त्रीवृद्धकुमारकम् ॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्त्री, बालक और वृद्धोंसहित सारा हस्तिनापुर नगर हर्षरहित, शब्दशून्य तथा उत्सवहीन-सा हो गया।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वे चासन् निरुत्साहा व्याधिना बाधिता यथा॥
पार्थात् प्रति नरा नित्यं चिन्ताशोकपरायणाः।
तत्र तत्र कथां चक्रुः समासाद्य परस्परम्॥

मूलम्

सर्वे चासन् निरुत्साहा व्याधिना बाधिता यथा॥
पार्थात् प्रति नरा नित्यं चिन्ताशोकपरायणाः।
तत्र तत्र कथां चक्रुः समासाद्य परस्परम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

सब लोग कुन्तीपुत्रोंके लिये निरन्तर चिन्ता एवं शोकमें निमग्न हो उत्साह खो बैठे थे। सबकी दशा रोगियोंके समान हो गयी थी। सब एक-दूसरेसे मिलकर जहाँ-तहाँ पाण्डवोंके विषयमें ही वार्तालाप करते थे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

वनं गते धर्मराजे दुःखशोकपरायणाः।
बभूवुः कौरवा वृद्धा भृशं शोकेन पीडिताः॥

मूलम्

वनं गते धर्मराजे दुःखशोकपरायणाः।
बभूवुः कौरवा वृद्धा भृशं शोकेन पीडिताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मराजके वनमें चले जानेपर समस्त वृद्ध कौरव भी अत्यन्त शोकसे व्यथित हो दुःख और चिन्तामें निमग्न हो गये।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः पौरजनः सर्वः शोचन्नास्ते जनाधिपम्।
कुर्वाणाश्च कथास्तत्र ब्राह्मणाः पार्थिवं प्रति॥

मूलम्

ततः पौरजनः सर्वः शोचन्नास्ते जनाधिपम्।
कुर्वाणाश्च कथास्तत्र ब्राह्मणाः पार्थिवं प्रति॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर समस्त पुरवासी राजा युधिष्ठिरके लिये शोकाकुल हो गये। उस समय वहाँ ब्राह्मणलोग राजा युधिष्ठिरके विषयमें निम्नांकित बातें करने लगे।

मूलम् (वचनम्)

ब्राह्मणा ऊचुः

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं नु राजा धर्मात्मा वने वसति निर्जने।
तस्यानुजाश्च ते नित्यं कृष्णा च द्रुपदात्मजा॥
सुखार्हापि च दुःखार्ता कथं वसति सा वने॥

मूलम्

कथं नु राजा धर्मात्मा वने वसति निर्जने।
तस्यानुजाश्च ते नित्यं कृष्णा च द्रुपदात्मजा॥
सुखार्हापि च दुःखार्ता कथं वसति सा वने॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणोंने कहा— हाय! धर्मात्मा राजा युधिष्ठिर और उनके भाई निर्जन वनमें कैसे रहेंगे? तथा द्रुपदकुमारी कृष्णा तो सुख भोगनेके ही योग्य है, वह दुःखसे आतुर हो वनमें कैसे रहेगी।

मूलम् (वचनम्)

विदुर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं पौराश्च विप्राश्च सदाराः सहपुत्रकाः।
स्मरन्तः पाण्डवान् सर्वे बभूवुर्भृशदुःखिताः॥

मूलम्

एवं पौराश्च विप्राश्च सदाराः सहपुत्रकाः।
स्मरन्तः पाण्डवान् सर्वे बभूवुर्भृशदुःखिताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

विदुरजी कहते हैं— राजन्! इस प्रकार पुरवासी ब्राह्मण अपनी स्त्रियों और पुत्रोंके साथ पाण्डवोंका स्मरण करते हुए बहुत दुःखी हो गये।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आविद्धा इव शस्त्रेण नाभ्यनन्दन् कथंचन।
सम्भाष्यमाणा अपि ते न कंचित् प्रत्यपूजयन्॥

मूलम्

आविद्धा इव शस्त्रेण नाभ्यनन्दन् कथंचन।
सम्भाष्यमाणा अपि ते न कंचित् प्रत्यपूजयन्॥

अनुवाद (हिन्दी)

शस्त्रोंके आघातसे घायल हुए मनुष्योंकी भाँति वे किसी प्रकार सुखी न हो सके। बात कहनेपर भी वे किसीको आदरपूर्वक उत्तर नहीं देते थे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

न भुक्त्वा न शयित्वा ते दिवा वा यदि वा निशि।
शोकोपहतविज्ञाना नष्टसंज्ञा इवाभवन् ॥

मूलम्

न भुक्त्वा न शयित्वा ते दिवा वा यदि वा निशि।
शोकोपहतविज्ञाना नष्टसंज्ञा इवाभवन् ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने दिन अथवा रातमें न तो भोजन किया और न नींद ही ली; शोकके कारण उनका सारा विज्ञान आच्छादित हो गया था। वे सब-के-सब अचेत-से हो रहे थे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदवस्था बभूवार्ता ह्ययोध्या नगरी पुरा।
रामे वनं गते दुःखाद्‌धृतराज्ये सलक्ष्मणे॥
तदवस्थं बभूवार्तमद्येदं गजसाह्वयम् ।
गते पार्थे वनं दुःखाद्‌धृतराज्ये सहानुजैः॥

मूलम्

यदवस्था बभूवार्ता ह्ययोध्या नगरी पुरा।
रामे वनं गते दुःखाद्‌धृतराज्ये सलक्ष्मणे॥
तदवस्थं बभूवार्तमद्येदं गजसाह्वयम् ।
गते पार्थे वनं दुःखाद्‌धृतराज्ये सहानुजैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे त्रेतायुगमें राज्यका अपहरण हो जानेपर लक्ष्मणसहित श्रीरामचन्द्रजीके वनमें चले जानेके बाद अयोध्या नगरी दुःखसे अत्यन्त आतुर हो बड़ी दुरवस्थाको पहुँच गयी थी, वही दशा राज्यके अपहरण हो जानेपर भाइयोंसहित युधिष्ठिरके वनमें चले जानेसे आज हमारे इस हस्तिनापुरकी हो गयी है।

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

विदुरस्य वचः श्रुत्वा नागरस्य गिरं च वै।
भूयो मुमोह शोकाच्च धृतराष्ट्रः सबान्धवः॥)

मूलम्

विदुरस्य वचः श्रुत्वा नागरस्य गिरं च वै।
भूयो मुमोह शोकाच्च धृतराष्ट्रः सबान्धवः॥)

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! विदुरका कथन और पुरवासियोंकी कही हुई बातें सुनकर बन्धु-बान्धवोंसहित राजा धृतराष्ट्र पुनः शोकसे मूर्च्छित हो गये।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो दुर्योधनः कर्णः शकुनिश्चापि सौबलः।
द्रोणं द्वीपममन्यन्त राज्यं चास्मै न्यवेदयन् ॥ ३६ ॥

मूलम्

ततो दुर्योधनः कर्णः शकुनिश्चापि सौबलः।
द्रोणं द्वीपममन्यन्त राज्यं चास्मै न्यवेदयन् ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब दुर्योधन, कर्ण और सुबलपुत्र शकुनिने द्रोणको अपना द्वीप (आश्रय) माना और सम्पूर्ण राज्य उनके चरणोंमें समर्पित कर दिया॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथाब्रवीत् ततो द्रोणो दुर्योधनममर्षणम्।
दुःशासनं च कर्णं च सर्वानेव च भारतान् ॥ ३७ ॥

मूलम्

अथाब्रवीत् ततो द्रोणो दुर्योधनममर्षणम्।
दुःशासनं च कर्णं च सर्वानेव च भारतान् ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय द्रोणाचार्यने अमर्षशील दुर्योधन, दुःशासन, कर्ण तथा अन्य सब भरतवंशियोंसे कहा—॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवध्यान् पाण्डवान् प्राहुर्देवपुत्रान् द्विजातयः।
अहं वै शरणं प्राप्तान् वर्तमानो यथाबलम् ॥ ३८ ॥
गन्ता सर्वात्मना भक्त्या धार्त्तराष्ट्रान् सराजकान्।
नोत्सहेयं परित्यक्तुं दैवं हि बलवत्तरम् ॥ ३९ ॥

मूलम्

अवध्यान् पाण्डवान् प्राहुर्देवपुत्रान् द्विजातयः।
अहं वै शरणं प्राप्तान् वर्तमानो यथाबलम् ॥ ३८ ॥
गन्ता सर्वात्मना भक्त्या धार्त्तराष्ट्रान् सराजकान्।
नोत्सहेयं परित्यक्तुं दैवं हि बलवत्तरम् ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पाण्डव देवताओंके पुत्र हैं, अतः ब्राह्मणलोग उन्हें अवध्य बतलाते हैं। मैं यथाशक्ति सम्पूर्ण हृदयसे तुम्हारे अनुकूल प्रयत्न करता हुआ तुम्हारा साथ दूँगा। भक्तिपूर्वक अपनी शरणमें आये हुए इन राजाओंसहित धृतराष्ट्रपुत्रोंका परित्याग करनेका साहस नहीं कर सकता। दैव ही सबसे प्रबल है॥३८-३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मतः पाण्डुपुत्रा वै वनं गच्छन्ति निर्जिताः।
ते च द्वादश वर्षाणि वने वत्स्यन्ति पाण्डवाः ॥ ४० ॥

मूलम्

धर्मतः पाण्डुपुत्रा वै वनं गच्छन्ति निर्जिताः।
ते च द्वादश वर्षाणि वने वत्स्यन्ति पाण्डवाः ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पाण्डव जूएमें पराजित होकर धर्मके अनुसार वनमें गये हैं। वे वहाँ बारह वर्षोंतक रहेंगे॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चरितब्रह्मचर्याश्च क्रोधामर्षवशानुगाः ।
वैरं निर्यातयिष्यन्ति महद् दुःखाय पाण्डवाः ॥ ४१ ॥

मूलम्

चरितब्रह्मचर्याश्च क्रोधामर्षवशानुगाः ।
वैरं निर्यातयिष्यन्ति महद् दुःखाय पाण्डवाः ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वनमें पूर्णरूपसे ब्रह्मचर्यका पालन करके जब वे क्रोध और अमर्षके वशीभूत हो यहाँ लौटेंगे, उस समय वैरका बदला अवश्य लेंगे। उनका वह प्रतीकार हमारे लिये महान् दुःखका कारण होगा॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मया च भ्रंशितो राजन् द्रुपदः सखिविग्रहे।
पुत्रार्थमयजद् राजा वधाय मम भारत ॥ ४२ ॥

मूलम्

मया च भ्रंशितो राजन् द्रुपदः सखिविग्रहे।
पुत्रार्थमयजद् राजा वधाय मम भारत ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! मैंने मैत्रीके विषयको लेकर कलह प्रारम्भ होनेपर राजा द्रुपदको उनके राज्यसे भ्रष्ट किया था; भारत! इससे दुःखी होकर उन्होंने मेरे वधके लिये पुत्र प्राप्त करनेकी इच्छासे एक यज्ञका आयोजन किया॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

याजोपयाजतपसा पुत्रं लेभे स पावकात्।
धृष्टद्युम्नं द्रौपदीं च वेदीमध्यात् सुमध्यमाम् ॥ ४३ ॥

मूलम्

याजोपयाजतपसा पुत्रं लेभे स पावकात्।
धृष्टद्युम्नं द्रौपदीं च वेदीमध्यात् सुमध्यमाम् ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘याज और उपयाजकी तपस्यासे उन्होंने अग्निसे धृष्टद्युम्न और वेदीके मध्यभागसे सुन्दरी द्रौपदीको प्राप्त किया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धृष्टद्युम्नस्तु पार्थानां श्यालः सम्बन्धतो मतः।
पाण्डवानां प्रियरतस्तस्मान्मां भयमाविशत् ॥ ४४ ॥

मूलम्

धृष्टद्युम्नस्तु पार्थानां श्यालः सम्बन्धतो मतः।
पाण्डवानां प्रियरतस्तस्मान्मां भयमाविशत् ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘धृष्टद्युम्न तो सम्बन्धकी दृष्टिसे कुन्तीपुत्रोंका साला ही है, अतः सदा उनका प्रिय करनेमें लगा रहता है, उसीसे मुझे भय है’॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्वालावर्णो देवदत्तो धनुष्मान् कवची शरी।
मर्त्यधर्मतया तस्मादद्य मे साध्वसो महान् ॥ ४५ ॥

मूलम्

ज्वालावर्णो देवदत्तो धनुष्मान् कवची शरी।
मर्त्यधर्मतया तस्मादद्य मे साध्वसो महान् ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उसके शरीरकी कान्ति अग्निकी ज्वालाके समान उद्भासित होती है। वह देवताका दिया हुआ पुत्र है और धनुष, बाण तथा कवचके साथ प्रकट हुआ है। मरणधर्मा मनुष्य होनेके कारण मुझे अब उससे महान् भय लगता है॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गतो हि पक्षतां तेषां पार्षतः परवीरहा।
रथातिरथसंख्यायां योऽग्रणीरर्जुनो युवा ॥ ४६ ॥
सृष्टप्राणो भृशतरं तेन चेत् संगमो मम।
किमन्यद् दुःखमधिकं परमं भुवि कौरवाः ॥ ४७ ॥

मूलम्

गतो हि पक्षतां तेषां पार्षतः परवीरहा।
रथातिरथसंख्यायां योऽग्रणीरर्जुनो युवा ॥ ४६ ॥
सृष्टप्राणो भृशतरं तेन चेत् संगमो मम।
किमन्यद् दुःखमधिकं परमं भुवि कौरवाः ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शत्रुवीरोंका संहार करनेवाला द्रुपदकुमार धृष्टद्युम्न पाण्डवोंके पक्षका पोषक हो गया है। रथियों और अतिरथियोंकी गणनामें जिसका नाम सबसे पहले लिया जाता है, वह तरुण वीर अर्जुन धृष्टद्युम्नके लिये, यदि मेरे साथ उसका युद्ध हुआ तो, लड़कर प्राणतक देनेके लिये उद्यत हो जायगा। कौरवो! (अर्जुनके साथ मुझे लड़ना पड़े) इस पृथ्वीपर इससे बढ़कर महान् दुःख मेरे लिये और क्या हो सकता है?॥४६-४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धृष्टद्युम्नो द्रोणमृत्युरिति विप्रथितं वचः।
मद्वधाय श्रुतोऽप्येष लोके चाप्यतिविश्रुतः ॥ ४८ ॥

मूलम्

धृष्टद्युम्नो द्रोणमृत्युरिति विप्रथितं वचः।
मद्वधाय श्रुतोऽप्येष लोके चाप्यतिविश्रुतः ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘धृष्टद्युम्न द्रोणकी मौत है, यह बात सर्वत्र फैल चुकी है। मेरे वधके लिये ही उसका जन्म हुआ है। यह भी सब लोगोंने सुन रखा है। धृष्टद्युम्न स्वयं भी संसारमें अपनी वीरताके लिये विख्यात है॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽयं नूनमनुप्राप्तस्त्वत्कृते काल उत्तमः।
त्वरितं कुरुत श्रेयो नैतदेतावता कृतम् ॥ ४९ ॥

मूलम्

सोऽयं नूनमनुप्राप्तस्त्वत्कृते काल उत्तमः।
त्वरितं कुरुत श्रेयो नैतदेतावता कृतम् ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम्हारे लिये यह निश्चय ही बहुत उत्तम अवसर प्राप्त हुआ है। शीघ्र ही अपने कल्याण-साधनमें लग जाओ। पाण्डवोंको वनवास दे देनेमात्रसे तुम्हारा अभीष्ट सिद्ध नहीं हो सकता॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुहूर्तं सुखमेवैतत् तालच्छायेव हैमनी।
यजध्वं च महायज्ञैर्भोगानश्नीत दत्त च ॥ ५० ॥
इतश्चतुर्दशे वर्षे महत् प्राप्यस्यथ वैशसम्।

मूलम्

मुहूर्तं सुखमेवैतत् तालच्छायेव हैमनी।
यजध्वं च महायज्ञैर्भोगानश्नीत दत्त च ॥ ५० ॥
इतश्चतुर्दशे वर्षे महत् प्राप्यस्यथ वैशसम्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘यह राज्य तुमलोगोंके लिये शीतकालमें होनेवाली ताड़के पेड़की छायाके समान दो ही घड़ीतक सुख देनेवाला है। अब तुम बड़े-बड़े यज्ञ करो, मनमाने भोग भोगो और इच्छानुसार दान कर लो। आजसे चौदहवें वर्षमें तुम्हें बहुत बड़ी मार-काटका सामना करना पड़ेगा’॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्रोणस्य वचनं श्रुत्वा धृतराष्ट्रोऽब्रवीदिदम् ॥ ५१ ॥

मूलम्

द्रोणस्य वचनं श्रुत्वा धृतराष्ट्रोऽब्रवीदिदम् ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्रोणाचार्यकी यह बात सुनकर धृतराष्ट्रने कहा— ॥ ५१ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सम्यगाह गुरुः क्षत्तरुपावर्तय पाण्डवान्।
यदि ते न निवर्तन्ते सत्कृता यान्तु पाण्डवाः।
सशस्त्ररथपादाता भोगवन्तश्च पुत्रकाः ॥ ५२ ॥

मूलम्

सम्यगाह गुरुः क्षत्तरुपावर्तय पाण्डवान्।
यदि ते न निवर्तन्ते सत्कृता यान्तु पाण्डवाः।
सशस्त्ररथपादाता भोगवन्तश्च पुत्रकाः ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘विदुर! गुरु द्रोणाचार्यने ठीक कहा है। तुम पाण्डवोंको लौटा लाओ। यदि वे न लौटें तो वे अस्त्र-शस्त्रोंसे युक्त रथियों और पैदल सेनाओंसे सुरक्षित और भोग-सामग्रीसे सम्पन्न हो सत्कारपूर्वक वनमें भ्रमणके लिये जायँ; क्योंकि वे भी मेरे पुत्र ही हैं’॥५२॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि अनुद्यूतपर्वणि विदुरधृतराष्ट्रद्रोणवाक्ये अशीतितमोऽध्यायः ॥ ८० ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्वके अन्तर्गत अनुद्यूतपर्वमें विदुर, धृतराष्ट्र और द्रोणके वचनविषयक अस्सीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥८०॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके १५ श्लोक मिलाकर कुल ६७ श्लोक हैं)