०७९ नागरविलापः

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

एकोनाशीतितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

द्रौपदीका कुन्तीसे विदा लेना तथा कुन्तीका विलाप एवं नगरके नर-नारियोंका शोकातुर होना

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन् सम्प्रस्थिते कृष्णा पृथां प्राप्य यशस्विनीम्।
अपृच्छद् भृशदुःखार्ता याश्चान्यास्तत्र योषितः ॥ १ ॥
यथार्हं वन्दनाश्लेषान् कृत्वा गन्तुमियेष सा।
ततो निनादः सुमहान् पाण्डवान्तःपुरेऽभवत् ॥ २ ॥

मूलम्

तस्मिन् सम्प्रस्थिते कृष्णा पृथां प्राप्य यशस्विनीम्।
अपृच्छद् भृशदुःखार्ता याश्चान्यास्तत्र योषितः ॥ १ ॥
यथार्हं वन्दनाश्लेषान् कृत्वा गन्तुमियेष सा।
ततो निनादः सुमहान् पाण्डवान्तःपुरेऽभवत् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— युधिष्ठिरके प्रस्थान करनेपर कृष्णाने यशस्विनी कुन्तीके पास जाकर अत्यन्त दुःखसे आतुर हो वनमें जानेकी आज्ञा माँगी। वहाँ जो दूसरी स्त्रियाँ बैठी थीं, उन सबकी यथायोग्य वन्दना करके सबसे गले मिलकर उसने वनमें जानेकी इच्छा प्रकट की। फिर तो पाण्डवोंके अन्तःपुरमें महान् आर्तनाद होने लगा॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुन्ती च भृशसंतप्ता द्रौपदीं प्रेक्ष्य गच्छतीम्।
शोकविह्वलया वाचा कृच्छ्राद् वचनमब्रवीत् ॥ ३ ॥

मूलम्

कुन्ती च भृशसंतप्ता द्रौपदीं प्रेक्ष्य गच्छतीम्।
शोकविह्वलया वाचा कृच्छ्राद् वचनमब्रवीत् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्रौपदीको जाती देख कुन्ती अत्यन्त संतप्त हो उठीं और शोकाकुल वाणीद्वारा बड़ी कठिनाईसे इस प्रकार बोलीं—॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वत्से शोको न ते कार्यः प्राप्येदं व्यसनं महत्।
स्त्रीधर्माणामभिज्ञासि शीलाचारवती तथा ॥ ४ ॥

मूलम्

वत्से शोको न ते कार्यः प्राप्येदं व्यसनं महत्।
स्त्रीधर्माणामभिज्ञासि शीलाचारवती तथा ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘बेटी! इस महान् संकटको पाकर तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये। तुम स्त्रीके धर्मोंको जानती हो, शील और सदाचारका पालन करनेवाली हो॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न त्वां संदेष्टुमर्हामि भर्तॄन् प्रति शुचिस्मिते।
साध्वीगुणसमापन्ना भूषितं ते कुलद्वयम् ॥ ५ ॥

मूलम्

न त्वां संदेष्टुमर्हामि भर्तॄन् प्रति शुचिस्मिते।
साध्वीगुणसमापन्ना भूषितं ते कुलद्वयम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पवित्र मुसकानवाली बहू! इसीलिये पतियोंके प्रति तुम्हारा क्या कर्तव्य है, यह तुम्हें बतानेकी आवश्यकता मैं नहीं समझती। तुम सती स्त्रियोंके सद्‌गुणोंसे सम्पन्न हो; तुमने पति और पिता—दोनोंके कुलोंकी शोभा बढ़ायी है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभाग्याः कुरवश्चेमे ये न दग्धास्त्वयानघे।
अरिष्टं व्रज पन्थानं मदनुध्यानबृंहिता ॥ ६ ॥

मूलम्

सभाग्याः कुरवश्चेमे ये न दग्धास्त्वयानघे।
अरिष्टं व्रज पन्थानं मदनुध्यानबृंहिता ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘निष्पाप द्रौपदी! ये कौरव बड़े भाग्यशाली हैं, जिन्हें तुमने अपनी क्रोधाग्निसे जलाकर भस्म नहीं कर दिया। जाओ, तुम्हारा मार्ग विघ्न-बाधाओंसे रहित हो; मेरे किये हुए शुभ चिन्तनसे तुम्हारा अभ्युदय हो॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भाविन्यर्थे हि सत्स्त्रीणां वैकृतं नोपजायते।
गुरुधर्माभिगुप्ता च श्रेयः क्षिप्रमवाप्स्यसि ॥ ७ ॥

मूलम्

भाविन्यर्थे हि सत्स्त्रीणां वैकृतं नोपजायते।
गुरुधर्माभिगुप्ता च श्रेयः क्षिप्रमवाप्स्यसि ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो बात अवश्य होनेवाली है उसके होनेपर साध्वी स्त्रियोंके मनमें व्याकुलता नहीं होती। तुम अपने श्रेष्ठ धर्मसे सुरक्षित रहकर शीघ्र ही कल्याण प्राप्त करोगी॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सहदेवश्च मे पुत्रः सदावेक्ष्यो वने वसन्।
यथेदं व्यसनं प्राप्य नायं सीदेन्महामतिः ॥ ८ ॥

मूलम्

सहदेवश्च मे पुत्रः सदावेक्ष्यो वने वसन्।
यथेदं व्यसनं प्राप्य नायं सीदेन्महामतिः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘बेटी! वनमें रहते हुए मेरे पुत्र सहदेवकी तुम सदा देखभाल रखना, जिससे यह परम बुद्धिमान् सहदेव इस भारी संकटमें पड़कर दुःखी न होने पावे’॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथेत्युक्त्वा तु सा देवी स्रवन्नेत्रजलाविला।
शोणिताक्तैकवसना मुक्तकेशी विनिर्ययौ ॥ ९ ॥

मूलम्

तथेत्युक्त्वा तु सा देवी स्रवन्नेत्रजलाविला।
शोणिताक्तैकवसना मुक्तकेशी विनिर्ययौ ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीके ऐसा कहनेपर नेत्रोंसे आँसू बहाती हुई द्रौपदीने ‘तथास्तु’ कहकर उनकी आज्ञा शिरोधार्य की। उस समय उसके शरीरपर एक ही वस्त्र था, उसका भी कुछ भाग रजसे सना हुआ था और उसके सिरके बाल बिखरे हुए थे। उसी दशामें वह अन्तःपुरसे बाहर निकली॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तां क्रोशन्तीं पृथा दुःखादनुवव्राज गच्छतीम्।
अथापश्यत् सुतान् सर्वान् हृताभरणवाससः ॥ १० ॥

मूलम्

तां क्रोशन्तीं पृथा दुःखादनुवव्राज गच्छतीम्।
अथापश्यत् सुतान् सर्वान् हृताभरणवाससः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रोती-बिलखती, वनको जाती हुई द्रौपदीके पीछे-पीछे कुन्ती भी दुःखसे व्याकुल हो कुछ दूरतक गयीं, इतनेहीमें उन्होंने अपने सभी पुत्रोंको देखा, जिनके वस्त्र और आभूषण उतार लिये गये थे॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रुरुचर्मावृततनून् ह्रिया किंचिदवाङ्‌मुखान् ।
परैः परीतान् संहृष्टैः सुहृद्भिश्चानुशोचितान् ॥ ११ ॥

मूलम्

रुरुचर्मावृततनून् ह्रिया किंचिदवाङ्‌मुखान् ।
परैः परीतान् संहृष्टैः सुहृद्भिश्चानुशोचितान् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके सभी अंग मृगचर्मसे ढँके हुए थे और वे लज्जावश नीचे मुख किये चले जा रहे थे। हर्षमें भरे हुए शत्रुओंने उन्हें सब ओरसे घेर रखा था और हितैषी सुहृद् उनके लिये शोक कर रहे थे॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदवस्थान् सुतान् सर्वानुपसृत्यातिवत्सला ।
स्वजमानावदच्छोकात् तत्तद् विलपती बहु ॥ १२ ॥

मूलम्

तदवस्थान् सुतान् सर्वानुपसृत्यातिवत्सला ।
स्वजमानावदच्छोकात् तत्तद् विलपती बहु ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस अवस्थामें उन सभी पुत्रोंके निकट पहुँचकर कुन्तीके हृदयमें अत्यन्त वात्सल्य उमड़ आया। वे उन्हें हृदयसे लगाकर शोकवश बहुत विलाप करती हुई बोलीं॥१२॥

मूलम् (वचनम्)

कुन्त्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं सद्धर्मचारित्रान् वृत्तस्थितिविभूषितान् ।
अक्षुद्रान् दृढभक्तांश्च दैवतेज्यापरान् सदा ॥ १३ ॥
व्यसनं वः समभ्यागात् कोऽयं विधिविपर्ययः।
कस्यापध्यानजं चेदं धिया पश्यामि नैव तत् ॥ १४ ॥

मूलम्

कथं सद्धर्मचारित्रान् वृत्तस्थितिविभूषितान् ।
अक्षुद्रान् दृढभक्तांश्च दैवतेज्यापरान् सदा ॥ १३ ॥
व्यसनं वः समभ्यागात् कोऽयं विधिविपर्ययः।
कस्यापध्यानजं चेदं धिया पश्यामि नैव तत् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीने कहा— पुत्रो! तुम उत्तम धर्मका पालन करनेवाले तथा सदाचारकी मर्यादासे विभूषित हो। तुममें क्षुद्रताका अभाव है। तुम भगवान्‌के सुदृढ़ भक्त और देवाराधनमें सदा तत्पर रहनेवाले हो, तो भी तुम्हारे ऊपर यह विपत्तिका पहाड़ टूट पड़ा है। विधाताका यह कैसा विपरीत विधान है। किसके अनिष्टचिन्तनसे तुम्हारे ऊपर यह महान् दुःख आया है, यह बुद्धिसे बार-बार विचार करनेपर भी मुझे कुछ सूझ नहीं पड़ता॥१३-१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्यात् तु मद्भाग्यदोषोऽयं याहं युष्मानजीजनम्।
दुःखायासभुजोऽत्यर्थं युक्तानप्युत्तमैर्गुणैः ॥ १५ ॥

मूलम्

स्यात् तु मद्भाग्यदोषोऽयं याहं युष्मानजीजनम्।
दुःखायासभुजोऽत्यर्थं युक्तानप्युत्तमैर्गुणैः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह मेरे ही भाग्यका दोष हो सकता है। तुम तो उत्तम गुणोंसे युक्त हो तो भी अत्यन्त दुःख और कष्ट भोगनेके लिये ही मैंने तुम्हें जन्म दिया है॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं वत्स्यथ दुर्गेषु वने ऋद्धिविनाकृताः।
वीर्यसत्त्वबलोत्साहतेजोभिरकृशाः कृशाः ॥ १६ ॥

मूलम्

कथं वत्स्यथ दुर्गेषु वने ऋद्धिविनाकृताः।
वीर्यसत्त्वबलोत्साहतेजोभिरकृशाः कृशाः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार सम्पत्तिसे वंचित होकर तुम वनके दुर्गम स्थानोंमें कैसे रह सकोगे? वीर्य, धैर्य, बल, उत्साह और तेजसे परिपुष्ट होते हुए भी तुम दुर्बल हो॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद्येतदेवमज्ञास्यं वने वासो हि वो ध्रुवम्।
शतशृङ्गान्मृते पाण्डौ नागमिष्यं गजाह्वयम् ॥ १७ ॥

मूलम्

यद्येतदेवमज्ञास्यं वने वासो हि वो ध्रुवम्।
शतशृङ्गान्मृते पाण्डौ नागमिष्यं गजाह्वयम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि मैं यह जानती कि नगरमें आनेपर तुम्हें निश्चय ही वनवासका कष्ट भोगना पड़ेगा तो महाराज पाण्डुके परलोकवासी हो जानेपर शतशृंगपुरसे हस्तिनापुर नहीं आती॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धन्यं वः पितरं मन्ये तपोमेधान्वितं तथा।
यः पुत्राधिमसम्प्राप्य स्वर्गेच्छामकरोत् प्रियाम् ॥ १८ ॥

मूलम्

धन्यं वः पितरं मन्ये तपोमेधान्वितं तथा।
यः पुत्राधिमसम्प्राप्य स्वर्गेच्छामकरोत् प्रियाम् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं तो तुम्हारे तपस्वी एवं मेधावी पिताको ही धन्य मानती हूँ, जिन्होंने पुत्रोंके दुःखसे दुःखी होनेका अवसर न पाकर स्वर्गलोककी अभिलाषाको ही प्रिय समझा॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धन्यां चातीन्द्रियज्ञानामिमां प्राप्तां परां गतिम्।
मन्ये तु माद्रीं धर्मज्ञां कल्याणीं सर्वथैव तु ॥ १९ ॥
रत्या मत्या च गत्या च ययाहमभिसन्धिता।
जीवितप्रियतां मह्यं धिङ्््मां संक्लेशभागिनीम् ॥ २० ॥

मूलम्

धन्यां चातीन्द्रियज्ञानामिमां प्राप्तां परां गतिम्।
मन्ये तु माद्रीं धर्मज्ञां कल्याणीं सर्वथैव तु ॥ १९ ॥
रत्या मत्या च गत्या च ययाहमभिसन्धिता।
जीवितप्रियतां मह्यं धिङ्््मां संक्लेशभागिनीम् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार अतीन्द्रिय ज्ञानसे सम्पन्न एवं परमगतिको प्राप्त हुई कल्याणमयी इस धर्मज्ञा माद्रीको भी सर्वथा धन्य मानती हूँ। जिसने अपने अनुराग, उत्तम बुद्धि और सद्व्यवहारद्वारा मुझे भुलाकर जीवित रहनेके लिये विवश कर दिया। मुझको और जीवनके प्रति मेरी इस आसक्तिको धिक्कार है! जिसके कारण मुझे यह महान् क्लेश भोगना पड़ता है॥१९-२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुत्रका न विहास्ये वः कृच्छ्रलब्धान् प्रियान् सतः।
साहं यास्यामि हि वनं हा कृष्णे किं जहासि माम्॥२१॥

मूलम्

पुत्रका न विहास्ये वः कृच्छ्रलब्धान् प्रियान् सतः।
साहं यास्यामि हि वनं हा कृष्णे किं जहासि माम्॥२१॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुत्रो! तुम सदाचारी और मेरे लिये प्राणोंसे भी अधिक प्यारे हो। मैंने बड़े कष्टसे तुम्हें पाया है; अतः तुम्हें छोड़कर अलग नहीं रहूँगी। मैं भी तुम्हारे साथ वनमें चलूँगी। हाय कृष्णे! तुम क्यों मुझे छोड़े जाती हो?॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्तवत्यसुधर्मेऽस्मिन् धात्रा किं नु प्रमादतः।
ममान्तो नैव विहितस्तेनायुर्न जहाति माम् ॥ २२ ॥

मूलम्

अन्तवत्यसुधर्मेऽस्मिन् धात्रा किं नु प्रमादतः।
ममान्तो नैव विहितस्तेनायुर्न जहाति माम् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह प्राणधारणरूपी धर्म अनित्य है, एक-न-एक दिन इसका अन्त होना निश्चित है, फिर भी विधाताने न जाने क्यों प्रमादवश मेरे जीवनका भी शीघ्र ही अन्त नहीं नियत कर दिया। तभी तो आयु मुझे छोड़ नहीं रही है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हा कृष्ण द्वारकावासिन् क्वासि संकर्षणानुज।
कस्मान्न त्रायसे दुःखान्मां चेमांश्च नरोत्तमान् ॥ २३ ॥

मूलम्

हा कृष्ण द्वारकावासिन् क्वासि संकर्षणानुज।
कस्मान्न त्रायसे दुःखान्मां चेमांश्च नरोत्तमान् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हा द्वारकावासी श्रीकृष्ण! तुम कहाँ हो! बलरामजीके छोटे भैया! मुझको तथा इन नरश्रेष्ठ पाण्डवोंको इस दुःखसे क्यों नहीं बचाते?॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनादिनिधनं ये त्वामनुध्यायन्ति वै नराः।
तांस्त्वं पासीत्ययं वादः स गतो व्यर्थतां कथम् ॥ २४ ॥

मूलम्

अनादिनिधनं ये त्वामनुध्यायन्ति वै नराः।
तांस्त्वं पासीत्ययं वादः स गतो व्यर्थतां कथम् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘प्रभो! तुम आदि-अन्तसे रहित हो, जो मनुष्य तुम्हारा निरन्तर स्मरण करते हैं, उन्हें तुम अवश्य संकटसे बचाते हो।’ तुम्हारी यह विरद व्यर्थ कैसे हो रही है?॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इमे सद्धर्ममाहात्म्ययशोवीर्यानुवर्तिनः ।
नार्हन्ति व्यसनं भोक्तुं नन्वेषां क्रियतां दया ॥ २५ ॥

मूलम्

इमे सद्धर्ममाहात्म्ययशोवीर्यानुवर्तिनः ।
नार्हन्ति व्यसनं भोक्तुं नन्वेषां क्रियतां दया ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये मेरे पुत्र उत्तम धर्म, महात्मा पुरुषोंके शील-स्वभाव, यश और पराक्रमका अनुसरण करनेवाले हैं, अतः कष्ट भोगनेके योग्य नहीं हैं; भगवन्! इनपर तो दया करो॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सेयं नीत्यर्थविज्ञेषु भीष्मद्रोणकृपादिषु ।
स्थितेषु कुलनाथेषु कथमापदुपागता ॥ २६ ॥

मूलम्

सेयं नीत्यर्थविज्ञेषु भीष्मद्रोणकृपादिषु ।
स्थितेषु कुलनाथेषु कथमापदुपागता ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नीतिके अर्थको जाननेवाले परम विद्वान् भीष्म, द्रोण और कृपाचार्य आदिके, जो इस कुलके रक्षक हैं, उनके रहते हुए यह विपत्ति हमपर क्यों आयी?॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हा पाण्डो हा महाराज क्वासि किं समुपेक्षसे।
पुत्रान् विवास्यतः साधूनरिभिर्द्यूतनिर्जितान् ॥ २७ ॥

मूलम्

हा पाण्डो हा महाराज क्वासि किं समुपेक्षसे।
पुत्रान् विवास्यतः साधूनरिभिर्द्यूतनिर्जितान् ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हा महाराज पाण्डु! कहाँ हो? आज तुम्हारे श्रेष्ठ पुत्रोंको शत्रुओंने जूएमें जीतकर वनवास दे दिया है, तुम क्यों इनकी दुरवस्थाकी उपेक्षा कर रहे हो?॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सहदेव निवर्तस्व ननु त्वमसि मे प्रियः।
शरीरादपि माद्रेय मा मा त्याक्षीः कुपुत्रवत् ॥ २८ ॥

मूलम्

सहदेव निवर्तस्व ननु त्वमसि मे प्रियः।
शरीरादपि माद्रेय मा मा त्याक्षीः कुपुत्रवत् ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

माद्रीनन्दन सहदेव! तुम मुझे अपने शरीरसे भी अधिक प्रिय हो। बेटा! लौट आओ। कुपुत्रकी भाँति मेरा त्याग न करो॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्रजन्तु भ्रातरस्तेऽमी यदि सत्याभिसंधिनः।
मत्परित्राणजं धर्ममिहैव त्वमवाप्नुहि ॥ २९ ॥

मूलम्

व्रजन्तु भ्रातरस्तेऽमी यदि सत्याभिसंधिनः।
मत्परित्राणजं धर्ममिहैव त्वमवाप्नुहि ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम्हारे ये भाई यदि सत्यधर्मके पालनका आग्रह रखकर वनमें जा रहे हैं तो जायँ; तुम यहीं रहकर मेरी रक्षाजनित धर्मका लाभ लो॥२९॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं विलपतीं कुन्तीमभिवाद्य प्रणम्य च।
पाण्डवा विगतानन्दा वनायैव प्रवव्रजुः ॥ ३० ॥

मूलम्

एवं विलपतीं कुन्तीमभिवाद्य प्रणम्य च।
पाण्डवा विगतानन्दा वनायैव प्रवव्रजुः ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— इस प्रकार विलाप करती हुई माता कुन्तीको अभिवादन एवं प्रणाम करके पाण्डवलोग दुःखी हो वनको चले गये॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विदुरश्चापि तामार्तां कुन्तीमाश्वास्य हेतुभिः।
प्रावेशयद् गृहं क्षत्ता स्वयमार्ततरः शनैः ॥ ३१ ॥

मूलम्

विदुरश्चापि तामार्तां कुन्तीमाश्वास्य हेतुभिः।
प्रावेशयद् गृहं क्षत्ता स्वयमार्ततरः शनैः ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विदुरजी शोकाकुला कुन्तीको अनेक प्रकारकी युक्तियोंद्वारा धीरज बँधाकर उन्हें धीरे-धीरे अपने घर ले गये। उस समय वे स्वयं भी बहुत दुःखी थे॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(ततः सम्प्रस्थिते तत्र धर्मराजे तदा नृपे।
जनाः समस्तास्तं द्रष्टुं समारुरुहुरातुराः॥
ततः प्रासादवर्याणि विमानशिखराणि च।
गोपुराणि च सर्वाणि वृक्षानन्यांश्च सर्वशः॥
अधिरुह्य जनः श्रीमानुदासीनो व्यलोकयत्।

मूलम्

(ततः सम्प्रस्थिते तत्र धर्मराजे तदा नृपे।
जनाः समस्तास्तं द्रष्टुं समारुरुहुरातुराः॥
ततः प्रासादवर्याणि विमानशिखराणि च।
गोपुराणि च सर्वाणि वृक्षानन्यांश्च सर्वशः॥
अधिरुह्य जनः श्रीमानुदासीनो व्यलोकयत्।

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर धर्मराज युधिष्ठिर जब वनकी ओर प्रस्थित हुए, तब उस नगरके समस्त निवासी दुःखसे आतुर हो उन्हें देखनेके लिये महलों, मकानकी छतों, समस्त गोपुरों और वृक्षोंपर चढ़ गये। वहाँसे सब लोग उदास होकर उन्हें देखने लगे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हि रथ्यास्ततः शक्या गन्तुं बहुजनाकुलाः॥
आरुह्य ते स्म तान्यत्र दीनाः पश्यन्ति पाण्डवम्।

मूलम्

न हि रथ्यास्ततः शक्या गन्तुं बहुजनाकुलाः॥
आरुह्य ते स्म तान्यत्र दीनाः पश्यन्ति पाण्डवम्।

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय सड़कें मनुष्योंकी भारी भीड़से इतनी भर गयी थीं कि उनपर चलना असम्भव हो गया था। इसीलिये लोग ऊँचे चढ़कर अत्यन्त दीनभावसे पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरको देख रहे थे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पदातिं वर्जितच्छत्रं चेलभूषणवर्जितम् ॥
वल्कलाजिनसंवीतं पार्थं दृष्ट्वा जनास्तदा।
ऊचुर्बहुविधा वाचो भृशोपहतचेतसः ॥

मूलम्

पदातिं वर्जितच्छत्रं चेलभूषणवर्जितम् ॥
वल्कलाजिनसंवीतं पार्थं दृष्ट्वा जनास्तदा।
ऊचुर्बहुविधा वाचो भृशोपहतचेतसः ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर छत्ररहित एवं पैदल ही चल रहे थे। उनके शरीरपर राजोचित वस्त्रों और आभूषणोंका भी अभाव था। वे वल्कल और मृगचर्म पहने हुए थे। उन्हें इस दशामें देखकर लोगोंके हृदयमें गहरी चोट पहुँची और वे सब लोग नाना प्रकारकी बातें करने लगे।

मूलम् (वचनम्)

जना ऊचुः

विश्वास-प्रस्तुतिः

यं यान्तमनुयाति स्म चतुरङ्गबलं महत्।
तमेवं कृष्णया सार्धमनुयान्ति स्म पाण्डवाः॥
चत्वारो भ्रातरश्चैव पुरोधाश्च विशाम्पतिम्।

मूलम्

यं यान्तमनुयाति स्म चतुरङ्गबलं महत्।
तमेवं कृष्णया सार्धमनुयान्ति स्म पाण्डवाः॥
चत्वारो भ्रातरश्चैव पुरोधाश्च विशाम्पतिम्।

अनुवाद (हिन्दी)

नगरनिवासी मनुष्य बोले— अहो! यात्रा करते समय जिनके पीछे विशाल चतुरंगिणी सेना चलती थी, आज वे ही राजा युधिष्ठिर इस प्रकार जा रहे हैं और उनके पीछे द्रौपदीके साथ केवल चार भाई पाण्डव तथा पुरोहित चल रहे हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

या न शक्या पुरा द्रष्टुं भूतैराकाशगैरपि॥
तामद्य कृष्णां पश्यन्ति राजमार्गगता जनाः।

मूलम्

या न शक्या पुरा द्रष्टुं भूतैराकाशगैरपि॥
तामद्य कृष्णां पश्यन्ति राजमार्गगता जनाः।

अनुवाद (हिन्दी)

जिसे आजसे पहले आकाशचारी प्राणीतक नहीं देख पाते थे, उसी द्रुपदकुमारी कृष्णाको अब सड़कपर चलनेवाले साधारण लोग भी देख रहे हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अङ्गरागोचितां कृष्णां रक्तचन्दनसेविनीम् ॥
वर्षमुष्णं च शीतं च नेष्यत्याशु विवर्णताम्।

मूलम्

अङ्गरागोचितां कृष्णां रक्तचन्दनसेविनीम् ॥
वर्षमुष्णं च शीतं च नेष्यत्याशु विवर्णताम्।

अनुवाद (हिन्दी)

सुकुमारी द्रौपदीके अंगोंमें दिव्य अंगराग शोभा पाता था। वह लाल चन्दनका सेवन करती थी, परंतु अब वनमें सर्दी, गर्मी और वर्षा लगनेसे उसकी अंगकान्ति शीघ्र ही फीकी पड़ जायगी।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्य नूनं पृथा देवी सत्त्वमाविश्य भाषते॥
पुत्रान् स्तुषां च देवी तु द्रष्टुमद्याथ नार्हति॥

मूलम्

अद्य नूनं पृथा देवी सत्त्वमाविश्य भाषते॥
पुत्रान् स्तुषां च देवी तु द्रष्टुमद्याथ नार्हति॥

अनुवाद (हिन्दी)

निश्चय ही आज कुन्तीदेवी बड़े भारी धैर्यका आश्रय लेकर अपने पुत्रों और पुत्रवधूसे वार्तालाप करती हैं; अन्यथा इस दशामें वे इनकी ओर देख भी नहीं सकतीं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

निर्गुणस्यापि पुत्रस्य कथं स्याद्‌ दुःखदर्शनम्।
किं पुनर्यस्य लोकोऽयं जितो वृत्तेन केवलम्॥

मूलम्

निर्गुणस्यापि पुत्रस्य कथं स्याद्‌ दुःखदर्शनम्।
किं पुनर्यस्य लोकोऽयं जितो वृत्तेन केवलम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

गुणहीन पुत्रका भी दुःख मातासे कैसे देखा जायगा; फिर जिस पुत्रके सदाचारमात्रसे यह सारा संसार वशीभूत हो जाता है, उसपर कोई दुःख आये तो उसकी माता वह कैसे देख सकती है?

विश्वास-प्रस्तुतिः

आनृशंस्यमनुक्रोशो धृतिः शीलं दमः शमः।
पाण्डवं शोभयन्त्येते षड् गुणाः पुरुषोत्तमम्॥
तस्मात् तस्योपघातेन प्रजाः परमपीडिताः।

मूलम्

आनृशंस्यमनुक्रोशो धृतिः शीलं दमः शमः।
पाण्डवं शोभयन्त्येते षड् गुणाः पुरुषोत्तमम्॥
तस्मात् तस्योपघातेन प्रजाः परमपीडिताः।

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुषरत्न पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरको कोमलता, दया, धैर्य, शील, इन्द्रियसंयम और मनोनिग्रह—ये छः सद्‌गुण सुशोभित करते हैं। अतः उनकी हानिसे आज सारी प्रजाको बड़ी पीड़ा हो रही है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

औदकानीव सत्त्वानि ग्रीष्मे सलिलसंक्षयात्॥
पीडया पीडितं सर्वं जगत् तस्य जगत्पतेः।
मूलस्यैवोपघातेन वृक्षः पुष्पफलोपगः ॥

मूलम्

औदकानीव सत्त्वानि ग्रीष्मे सलिलसंक्षयात्॥
पीडया पीडितं सर्वं जगत् तस्य जगत्पतेः।
मूलस्यैवोपघातेन वृक्षः पुष्पफलोपगः ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे गर्मीमें जलाशयका पानी घट जानेसे जलचर जीव-जन्तु व्यथित हो उठते हैं एवं जड़ कट जानेसे फल और फूलोंसे युक्त वृक्ष सूखने लगता है, उसी प्रकार सम्पूर्ण जगत्‌के पालक महाराज युधिष्ठिरकी पीड़ासे सारा संसार पीड़ित हो गया है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मूलं ह्येष मनुष्याणां धर्मराजो महाद्युतिः।
पुष्पं फलं च पत्रं च शाखास्तस्येतरे जनाः॥
ते भ्रातर इव क्षिप्रं सपुत्राः सहबान्धवाः।
गच्छन्तमनुगच्छामो येन गच्छति पाण्डवः॥

मूलम्

मूलं ह्येष मनुष्याणां धर्मराजो महाद्युतिः।
पुष्पं फलं च पत्रं च शाखास्तस्येतरे जनाः॥
ते भ्रातर इव क्षिप्रं सपुत्राः सहबान्धवाः।
गच्छन्तमनुगच्छामो येन गच्छति पाण्डवः॥

अनुवाद (हिन्दी)

महातेजस्वी धर्मराज युधिष्ठिर मनुष्योंके मूल हैं। जगत्‌के दूसरे लोग उन्हींकी शाखा, पत्र, पुष्प और फल हैं। आज हम अपने पुत्रों और भाई-बन्धुओंको साथ लेकर चारों भाई पाण्डवोंकी भाँति शीघ्र उसी मार्गसे उनके पीछे-पीछे चलें, जिससे पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर जा रहे हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

उद्यानानि परित्यज्य क्षेत्राणि च गृहाणि च।
एकदुःखसुखाः पार्थमनुयाम सुधार्मिकम् ॥

मूलम्

उद्यानानि परित्यज्य क्षेत्राणि च गृहाणि च।
एकदुःखसुखाः पार्थमनुयाम सुधार्मिकम् ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आज हम अपने खेत, बाग-बगीचे और घर-द्वार छोड़कर परम धर्मात्मा कुन्तीनन्दन युधिष्ठिरके साथ चल दें और उन्हींके सुख-दुःखको अपना सुख-दुःख समझें।

विश्वास-प्रस्तुतिः

समुद्‌धृतनिधानानि परिध्वस्ताजिराणि च ।
उपात्तधनधान्यानि हृतसाराणि सर्वशः ॥
रजसाप्यवकीर्णानि परित्यक्तानि दैवतैः ।
मूषकैः परिधावद्भिरुद्बिलैरावृतानि च ॥
अपेतोदकधूमानि हीनसम्मार्जनानि च ।
प्रणष्टबलिकर्मेज्यामन्त्रहोमजपानि च ॥
दुष्कालेनेव भग्नानि भिन्नभाजनवन्ति च।
अस्मत्त्यक्तानि वेश्मानि सौबलः प्रतिपद्यताम्॥

मूलम्

समुद्‌धृतनिधानानि परिध्वस्ताजिराणि च ।
उपात्तधनधान्यानि हृतसाराणि सर्वशः ॥
रजसाप्यवकीर्णानि परित्यक्तानि दैवतैः ।
मूषकैः परिधावद्भिरुद्बिलैरावृतानि च ॥
अपेतोदकधूमानि हीनसम्मार्जनानि च ।
प्रणष्टबलिकर्मेज्यामन्त्रहोमजपानि च ॥
दुष्कालेनेव भग्नानि भिन्नभाजनवन्ति च।
अस्मत्त्यक्तानि वेश्मानि सौबलः प्रतिपद्यताम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

हम अपने घरोंकी गड़ी हुई निधि निकाल लें। आँगनकी फर्श खोद डालें। सारा धन धान्य साथ ले लें। सारी आवश्यक वस्तुएँ हटा लें। इनमें चारों ओर धूल भर जाय। देवता इन घरोंको छोड़कर भाग जायँ। चूहे बिलसे बाहर निकलकर इनमें चारों ओर दौड़ लगाने लगें। इनमें न कभी आग जले, न पानी रहे और न झाड़ू ही लगे। यहाँ बलिवैश्वदेव, यज्ञ, मन्त्रपाठ, होम और जप बंद हो जाय। मानो बड़ा भारी अकाल पड़ गया हो, इस प्रकार ये सारे घर ढह जायँ। इनमें टूटे बर्तन बिखरे पड़े हों और हम सदाके लिये इन्हें छोड़ दें—ऐसी दशामें इन घरोंपर कपटी सुबलपुत्र शकुनि आकर अधिकार कर ले।

विश्वास-प्रस्तुतिः

वनं नगरमद्यास्तु यत्र गच्छन्ति पाण्डवाः।
अस्माभिश्च परित्यक्तं पुरं सम्पद्यतां वनम्॥

मूलम्

वनं नगरमद्यास्तु यत्र गच्छन्ति पाण्डवाः।
अस्माभिश्च परित्यक्तं पुरं सम्पद्यतां वनम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब जहाँ पाण्डव जा रहे हैं, वह वन ही नगर हो जाय और हमारे छोड़ देनेपर यह नगर ही वनके रूपमें परिणत हो जाय।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलानि दंष्ट्रिणः सर्वे वनानि मृगपक्षिणः।
त्यजन्त्वस्मद्भयाद् भीता गजाः सिंहा वनान्यपि॥

मूलम्

बिलानि दंष्ट्रिणः सर्वे वनानि मृगपक्षिणः।
त्यजन्त्वस्मद्भयाद् भीता गजाः सिंहा वनान्यपि॥

अनुवाद (हिन्दी)

वनमें हमलोगोंके भयसे साँप अपने बिल छोड़कर भाग जायँ, मृग और पक्षी जंगलोंको छोड़ दें तथा हाथी और सिंह भी वहाँसे दूर चले जायँ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनाक्रान्तं प्रपद्यन्तु सेव्यमानं त्यजन्तु च।
तृणमाषफलादानां देशांस्त्यक्त्वा मृगद्विजाः ॥
वयं पार्थैर्वने सम्यक् सह वत्स्याम निर्वृताः।

मूलम्

अनाक्रान्तं प्रपद्यन्तु सेव्यमानं त्यजन्तु च।
तृणमाषफलादानां देशांस्त्यक्त्वा मृगद्विजाः ॥
वयं पार्थैर्वने सम्यक् सह वत्स्याम निर्वृताः।

अनुवाद (हिन्दी)

हमलोग तृण (साग-पात), अन्न और फलका उपयोग करनेवाले हैं। जंगलके हिंसक पशु और पक्षी हमारे रहनेके स्थानोंको छोड़कर चले जायँ। वे ऐसे स्थानका आश्रय लें, जहाँ हम न जायँ और वे उन स्थानोंको छोड़ दें, जिनका हम सेवन करें। हमलोग वनमें कुन्तीपुत्रोंके साथ बड़े सुखसे रहेंगे।

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्येवं विविधा वाचो नानाजनसमीरिताः।
शुश्राव पार्थः श्रुत्वा च न विचक्रेऽस्य मानसम्॥

मूलम्

इत्येवं विविधा वाचो नानाजनसमीरिताः।
शुश्राव पार्थः श्रुत्वा च न विचक्रेऽस्य मानसम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! इस प्रकार भिन्न-भिन्न मनुष्योंकी कही हुई भाँति-भाँतिकी बातें युधिष्ठिरने सुनीं। सुनकर भी उनके मनमें कोई विकार नहीं आया।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रासादसंस्थास्तु समन्ताद् वै गृहे गृहे।
ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां चैव योषितः॥
ततः प्रासादजालानामुत्पाट्यावरणानि च ।
ददृशुः पाण्डवान् दीनान् रौरवाजिनवाससः॥
कृष्णां त्वदृष्टपूर्वां तां व्रजन्तीं पद्भिरेव च।
एकवस्त्रां रुदन्तीं तां मुक्तकेशीं रजस्वलाम्॥
दृष्ट्वा तदा स्त्रियः सर्वा विवर्णवदना भृशम्।
विलप्य बहुधा मोहाद् दुःखशोकेन पीडिताः॥
हा हा धिग् धिग् धिगित्युक्त्वा नेत्रैरश्रूण्यवर्तयन्।)

मूलम्

ततः प्रासादसंस्थास्तु समन्ताद् वै गृहे गृहे।
ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां चैव योषितः॥
ततः प्रासादजालानामुत्पाट्यावरणानि च ।
ददृशुः पाण्डवान् दीनान् रौरवाजिनवाससः॥
कृष्णां त्वदृष्टपूर्वां तां व्रजन्तीं पद्भिरेव च।
एकवस्त्रां रुदन्तीं तां मुक्तकेशीं रजस्वलाम्॥
दृष्ट्वा तदा स्त्रियः सर्वा विवर्णवदना भृशम्।
विलप्य बहुधा मोहाद् दुःखशोकेन पीडिताः॥
हा हा धिग् धिग् धिगित्युक्त्वा नेत्रैरश्रूण्यवर्तयन्।)

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर चारों ओर महलोंमें रहनेवाली ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रोंकी स्त्रियाँ अपने-अपने भवनोंकी खिड़कियोंके पर्दे हटाकर दीन पाण्डवोंको देखने लगीं। सब पाण्डवोंने मृगचर्ममय वस्त्र धारण कर रखा था। उनके साथ द्रौपदी भी पैदल ही चली जा रही थी। उसे उन स्त्रियोंने पहले कभी नहीं देखा था। उसके शरीरपर एक ही वस्त्र था, केश खुले हुए थे, वह रजस्वला थी और रोती चली जा रही थी। उसे देखकर उस समय सब स्त्रियोंका मुख उदास हो गया। वे क्षोभ एवं मोहके कारण नाना प्रकारसे विलाप करती हुई दुःख-शोकसे पीड़ित हो गयीं और ‘हाय हाय! इन धृतराष्ट्रपुत्रोंको बार-बार धिक्कार है, धिक्कार है’ ऐसा कहकर नेत्रोंसे आँसू बहाने लगीं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

धार्तराष्ट्रस्त्रियस्ताश्च निखिलेनोपलभ्य तत् ।
गमनं परिकर्षं च कृष्णाया द्यूतमण्डले ॥ ३२ ॥
रुरुदुः सुस्वनं सर्वा विनिन्दन्त्यः कुरून् भृशम्।
दध्युश्च सुचिरं कालं करासक्तमुखाम्बुजाः ॥ ३३ ॥

मूलम्

धार्तराष्ट्रस्त्रियस्ताश्च निखिलेनोपलभ्य तत् ।
गमनं परिकर्षं च कृष्णाया द्यूतमण्डले ॥ ३२ ॥
रुरुदुः सुस्वनं सर्वा विनिन्दन्त्यः कुरून् भृशम्।
दध्युश्च सुचिरं कालं करासक्तमुखाम्बुजाः ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्रपुत्रोंकी स्त्रियाँ द्रौपदीके द्यूतसभामें जाने और उसके वस्त्र खींचे जाने (एवं वनमें जाने) आदिका सारा वृत्तान्त सुनकर कौरवोंकी अत्यन्त निन्दा करती हुई फूट-फूटकर रोने लगीं और अपने मुखारविन्दको हथेलीपर रखकर बहुत देरतक गहरी चिन्तामें डूबी रहीं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजा च धृतराष्ट्रस्तु पुत्राणामनयं तदा।
ध्यायन्नुद्विग्नहृदयो न शान्तिमधिजग्मिवान् ॥ ३४ ॥

मूलम्

राजा च धृतराष्ट्रस्तु पुत्राणामनयं तदा।
ध्यायन्नुद्विग्नहृदयो न शान्तिमधिजग्मिवान् ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय अपने पुत्रोंके अन्यायका चिन्तन करके राजा धृतराष्ट्रका भी हृदय उद्विग्न हो उठा। उन्हें तनिक भी शान्ति नहीं मिली॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स चिन्तयन्ननेकाग्रः शोकव्याकुलचेतनः ।
क्षत्तुः सम्प्रेषयामास शीघ्रमागम्यतामिति ॥ ३५ ॥

मूलम्

स चिन्तयन्ननेकाग्रः शोकव्याकुलचेतनः ।
क्षत्तुः सम्प्रेषयामास शीघ्रमागम्यतामिति ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

चिन्तामें पड़े-पड़े उनकी एकाग्रता नष्ट हो गयी। उनका चित्त शोकसे व्याकुल हो रहा था। उन्होंने विदुरके पास संदेश भेजा कि तुम शीघ्र मेरे पास चले आओ॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो जगाम विदुरो धृतराष्ट्रनिवेशनम्।
तं पर्यपृच्छत् संविग्नो धृतराष्ट्रो जनाधिपः ॥ ३६ ॥

मूलम्

ततो जगाम विदुरो धृतराष्ट्रनिवेशनम्।
तं पर्यपृच्छत् संविग्नो धृतराष्ट्रो जनाधिपः ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब विदुर राजा धृतराष्ट्रके महलमें गये। उस समय महाराज धृतराष्ट्रने अत्यन्त उद्विग्न होकर उनसे पूछा॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि अनुद्यूतपर्वणि द्रौपदीकुन्तीसंवादे एकोनाशीतितमोऽध्यायः ॥ ७९ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्वके अन्तर्गत अनुद्यूतपर्वमें द्रौपदीकुन्तीसंवादविषयक उनासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥७९॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २९ श्लोक मिलाकर कुल ६५ श्लोक हैं)