०७८ युधिष्ठिरप्रस्थानम्

भागसूचना

अष्टसप्ततितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

युधिष्ठिरका धृतराष्ट्र आदिसे विदा लेना, विदुरका कुन्तीको अपने यहाँ रखनेका प्रस्ताव और पाण्डवोंको धर्मपूर्वक रहनेका उपदेश देना

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

आमन्त्रयामि भरतांस्तथा वृद्धं पितामहम्।
राजानं सोमदत्तं च महाराजं च बाह्लिकम् ॥ १ ॥
द्रोणं कृपं नृपांश्चान्यानश्वत्थामानमेव च।
विदुरं धृतराष्ट्रं च धार्तराष्ट्रांश्च सर्वशः ॥ २ ॥
युयुत्सुं संजयं चैव तथैवान्यान् सभासदः।
सर्वानामन्त्र्य गच्छामि द्रष्टास्मि पुनरेत्य वः ॥ ३ ॥

मूलम्

आमन्त्रयामि भरतांस्तथा वृद्धं पितामहम्।
राजानं सोमदत्तं च महाराजं च बाह्लिकम् ॥ १ ॥
द्रोणं कृपं नृपांश्चान्यानश्वत्थामानमेव च।
विदुरं धृतराष्ट्रं च धार्तराष्ट्रांश्च सर्वशः ॥ २ ॥
युयुत्सुं संजयं चैव तथैवान्यान् सभासदः।
सर्वानामन्त्र्य गच्छामि द्रष्टास्मि पुनरेत्य वः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— मैं भरतवंशके समस्त गुरुजनोंसे वनमें जानेकी आज्ञा चाहता हूँ। बड़े-बूढ़े पितामह भीष्म, राजा सोमदत्त, महाराज बाह्लिक, गुरुवर द्रोण और कृपाचार्य, अश्वत्थामा, अन्यान्य नृपतिगण, विदुर, राजा धृतराष्ट्र, उनके सभी पुत्र, युयुत्सु, संजय तथा दूसरे सब सदस्योंसे पूछकर सबकी आज्ञा लेकर वनमें जाता हूँ, फिर लौटकर आप लोगोंका दर्शन करूँगा॥१—३॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

न च किंचिदथोचुस्तं ह्रिया सन्ना युधिष्ठिरम्।
मनोभिरेव कल्याणं दध्युस्ते तस्य धीमतः ॥ ४ ॥

मूलम्

न च किंचिदथोचुस्तं ह्रिया सन्ना युधिष्ठिरम्।
मनोभिरेव कल्याणं दध्युस्ते तस्य धीमतः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! युधिष्ठिरके इस प्रकार पूछनेपर सब कौरव लाजके मारे सन्न रह गये, कुछ भी उत्तर न दे सके। उन्होंने मन-ही-मन उन बुद्धिमान् युधिष्ठिरके कल्याणका चिन्तन किया॥४॥

मूलम् (वचनम्)

विदुर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

आर्या पृथा राजपुत्री नारण्यं गन्तुमर्हति।
सुकुमारी च वृद्धा च नित्यं चैव सुखोचिता ॥ ५ ॥
इह वत्स्यति कल्याणी सत्कृता मम वेश्मनि।
इति पार्था विजानीध्वमगदं वोऽस्तु सर्वशः ॥ ६ ॥

मूलम्

आर्या पृथा राजपुत्री नारण्यं गन्तुमर्हति।
सुकुमारी च वृद्धा च नित्यं चैव सुखोचिता ॥ ५ ॥
इह वत्स्यति कल्याणी सत्कृता मम वेश्मनि।
इति पार्था विजानीध्वमगदं वोऽस्तु सर्वशः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विदुर बोले— कुन्तीकुमारो! राजपुत्री आर्या कुन्ती वनमें जाने लायक नहीं हैं। वे कोमल अंगोंवाली और वृद्धा हैं, सदा सुख और आरामके ही योग्य हैं; अतः वे मेरे ही घरमें सत्कारपूर्वक रहेंगी। यह बात तुम सब लोग जान लो। मेरी शुभ कामना है कि तुम वहाँ सर्वथा नीरोग एवं सुखसे रहो॥५-६॥

मूलम् (वचनम्)

पाण्डवा ऊचुः

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथेत्युक्त्वाब्रुवन् सर्वे यथा नो वदसेऽनघ।
त्वं पितृव्यः पितृसमो वयं च त्वत्परायणाः ॥ ७ ॥

मूलम्

तथेत्युक्त्वाब्रुवन् सर्वे यथा नो वदसेऽनघ।
त्वं पितृव्यः पितृसमो वयं च त्वत्परायणाः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डवोंने कहा— बहुत अच्छा, ऐसा ही हो। इतना कहकर वे सब फिर बोले—‘अनघ! आप हमें जैसा कहें—जैसी आज्ञा दें, वही शिरोधार्य है। आप हमारे पितृव्य (पिताके भाई) हैं, अतः पिताके ही तुल्य हैं। हम सब भाई आपकी शरणमें हैं॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथाऽऽज्ञापयसे विद्वंस्त्वं हि नः परमो गुरुः।
यच्चान्यदपि कर्तव्यं तद् विधत्स्व महामते ॥ ८ ॥

मूलम्

यथाऽऽज्ञापयसे विद्वंस्त्वं हि नः परमो गुरुः।
यच्चान्यदपि कर्तव्यं तद् विधत्स्व महामते ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘विद्वन्! आप जैसी आज्ञा दें, वही हमें मान्य है; क्योंकि आप हमारे परम गुरु हैं। महामते! इसके सिवा और भी जो कुछ हमारा कर्तव्य हो, वह हमें बताइये’॥८॥

मूलम् (वचनम्)

विदुर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

युधिष्ठिर विजानीहि ममेदं भरतर्षभ।
नाधर्मेण जितः कश्चिद् व्यथते वै पराजये ॥ ९ ॥

मूलम्

युधिष्ठिर विजानीहि ममेदं भरतर्षभ।
नाधर्मेण जितः कश्चिद् व्यथते वै पराजये ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विदुर बोले— भरतकुलभूषण युधिष्ठिर! तुम मुझसे यह जान लो कि अधर्मसे पराजित होनेवाला कोई भी पुरुष अपनी उस पराजयके लिये दुःखी नहीं होता॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वं वै धर्मं विजानीषे युद्धे जेता धनंजयः।
हन्तारीणां भीमसेनो नकुलस्त्वर्थसंग्रही ॥ १० ॥

मूलम्

त्वं वै धर्मं विजानीषे युद्धे जेता धनंजयः।
हन्तारीणां भीमसेनो नकुलस्त्वर्थसंग्रही ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम धर्मके ज्ञाता हो। अर्जुन युद्धमें विजय पानेवाले हैं। भीमसेन शत्रुओंका नाश करनेमें समर्थ हैं। नकुल आवश्यक वस्तुओंको जुटानेमें कुशल हैं॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संयन्ता सहदेवस्तु धौम्यो ब्रह्मविदुत्तमः।
धर्मार्थकुशला चैव द्रौपदी धर्मचारिणी ॥ ११ ॥

मूलम्

संयन्ता सहदेवस्तु धौम्यो ब्रह्मविदुत्तमः।
धर्मार्थकुशला चैव द्रौपदी धर्मचारिणी ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सहदेव संयमी हैं तथा ब्रह्मर्षि धौम्यजी ब्रह्मवेत्ताओंके शिरोमणि हैं। एवं धर्मपरायणा द्रौपदी भी धर्म और अर्थके सम्पादनमें कुशल है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्योन्यस्य प्रियाः सर्वे तथैव प्रियदर्शनाः।
परैरभेद्याः संतुष्टाः को वो न स्पृहयेदिह ॥ १२ ॥

मूलम्

अन्योन्यस्य प्रियाः सर्वे तथैव प्रियदर्शनाः।
परैरभेद्याः संतुष्टाः को वो न स्पृहयेदिह ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम सब लोग आपसमें एक-दूसरेके प्रिय हो, तुम्हें देखकर सबको प्रसन्नता होती है। शत्रु तुममें भेद या फूट नहीं डाल सकते, इस जगत्‌में कौन है जो तुमलोगोंको न चाहता हो॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष वै सर्वकल्याणः समाधिस्तव भारत।
नैनं शत्रुर्विषहते शक्रेणापि समोऽप्युत ॥ १३ ॥

मूलम्

एष वै सर्वकल्याणः समाधिस्तव भारत।
नैनं शत्रुर्विषहते शक्रेणापि समोऽप्युत ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! तुम्हारा यह क्षमाशीलताका नियम सब प्रकारसे कल्याणकारी है। इन्द्रके समान पराक्रमी शत्रु भी इसका सामना नहीं कर सकता॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हिमवत्यनुशिष्टोऽसि मेरुसावर्णिना पुरा ।
द्वैपायनेन कृष्णेन नगरे वारणावते ॥ १४ ॥
भृगुतुङ्गे च रामेण दृषद्वत्यां च शम्भुना।
अश्रौषीरसितस्यापि महर्षेरञ्जनं प्रति ॥ १५ ॥

मूलम्

हिमवत्यनुशिष्टोऽसि मेरुसावर्णिना पुरा ।
द्वैपायनेन कृष्णेन नगरे वारणावते ॥ १४ ॥
भृगुतुङ्गे च रामेण दृषद्वत्यां च शम्भुना।
अश्रौषीरसितस्यापि महर्षेरञ्जनं प्रति ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पूर्वकालमें मेरुसावर्णिने हिमालयपर तुम्हें धर्म और ज्ञानका उपदेश दिया है, वारणावत नगरमें श्रीकृष्णद्वैपायन व्यासजीने, भृगुतुंग पर्वतपर परशुरामजीने तथा दृषद्वतीके तटपर साक्षात् भगवान् शंकरने तुम्हें अपने सदुपदेशसे कृतार्थ किया है। अंजन पर्वतपर तुमने महर्षि असितका भी उपदेश सुना है॥१४-१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कल्माषीतीरसंस्थस्य गतस्त्वं शिष्यतां भृगोः।
द्रष्टा सदा नारदस्ते धौम्यस्तेऽयं पुरोहितः ॥ १६ ॥

मूलम्

कल्माषीतीरसंस्थस्य गतस्त्वं शिष्यतां भृगोः।
द्रष्टा सदा नारदस्ते धौम्यस्तेऽयं पुरोहितः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कल्माषी नदीके किनारे निवास करनेवाले महर्षि भृगुने भी तुम्हें उपदेश देकर अनुगृहीत किया है। देवर्षि नारदजी सदा तुम्हारी देखभाल करते हैं और तुम्हारे ये पुरोहित धौम्यजी तो सदा साथ ही रहते हैं॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मा हासीः साम्पराये त्वं बुद्धिं तामृषिपूजिताम्।
पुरूरवसमैलं त्वं बुद्ध्या जयसि पाण्डव ॥ १७ ॥

मूलम्

मा हासीः साम्पराये त्वं बुद्धिं तामृषिपूजिताम्।
पुरूरवसमैलं त्वं बुद्ध्या जयसि पाण्डव ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऋषियोंद्वारा सम्मानित उस परलोकविषयक विज्ञानका तुम कभी त्याग न करना। पाण्डुनन्दन! तुम अपनी बुद्धिसे इलानन्दन पुरूरवाको भी पराजित करते हो॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शक्त्या जयसि राज्ञोऽन्यानृषीन् धर्मोपसेवया।
ऐन्द्रे जये धृतमना याम्ये कोपविधारणे ॥ १८ ॥

मूलम्

शक्त्या जयसि राज्ञोऽन्यानृषीन् धर्मोपसेवया।
ऐन्द्रे जये धृतमना याम्ये कोपविधारणे ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शक्तिसे समस्त राजाओंको तथा धर्मसेवनद्वारा ऋषियोंको भी जीत लेते हो। तुम इन्द्रसे मनमें विजयका उत्साह प्राप्त करो। क्रोधको काबूमें रखनेका पाठ यमराजसे सीखो।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा विसर्गे कौबेरे वारुणे चैव संयमे।
आत्मप्रदानं सौम्यत्वमद्भ्यश्चैवोपजीवनम् ॥ १९ ॥

मूलम्

तथा विसर्गे कौबेरे वारुणे चैव संयमे।
आत्मप्रदानं सौम्यत्वमद्भ्यश्चैवोपजीवनम् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उदारता एवं दानमें कुबेरका और संयममें वरुणका आदर्श ग्रहण करो। दूसरोंके हितके लिये अपने-आपको निछावर करना, सौम्यभाव (शीतलता) तथा दूसरोंको जीवन-दान देना—इन सब बातोंकी शिक्षा तुम्हें जलसे लेनी चाहिये॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूमेः क्षमा च तेजश्च समग्रं सूर्यमण्डलात्।
वायोर्बलं प्राप्नुहि त्वं भूतेभ्यश्चात्मसम्पदम् ॥ २० ॥

मूलम्

भूमेः क्षमा च तेजश्च समग्रं सूर्यमण्डलात्।
वायोर्बलं प्राप्नुहि त्वं भूतेभ्यश्चात्मसम्पदम् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम भूमिसे क्षमा, सूर्यमण्डलसे तेज, वायुसे बल तथा सम्पूर्ण भूतोंसे अपनी सम्पत्ति प्राप्त करो॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अगदं वोऽस्तु भद्रं वो द्रष्टास्मि पुनरागतान्।
आपद्धर्मार्थकृच्छ्रेषु सर्वकार्येषु वा पुनः ॥ २१ ॥
यथावत् प्रतिपद्येथाः काले काले युधिष्ठिर।
आपृष्टोऽसीह कौन्तेय स्वस्ति प्राप्नुहि भारत ॥ २२ ॥

मूलम्

अगदं वोऽस्तु भद्रं वो द्रष्टास्मि पुनरागतान्।
आपद्धर्मार्थकृच्छ्रेषु सर्वकार्येषु वा पुनः ॥ २१ ॥
यथावत् प्रतिपद्येथाः काले काले युधिष्ठिर।
आपृष्टोऽसीह कौन्तेय स्वस्ति प्राप्नुहि भारत ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम्हें कभी कोई रोग न हो, सदा मंगल-ही-मंगल दिखायी दे। कुशलपूर्वक वनसे लौटनेपर मैं फिर तुम्हें देखूँगा। युधिष्ठिर! आपत्तिकालमें, धर्म तथा अर्थका संकट उपस्थित होनेपर अथवा सभी कार्योंमें समय-समयपर अपने उचित कर्तव्यका पालन करना। कुन्तीनन्दन! भारत! तुमसे आवश्यक बातें कर लीं। तुम्हें कल्याण प्राप्त हो॥२१-२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृतार्थं स्वस्तिमन्तं त्वां द्रक्ष्यामः पुनरागतम्।
न हि वो वृजिनं किंचिद् वेद कश्चित् पुरा कृतम्॥२३॥

मूलम्

कृतार्थं स्वस्तिमन्तं त्वां द्रक्ष्यामः पुनरागतम्।
न हि वो वृजिनं किंचिद् वेद कश्चित् पुरा कृतम्॥२३॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब वनसे कुशलपूर्वक कृतार्थ होकर लौटोगे, तब यहाँ आनेपर फिर तुमसे मिलूँगा। तुम्हारे पहलेके किसी दोषको दूसरा कोई न जाने, इसकी चेष्टा रखना॥२३॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तस्तथेत्युक्त्वा पाण्डवः सत्यविक्रमः ।
भीष्मद्रोणौ नमस्कृत्य प्रातिष्ठत युधिष्ठिरः ॥ २४ ॥

मूलम्

एवमुक्तस्तथेत्युक्त्वा पाण्डवः सत्यविक्रमः ।
भीष्मद्रोणौ नमस्कृत्य प्रातिष्ठत युधिष्ठिरः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! विदुरके ऐसा कहनेपर सत्यपराक्रमी पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर भीष्म और द्रोणको नमस्कार करके वहाँसे प्रस्थित हुए॥२४॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि अनुद्यूतपर्वणि युधिष्ठिरवनप्रस्थानेऽष्टसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७८ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्वके अन्तर्गत अनुद्यूतपर्वमें युधिष्ठिरका वनको प्रस्थानविषयक अठहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥७८॥