श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
सप्तसप्ततितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
दुःशासनद्वारा पाण्डवोंका उपहास एवं भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेवकी शत्रुओंको मारनेके लिये भीषण प्रतिज्ञा
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः पराजिताः पार्था वनवासाय दीक्षिताः।
अजिनान्युत्तरीयाणि जगृहुश्च यथाक्रमम् ॥ १ ॥
मूलम्
ततः पराजिताः पार्था वनवासाय दीक्षिताः।
अजिनान्युत्तरीयाणि जगृहुश्च यथाक्रमम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! तदनन्तर जूएमें हारे हुए कुन्तीके पुत्रोंने वनवासकी दीक्षा ली और क्रमशः सबने मृगचर्मको उत्तरीय वस्त्रके रूपमें धारण किया॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अजिनैः संवृतान् दृष्ट्वा हृतराज्यानरिंदमान्।
प्रस्थितान् वनवासाय ततो दुःशासनोऽब्रवीत् ॥ २ ॥
मूलम्
अजिनैः संवृतान् दृष्ट्वा हृतराज्यानरिंदमान्।
प्रस्थितान् वनवासाय ततो दुःशासनोऽब्रवीत् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिनका राज्य छिन गया था, वे शत्रुदमन पाण्डव जब मृगचर्मसे अपने अंगोंको ढँककर वनवासके लिये प्रस्थित हुए, उस समय दुःशासनने सभामें उनको लक्ष्य करके कहा—॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रवृत्तं धार्तराष्ट्रस्य चक्रं राज्ञो महात्मनः।
पराजिताः पाण्डवेया विपत्तिं परमां गताः ॥ ३ ॥
मूलम्
प्रवृत्तं धार्तराष्ट्रस्य चक्रं राज्ञो महात्मनः।
पराजिताः पाण्डवेया विपत्तिं परमां गताः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘धृतराष्ट्रपुत्र महामना राजा दुर्योधनका समस्त भूमण्डलपर एकछत्र राज्य हो गया। पाण्डव पराजित होकर बड़ी भारी विपत्तिमें पड़ गये॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अद्यैव ते सम्प्रयाताः समैर्वर्त्मभिरस्थलैः।
गुणज्येष्ठास्तथा श्रेष्ठाः श्रेयांसो यद् वयं परैः ॥ ४ ॥
मूलम्
अद्यैव ते सम्प्रयाताः समैर्वर्त्मभिरस्थलैः।
गुणज्येष्ठास्तथा श्रेष्ठाः श्रेयांसो यद् वयं परैः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आज वे पाण्डव समान मार्गोंसे, जिनपर आये हुओंकी भीड़के कारण जगह नहीं रही है, वनको चले जा रहे हैं। हमलोग अपने प्रतिपक्षियोंसे गुण और अवस्था दोनोंमें बड़े हैं। अतः हमारा स्थान उनसे बहुत ऊँचा है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नरकं पातिताः पार्था दीर्घकालमनन्तकम्।
सुखाच्च हीना राज्याच्च विनष्टाः शाश्वतीः समाः ॥ ५ ॥
धनेन मत्ता ये ते स्म धार्तराष्ट्रान् प्रहासिषुः।
ते निर्जिता हृतधना वनमेष्यन्ति पाण्डवा ॥ ६ ॥
मूलम्
नरकं पातिताः पार्था दीर्घकालमनन्तकम्।
सुखाच्च हीना राज्याच्च विनष्टाः शाश्वतीः समाः ॥ ५ ॥
धनेन मत्ता ये ते स्म धार्तराष्ट्रान् प्रहासिषुः।
ते निर्जिता हृतधना वनमेष्यन्ति पाण्डवा ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कुन्तीके पुत्र दीर्घकालतकके लिये अनन्त दुःखरूप नरकमें गिरा दिये गये। ये सदाके लिये सुखसे वंचित तथा राज्यसे हीन हो गये हैं। जो लोग पहले अपने धनसे उन्मत्त हो धृतराष्ट्रपुत्रोंकी हँसी उड़ाया करते थे, वे ही पाण्डव आज पराजित हो अपने धन-वैभवसे हाथ धोकर वनमें जा रहे हैं॥५-६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चित्रान् सन्नाहानवमुच्य पार्था
वासांसि दिव्यानि च भानुमन्ति।
विवास्यन्तां रुरुचर्माणि सर्वे
यथा ग्लहं सौबलस्याभ्युपेताः ॥ ७ ॥
मूलम्
चित्रान् सन्नाहानवमुच्य पार्था
वासांसि दिव्यानि च भानुमन्ति।
विवास्यन्तां रुरुचर्माणि सर्वे
यथा ग्लहं सौबलस्याभ्युपेताः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सभी पाण्डव अपने शरीरपर जो विचित्र कवच और चमकीले दिव्य वस्त्र हैं, उन सबको उतारकर मृगचर्म धारण कर लें; जैसा कि सुबलपुत्र शकुनिके भावको स्वीकार करके ये लोग जूआ खेले हैं॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न सन्ति लोकेषु पुमांस ईदृशा
इत्येव ये भावितबुद्धयः सदा।
ज्ञास्यन्ति तेऽऽत्मानमिमेऽद्य पाण्डवा
विपर्यये षण्ढतिला इवाफलाः ॥ ८ ॥
मूलम्
न सन्ति लोकेषु पुमांस ईदृशा
इत्येव ये भावितबुद्धयः सदा।
ज्ञास्यन्ति तेऽऽत्मानमिमेऽद्य पाण्डवा
विपर्यये षण्ढतिला इवाफलाः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो अपनी बुद्धिमें सदा यही अभिमान लिये बैठे थे कि हमारे-जैसे पुरुष तीनों लोकोंमें नहीं हैं, वे ही पाण्डव आज विपरीत अवस्थामें पहुँचकर थोथे तिलों-की भाँति निःसत्त्व हो गये हैं। अब इन्हें अपनी स्थितिका ज्ञान होगा॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदं हि वासो यदि वेदृशानां
मनस्विनां रौरवमाहवेषु ।
अदीक्षितानामजिनानि यद्वद्
बलीयसां पश्यत पाण्डवानाम् ॥ ९ ॥
मूलम्
इदं हि वासो यदि वेदृशानां
मनस्विनां रौरवमाहवेषु ।
अदीक्षितानामजिनानि यद्वद्
बलीयसां पश्यत पाण्डवानाम् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इन मनस्वी और बलवान् पाण्डवोंका यह मृगचर्ममय वस्त्र तो देखो, जिसे यज्ञमें महात्मालोग धारण करते हैं। मुझे तो इनके शरीरपर ये मृगचर्म यज्ञकी दीक्षाके अधिकारसे रहित जंगली कोलभीलोंके चर्ममय वस्त्रके समान ही प्रतीत होते हैं॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महाप्राज्ञः सौमकिर्यज्ञसेनः
कन्यां पाञ्चालीं पाण्डवेभ्यः प्रदाय।
अकार्षीद् वै सुकृतं नेह किंचित्
क्लीबाः पार्थाः पतयो याज्ञसेन्याः ॥ १० ॥
मूलम्
महाप्राज्ञः सौमकिर्यज्ञसेनः
कन्यां पाञ्चालीं पाण्डवेभ्यः प्रदाय।
अकार्षीद् वै सुकृतं नेह किंचित्
क्लीबाः पार्थाः पतयो याज्ञसेन्याः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाबुद्धिमान् सोमकवंशी राजा द्रुपदने अपनी कन्या पांचालीको पाण्डवोंके लिये देकर कोई अच्छा काम नहीं किया। द्रौपदीके पति ये कुन्तीपुत्र निरे नपुंसक ही हैं॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सूक्ष्मप्रावारानजिनोत्तरीयान्
दृष्ट्वारण्ये निर्धनानप्रतिष्ठान् ।
कां त्वं प्रीतिं लप्स्यसे याज्ञसेनि
पतिं वृणीष्वेह यमन्यमिच्छसि ॥ ११ ॥
मूलम्
सूक्ष्मप्रावारानजिनोत्तरीयान्
दृष्ट्वारण्ये निर्धनानप्रतिष्ठान् ।
कां त्वं प्रीतिं लप्स्यसे याज्ञसेनि
पतिं वृणीष्वेह यमन्यमिच्छसि ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘द्रौपदी! जो सुन्दर महीन कपड़े पहना करते थे, उन्हीं पाण्डवोंको वनमें निर्धन, अप्रतिष्ठित और मृगचर्मकी चादर ओढ़े देख तुम्हें क्या प्रसन्नता होगी? अब तुम किसी अन्य पुरुषको, जिसे चाहो, अपना पति बना लो॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एते हि सर्वे कुरवः समेताः
क्षान्ता दान्ताः सुद्रविणोपपन्नाः ।
एषां वृणीष्वैकतमं पतित्वे
न त्वां तपेत् कालविपर्ययोऽयम् ॥ १२ ॥
मूलम्
एते हि सर्वे कुरवः समेताः
क्षान्ता दान्ताः सुद्रविणोपपन्नाः ।
एषां वृणीष्वैकतमं पतित्वे
न त्वां तपेत् कालविपर्ययोऽयम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ये समस्त कौरव क्षमाशील, जितेन्द्रिय तथा उत्तम धन-वैभवसे सम्पन्न हैं। इन्हींमेंसे किसीको अपना पति चुन लो, जिससे यह विपरीत काल (निर्धनावस्था) तुम्हें संतप्त न करे॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथाफलाः षण्ढतिला यथा चर्ममया मृगाः।
तथैव पाण्डवाः सर्वे यथा काकयवा अपि ॥ १३ ॥
मूलम्
यथाफलाः षण्ढतिला यथा चर्ममया मृगाः।
तथैव पाण्डवाः सर्वे यथा काकयवा अपि ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जैसे थोथे तिल बोनेपर फल नहीं देते हैं, जैसे केवल चर्ममय मृग व्यर्थ हैं तथा जैसे काकयव (तंदुलरहित तृणधान्य) निष्प्रयोजन होते हैं, उसी प्रकार समस्त पाण्डवोंका जीवन निरर्थक हो गया है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं पाण्डवांस्ते पतितानुपास्य
मोघः श्रमः षण्ढतिलानुपास्य ।
एवं नृशंसः परुषाणि पार्था-
नश्रावयद् धृतराष्ट्रस्य पुत्रः ॥ १४ ॥
मूलम्
किं पाण्डवांस्ते पतितानुपास्य
मोघः श्रमः षण्ढतिलानुपास्य ।
एवं नृशंसः परुषाणि पार्था-
नश्रावयद् धृतराष्ट्रस्य पुत्रः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘थोथे तिलोंकी भाँति इन पतित और नपुंसक पाण्डवोंकी सेवा करनेसे तुम्हें क्या लाभ होगा, व्यर्थका परिश्रम ही तो उठाना पड़ेगा।’
इस प्रकार धृतराष्ट्रके नृशंस पुत्र दुःशासनने पाण्डवोंको बहुत-से कठोर वचन सुनाये॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद् वै श्रुत्वा भीमसेनोऽत्यमर्षी
निर्भर्त्स्योच्चैः संनिगृह्यैव रोषात् ।
उवाच चैनं सहसैवोपगम्य
सिंहो यथा हैमवतः शृगालम् ॥ १५ ॥
मूलम्
तद् वै श्रुत्वा भीमसेनोऽत्यमर्षी
निर्भर्त्स्योच्चैः संनिगृह्यैव रोषात् ।
उवाच चैनं सहसैवोपगम्य
सिंहो यथा हैमवतः शृगालम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह सब सुनकर भीमसेनको बड़ा क्रोध हुआ। जैसे हिमालयकी गुफामें रहनेवाला सिंह गीदड़के पास जाय, उसी प्रकार वे सहसा दुःशासनके पास जा पहुँचे और रोषपूर्वक उसे रोककर जोर-जोरसे फटकारते हुए बोले॥१५॥
मूलम् (वचनम्)
भीमसेन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रूर पापजनैर्जुष्टमकृतार्थं प्रभाषसे ।
गान्धारविद्यया हि त्वं राजमध्ये विकत्थसे ॥ १६ ॥
मूलम्
क्रूर पापजनैर्जुष्टमकृतार्थं प्रभाषसे ।
गान्धारविद्यया हि त्वं राजमध्ये विकत्थसे ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीमसेनने कहा— क्रूर एवं नीच दुःशासन! तू पापी मनुष्योंद्वारा प्रयुक्त होनेवाली ओछी बातें बक रहा है। अरे! तू अपने बाहुबलसे नहीं, शकुनिकी छल-विद्याके प्रभावसे आज राजाओंकी मण्डलीमें अपने मुँहसे अपनी बड़ाई कर रहा है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा तुदसि मर्माणि वाक्शरैरिह नो भृशम्।
तथा स्मारयिता तेऽहं कृन्तन् मर्माणि संयुगे ॥ १७ ॥
मूलम्
यथा तुदसि मर्माणि वाक्शरैरिह नो भृशम्।
तथा स्मारयिता तेऽहं कृन्तन् मर्माणि संयुगे ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे यहाँ तू अपने वचनरूपी बाणोंसे हमारे मर्मस्थानोंमें अत्यन्त पीड़ा पहुँचा रहा है, उसी प्रकार जब युद्धमें मैं तेरा हृदय विदीर्ण करने लगूँगा, उस समय तेरी कही हुई इन बातोंकी याद दिलाऊँगा॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये च त्वामनुवर्तन्ते क्रोधलोभवशानुगाः।
गोप्तारः सानुबन्धांस्तान् नेतास्मि यमसादनम् ॥ १८ ॥
मूलम्
ये च त्वामनुवर्तन्ते क्रोधलोभवशानुगाः।
गोप्तारः सानुबन्धांस्तान् नेतास्मि यमसादनम् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो लोग क्रोध और लोभके वशीभूत हो तुम्हारे रक्षक बनकर पीछे-पीछे चलते हैं, उन्हें उनके सम्बन्धियोंसहित यमलोक भेज दूँगा॥१८॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं ब्रुवाणमजिनैर्विवासितं
दुःशासनस्तं परिनृत्यति स्म ।
मध्ये कुरूणां धर्मनिबद्धमार्गं
गौर्गौरिति स्माह्वयन् मुक्तलज्जः ॥ १९ ॥
मूलम्
एवं ब्रुवाणमजिनैर्विवासितं
दुःशासनस्तं परिनृत्यति स्म ।
मध्ये कुरूणां धर्मनिबद्धमार्गं
गौर्गौरिति स्माह्वयन् मुक्तलज्जः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! मृगचर्म धारण किये भीमसेनको ऐसी बातें करते देख निर्लज्ज दुःशासन कौरवोंके बीचमें उनकी हँसी उड़ाते हुए नाचने लगा और ‘ओ बैल! ओ बैल’ कहकर उन्हें पुकारने लगा। उस समय भीमका मार्ग धर्मराज युधिष्ठिरने रोक रखा था (अन्यथा वे दुःशासनको जीता न छोड़ते)॥१९॥
मूलम् (वचनम्)
भीमसेन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नृशंस परुषं वक्तुं शक्यं दुःशासन त्वया।
निकृत्या हि धनं लब्ध्वा को विकत्थितुमर्हति ॥ २० ॥
मूलम्
नृशंस परुषं वक्तुं शक्यं दुःशासन त्वया।
निकृत्या हि धनं लब्ध्वा को विकत्थितुमर्हति ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीमसेन बोले— ओ नृशंस दुःशासन! तेरे ही मुखसे ऐसी कठोर बातें निकल सकती हैं, तेरे सिवा दूसरा कौन है, जो छल-कपटसे धन पाकर इस तरह आप ही अपनी प्रशंसा करेगा॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मैव स्म सुकृताल्ँलोकान् गच्छेत् पार्थो वृकोदरः।
यदि वक्षो हि ते भित्त्वा न पिबेच्छोणितं रणे॥२१॥
मूलम्
मैव स्म सुकृताल्ँलोकान् गच्छेत् पार्थो वृकोदरः।
यदि वक्षो हि ते भित्त्वा न पिबेच्छोणितं रणे॥२१॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरी बात सुन ले। यह कुन्तीपुत्र भीमसेन यदि युद्धमें तेरी छाती फाड़कर तेरा रक्त न पीये तो इसे पुण्यलोकोंकी प्राप्ति न हो॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धार्तराष्ट्रान् रणे हत्वा मिषतां सर्वधन्विनाम्।
शमं गन्तास्मि नचिरात् सत्यमेतद् ब्रवीमि ते ॥ २२ ॥
मूलम्
धार्तराष्ट्रान् रणे हत्वा मिषतां सर्वधन्विनाम्।
शमं गन्तास्मि नचिरात् सत्यमेतद् ब्रवीमि ते ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं तुझसे सच्ची बात कह रहा हूँ, शीघ्र ही वह समय आनेवाला है, जब कि समस्त धनुर्धरोंके देखते-देखते मैं युद्धमें धृतराष्ट्रके सभी पुत्रोंका वध करके शान्ति प्राप्त करूँगा॥२२॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य राजा सिंहगतेः सखेलं
दुर्योधनो भीमसेनस्य हर्षात् ।
गतिं स्वगत्यानुचकार मन्दो
निर्गच्छतां पाण्डवानां सभायाः ॥ २३ ॥
मूलम्
तस्य राजा सिंहगतेः सखेलं
दुर्योधनो भीमसेनस्य हर्षात् ।
गतिं स्वगत्यानुचकार मन्दो
निर्गच्छतां पाण्डवानां सभायाः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! जब पाण्डवलोग सभाभवनसे निकले, उस समय मन्दबुद्धि राजा दुर्योधन हर्षमें भरकर सिंहके समान मस्तानी चालसे चलनेवाले भीमसेनकी खिल्ली उड़ाते हुए उनकी चालकी नकल करने लगा॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैतावता कृतमित्यब्रवीत् तं
वृकोदरः संनिवृत्तार्धकायः ।
शीघ्रं हि त्वां निहतं सानुबन्धं
संस्मार्याहं प्रतिवक्ष्यामि मूढ ॥ २४ ॥
मूलम्
नैतावता कृतमित्यब्रवीत् तं
वृकोदरः संनिवृत्तार्धकायः ।
शीघ्रं हि त्वां निहतं सानुबन्धं
संस्मार्याहं प्रतिवक्ष्यामि मूढ ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह देख भीमसेनने अपने आधे शरीरको पीछेकी ओर मोड़कर कहा—‘ओ मूढ़! केवल दुःशासनके रक्तपान-द्वारा ही मेरा कर्तव्य पूरा नहीं हो जाता है। तुझे भी सम्बन्धियोंसहित शीघ्र ही यमलोक भेजकर तेरे इस परिहासकी याद दिलाते हुए इसका समुचित उत्तर दूँगा’॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं समीक्ष्यात्मनि चावमानं
नियम्य मन्युं बलवान् स मानी।
राजानुगः संसदि कौरवाणां
विनिष्क्रामन् वाक्यमुवाच भीमः ॥ २५ ॥
मूलम्
एवं समीक्ष्यात्मनि चावमानं
नियम्य मन्युं बलवान् स मानी।
राजानुगः संसदि कौरवाणां
विनिष्क्रामन् वाक्यमुवाच भीमः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार अपना अपमान होता देख बलवान् एवं मानी भीमसेन क्रोधको किसी प्रकार रोककर राजा युधिष्ठिरके पीछे कौरवसभासे निकलते हुए इस प्रकार बोले॥२५॥
मूलम् (वचनम्)
भीमसेन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं दुर्योधनं हन्ता कर्णं हन्ता धनंजयः।
शकुनिं चाक्षकितवं सहदेवो हनिष्यति ॥ २६ ॥
मूलम्
अहं दुर्योधनं हन्ता कर्णं हन्ता धनंजयः।
शकुनिं चाक्षकितवं सहदेवो हनिष्यति ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीमसेनने कहा— मैं दुर्योधनका वध करूँगा, अर्जुन कर्णका संहार करेंगे और इस जुआरी शकुनिको सहदेव मार डालेंगे॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदं च भूयो वक्ष्यामि सभामध्ये बृहद् वचः।
सत्यं देवाः करिष्यन्ति यन्नो युद्धं भविष्यति ॥ २७ ॥
सुयोधनमिमं पापं हन्तास्मि गदया युधि।
शिरः पादेन चास्याहमधिष्ठास्यामि भूतले ॥ २८ ॥
मूलम्
इदं च भूयो वक्ष्यामि सभामध्ये बृहद् वचः।
सत्यं देवाः करिष्यन्ति यन्नो युद्धं भविष्यति ॥ २७ ॥
सुयोधनमिमं पापं हन्तास्मि गदया युधि।
शिरः पादेन चास्याहमधिष्ठास्यामि भूतले ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
साथ ही इस भरी सभामें मैं पुनः एक बहुत बड़ी बात कह रहा हूँ। मेरा यह विश्वास है कि देवतालोग मेरी यह बात सत्य कर दिखायेंगे। जब हम कौरव और पाण्डवोंमें युद्ध होगा, उस समय इस पापी दुर्योधनको मैं गदासे मार गिराऊँगा तथा रणभूमिमें पड़े हुए इस पापीके मस्तकको पैरसे ठुकराऊँगा॥२७-२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वाक्यशूरस्य चैवास्य परुषस्य दुरात्मनः।
दुःशासनस्य रुधिरं पातास्मि मृगराडिव ॥ २९ ॥
मूलम्
वाक्यशूरस्य चैवास्य परुषस्य दुरात्मनः।
दुःशासनस्य रुधिरं पातास्मि मृगराडिव ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
और यह जो केवल बात बनानेमें बहादुर क्रूर-स्वभाववाला दुरात्मा दुःशासन है, इसकी छातीका खून उसी प्रकार पी लूँगा, जैसे सिंह किसी मृगका रक्त पान करता है॥२९॥
मूलम् (वचनम्)
अर्जुन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैवं वाचा व्यवसितं भीम विज्ञायते सताम्।
इतश्चतुर्दशे वर्षे द्रष्टारो यद् भविष्यति ॥ ३० ॥
मूलम्
नैवं वाचा व्यवसितं भीम विज्ञायते सताम्।
इतश्चतुर्दशे वर्षे द्रष्टारो यद् भविष्यति ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुनने कहा— आर्य भीमसेन! साधु पुरुष जो कुछ करना चाहते हैं, उसे इस प्रकार वाणीद्वारा सूचित नहीं करते। आजसे चौदहवें वर्षमें जो घटना घटित होगी, उसे स्वयं ही लोग देखेंगे॥३०॥
मूलम् (वचनम्)
भीमसेन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुर्योधनस्य कर्णस्य शकुनेश्च दुरात्मनः।
दुःशासनचतुर्थानां भूमिः पास्यति शोणितम् ॥ ३१ ॥
मूलम्
दुर्योधनस्य कर्णस्य शकुनेश्च दुरात्मनः।
दुःशासनचतुर्थानां भूमिः पास्यति शोणितम् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीमसेन बोले— यह भूमि दुर्योधन, कर्ण, दुरात्मा शकुनि तथा चौथे दुःशासनके रक्तका निश्चय ही पान करेगी॥
मूलम् (वचनम्)
अर्जुन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
असूयितारं द्रष्टारं प्रवक्तारं विकत्थनम्।
भीमसेन नियोगात् ते हन्ताहं कर्णमाहवे ॥ ३२ ॥
मूलम्
असूयितारं द्रष्टारं प्रवक्तारं विकत्थनम्।
भीमसेन नियोगात् ते हन्ताहं कर्णमाहवे ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुनने कहा— भैया भीमसेन! जो हमलोगोंके दोष ही ढूँढ़ा करता है, हमारे दुःख देखकर प्रसन्न होता है, कौरवोंको बुरी सलाहें देता है और व्यर्थ बढ़-बढ़कर बातें बनाता है, उस कर्णको मैं आपकी आज्ञासे अवश्य युद्धमें मार डालूँगा॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्जुनः प्रतिजानीते भीमस्य प्रियकाम्यया।
कर्णं कर्णानुगांश्चैव रणे हन्तास्मि पत्रिभिः ॥ ३३ ॥
मूलम्
अर्जुनः प्रतिजानीते भीमस्य प्रियकाम्यया।
कर्णं कर्णानुगांश्चैव रणे हन्तास्मि पत्रिभिः ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने भाई भीमसेनका प्रिय करनेकी इच्छासे अर्जुन यह प्रतिज्ञा करता है कि ‘मैं युद्धमें कर्ण और उसके अनुगामियोंको भी बाणोंद्वारा मार डालूँगा’॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये चान्ये प्रतियोत्स्यन्ति बुद्धिमोहेन मां नृपाः।
तांश्च सर्वानहं बाणैर्नेतास्मि यमसादनम् ॥ ३४ ॥
मूलम्
ये चान्ये प्रतियोत्स्यन्ति बुद्धिमोहेन मां नृपाः।
तांश्च सर्वानहं बाणैर्नेतास्मि यमसादनम् ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दूसरे भी जो नरेश बुद्धिके व्यामोहवश हमारे विपक्षमें होकर युद्ध करेंगे, उन सबको अपने तीक्ष्ण सायकोंद्वारा मैं यमलोक पहुँचा दूँगा॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चलेद्धि हिमवान् स्थानान्निष्प्रभः स्याद् दिवाकरः।
शैत्यं सोमात् प्रणश्येत मत्सत्यं विचलेद् यदि ॥ ३५ ॥
मूलम्
चलेद्धि हिमवान् स्थानान्निष्प्रभः स्याद् दिवाकरः।
शैत्यं सोमात् प्रणश्येत मत्सत्यं विचलेद् यदि ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि मेरा सत्य विचलित हो जाय तो हिमालय पर्वत अपने स्थानसे हट जाय, सूर्यकी प्रभा नष्ट हो जाय और चन्द्रमासे उसकी शीतलता दूर हो जाय (अर्थात् जैसे हिमालय अपने स्थानसे नहीं हट सकता, सूर्यकी प्रभा नष्ट नहीं हो सकती, चन्द्रमासे उसकी शीतलता दूर नहीं हो सकती, वैसे ही मेरे वचन मिथ्या नहीं हो सकते)॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न प्रदास्यति भेद् राज्यमितो वर्षे चतुर्दशे।
दुर्योधनोऽभिसत्कृत्य सत्यमेतद् भविष्यति ॥ ३६ ॥
मूलम्
न प्रदास्यति भेद् राज्यमितो वर्षे चतुर्दशे।
दुर्योधनोऽभिसत्कृत्य सत्यमेतद् भविष्यति ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि आजसे चौदहवें वर्षमें दुर्योधन सत्कारपूर्वक हमारा राज्य हमें वापस न दे देगा तो ये सब बातें सत्य होकर रहेंगी॥३६॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तवति पार्थे तु श्रीमान् माद्रवतीसुतः।
प्रगृह्य विपुलं बाहुं सहदेवः प्रतापवान् ॥ ३७ ॥
सौबलस्य वधं प्रेप्सुरिदं वचनमब्रवीत्।
क्रोधसंरक्तनयनो निःश्वसन्निव पन्नगः ॥ ३८ ॥
मूलम्
इत्युक्तवति पार्थे तु श्रीमान् माद्रवतीसुतः।
प्रगृह्य विपुलं बाहुं सहदेवः प्रतापवान् ॥ ३७ ॥
सौबलस्य वधं प्रेप्सुरिदं वचनमब्रवीत्।
क्रोधसंरक्तनयनो निःश्वसन्निव पन्नगः ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! अर्जुनके ऐसा कहनेपर परम सुन्दर प्रतापी वीर माद्रीनन्दन सहदेवने अपनी विशाल भुजा ऊपर उठाकर शकुनिके वधकी इच्छासे इस प्रकार कहा; उस समय उनके नेत्र क्रोधसे लाल हो रहे थे और वे फुँफकारते हुए सर्पकी भाँति उच्छ्वास ले रहे थे॥३७-३८॥
मूलम् (वचनम्)
सहदेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अक्षान् यान् मन्यसे मूढ गान्धाराणां यशोहर।
नैतेऽक्षा निशिता बाणास्त्वयैते समरे वृताः ॥ ३९ ॥
मूलम्
अक्षान् यान् मन्यसे मूढ गान्धाराणां यशोहर।
नैतेऽक्षा निशिता बाणास्त्वयैते समरे वृताः ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सहदेवने कहा— ओ गान्धारनिवासी क्षत्रियकुलके कलंक मूर्ख शकुने! जिन्हें तू पासे समझ रहा है, वे पासे नहीं हैं, उनके रूपमें तूने युद्धमें तीखे बाणोंका वरण किया है॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा चैवोक्तवान् भीमस्त्वामुद्दिश्य सबान्धवम्।
कर्ताहं कर्मणस्तस्य कुरु कार्याणि सर्वशः ॥ ४० ॥
मूलम्
यथा चैवोक्तवान् भीमस्त्वामुद्दिश्य सबान्धवम्।
कर्ताहं कर्मणस्तस्य कुरु कार्याणि सर्वशः ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आर्य भीमसेनने बन्धु-बान्धवोंसहित तेरे विषयमें जो बात कही है, मैं उसे अवश्य पूर्ण करूँगा। तुझे अपने बचावके लिये जो कुछ करना हो, वह सब कर डाल॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हन्तास्मि तरसा युद्धे त्वामेवेह सबान्धवम्।
यदि स्थास्यसि संग्रामे क्षत्रधर्मेण सौबल ॥ ४१ ॥
मूलम्
हन्तास्मि तरसा युद्धे त्वामेवेह सबान्धवम्।
यदि स्थास्यसि संग्रामे क्षत्रधर्मेण सौबल ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुबलकुमार! यदि तू क्षत्रियधर्मके अनुसार संग्राममें डटा रह जायगा, तो मैं वेगपूर्वक तुझे तेरे बन्धु-बान्धवोंसहित अवश्य मार डालूँगा॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहदेववचः श्रुत्वा नकुलोऽपि विशाम्पते।
दर्शनीयतमो नॄणामिदं वचनमब्रवीत् ॥ ४२ ॥
मूलम्
सहदेववचः श्रुत्वा नकुलोऽपि विशाम्पते।
दर्शनीयतमो नॄणामिदं वचनमब्रवीत् ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! सहदेवकी बात सुनकर मनुष्योंमें परम दर्शनीय रूपवाले नकुलने भी यह बात कही॥४२॥
मूलम् (वचनम्)
नकुल उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुतेयं यज्ञसेनस्य द्यूतेऽस्मिन् धृतराष्ट्रजैः।
यैर्वाचः श्राविता रूक्षाः स्थितैर्दुर्योधनप्रिये ॥ ४३ ॥
तान् धार्तराष्ट्रान् दुर्वृत्तान् मुमूर्षून् कालनोदितान्।
गमयिष्यामि भूयिष्ठानहं वैवस्वतक्षयम् ॥ ४४ ॥
मूलम्
सुतेयं यज्ञसेनस्य द्यूतेऽस्मिन् धृतराष्ट्रजैः।
यैर्वाचः श्राविता रूक्षाः स्थितैर्दुर्योधनप्रिये ॥ ४३ ॥
तान् धार्तराष्ट्रान् दुर्वृत्तान् मुमूर्षून् कालनोदितान्।
गमयिष्यामि भूयिष्ठानहं वैवस्वतक्षयम् ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नकुल बोले— दुर्योधनके प्रियसाधनमें लगे हुए जिन धृतराष्ट्रपुत्रोंने इस द्यूतसभामें द्रुपदकुमारी कृष्णाको कठोर बातें सुनायी हैं, कालसे प्रेरित हो मौतके मुँहमें जानेकी इच्छा रखनेवाले उन दुराचारी बहुसंख्यक धृतराष्ट्रकुमारोंको मैं यमलोकका अतिथि बना दूँगा॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निदेशाद् धर्मराजस्य द्रौपद्याः पदवीं चरन्।
निर्धार्तराष्ट्रां पृथिवीं कर्तास्मि नचिरादिव ॥ ४५ ॥
मूलम्
निदेशाद् धर्मराजस्य द्रौपद्याः पदवीं चरन्।
निर्धार्तराष्ट्रां पृथिवीं कर्तास्मि नचिरादिव ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मराजकी आज्ञासे द्रौपदीका प्रिय करते हुए मैं सारी पृथिवीको धृतराष्ट्रपुत्रोंसे सूनी कर दूँगा; इसमें अधिक देर नहीं है॥४५॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं ते पुरुषव्याघ्राः सर्वे व्यायतबाहवः।
प्रतिज्ञा बहुलाः कृत्वा धृतराष्ट्रमुपागमन् ॥ ४६ ॥
मूलम्
एवं ते पुरुषव्याघ्राः सर्वे व्यायतबाहवः।
प्रतिज्ञा बहुलाः कृत्वा धृतराष्ट्रमुपागमन् ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! इस प्रकार वे सभी पुरुषसिंह महाबाहु पाण्डव बहुत-सी प्रतिज्ञाएँ करके राजा धृतराष्ट्रके पास गये॥४६॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि अनुद्यूतपर्वणि पाण्डवप्रतिज्ञाकरणे सप्तसप्ततितमोध्यायः ॥ ७७ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्वके अन्तर्गत अनुद्यूतपर्वमें पाण्डवोंकी प्रतिज्ञासे सम्बन्ध रखनेवाला सतहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥७७॥