०७६ पुनःपराजयः

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

षट्सप्ततितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

सबके मना करनेपर भी धृतराष्ट्रकी आज्ञासे युधिष्ठिरका पुनः जूआ खेलना और हारना

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो व्यध्वगतं पार्थं प्रातिकामी युधिष्ठिरम्।
उवाच वचनाद् राज्ञो धृतराष्ट्रस्य धीमतः ॥ १ ॥

मूलम्

ततो व्यध्वगतं पार्थं प्रातिकामी युधिष्ठिरम्।
उवाच वचनाद् राज्ञो धृतराष्ट्रस्य धीमतः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! धर्मराज युधिष्ठिर इन्द्रप्रस्थके मार्गमें बहुत दूरतक चले गये थे। उस समय बुद्धिमान् राजा धृतराष्ट्रकी आज्ञासे प्रातिकामी उनके पास गया और इस प्रकार बोला—॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपास्तीर्णा सभा राजन्नक्षानुप्त्वा युधिष्ठिर।
एहि पाण्डव दीव्येति पिता त्वाहेति भारत ॥ २ ॥

मूलम्

उपास्तीर्णा सभा राजन्नक्षानुप्त्वा युधिष्ठिर।
एहि पाण्डव दीव्येति पिता त्वाहेति भारत ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भरतकुलभूषण पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर! आपके पिता राजा धृतराष्ट्रने यह आदेश दिया है कि तुम लौट आओ। हमारी सभा फिर सदस्योंसे भर गयी है और तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है। तुम पासे फेंककर जूआ खेलो’॥२॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

धातुर्नियोगाद् भूतानि प्राप्नुवन्ति शुभाशुभम्।
न निवृत्तिस्तयोरस्ति देवितव्यं पुनर्यदि ॥ ३ ॥

मूलम्

धातुर्नियोगाद् भूतानि प्राप्नुवन्ति शुभाशुभम्।
न निवृत्तिस्तयोरस्ति देवितव्यं पुनर्यदि ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने कहा— समस्त प्राणी विधाताकी प्रेरणासे शुभ और अशुभ फल प्राप्त करते हैं। उन्हें कोई टाल नहीं सकता। जान पड़ता है, मुझे फिर जूआ खेलना पड़ेगा॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अक्षद्यूते समाह्वानं नियोगात् स्थविरस्य च।
जानन्नपि क्षयकरं नातिक्रमितुमुत्सहे ॥ ४ ॥

मूलम्

अक्षद्यूते समाह्वानं नियोगात् स्थविरस्य च।
जानन्नपि क्षयकरं नातिक्रमितुमुत्सहे ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वृद्ध राजा धृतराष्ट्रकी आज्ञासे जूएके लिये यह बुलावा हमारे कुलके विनाशका कारण है, यह जानते हुए भी मैं उनकी आज्ञाका उल्लंघन नहीं कर सकता॥४॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

असम्भवे हेममयस्य जन्तो-
स्तथापि रामो लुलुभे मृगाय।
प्रायः समासन्नपराभवाणां
धियो विपर्यस्ततरा भवन्ति ॥ ५ ॥

मूलम्

असम्भवे हेममयस्य जन्तो-
स्तथापि रामो लुलुभे मृगाय।
प्रायः समासन्नपराभवाणां
धियो विपर्यस्ततरा भवन्ति ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! किसी जानवरका शरीर सुवर्णका हो, यह सम्भव नहीं; तथापि श्रीराम स्वर्णमय प्रतीत होनेवाले मृगके लिये लुभा गये। जिनका पतन या पराभव निकट होता है, उनकी बुद्धि प्रायः अत्यन्त विपरीत हो जाती है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति ब्रुवन् निववृते भ्रातृभिः सह पाण्डवः।
जानंश्च शकुनेर्मायां पार्थो द्यूतमियात् पुनः ॥ ६ ॥

मूलम्

इति ब्रुवन् निववृते भ्रातृभिः सह पाण्डवः।
जानंश्च शकुनेर्मायां पार्थो द्यूतमियात् पुनः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा कहते हुए पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर भाइयोंके साथ पुनः लौट पड़े। वे शकुनिकी मायाको जानते थे, तो भी जूआ खेलनेके लिये चले आये॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विविशुस्ते सभां तां तु पुनरेव महारथाः।
व्यथयन्ति स्म चेतांसि सुहृदां भरतर्षभाः ॥ ७ ॥
यथोपजोषमासीनाः पुनर्द्यूतप्रवृत्तये ।
सर्वलोकविनाशाय दैवेनोपनिपीडिताः ॥ ८ ॥

मूलम्

विविशुस्ते सभां तां तु पुनरेव महारथाः।
व्यथयन्ति स्म चेतांसि सुहृदां भरतर्षभाः ॥ ७ ॥
यथोपजोषमासीनाः पुनर्द्यूतप्रवृत्तये ।
सर्वलोकविनाशाय दैवेनोपनिपीडिताः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महारथी भरतश्रेष्ठ पाण्डव पुनः उस सभामें प्रविष्ट हुए। उन्हें देखकर सुहृदोंके मनमें बड़ी पीड़ा होने लगी। प्रारब्धके वशीभूत हुए कुन्तीकुमार सम्पूर्ण लोकोंके विनाशके लिये पुनः द्यूतक्रीड़ा आरम्भ करनेके उद्देश्यसे चुपचाप वहाँ जाकर बैठ गये॥७-८॥

मूलम् (वचनम्)

शकुनिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अमुञ्चत् स्थविरो यद् वो धनं पूजितमेव तत्।
महाधनं ग्लहं+++(=पणं)+++ त्व् एकं शृणु भो भरतर्षभ ॥ ९ ॥

मूलम्

अमुञ्चत् स्थविरो यद् वो धनं पूजितमेव तत्।
महाधनं ग्लहं त्वेकं शृणु भो भरतर्षभ ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शकुनिने कहा— राजन्! भरतश्रेष्ठ! हमारे बूढ़े महाराजने आपको जो सारा धन लौटा दिया है, वह बहुत अच्छा किया है। अब जूएके लिये एक ही दाँव रखा जायगा उसे सुनिये—॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वयं वा द्वादशाब्दानि युष्माभिर्द्यूतनिर्जिताः।
प्रविशेम महारण्यं रौरवाजिनवाससः ॥ १० ॥

मूलम्

वयं वा द्वादशाब्दानि युष्माभिर्द्यूतनिर्जिताः।
प्रविशेम महारण्यं रौरवाजिनवाससः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यदि आपने हमलोगोंको जूएमें हरा दिया तो हम मृगचर्म धारण करके महान् वनमें प्रवेश करेंगे॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रयोदशं च सजने अज्ञाताः परिवत्सरम्।
ज्ञाताश्च पुनरन्यानि वने वर्षाणि द्वादश ॥ ११ ॥

मूलम्

त्रयोदशं च सजने अज्ञाताः परिवत्सरम्।
ज्ञाताश्च पुनरन्यानि वने वर्षाणि द्वादश ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘और बारह वर्ष वहाँ रहेंगे एवं तेरहवाँ वर्ष हम जनसमूहमें लोगोंसे अज्ञात रहकर पूरा करेंगे और यदि हम तेरहवें वर्षमें लोगोंकी जानकारीमें आ जायँ तो फिर दुबारा बारह वर्ष वनमें रहेंगे॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्माभिर्निर्जिता यूयं वने द्वादश वत्सरान्।
वसध्वं कृष्णया सार्धमजिनैः प्रतिवासिताः ॥ १२ ॥

मूलम्

अस्माभिर्निर्जिता यूयं वने द्वादश वत्सरान्।
वसध्वं कृष्णया सार्धमजिनैः प्रतिवासिताः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यदि हम जीत गये तो आपलोग द्रौपदीके साथ बारह वर्षोंतक मृगचर्म धारण करते हुए वनमें रहें॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रयोदशं च सजने अज्ञाताः परिवत्सरम्।
ज्ञाताश्च पुनरन्यानि वने वर्षाणि द्वादश ॥ १३ ॥

मूलम्

त्रयोदशं च सजने अज्ञाताः परिवत्सरम्।
ज्ञाताश्च पुनरन्यानि वने वर्षाणि द्वादश ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आपको भी तेरहवाँ वर्ष जनसमूहमें लोगोंसे अज्ञात रहकर व्यतीत करना पड़ेगा और यदि ज्ञात हो गये तो फिर दुबारा बारह वर्ष वनमें रहना होगा॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रयोदशे च निर्वृत्ते पुनरेव यथोचितम्।
स्वराज्यं प्रतिपत्तव्यमितरैरथवेतरैः ॥ १४ ॥

मूलम्

त्रयोदशे च निर्वृत्ते पुनरेव यथोचितम्।
स्वराज्यं प्रतिपत्तव्यमितरैरथवेतरैः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तेरहवाँ वर्ष पूर्ण होनेपर हम या आप फिर वनसे आकर यथोचित रीतिसे अपना-अपना राज्य प्राप्त कर सकते हैं’॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनेन व्यवसायेन सहास्माभिर्युधिष्ठिर ।
अक्षानुप्त्वा पुनर्द्यूतमेहि दीव्यस्व भारत ॥ १५ ॥

मूलम्

अनेन व्यवसायेन सहास्माभिर्युधिष्ठिर ।
अक्षानुप्त्वा पुनर्द्यूतमेहि दीव्यस्व भारत ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतवंशी युधिष्ठिर! इसी निश्चयके साथ आप आइये और पुनः पासा फेंककर हमलोगोंके साथ जूआ खेलिये॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ सभ्याः सभामध्ये समुच्छ्रितकरास्तदा।
ऊचुरुद्विग्नमनसः संवेगात् सर्व एव हि ॥ १६ ॥

मूलम्

अथ सभ्याः सभामध्ये समुच्छ्रितकरास्तदा।
ऊचुरुद्विग्नमनसः संवेगात् सर्व एव हि ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सुनकर सब सभासदोंने सभामें अपने हाथ ऊपर उठाकर अत्यन्त उद्विग्नचित्त हो बड़ी घबराहटके साथ कहा॥

मूलम् (वचनम्)

सभ्या ऊचुः

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहो धिग् बान्धवा नैनं बोधयन्ति महद् भयम्।
बुद्ध्या बुध्येन्न वा बुध्येदयं वै भरतर्षभः ॥ १७ ॥

मूलम्

अहो धिग् बान्धवा नैनं बोधयन्ति महद् भयम्।
बुद्ध्या बुध्येन्न वा बुध्येदयं वै भरतर्षभः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सभासद् बोले— अहो धिक्कार है! ये भाई-बन्धु भी युधिष्ठिरको उनके ऊपर आनेवाले महान् भयकी बात नहीं समझाते। पता नहीं, ये भरतश्रेष्ठ युधिष्ठिर अपनी बुद्धिके द्वारा इस भयको समझें या न समझें॥१७॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

जनप्रवादान् सुबहूञ्छृण्वन्नपि नराधिपः ।
ह्रिया च धर्मसंयोगात् पार्थो द्यूतमियात् पुनः ॥ १८ ॥

मूलम्

जनप्रवादान् सुबहूञ्छृण्वन्नपि नराधिपः ।
ह्रिया च धर्मसंयोगात् पार्थो द्यूतमियात् पुनः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! लोगोंकी तरह-तरहकी बातें सुनते हुए भी राजा युधिष्ठिर लज्जाके कारण तथा धृतराष्ट्रके आज्ञापालनरूप धर्मकी दृष्टिसे पुनः जूआ खेलनेके लिये उद्यत हो गये॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जानन्नपि महाबुद्धिः पुनर्द्यूतमवर्तयत् ।
अप्यासन्नो विनाशः स्यात्‌ कुरूणामिति चिन्तयन् ॥ १९ ॥

मूलम्

जानन्नपि महाबुद्धिः पुनर्द्यूतमवर्तयत् ।
अप्यासन्नो विनाशः स्यात्‌ कुरूणामिति चिन्तयन् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परम बुद्धिमान् युधिष्ठिर जूएका परिणाम जानते थे, तो भी यह सोचकर कि सम्भवतः कुरुकुलका विनाश बहुत निकट है, वे द्यूतक्रीड़ामें प्रवृत्त हो गये॥१९॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं वै मद्विधो राजा स्वधर्ममनुपालयन्।
आहूतो विनिवर्तेत दीव्यामि शकुने त्वया ॥ २० ॥

मूलम्

कथं वै मद्विधो राजा स्वधर्ममनुपालयन्।
आहूतो विनिवर्तेत दीव्यामि शकुने त्वया ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— शकुने! स्वधर्मपालनमें संलग्न रहनेवाला मेरे-जैसा राजा जूएके लिये बुलाये जानेपर कैसे पीछे हट सकता था, अतः मैं तुम्हारे साथ खेलता हूँ॥२०॥

मूलम् (वचनम्)

(वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं दैवबलाविष्टो धर्मराजो युधिष्ठिरः।
भीष्मद्रोणैर्वार्यमाणो विदुरेण च धीमता॥
युयुत्सुना कृपेणाथ सञ्जयेन च भारत।
गान्धार्या पृथया चैव भीमार्जुनयमैस्तथा॥
विकर्णेन च वीरेण द्रौपद्या द्रौणिना तथा।
सोमदत्तेन च तथा बाह्लीकेन च धीमता॥
वार्यमाणोऽपि सततं न च राजा नियच्छति।)

मूलम्

एवं दैवबलाविष्टो धर्मराजो युधिष्ठिरः।
भीष्मद्रोणैर्वार्यमाणो विदुरेण च धीमता॥
युयुत्सुना कृपेणाथ सञ्जयेन च भारत।
गान्धार्या पृथया चैव भीमार्जुनयमैस्तथा॥
विकर्णेन च वीरेण द्रौपद्या द्रौणिना तथा।
सोमदत्तेन च तथा बाह्लीकेन च धीमता॥
वार्यमाणोऽपि सततं न च राजा नियच्छति।)

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! उस समय धर्मराज युधिष्ठिर प्रारब्धके वशीभूत हो गये थे। महाराज! उन्हें भीष्म, द्रोण और बुद्धिमान् विदुरजी दुबारा जूआ खेलनेसे रोक रहे थे। युयुत्सु, कृपाचार्य तथा संजय भी मना कर रहे थे। गान्धारी, कुन्ती, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव, वीर विकर्ण, द्रौपदी, अश्वत्थामा, सोमदत्त तथा बुद्धिमान् बाह्लीक भी बारंबार रोक रहे थे तो भी राजा युधिष्ठिर भावीके वश होनेके कारण जूएसे नहीं हटे।

मूलम् (वचनम्)

शकुनिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

गवाश्वं बहुधेनूकमपर्यन्तमजाविकम् ।
गजाः कोशो हिरण्यं च दासीदासाश्च सर्वशः ॥ २१ ॥

मूलम्

गवाश्वं बहुधेनूकमपर्यन्तमजाविकम् ।
गजाः कोशो हिरण्यं च दासीदासाश्च सर्वशः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शकुनिने कहा— राजन्! हमलोगोंके पास बैल, घोड़े और बहुत-सी दुधारू गौएँ हैं। भेड़ और बकरियोंकी तो गिनती ही नहीं है। हाथी, खजाना, दास-दासी तथा सुवर्ण सब कुछ हैं॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष नो ग्लह एवैको वनवासाय पाण्डवाः।
यूयं वयं वा विजिता वसेम वनमाश्रिताः ॥ २२ ॥

मूलम्

एष नो ग्लह एवैको वनवासाय पाण्डवाः।
यूयं वयं वा विजिता वसेम वनमाश्रिताः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर भी (इन्हें छोड़कर) एकमात्र वनवासका निश्चय ही हमारा दाँव है। पाण्डवो! आपलोग या हम, जो भी हारेंगे, उन्हें वनमें जाकर रहना होगा॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रयोदशं च वै वर्षमज्ञाताः सजने तथा।
अनेन व्यवसायेन दीव्याम पुरुषर्षभाः ॥ २३ ॥

मूलम्

त्रयोदशं च वै वर्षमज्ञाताः सजने तथा।
अनेन व्यवसायेन दीव्याम पुरुषर्षभाः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

केवल तेरहवें वर्ष हमें किसी जनसमूहमें अज्ञात-भावसे रहना होगा। नरश्रेष्ठगण! हम इसी निश्चयके साथ जूआ खेलें॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समुत्क्षेपेण चैकेन वनवासाय भारत।
प्रतिजग्राह तं पार्थो ग्लहं जग्राह सौबलः।
जितमित्येव शकुनिर्युधिष्ठिरमभाषत ॥ २४ ॥

मूलम्

समुत्क्षेपेण चैकेन वनवासाय भारत।
प्रतिजग्राह तं पार्थो ग्लहं जग्राह सौबलः।
जितमित्येव शकुनिर्युधिष्ठिरमभाषत ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! वनवासकी शर्त रखकर केवल एक ही बार पासा फेंकनेसे जूएका खेल पूरा हो जायगा। युधिष्ठिरने उसकी बात स्वीकार कर ली। तत्पश्चात् सुबलपुत्र शकुनिने पासा हाथमें उठाया और उसे फेंककर युधिष्ठिरसे कहा—मेरी जीत हो गयी॥२४॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि अनुद्यूतपर्वणि पुनर्युधिष्ठिरपराभवे षट्‌सप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७६ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्वके अन्तर्गत अनुद्यूतपर्वमें युधिष्ठिरपराभवविषयक छिहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥७६॥

Misc Detail

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ३ श्लोक मिलाकर कुल २७ श्लोक हैं)