०७५ गान्धारीप्रबोधनम्

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

पञ्चसप्ततितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

गान्धारीकी धृतराष्ट्रको चेतावनी और धृतराष्ट्रका अस्वीकार करना

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथाब्रवीन्महाराज धृतराष्ट्रं जनेश्वरम् ।
पुत्रहार्दाद् धर्मयुक्ता गान्धारी शोककर्षिता ॥ १ ॥

मूलम्

अथाब्रवीन्महाराज धृतराष्ट्रं जनेश्वरम् ।
पुत्रहार्दाद् धर्मयुक्ता गान्धारी शोककर्षिता ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! उस समय भावी अनिष्टकी आशंकासे धर्मपरायणा गान्धारी पुत्र-स्नेहवश शोकसे कातर हो उठी और राजा धृतराष्ट्रसे इस प्रकार बोली—॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जाते दुर्योधने क्षत्ता महामतिरभाषत।
नीयतां परलोकाय साध्वयं कुलपांसनः ॥ २ ॥

मूलम्

जाते दुर्योधने क्षत्ता महामतिरभाषत।
नीयतां परलोकाय साध्वयं कुलपांसनः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आर्यपुत्र! दुर्योधनके जन्म लेनेपर परम बुद्धिमान् विदुरजीने कहा था—यह बालक अपने कुलका नाश करनेवाला होगा; अतः इसे त्याग देना चाहिये॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्यनदज्जातमात्रो हि गोमायुरिव भारत।
अन्तो नूनं कुलस्यास्य कुरवस्तन्निबोधत ॥ ३ ॥

मूलम्

व्यनदज्जातमात्रो हि गोमायुरिव भारत।
अन्तो नूनं कुलस्यास्य कुरवस्तन्निबोधत ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भारत! इसने जन्म लेते ही गीदड़की भाँति ‘हुँआ-हुँआ’ का शब्द किया था; अतः यह अवश्य ही इस कुलका अन्त करनेवाला होगा। कौरवो! आपलोग भी इस बातको अच्छी तरह समझ लें॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मा निमज्जीः स्वदोषेण महाप्सु त्वं हि भारत।
मा बालानामशिष्टानामभिमंस्था मतिं प्रभो ॥ ४ ॥

मूलम्

मा निमज्जीः स्वदोषेण महाप्सु त्वं हि भारत।
मा बालानामशिष्टानामभिमंस्था मतिं प्रभो ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भरतकुलतिलक! आप अपने ही दोषसे इस कुलको विपत्तिके महासागरमें न डुबाइये। प्रभो! इन उद्दण्ड बालकोंकी हाँ-में-हाँ न मिलाइये॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मा कुलस्य क्षये घोरे कारणं त्वं भविष्यसि।
बद्धं सेतुं को नु भिन्द्याद् धमेच्छान्तं च पावकम्॥५॥
शमे स्थितान् को नु पार्थान् कोपयेद् भरतर्षभ।
स्मरन्तं त्वामाजमीढ स्मारयिष्याम्यहं पुनः ॥ ६ ॥

मूलम्

मा कुलस्य क्षये घोरे कारणं त्वं भविष्यसि।
बद्धं सेतुं को नु भिन्द्याद् धमेच्छान्तं च पावकम्॥५॥
शमे स्थितान् को नु पार्थान् कोपयेद् भरतर्षभ।
स्मरन्तं त्वामाजमीढ स्मारयिष्याम्यहं पुनः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इस कुलके भयंकर विनाशमें स्वयं ही कारण न बनिये। भरतश्रेष्ठ! बँधे हुए पुलको कौन तोड़ेगा? बुझी हुई वैरकी आगको फिर कौन भड़कायेगा? कुन्तीके शान्तिपरायण पुत्रोंको फिर कुपित करनेका साहस कौन करेगा? अजमीढकुलके रत्न! आप सब कुछ जानते और याद रखते हैं, तो भी मैं पुनः आपको स्मरण दिलाती रहूँगी॥५-६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शास्त्रं न शास्ति दुर्बुद्धिं श्रेयसे चेतराय च।
न वै वृद्धो बालमतिर्भवेद् राजन् कथंचन ॥ ७ ॥

मूलम्

शास्त्रं न शास्ति दुर्बुद्धिं श्रेयसे चेतराय च।
न वै वृद्धो बालमतिर्भवेद् राजन् कथंचन ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! जिसकी बुद्धि खोटी है, उसे शास्त्र भी भला-बुरा कुछ नहीं सिखा सकता। मन्दबुद्धि बालक वृद्धों-जैसा विवेकशील किसी प्रकार नहीं हो सकता॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वन्नेत्राः सन्तु ते पुत्रा मा त्वां दीर्णाः प्रहासिषुः।
तस्मादयं मद्वचनात् त्यज्यतां कुलपांसनः ॥ ८ ॥

मूलम्

त्वन्नेत्राः सन्तु ते पुत्रा मा त्वां दीर्णाः प्रहासिषुः।
तस्मादयं मद्वचनात् त्यज्यतां कुलपांसनः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आपके पुत्र आपके ही नियन्त्रणमें रहें, ऐसी चेष्टा कीजिये। ऐसा न हो कि वे सभी मर्यादाका त्याग करके प्राणोंसे हाथ धो बैठें और आपको इस बुढ़ापेमें छोड़कर चल बसें। इसलिये आप मेरी बात मानकर इस कुलांगार दुर्योधनको त्याग दें॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा ते न कृतं राजन् पुत्रस्नेहान्नराधिप।
तस्य प्राप्तं फलं विद्धि कुलान्तकरणाय यत् ॥ ९ ॥

मूलम्

तथा ते न कृतं राजन् पुत्रस्नेहान्नराधिप।
तस्य प्राप्तं फलं विद्धि कुलान्तकरणाय यत् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाराज! आपको जो करना चाहिये था, वह आपने पुत्रस्नेहवश नहीं किया। अतः समझ लीजिये, उसीका यह फल प्राप्त हुआ है, जो समूचे कुलके विनाशका कारण होने जा रहा है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शमेन धर्मेण नयेन युक्ता
या ते बुद्धिः सास्तु ते मा प्रमादीः।
प्रध्वंसिनी क्रूरसमाहिता श्री-
र्मृदुप्रौढा गच्छति पुत्रपौत्रान् ॥ १० ॥

मूलम्

शमेन धर्मेण नयेन युक्ता
या ते बुद्धिः सास्तु ते मा प्रमादीः।
प्रध्वंसिनी क्रूरसमाहिता श्री-
र्मृदुप्रौढा गच्छति पुत्रपौत्रान् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शान्ति, धर्म तथा उत्तम नीतिसे युक्त जो आपकी बुद्धि थी, वह बनी रहे। आप प्रमाद मत कीजिये। क्रूरतापूर्ण कर्मोंसे प्राप्त की हुई लक्ष्मी विनाशशील होती है और कोमलतापूर्ण बर्तावसे बढ़ी हुई धन-सम्पत्ति पुत्र-पौत्रोंतक चली जाती है’॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथाब्रवीन्महाराजो गान्धारीं धर्मदर्शिनीम् ।
अन्तः कामं कुलस्यास्तु न शक्नोमि निवारितुम् ॥ ११ ॥

मूलम्

अथाब्रवीन्महाराजो गान्धारीं धर्मदर्शिनीम् ।
अन्तः कामं कुलस्यास्तु न शक्नोमि निवारितुम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब महाराज धृतराष्ट्रने धर्मपर दृष्टि रखनेवाली गान्धारीसे कहा—‘देवि! इस कुलका अन्त भले ही हो जाय, परंतु मैं दुर्योधनको रोक नहीं सकता॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथेच्छन्ति तथैवास्तु प्रत्यागच्छन्तु पाण्डवाः।
पुनर्द्यूतं च कुर्वन्तु मामकाः पाण्डवैः सह ॥ १२ ॥

मूलम्

यथेच्छन्ति तथैवास्तु प्रत्यागच्छन्तु पाण्डवाः।
पुनर्द्यूतं च कुर्वन्तु मामकाः पाण्डवैः सह ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ये सब जैसा चाहते हैं, वैसा ही हो। पाण्डव लौट आयें और मेरे पुत्र उनके साथ फिर जूआ खेलें’॥१२॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि अनुद्यूतपर्वणि गान्धारीवाक्ये पञ्चसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७५ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्वके अन्तर्गत अनुद्यूतपर्वमें गान्धारीवाक्यविषयक पचहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥७५॥