श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
द्विसप्ततितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
शत्रुओंको मारनेके लिये उद्यत हुए भीमको युधिष्ठिरका शान्त करना
मूलम् (वचनम्)
कर्ण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
या नः श्रुता मनुष्येषु स्त्रियो रूपेण सम्मताः।
तासामेतादृशं कर्म न कस्याश्चन शुश्रुम ॥ १ ॥
मूलम्
या नः श्रुता मनुष्येषु स्त्रियो रूपेण सम्मताः।
तासामेतादृशं कर्म न कस्याश्चन शुश्रुम ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कर्ण बोला— मैंने मनुष्योंमें जिन सुन्दरी स्त्रियोंके नाम सुने हैं, उनमेंसे किसीने भी ऐसा अद्भुत कार्य किया हो, यह मेरे सुननेमें नहीं आया॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रोधाविष्टेषु पार्थेषु धार्तराष्ट्रेषु चाप्यति।
द्रौपदी पाण्डुपुत्राणां कृष्णा शान्तिरिहाभवत् ॥ २ ॥
मूलम्
क्रोधाविष्टेषु पार्थेषु धार्तराष्ट्रेषु चाप्यति।
द्रौपदी पाण्डुपुत्राणां कृष्णा शान्तिरिहाभवत् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीके पुत्र तथा धृतराष्ट्रके पुत्र सभी एक-दूसरेके प्रति अत्यन्त क्रोधसे भरे हुए थे, ऐसे समयमें यह द्रुपदकुमारी कृष्णा इन पाण्डवोंको परम शान्ति देनेवाली बन गयी॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अप्लवेऽम्भसि मग्नानामप्रतिष्ठे निमज्जताम् ।
पाञ्चाली पाण्डुपुत्राणां नौरेषा पारगाभवत् ॥ ३ ॥
मूलम्
अप्लवेऽम्भसि मग्नानामप्रतिष्ठे निमज्जताम् ।
पाञ्चाली पाण्डुपुत्राणां नौरेषा पारगाभवत् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाण्डवलोग नौका और आधारसे रहित जलमें गोते खा रहे थे अर्थात् संकटके अथाह सागरमें डूब रहे थे, किंतु यह पांचालराजकुमारी इनके लिये पार लगानेवाली नौका बन गयी॥३॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद् वै श्रुत्वा भीमसेनः कुरुमध्येऽत्यमर्षणः।
स्त्रीगतिः पाण्डुपुत्राणामित्युवाच सुदुर्मनाः ॥ ४ ॥
मूलम्
तद् वै श्रुत्वा भीमसेनः कुरुमध्येऽत्यमर्षणः।
स्त्रीगतिः पाण्डुपुत्राणामित्युवाच सुदुर्मनाः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! कौरवोंके बीचमें कर्णकी वह बात सुनकर अत्यन्त असहनशील भीमसेन मन-ही-मन बहुत दुःखी होकर बोले—‘हाय! पाण्डवोंको उबारनेवाली एक स्त्री हुई’॥४॥
मूलम् (वचनम्)
भीम उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रीणि ज्योतींषि पुरुष इति वै देवलोऽब्रवीत्।
अपत्यं कर्म विद्या च यतः सृष्टाः प्रजास्ततः ॥ ५ ॥
मूलम्
त्रीणि ज्योतींषि पुरुष इति वै देवलोऽब्रवीत्।
अपत्यं कर्म विद्या च यतः सृष्टाः प्रजास्ततः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीमसेनने कहा— महर्षि देवलका कथन है कि पुरुषमें तीन प्रकारकी ज्योतियाँ हैं—संतान, कर्म और ज्ञान; क्योंकि इन्हींसे सारी प्रजाकी सृष्टि हुई॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अमेध्ये वै गतप्राणे शून्ये ज्ञातिभिरुज्झिते।
देहे त्रितयमेवैतत् पुरुषस्योपयुज्यते ॥ ६ ॥
मूलम्
अमेध्ये वै गतप्राणे शून्ये ज्ञातिभिरुज्झिते।
देहे त्रितयमेवैतत् पुरुषस्योपयुज्यते ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब यह शरीर प्राणरहित होकर शून्य एवं अपवित्र हो जाता है तथा समस्त बन्धु-बान्धव उसे त्याग देते हैं, तब ये ही ज्ञान आदि तीनों ज्योतियाँ (परलोकगत) पुरुषके उपयोगमें आती हैं॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तन्नो ज्योतिरभिहतं दाराणामभिमर्शनात् ।
धनंजय कथंस्वित् स्यादपत्यमभिमृष्टजम् ॥ ७ ॥
मूलम्
तन्नो ज्योतिरभिहतं दाराणामभिमर्शनात् ।
धनंजय कथंस्वित् स्यादपत्यमभिमृष्टजम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धनंजय! हमारी धर्मपत्नी द्रौपदीके शरीरका बल-पूर्वक स्पर्श करके दुःशासनने उसे अपवित्र कर दिया है, इससे हमारी संतानरूप ज्योति नष्ट हो गयी। जो पराये पुरुषसे छू गयी, उस स्त्रीसे उत्पन्न संतान किस कामकी होगी?॥७॥
मूलम् (वचनम्)
अर्जुन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
न चैवोक्ता न चानुक्ता हीनतः परुषा गिरः।
भारत प्रतिजल्पन्ति सदा तूत्तमपूरुषाः ॥ ८ ॥
मूलम्
न चैवोक्ता न चानुक्ता हीनतः परुषा गिरः।
भारत प्रतिजल्पन्ति सदा तूत्तमपूरुषाः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुन बोले— भारत! (द्रौपदी सती है। उसके विषयमें आप ऐसी बात न कहें। दुःशासनने अवश्य नीचता की है, किंतु) श्रेष्ठ पुरुष नीच पुरुषोंद्वारा कही या न कही गयी कड़वी बातोंका कभी उत्तर नहीं देते॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्मरन्ति सुकृतान्येव न वैराणि कृतान्यपि।
सन्तः प्रतिविजानन्तो लब्धसम्भावनाः स्वयम् ॥ ९ ॥
मूलम्
स्मरन्ति सुकृतान्येव न वैराणि कृतान्यपि।
सन्तः प्रतिविजानन्तो लब्धसम्भावनाः स्वयम् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रतिशोधका उपाय जानते हुए भी सत्पुरुष दूसरोंके उपकारोंको ही याद रखते हैं, उनके द्वारा किये हुए वैरको नहीं। उन साधु पुरुषोंको स्वयं सबसे सम्मान प्राप्त होता रहता है॥९॥
मूलम् (वचनम्)
भीम उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इहैवैतांस्त्वहं सर्वान् हन्मि शत्रून् समागतान्।
अथ निष्क्रम्य राजेन्द्र समूलान् हन्मि भारत ॥ १० ॥
मूलम्
इहैवैतांस्त्वहं सर्वान् हन्मि शत्रून् समागतान्।
अथ निष्क्रम्य राजेन्द्र समूलान् हन्मि भारत ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीमसेनने (राजा युधिष्ठिरसे) कहा— भरतवंशी राजराजेश्वर! (यदि आपकी आज्ञा हो, तो) यहाँ आये हुए इन सब शत्रुओंको मैं यहीं समाप्त कर दूँ और यहाँसे बाहर निकलकर इनके मूलका भी नाश कर डालूँ॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं नो विवदितेनेह किमुक्तेन च भारत।
अद्यैवैतान् निहन्मीह प्रशाधि पृथिवीमिमाम् ॥ ११ ॥
मूलम्
किं नो विवदितेनेह किमुक्तेन च भारत।
अद्यैवैतान् निहन्मीह प्रशाधि पृथिवीमिमाम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! अब यहाँ विवाद या उत्तर-प्रत्युत्तर करनेकी हमें क्या आवश्यकता है? मैं आज ही इन सबको यमलोक भेज देता हूँ, आप इस सारी पृथ्वीका शासन कीजिये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा भीमसेनस्तु कनिष्ठैर्भ्रातृभिः सह।
मृगमध्ये यथा सिंहो मुहुर्मुहुरुदैक्षत ॥ १२ ॥
मूलम्
इत्युक्त्वा भीमसेनस्तु कनिष्ठैर्भ्रातृभिः सह।
मृगमध्ये यथा सिंहो मुहुर्मुहुरुदैक्षत ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने छोटे भाइयोंके साथ खड़े हुए भीमसेन उपर्युक्त बात कहकर शत्रुओंकी ओर बार-बार देखने लगे; मानो सिंह मृगोंके समूहमें खड़ा हो उन्हींकी ओर देख रहा हो॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सान्त्व्यमानो वीक्षमाणः पार्थेनाक्लिष्टकर्मणा ।
खिद्यत्येव महाबाहुरन्तर्दाहेन वीर्यवान् ॥ १३ ॥
मूलम्
सान्त्व्यमानो वीक्षमाणः पार्थेनाक्लिष्टकर्मणा ।
खिद्यत्येव महाबाहुरन्तर्दाहेन वीर्यवान् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अनायास ही महान् पराक्रम कर दिखानेवाले अर्जुन शत्रुओंकी ओर देखनेवाले भीमसेनको बार-बार शान्त कर रहे थे, परंतु पराक्रमी महाबाहु भीमसेन अपने भीतर धधकती हुई क्रोधाग्निसे जल रहे थे॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रुद्धस्य तस्य स्रोतोभ्यः कर्णादिभ्यो नराधिप।
सधूमः सस्फुलिङ्गार्चिः पावकः समजायत ॥ १४ ॥
मूलम्
क्रुद्धस्य तस्य स्रोतोभ्यः कर्णादिभ्यो नराधिप।
सधूमः सस्फुलिङ्गार्चिः पावकः समजायत ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! उस समय क्रोधमें भरे हुए भीमसेनकी श्रवणादि इन्द्रियोंके छिद्रों तथा रोमकूपोंसे धूम और चिनगारियोंसहित आगकी लपटें निकल रहीं थीं॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भ्रुकुटीकृतदुष्प्रेक्ष्यमभवत् तस्य तन्मुखम् ।
युगान्तकाले सम्प्राप्ते कृतान्तस्येव रूपिणः ॥ १५ ॥
मूलम्
भ्रुकुटीकृतदुष्प्रेक्ष्यमभवत् तस्य तन्मुखम् ।
युगान्तकाले सम्प्राप्ते कृतान्तस्येव रूपिणः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भौंहें तनी होनेके कारण प्रलयकालमें मूर्तिमान् यमराजकी भाँति उनके भयानक मुखकी ओर देखना भी कठिन हो रहा था॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
युधिष्ठिरस्तमावार्य बाहुना बाहुशालिनम् ।
मैवमित्यब्रवीच्चैनं जोषमास्स्वेति भारत ॥ १६ ॥
मूलम्
युधिष्ठिरस्तमावार्य बाहुना बाहुशालिनम् ।
मैवमित्यब्रवीच्चैनं जोषमास्स्वेति भारत ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! तब विशाल भुजाओंसे सुशोभित होनेवाले भीमसेनको अपने एक हाथसे रोकते हुए युधिष्ठिरने कहा—‘ऐसा न करो, शान्तिपूर्वक बैठ जाओ’॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निवार्य च महाबाहुं कोपसंरक्तलोचनम्।
पितरं समुपातिष्ठद् धृतराष्ट्रं कृताञ्जलिः ॥ १७ ॥
मूलम्
निवार्य च महाबाहुं कोपसंरक्तलोचनम्।
पितरं समुपातिष्ठद् धृतराष्ट्रं कृताञ्जलिः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय महाबाहु भीमके नेत्र क्रोधसे लाल हो रहे थे। उन्हें रोककर राजा युधिष्ठिर हाथ जोड़े हुए अपने ताऊ महाराज धृतराष्ट्रके पास गये॥१७॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि द्यूतपर्वणि भीमक्रोधे द्विसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७२ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्वके अन्तर्गत द्यूतपर्वमें भीमसेनका क्रोधविषयक बहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥७२॥