श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
एकोनसप्ततितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
द्रौपदीका चेतावनीयुक्त विलाप एवं भीष्मका वचन
मूलम् (वचनम्)
द्रौपद्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरस्तात् करणीयं मे न कृतं कार्यमुत्तरम्।
विह्वलास्मि कृतानेन कर्षता बलिना बलात् ॥ १ ॥
मूलम्
पुरस्तात् करणीयं मे न कृतं कार्यमुत्तरम्।
विह्वलास्मि कृतानेन कर्षता बलिना बलात् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्रौपदी बोली— हाय! मेरा जो कार्य सबसे पहले करनेका था, वह अभीतक नहीं हुआ। मुझे अब वह कार्य कर लेना चाहिये। इस बलवान् दुरात्मा दुःशासनने मुझे बलपूर्वक घसीटकर व्याकुल कर दिया है॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभिवादं करोम्येषां कुरूणां कुरुसंसदि।
न मे स्यादपराधोऽयं यदिदं न कृतं मया ॥ २ ॥
मूलम्
अभिवादं करोम्येषां कुरूणां कुरुसंसदि।
न मे स्यादपराधोऽयं यदिदं न कृतं मया ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कौरवोंकी सभामें मैं समस्त कुरुवंशी महात्माओंको प्रणाम करती हूँ। मैंने घबराहटके कारण पहले प्रणाम नहीं किया; अतः यह मेरा अपराध न माना जाय॥२॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा तेन च समाधूता दुःखेन च तपस्विनी।
पतिता विललापेदं सभायामतथोचिता ॥ ३ ॥
मूलम्
सा तेन च समाधूता दुःखेन च तपस्विनी।
पतिता विललापेदं सभायामतथोचिता ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! दुशासनके बार-बार खींचनेसे तपस्विनी द्रौपदी पृथ्वीपर गिर पड़ी और उस सभामें अत्यन्त दुःखित हो विलाप करने लगी। वह जिस दुरवस्थामें पड़ी थी, उसके योग्य कदापि न थी॥३॥
मूलम् (वचनम्)
द्रौपद्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वयंवरे यास्मि नृपैर्दृष्टा रङ्गे समागतैः।
न दृष्टपूर्वा चान्यत्र साहमद्य सभां गता ॥ ४ ॥
मूलम्
स्वयंवरे यास्मि नृपैर्दृष्टा रङ्गे समागतैः।
न दृष्टपूर्वा चान्यत्र साहमद्य सभां गता ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्रौपदीने कहा— हा! मैं स्वयंवरके समय सभामें आयी थी और उस समय रंगभूमिमें पधारे हुए राजाओंने मुझे देखा था। उसके सिवा, अन्य अवसरोंपर कहीं भी आजसे पहले किसीने मुझे नहीं देखा। वही मैं आज सभामें बलपूर्वक लायी गयी हूँ॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यां न वायुर्न चादित्यो दृष्टवन्तौ पुरा गृहे।
साहमद्य सभामध्ये दृश्यास्मि जनसंसदि ॥ ५ ॥
मूलम्
यां न वायुर्न चादित्यो दृष्टवन्तौ पुरा गृहे।
साहमद्य सभामध्ये दृश्यास्मि जनसंसदि ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पहले राजभवनमें रहते हुए जिसे वायु तथा सूर्य भी नहीं देख पाते थे, वही मैं आज इस सभाके भीतर महान् जनसमुदायमें आकर सबके नेत्रोंकी लक्ष्य बन गयी हूँ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यां न मृष्यन्ति वातेन स्पृश्यमानां गृहे पुरा।
स्पृश्यमानां सहन्तेऽद्य पाण्डवास्तां दुरात्मना ॥ ६ ॥
मूलम्
यां न मृष्यन्ति वातेन स्पृश्यमानां गृहे पुरा।
स्पृश्यमानां सहन्तेऽद्य पाण्डवास्तां दुरात्मना ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पहले अपने महलमें रहते समय जिसका वायुद्वारा स्पर्श भी पाण्डवोंको सहन नहीं होता था, उसी मुझ द्रौपदीका यह दुरात्मा दुःशासन भरी सभामें स्पर्श कर रहा है, तो भी आज ये पाण्डुकुमार सह रहे हैं॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मृष्यन्ति कुरवश्चेमे मन्ये कालस्य पर्ययम्।
स्नुषां दुहितरं चैव क्लिश्यमानामनर्हतीम् ॥ ७ ॥
मूलम्
मृष्यन्ति कुरवश्चेमे मन्ये कालस्य पर्ययम्।
स्नुषां दुहितरं चैव क्लिश्यमानामनर्हतीम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं कुरुकुलकी पुत्रवधू एवं पुत्रीतुल्य हूँ। सताये जानेके योग्य नहीं हूँ, फिर भी मुझे यह दारुण क्लेश दिया जा रहा है और ये समस्त कुरुवंशी इसे सहन करते हैं। मैं समझती हूँ, बड़ा विपरीत समय आ गया है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं न्वतः कृपणं भूयो यदहं स्त्री सती शुभा।
सभामध्यं विगाहेऽद्य क्व नु धर्मो महीक्षिताम् ॥ ८ ॥
मूलम्
किं न्वतः कृपणं भूयो यदहं स्त्री सती शुभा।
सभामध्यं विगाहेऽद्य क्व नु धर्मो महीक्षिताम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इससे बढ़कर दयनीय दशा और क्या हो सकती है कि मुझ-जैसी शुभकर्मपरायणा सती-साध्वी स्त्री भरी सभामें विवश करके लायी गयी है। आज राजाओंका धर्म कहाँ चला गया?॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्म्यां स्त्रियं सभां पूर्वे न नयन्तीति नः श्रुतम्।
स नष्टः कौरवेयेषु पूर्वो धर्मः सनातनः ॥ ९ ॥
मूलम्
धर्म्यां स्त्रियं सभां पूर्वे न नयन्तीति नः श्रुतम्।
स नष्टः कौरवेयेषु पूर्वो धर्मः सनातनः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैंने सुना है, पहले लोग धर्मपरायणा स्त्रीको कभी सभामें नहीं लाते थे, किंतु इन कौरवोंके समाजमें वह प्राचीन सनातनधर्म नष्ट हो गया है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथं हि भार्या पाण्डूनां पार्षतस्य स्वसा सती।
वासुदेवस्य च सखी पार्थिवानां सभामियाम् ॥ १० ॥
मूलम्
कथं हि भार्या पाण्डूनां पार्षतस्य स्वसा सती।
वासुदेवस्य च सखी पार्थिवानां सभामियाम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अन्यथा मैं पाण्डवोंकी पत्नी, धृष्टद्युम्नकी सुशीला बहन और भगवान् श्रीकृष्णकी सखी होकर राजाओंकी इस सभामें कैसे लायी जा सकती थी?॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तामिमां धर्मराजस्य भार्यां सदृशवर्णजाम्।
ब्रूत दासीमदासीं वा तत् करिष्यामि कौरवाः ॥ ११ ॥
मूलम्
तामिमां धर्मराजस्य भार्यां सदृशवर्णजाम्।
ब्रूत दासीमदासीं वा तत् करिष्यामि कौरवाः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कौरवो! मैं धर्मराज युधिष्ठिरकी धर्मपत्नी तथा उनके समान वर्णकी कन्या हूँ। आपलोग बतावें, मैं दासी हूँ या अदासी? आप जैसा कहेंगे मैं वैसा ही करूँगी॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयं मां सुदृढं क्षुद्रः कौरवाणां यशोहरः।
क्लिश्नाति नाहं तत् सोढुं चिरं शक्ष्यामि कौरवाः ॥ १२ ॥
मूलम्
अयं मां सुदृढं क्षुद्रः कौरवाणां यशोहरः।
क्लिश्नाति नाहं तत् सोढुं चिरं शक्ष्यामि कौरवाः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुवंशी क्षत्रियो! यह कुरुकुलकी कीर्तिमें कलंक लगानेवाला नीच दुःशासन मुझे बहुत कष्ट दे रहा है। मैं इस क्लेशको देरतक नहीं सह सकूँगी॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जितां वाप्यजितां वापि मन्यध्वं मां यथा नृपाः।
तथा प्रत्युक्तमिच्छामि तत् करिष्यामि कौरवाः ॥ १३ ॥
मूलम्
जितां वाप्यजितां वापि मन्यध्वं मां यथा नृपाः।
तथा प्रत्युक्तमिच्छामि तत् करिष्यामि कौरवाः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुवंशियो! आप क्या मानते हैं? मैं जीती गयी हूँ या नहीं। मैं आपके मुँहसे इसका ठीक-ठीक उत्तर सुनना चाहती हूँ। फिर उसीके अनुसार कार्य करूँगी॥१३॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
उक्तवानस्मि कल्याणि धर्मस्य परमा गतिः।
लोके न शक्यते ज्ञातुमपि विज्ञैर्महात्मभिः ॥ १४ ॥
मूलम्
उक्तवानस्मि कल्याणि धर्मस्य परमा गतिः।
लोके न शक्यते ज्ञातुमपि विज्ञैर्महात्मभिः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— कल्याणि! मैं पहले ही कह चुका हूँ कि धर्मकी गति बड़ी सूक्ष्म है। लोकमें विज्ञ महात्मा भी उसे ठीक-ठीक नहीं जान सकते॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बलवांश्च यथा धर्मं लोके पश्यति पूरुषः।
स धर्मो धर्मवेलायां भवत्यभिहतः परः ॥ १५ ॥
मूलम्
बलवांश्च यथा धर्मं लोके पश्यति पूरुषः।
स धर्मो धर्मवेलायां भवत्यभिहतः परः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संसारमें बलवान् मनुष्य जिसको धर्म समझता है, धर्मविचारके समय लोग उसीको धर्म मान लेते हैं और बलहीन पुरुष जो धर्म बतलाता है, वह बलवान् पुरुषके बताये धर्मसे दब जाता है (अतः इस समय कर्ण और दुर्योधनका बताया हुआ धर्म ही सर्वोपरि हो रहा है।)॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न विवेक्तुं च ते प्रश्नमिमं शक्नोमि निश्चयात्।
सूक्ष्मत्वाद् गहनत्वाच्च कार्यस्यास्य च गौरवात् ॥ १६ ॥
मूलम्
न विवेक्तुं च ते प्रश्नमिमं शक्नोमि निश्चयात्।
सूक्ष्मत्वाद् गहनत्वाच्च कार्यस्यास्य च गौरवात् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं तो धर्मका स्वरूप सूक्ष्म और गहन होनेके कारण तथा इस धर्मनिर्णयके कार्यके अत्यन्त गुरुतर होनेसे तुम्हारे इस प्रश्नका निश्चितरूपसे यथार्थ विवेचन नहीं कर सकता॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नूनमन्तः कुलस्यायं भविता नचिरादिव।
तथा हि कुरवः सर्वे लोभमोहपरायणाः ॥ १७ ॥
मूलम्
नूनमन्तः कुलस्यायं भविता नचिरादिव।
तथा हि कुरवः सर्वे लोभमोहपरायणाः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अवश्य ही बहुत शीघ्र इस कुलका नाश होनेवाला है; क्योंकि समस्त कौरव लोभ और मोहके वशीभूत हो गये हैं॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुलेषु जाताः कल्याणि व्यसनैराहता भृशम्।
धर्म्यान्मार्गान्न च्यवन्ते येषां नस्त्वं वधूः स्थिता ॥ १८ ॥
मूलम्
कुलेषु जाताः कल्याणि व्यसनैराहता भृशम्।
धर्म्यान्मार्गान्न च्यवन्ते येषां नस्त्वं वधूः स्थिता ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कल्याणि! तुम जिनकी पत्नी हो, वे पाण्डव हमारे उत्तम कुलमें उत्पन्न हैं और भारी-से-भारी संकटमें पड़कर भी धर्मके मार्गसे विचलित नहीं होते हैं॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपपन्नं च पाञ्चालि तवेदं वृत्तमीदृशम्।
यत् कृच्छ्रमपि सम्प्राप्ता धर्ममेवान्ववेक्षसे ॥ १९ ॥
मूलम्
उपपन्नं च पाञ्चालि तवेदं वृत्तमीदृशम्।
यत् कृच्छ्रमपि सम्प्राप्ता धर्ममेवान्ववेक्षसे ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पांचालराजकुमारी! तुम्हारा यह आचार-व्यवहार तुम्हारे योग्य ही है; क्योंकि भारी संकटमें पड़कर भी तुम धर्मकी ओर ही देख रही हो॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एते द्रोणादयश्चैव वृद्धा धर्मविदो जनाः।
शून्यैः शरीरैस्तिष्ठन्ति गतासव इवानताः ॥ २० ॥
युधिष्ठिरस्तु प्रश्नेऽस्मिन् प्रमाणमिति मे मतिः।
अजितां वा जितां वेति स्वयं व्याहर्तुमर्हति ॥ २१ ॥
मूलम्
एते द्रोणादयश्चैव वृद्धा धर्मविदो जनाः।
शून्यैः शरीरैस्तिष्ठन्ति गतासव इवानताः ॥ २० ॥
युधिष्ठिरस्तु प्रश्नेऽस्मिन् प्रमाणमिति मे मतिः।
अजितां वा जितां वेति स्वयं व्याहर्तुमर्हति ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये द्रोणाचार्य आदि वृद्ध एवं धर्मज्ञ पुरुष भी सिर लटकाये शून्य शरीरसे इस प्रकार बैठे हैं; मानो निष्प्राण हो गये हों। मेरी राय यह है कि इस प्रश्नका निर्णय करनेके लिये धर्मराज युधिष्ठिर ही सबसे प्रामाणिक व्यक्ति हैं। तुम जीती गयी हो या नहीं? यह बात स्वयं इन्हें बतलानी चाहिये॥२०-२१॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि द्यूतपर्वणि भीष्मवाक्ये एकोनसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ६९ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्वके अन्तर्गत द्यूतपर्वमें भीष्मवाक्यविषयक उनहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥६९॥