०६८ चीरहरणम्

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

अष्टषष्टितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

भीमसेनका क्रोध एवं अर्जुनका उन्हें शान्त करना, विकर्णकी धर्मसंगत बातका कर्णके द्वारा विरोध, द्रौपदीका चीरहरण एवं भगवान्‌द्वारा उसकी लज्जारक्षा तथा विदुरके द्वारा प्रह्लादका उदाहरण देकर सभासदोंको विरोधके लिये प्रेरित करना

मूलम् (वचनम्)

भीम उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भवन्ति गेहे बन्धक्यः कितवानां युधिष्ठिर।
न ताभिरुत दीव्यन्ति दया चैवास्ति तास्वपि ॥ १ ॥

मूलम्

भवन्ति गेहे बन्धक्यः कितवानां युधिष्ठिर।
न ताभिरुत दीव्यन्ति दया चैवास्ति तास्वपि ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीमसेन बोले— भैया युधिष्ठिर! जुआरियोंके घरमें प्रायः कुलटा स्त्रियाँ रहती हैं, किंतु वे भी उन्हें दाँवपर लगाकर जूआ नहीं खेलते। उन कुलटाओंके प्रति भी उनके हृदयमें दया रहती है॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

काश्यो यद् धनमाहार्षीद् द्रव्यं यच्चान्यदुत्तमम्।
तथान्ये पृथिवीपाला यानि रत्नान्युपाहरन् ॥ २ ॥
वाहनानि धनं चैव कवचान्यायुधानि च।
राज्यमात्मा वयं चैव कैतवेन हृतं परैः ॥ ३ ॥

मूलम्

काश्यो यद् धनमाहार्षीद् द्रव्यं यच्चान्यदुत्तमम्।
तथान्ये पृथिवीपाला यानि रत्नान्युपाहरन् ॥ २ ॥
वाहनानि धनं चैव कवचान्यायुधानि च।
राज्यमात्मा वयं चैव कैतवेन हृतं परैः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

काशिराजने जो धन उपहारमें दिया था एवं और भी जो उत्तम द्रव्य वे हमारे लिये लाये थे तथा अन्य राजाओंने भी जो रत्न हमें भेंट किये थे, उन सबको और हमारे वाहनों, वैभवों, कवचों, आयुधों, राज्य, आपके शरीर तथा हम सब भाइयोंको भी शत्रुओंने जूएके दाँवपर रखवाकर अपने अधिकारमें कर लिया॥२-३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न च मे तत्र कोपोऽभूत् सर्वस्येशो हि नो भवान्।
इमं त्वतिक्रमं मन्ये द्रौपदी यत्र पण्यते ॥ ४ ॥

मूलम्

न च मे तत्र कोपोऽभूत् सर्वस्येशो हि नो भवान्।
इमं त्वतिक्रमं मन्ये द्रौपदी यत्र पण्यते ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

किंतु इसके लिये मेरे मनमें क्रोध नहीं हुआ; क्योंकि आप हमारे सर्वस्वके स्वामी हैं। पर द्रौपदीको जो दाँवपर लगाया गया, इसे मैं बहुत ही अनुचित मानता हूँ॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एषा ह्यनर्हती बाला पाण्डवान् प्राप्य कौरवैः।
त्वत्कृते क्लिश्यते क्षुद्रैर्नृशंसैरकृतात्मभिः ॥ ५ ॥

मूलम्

एषा ह्यनर्हती बाला पाण्डवान् प्राप्य कौरवैः।
त्वत्कृते क्लिश्यते क्षुद्रैर्नृशंसैरकृतात्मभिः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह भोली-भाली अबला पाण्डवोंको पतिरूपमें पाकर इस प्रकार अपमानित होनेके योग्य नहीं थी, परंतु आपके कारण ये नीच, नृशंस और अजितेन्द्रिय कौरव इसे नाना प्रकारके कष्ट दे रहे हैं॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्याः कृते मन्युरयं त्वयि राजन् निपात्यते।
बाहू ते सम्प्रधक्ष्यामि सहदेवाग्निमानय ॥ ६ ॥

मूलम्

अस्याः कृते मन्युरयं त्वयि राजन् निपात्यते।
बाहू ते सम्प्रधक्ष्यामि सहदेवाग्निमानय ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! द्रौपदीकी इस दुर्दशाके लिये मैं आपपर ही अपना क्रोध छोड़ता हूँ। आपकी दोनों बाहें जला डालूँगा। सहदेव! आग ले आओ॥६॥

मूलम् (वचनम्)

अर्जुन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

न पुरा भीमसेन त्वमीदृशीर्वदिता गिरः।
परैस्ते नाशितं नूनं नृशंसैर्धर्मगौरवम् ॥ ७ ॥

मूलम्

न पुरा भीमसेन त्वमीदृशीर्वदिता गिरः।
परैस्ते नाशितं नूनं नृशंसैर्धर्मगौरवम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुन बोले— भैया भीमसेन! तुमने पहले कभी ऐसी बातें नहीं कही थीं। निश्चय ही क्रूरकर्मा शत्रुओंने तुम्हारी धर्मविषयक गौरवबुद्धिको नष्ट कर दिया है॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न सकामाः परे कार्या धर्ममेवाचरोत्तमम्।
भ्रातरं धार्मिकं ज्येष्ठं कोऽतिवर्तितुमर्हति ॥ ८ ॥

मूलम्

न सकामाः परे कार्या धर्ममेवाचरोत्तमम्।
भ्रातरं धार्मिकं ज्येष्ठं कोऽतिवर्तितुमर्हति ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भैया! शत्रुओंकी कामना सफल न करो; उत्तम धर्मका ही आचरण करो। भला, अपने धर्मात्मा ज्येष्ठ भ्राताका अपमान कौन कर सकता है?॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आहूतो हि परै राजा क्षात्रं व्रतमनुस्मरन्।
दीव्यते परकामेन तन्नः कीर्तिकरं महत् ॥ ९ ॥

मूलम्

आहूतो हि परै राजा क्षात्रं व्रतमनुस्मरन्।
दीव्यते परकामेन तन्नः कीर्तिकरं महत् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज युधिष्ठिरको शत्रुओंने द्यूतके लिये बुलाया है; अतः ये क्षत्रियव्रतको ध्यानमें रखकर दूसरोंकी इच्छासे जूआ खेलते हैं। यह हमारे महान् यशका विस्तार करनेवाला है॥९॥

मूलम् (वचनम्)

भीमसेन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमस्मिन् कृतं विद्यां यदि नाहं धनंजय।
दीप्तेऽग्नौ सहितौ बाहू निर्दहेयं बलादिव ॥ १० ॥

मूलम्

एवमस्मिन् कृतं विद्यां यदि नाहं धनंजय।
दीप्तेऽग्नौ सहितौ बाहू निर्दहेयं बलादिव ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीमसेनने कहा— अर्जुन! यदि मैं इस विषयमें यह न जानता कि इनका यह कार्य क्षत्रियधर्मके अनुकूल ही है, तो बलपूर्वक प्रज्वलित अग्निमें इनकी दोनों बाँहोंको एक साथ ही जलाकर राख कर डालता॥१०॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा तान् दुःखितान् दृष्ट्वा पाण्डवान् धृतराष्ट्रजः।
कृष्यमाणां च पाञ्चालीं विकर्ण इदमब्रवीत् ॥ ११ ॥

मूलम्

तथा तान् दुःखितान् दृष्ट्वा पाण्डवान् धृतराष्ट्रजः।
कृष्यमाणां च पाञ्चालीं विकर्ण इदमब्रवीत् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! पाण्डवोंको दुःखी और पांचालराजकुमारी द्रौपदीको घसीटी जाती हुई देख धृतराष्ट्रनन्दन विकर्णने यह कहा—॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

याज्ञसेन्या यदुक्तं तद् वाक्यं विब्रूत पार्थिवाः।
अविवेकेन वाक्यस्य नरकः सद्य एव नः ॥ १२ ॥

मूलम्

याज्ञसेन्या यदुक्तं तद् वाक्यं विब्रूत पार्थिवाः।
अविवेकेन वाक्यस्य नरकः सद्य एव नः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भूमिपालो! द्रौपदीने जो प्रश्न उपस्थित किया है, उसका आपलोग उत्तर दें। यदि इसके प्रश्नका ठीक-ठीक विवेचन नहीं किया गया, तो हमें शीघ्र ही नरक भोगना पड़ेगा॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीष्मश्च धृतराष्ट्रश्च कुरुवृद्धतमावुभौ ।
समेत्य नाहतुः किंचिद् विदुरश्च महामतिः ॥ १३ ॥

मूलम्

भीष्मश्च धृतराष्ट्रश्च कुरुवृद्धतमावुभौ ।
समेत्य नाहतुः किंचिद् विदुरश्च महामतिः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पितामह भीष्म और पिता धृतराष्ट्र—ये दोनों कुरुवंशके सबसे वृद्ध पुरुष हैं। ये तथा परम बुद्धिमान् विदुरजी मिलकर कुछ उत्तर क्यों नहीं देते?’॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भारद्वाजश्च सर्वेषामाचार्यः कृप एव च।
कुत एतावपि प्रश्नं नाहतुर्द्विजसत्तमौ ॥ १४ ॥

मूलम्

भारद्वाजश्च सर्वेषामाचार्यः कृप एव च।
कुत एतावपि प्रश्नं नाहतुर्द्विजसत्तमौ ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘हम सबके आचार्य भरद्वाजनन्दन द्रोणाचार्य और कृपाचार्य ये दोनों ब्राह्मणकुलके श्रेष्ठ पुरुष हैं। ये दोनों भी इस प्रश्नपर अपने विचार क्यों नहीं प्रकट करते?॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये त्वन्ये पृथिवीपालाः समेताः सर्वतो दिशः।
कामक्रोधौ समुत्सृज्य ते ब्रुवन्तु यथामति ॥ १५ ॥

मूलम्

ये त्वन्ये पृथिवीपालाः समेताः सर्वतो दिशः।
कामक्रोधौ समुत्सृज्य ते ब्रुवन्तु यथामति ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो दूसरे राजालोग चारों दिशाओंसे यहाँ पधारे हैं, वे सभी काम और क्रोधको त्यागकर अपनी बुद्धिके अनुसार इस प्रश्नका उत्तर दें॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदिदं द्रौपदीवाक्यमुक्तवत्यसकृच्छुभा ।
विमृश्य कस्य कः पक्षः पार्थिवा वदतोत्तरम् ॥ १६ ॥

मूलम्

यदिदं द्रौपदीवाक्यमुक्तवत्यसकृच्छुभा ।
विमृश्य कस्य कः पक्षः पार्थिवा वदतोत्तरम् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाओ! कल्याणी द्रौपदीने बार-बार जिस प्रश्नको दुहराया है, उसपर विचार करके आपलोग उत्तर दें, जिससे मालूम हो जाय कि इस विषयमें किसका क्या पक्ष (विचार) है’॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं स बहुशः सर्वानुक्तवांस्तान् सभासदः।
न च ते पृथिवीपालास्तमूचुः साध्वसाधु वा ॥ १७ ॥

मूलम्

एवं स बहुशः सर्वानुक्तवांस्तान् सभासदः।
न च ते पृथिवीपालास्तमूचुः साध्वसाधु वा ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार विकर्णने उन सब सभासदोंसे बार-बार अनुरोध किया; परंतु उन नरेशोंने उस विषयमें उससे भला-बुरा कुछ नहीं कहा॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उक्त्वा सकृत्‌ तथा सर्वान् विकर्णः पृथिवीपतीन्।
पाणौ पाणिं विनिष्पिष्य निःश्वसन्निदमब्रवीत् ॥ १८ ॥

मूलम्

उक्त्वा सकृत्‌ तथा सर्वान् विकर्णः पृथिवीपतीन्।
पाणौ पाणिं विनिष्पिष्य निःश्वसन्निदमब्रवीत् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन सब राजाओंसे बार-बार आग्रह करनेपर भी जब कुछ उत्तर नहीं मिला, तब विकर्णने हाथ-पर-हाथ मलते हुए लंबी साँस खींचकर कहा—॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विब्रूत पृथिवीपाला वाक्यं मा वा कथंचन।
मन्ये न्याय्यं यदत्राहं तद्धि वक्ष्यामि कौरवाः ॥ १९ ॥

मूलम्

विब्रूत पृथिवीपाला वाक्यं मा वा कथंचन।
मन्ये न्याय्यं यदत्राहं तद्धि वक्ष्यामि कौरवाः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कौरवो तथा अन्य भूमिपालो! आपलोग द्रौपदीके प्रश्नपर किसी प्रकारका विचार प्रकट करें या न करें, मैं इस विषयमें जो न्यायसंगत समझता हूँ, वह कहता हूँ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चत्वार्याहुर्नरश्रेष्ठा व्यसनानि महीक्षिताम् ।
मृगयां पानमक्षांश्च ग्राम्ये चैवातिरक्तताम् ॥ २० ॥

मूलम्

चत्वार्याहुर्नरश्रेष्ठा व्यसनानि महीक्षिताम् ।
मृगयां पानमक्षांश्च ग्राम्ये चैवातिरक्तताम् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नरश्रेष्ठ भूपालो! राजाओंके चार दुर्व्यसन बताये गये हैं—शिकार, मदिरापान, जूआ तथा विषयभोगमें अत्यन्त आसक्ति॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतेषु हि नरः सक्तो धर्ममुत्सृज्य वर्तते।
यथायुक्तेन च कृतां क्रियां लोको न मन्यते ॥ २१ ॥

मूलम्

एतेषु हि नरः सक्तो धर्ममुत्सृज्य वर्तते।
यथायुक्तेन च कृतां क्रियां लोको न मन्यते ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इन दुर्व्यसनोंमें आसक्त मनुष्य धर्मकी अवहेलना करके मनमाना बर्ताव करने लगता है। इस प्रकार व्यसनासक्त पुरुषके द्वारा किये हुए किसी भी कार्यको लोग सम्मान नहीं देते हैं॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदयं पाण्डुपुत्रेण व्यसने वर्तता भृशम्।
समाहूतेन कितवैरास्थितो द्रौपदीपणः ॥ २२ ॥

मूलम्

तदयं पाण्डुपुत्रेण व्यसने वर्तता भृशम्।
समाहूतेन कितवैरास्थितो द्रौपदीपणः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ये पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर द्यूतरूपी दुर्व्यसनमें अत्यन्त आसक्त हैं। इन्होंने धूर्त जुआरियोंसे प्रेरित होकर द्रौपदीको दाँवपर लगा दिया है॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

साधारणी च सर्वेषां पाण्डवानामनिन्दिता।
जितेन पूर्वं चानेन पाण्डवेन कृतः पणः ॥ २३ ॥

मूलम्

साधारणी च सर्वेषां पाण्डवानामनिन्दिता।
जितेन पूर्वं चानेन पाण्डवेन कृतः पणः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सती-साध्वी द्रौपदी समस्त पाण्डवोंकी समानरूपसे पत्नी है, केवल युधिष्ठिरकी ही नहीं है। इसके सिवा, पाण्डुकुमार युधिष्ठिर पहले अपने-आपको हार चुके थे, उसके बाद उन्होंने द्रौपदीको दाँवपर रखा है॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इयं च कीर्तिता कृष्णा सौबलेन पणार्थिना।
एतत् सर्वं विचार्याहं मन्ये न विजितामिमाम् ॥ २४ ॥

मूलम्

इयं च कीर्तिता कृष्णा सौबलेन पणार्थिना।
एतत् सर्वं विचार्याहं मन्ये न विजितामिमाम् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सब दाँवोंको जीतनेकी इच्छावाले सुबलपुत्र शकुनिने ही द्रौपदीको दाँवपर लगानेकी बात उठायी है। इन सब बातोंपर विचार करके मैं द्रुपदकुमारी कृष्णाको जीती हुई नहीं मानता’॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतच्छ्रुत्वा महान् नादः सभ्यानामुदतिष्ठत।
विकर्णं शंसमानानां सौबलं चापि निन्दतान् ॥ २५ ॥

मूलम्

एतच्छ्रुत्वा महान् नादः सभ्यानामुदतिष्ठत।
विकर्णं शंसमानानां सौबलं चापि निन्दतान् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सुनकर सभी सभासद विकर्णकी प्रशंसा और सुबलपुत्र शकुनिकी निन्दा करने लगे। उस समय वहाँ बड़ा कोलाहल मच गया॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन्नुपरते शब्दे राधेयः क्रोधमूर्च्छितः।
प्रगृह्य रुचिरं बाहुमिदं वचनमब्रवीत् ॥ २६ ॥

मूलम्

तस्मिन्नुपरते शब्दे राधेयः क्रोधमूर्च्छितः।
प्रगृह्य रुचिरं बाहुमिदं वचनमब्रवीत् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस कोलाहलके शान्त होनेपर राधानन्दन कर्ण क्रोधसे मूर्च्छित हो उसकी सुन्दर बाँह पकड़कर इस प्रकार बोला॥

मूलम् (वचनम्)

कर्ण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृश्यन्ते वै विकर्णेह वैकृतानि बहून्यपि।
तज्जातस्तद्विनाशाय यथाग्निररणिप्रजः ॥ २७ ॥

मूलम्

दृश्यन्ते वै विकर्णेह वैकृतानि बहून्यपि।
तज्जातस्तद्विनाशाय यथाग्निररणिप्रजः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कर्णने कहा— विकर्ण! इस जगत्‌में बहुत-सी वस्तुएँ विपरीत परिणाम उत्पन्न करनेवाली देखी जाती हैं। जैसे अरणिसे उत्पन्न हुई अग्नि उसीको जला देती है, उसी प्रकार कोई-कोई मनुष्य जिस कुलमें उत्पन्न होता है, उसीका विनाश करनेवाला बन जाता है॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(व्याधिर्बलं नाशयते शरीरस्थोऽपि सम्भृतः।
तृणानि पशवो घ्नन्ति स्वपक्षं चैव कौरवः॥
द्रोणो भीष्मः कृपो द्रौणिर्विदुरश्च महामतिः।
धृतराष्ट्रमश्च गान्धारी भवतः प्राज्ञवत्तराः॥)

मूलम्

(व्याधिर्बलं नाशयते शरीरस्थोऽपि सम्भृतः।
तृणानि पशवो घ्नन्ति स्वपक्षं चैव कौरवः॥
द्रोणो भीष्मः कृपो द्रौणिर्विदुरश्च महामतिः।
धृतराष्ट्रमश्च गान्धारी भवतः प्राज्ञवत्तराः॥)

अनुवाद (हिन्दी)

रोग यद्यपि शरीरमें ही पलता है, तथापि वह शरीरके ही बलका नाश करता है। पशु घासको ही चरते हैं, फिर भी उसे पैरोंसे कुचल डालते हैं। उसी प्रकार कुरुकुलमें उत्पन्न होकर भी तुम अपने ही पक्षको हानि पहुँचाना चाहते हो। विकर्ण! द्रोण, भीष्म, कृप, अश्वत्थामा, महाबुद्धिमान् विदुर, धृतराष्ट्र तथा गान्धारी—ये तुमसे अधिक बुद्धिमान् हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एते न किंचिदप्याहुश्चोदिता ह्यपि कृष्णया।
धर्मेण विजितामेतां मन्यन्ते द्रुपदात्मजाम् ॥ २८ ॥

मूलम्

एते न किंचिदप्याहुश्चोदिता ह्यपि कृष्णया।
धर्मेण विजितामेतां मन्यन्ते द्रुपदात्मजाम् ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्रौपदीने बार-बार प्रेरित किया है, तो भी ये सभासद कुछ भी नहीं बोलते हैं; क्योंकि ये सब लोग द्रुपदकुमारीको धर्मके अनुसार जीती हुई समझते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वं तु केवलबाल्येन धार्तराष्ट्र विदीर्यसे।
यद् ब्रवीषि सभामध्ये बालः स्थविरभाषितम् ॥ २९ ॥

मूलम्

त्वं तु केवलबाल्येन धार्तराष्ट्र विदीर्यसे।
यद् ब्रवीषि सभामध्ये बालः स्थविरभाषितम् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्रकुमार! तुम केवल अपनी मूर्खताके कारण आप ही अपने पैरोंमें कुल्हाड़ी मार रहे हो; क्योंकि तुम बालक होकर भी भरी सभामें वृद्धोंकी-सी बातें करते हो॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न च धर्मं यथावत् त्वं वेत्सि दुर्योधनावर।
यद् ब्रवीषि जितां कृष्णां न जितेति सुमन्दधीः ॥ ३० ॥

मूलम्

न च धर्मं यथावत् त्वं वेत्सि दुर्योधनावर।
यद् ब्रवीषि जितां कृष्णां न जितेति सुमन्दधीः ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्योधनके छोटे भाई! तुम्हें धर्मके विषयमें यथार्थ ज्ञान नहीं है। तुम जो जीती हुई द्रौपदीको नहीं जीती हुई बता रहे हो, इससे तुम्हारे मन्दबुद्धि होनेका परिचय मिलता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं ह्यविजितां कृष्णां मन्यसे धृतराष्ट्रज।
यदा सभायां सर्वस्वं न्यस्तवान् पाण्डवाग्रजः ॥ ३१ ॥

मूलम्

कथं ह्यविजितां कृष्णां मन्यसे धृतराष्ट्रज।
यदा सभायां सर्वस्वं न्यस्तवान् पाण्डवाग्रजः ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्रकुमार! तुम कृष्णाको नहीं जीती हुई कैसे मानते हो? जब कि पाण्डवोंके बड़े भाई युधिष्ठिरने द्यूतसभाके बीच अपना सर्वस्व दाँवपर लगा दिया है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभ्यन्तरा च सर्वस्वे द्रौपदी भरतर्षभ।
एवं धर्मजितां कृष्णां मन्यसे न जितां कथम् ॥ ३२ ॥

मूलम्

अभ्यन्तरा च सर्वस्वे द्रौपदी भरतर्षभ।
एवं धर्मजितां कृष्णां मन्यसे न जितां कथम् ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! द्रौपदी भी तो सर्वस्वके भीतर ही है। इस प्रकार जब कृष्णाको धर्मपूर्वक जीत लिया गया है, तब तुम उसे नहीं जीती हुई क्यों समझते हो?॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कीर्तिता द्रौपदी वाचा
अनुज्ञाता च पाण्डवैः।
भवत्य् अविजिता केन
हेतुनैषा मता तव ॥ ३३ ॥

मूलम्

कीर्तिता द्रौपदी वाचा अनुज्ञाता च पाण्डवैः।
भवत्यविजिता केन हेतुनैषा मता तव ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने अपनी वाणीद्वारा कहकर द्रौपदीको दाँवपर रखा और शेष पाण्डवोंने मौन रहकर उसका अनुमोदन किया। फिर किस कारणसे तुम उसे नहीं जीती हुई मानते हो?॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन्यसे वा सभामेतामानीतामेकवाससम् ।
अधर्मेणेति तत्रापि शृणु मे वाक्यमुत्तमम् ॥ ३४ ॥

मूलम्

मन्यसे वा सभामेतामानीतामेकवाससम् ।
अधर्मेणेति तत्रापि शृणु मे वाक्यमुत्तमम् ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अथवा यदि तुम्हारी यह राय हो कि एकवस्त्रा द्रौपदीको इस सभामें अधर्मपूर्वक लाया गया है तो इसके उत्तरमें भी मेरी उत्तम बात सुनो॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एको भर्ता स्त्रिया देवैर्विहितः कुरुनन्दन।
इयं त्वनेकवशगा बन्धकीति विनिश्चिता ॥ ३५ ॥
अस्याः सभामानयनं न चित्रमिति मे मतिः।
एकाम्बरधरत्वं वाप्यथ वापि विवस्त्रता ॥ ३६ ॥

मूलम्

एको भर्ता स्त्रिया देवैर्विहितः कुरुनन्दन।
इयं त्वनेकवशगा बन्धकीति विनिश्चिता ॥ ३५ ॥
अस्याः सभामानयनं न चित्रमिति मे मतिः।
एकाम्बरधरत्वं वाप्यथ वापि विवस्त्रता ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुनन्दन! देवताओंने स्त्रीके लिये एक ही पतिका विधान किया है; परंतु यह द्रौपदी अनेक पतियोंके अधीन है, अतः यह निश्चय ही वेश्या है। इसका सभामें लाया जाना कोई अनोखी बात नहीं है। यह एकवस्त्रा अथवा नंगी हो तो भी यहाँ लायी जा सकती है, यह मेरा स्पष्ट मत है॥३५-३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यच्चैषां द्रविणं किंचिद् या चैषा ये च पाण्डवाः।
सौबलेनेह तत् सर्वं धर्मेण विजितं वसु ॥ ३७ ॥

मूलम्

यच्चैषां द्रविणं किंचिद् या चैषा ये च पाण्डवाः।
सौबलेनेह तत् सर्वं धर्मेण विजितं वसु ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन पाण्डवोंके पास जो कुछ धन है, जो यह द्रौपदी है तथा जो ये पाण्डव हैं, इन सबको सुबलपुत्र शकुनिने यहाँ जूएके धनके रूपमें धर्मपूर्वक जीता है॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुःशासन सुबालोऽयं विकर्णः प्राज्ञवादिकः।
पाण्डवानां च वासांसि द्रौपद्याश्चाप्युपाहर ॥ ३८ ॥

मूलम्

दुःशासन सुबालोऽयं विकर्णः प्राज्ञवादिकः।
पाण्डवानां च वासांसि द्रौपद्याश्चाप्युपाहर ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुःशासन! यह विकर्ण अत्यन्त मूढ़ है, तथापि विद्वानोंकी-सी बातें बनाता है। तुम पाण्डवोंके और द्रौपदीके भी वस्त्र उतार लो॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तच्छ्रुत्वा पाण्डवाः सर्वे स्वानि वासांसि भारत।
अवकीर्योत्तरीयाणि सभायां समुपाविशन् ॥ ३९ ॥

मूलम्

तच्छ्रुत्वा पाण्डवाः सर्वे स्वानि वासांसि भारत।
अवकीर्योत्तरीयाणि सभायां समुपाविशन् ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! कर्णकी बात सुनकर समस्त पाण्डव अपने-अपने उत्तरीय वस्त्र उतारकर सभामें बैठ गये॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो दुःशासनो राजन् द्रौपद्या वसनं बलात्।
सभामध्ये समाक्षिप्य व्यपाक्रष्टुं प्रचक्रमे ॥ ४० ॥

मूलम्

ततो दुःशासनो राजन् द्रौपद्या वसनं बलात्।
सभामध्ये समाक्षिप्य व्यपाक्रष्टुं प्रचक्रमे ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! तब दुःशासनने उस भरी सभामें द्रौपदीका वस्त्र बलपूर्वक पकड़कर खींचना प्रारम्भ किया॥४०॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

आकृष्यमाणे वसने द्रौपद्याश्चिन्तितो हरिः।

मूलम्

आकृष्यमाणे वसने द्रौपद्याश्चिन्तितो हरिः।

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! जब वस्त्र खींचा जाने लगा, तब द्रौपदीने भगवान् श्रीकृष्णका स्मरण किया॥

मूलम् (वचनम्)

(द्रौपद्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्ञातं मया वसिष्ठेन
पुरा गीतं महात्मना।
महत्यापदि सम्प्राप्ते
स्मर्तव्यो भगवान् हरिः॥

मूलम्

ज्ञातं मया वसिष्ठेन पुरा गीतं महात्मना।
महत्यापदि सम्प्राप्ते स्मर्तव्यो भगवान् हरिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्रौपदीने मन-ही-मन कहा— मैंने पूर्वकालमें महात्मा वसिष्ठजीकी बतायी हुई इस बातको अच्छी तरह समझा है कि भारी विपत्ति पड़नेपर भगवान् श्रीहरिका स्मरण करना चाहिये।

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोविन्देति समाभाष्य
कृष्णेति च पुनः पुनः।
मनसा चिन्तयामास
देवं नारायणं प्रभुम्॥
आपत्स्वभयदं कृष्णं
लोकानां प्रपितामहम्।)

मूलम्

गोविन्देति समाभाष्य कृष्णेति च पुनः पुनः।
मनसा चिन्तयामास देवं नारायणं प्रभुम्॥
आपत्स्वभयदं कृष्णं लोकानां प्रपितामहम्।)

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! ऐसा विचारकर द्रौपदीने बारंबार ‘गोविन्द’ और ‘कृष्ण’ का नाम लेकर पुकारा और आपत्तिकालमें अभय देनेवाले लोकप्रपितामह नारायण-स्वरूप भगवान् श्रीकृष्णका मन-ही-मन चिन्तन किया।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोविन्द द्वारकावासिन्
कृष्ण गोपीजनप्रिय ॥ ४१ ॥
कौरवैः परिभूतां मां
किं न जानासि केशव।
हे नाथ हे रमानाथ व्रजनाथार्तिनाशन।
कौरवार्णवमग्नां माम्
उद्धरस्व जनार्दन ॥ ४२ ॥

मूलम्

गोविन्द द्वारकावासिन् कृष्ण गोपीजनप्रिय ॥ ४१ ॥
कौरवैः परिभूतां मां किं न जानासि केशव।
हे नाथ हे रमानाथ व्रजनाथार्तिनाशन।
कौरवार्णवमग्नां मामुद्धरस्व जनार्दन ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘हे गोविन्द! हे द्वारकावासी श्रीकृष्ण! हे गोपांगनाओंके प्राणवल्लभ केशव! कौरव मेरा अपमान कर रहे हैं, क्या आप नहीं जानते? हे नाथ! हे रमानाथ! हे व्रजनाथ! हे संकटनाशन जनार्दन! मैं कौरवरूप समुद्रमें डूबी जा रही हूँ, मेरा उद्धार कीजिये॥४१-४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृष्ण कृष्ण महायोगिन्
विश्वात्मन् विश्वभावन।
प्रपन्नां पाहि गोविन्द
कुरुमध्येऽवसीदतीम् ॥ ४३ ॥

मूलम्

कृष्ण कृष्ण महायोगिन् विश्वात्मन् विश्वभावन।
प्रपन्नां पाहि गोविन्द कुरुमध्येऽवसीदतीम् ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण! महायोगिन्! विश्वात्मन्! विश्वभावन! गोविन्द! कौरवोंके बीचमें कष्ट पाती हुई मुझ शरणागत अबलाकी रक्षा कीजिये’॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्यनुस्मृत्य कृष्णं सा
हरिं त्रिभुवनेश्वरम्।
प्रारुदद् दुःखिता राजन्
मुखमाच्छाद्य भामिनी ॥ ४४ ॥

मूलम्

इत्यनुस्मृत्य कृष्णं सा हरिं त्रिभुवनेश्वरम्।
प्रारुदद् दुःखिता राजन् मुखमाच्छाद्य भामिनी ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! इस प्रकार तीनों लोकोंके स्वामी श्यामसुन्दर श्रीकृष्णका बार-बार चिन्तन करके मानिनी द्रौपदी दुःखी हो अंचलसे मुँह ढककर जोर-जोरसे रोने लगी॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

याज्ञसेन्या वचः श्रुत्वा कृष्णो गह्वरितोऽभवत्।
त्यक्त्वा शय्याऽऽसनं पद्भ्यां कृपालुः कृपयाभ्यगात् ॥ ४५ ॥
कृष्णं च विष्णुं च हरिं नरं च
त्राणाय विक्रोशति याज्ञसेनी ।
ततस्तु धर्मोऽन्तरितो महात्मा
समावृणोद् वै विविधैः सुवस्त्रैः ॥ ४६ ॥

मूलम्

याज्ञसेन्या वचः श्रुत्वा कृष्णो गह्वरितोऽभवत्।
त्यक्त्वा शय्याऽऽसनं पद्भ्यां कृपालुः कृपयाभ्यगात् ॥ ४५ ॥
कृष्णं च विष्णुं च हरिं नरं च
त्राणाय विक्रोशति याज्ञसेनी ।
ततस्तु धर्मोऽन्तरितो महात्मा
समावृणोद् वै विविधैः सुवस्त्रैः ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्रुपदनन्दिनीकी वह करुण पुकार सुनकर कृपालु श्रीकृष्ण गद्‌गद हो गये तथा शय्या और आसन छोड़कर दयासे द्रवित हो पैदल ही दौड़ पड़े। यज्ञसेनकुमारी कृष्णा अपनी रक्षाके लिये श्रीकृष्ण, विष्णु हरि और नर आदि भगवन्नामोंको जोर-जोरसे पुकार रही थी। इसी समय धर्मस्वरूप महात्मा श्रीकृष्णने अव्यक्तरूपसे उसके वस्त्रमें प्रवेश करके भाँति-भाँतिके सुन्दर वस्त्रोंद्वारा द्रौपदीको आच्छादित कर लिया॥४५-४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आकृष्यमाणे वसने द्रौपद्यास्तु विशाम्पते।
तद्रूपमपरं वस्त्रं प्रादुरासीदनेकशः ॥ ४७ ॥

मूलम्

आकृष्यमाणे वसने द्रौपद्यास्तु विशाम्पते।
तद्रूपमपरं वस्त्रं प्रादुरासीदनेकशः ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनमेजय! द्रौपदीके वस्त्र खींचे जाते समय उसी तरहके दूसरे-दूसरे अनेक वस्त्र प्रकट होने लगे॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानारागविरागाणि वसनान्यथ वै प्रभो।
प्रादुर्भवन्ति शतशो धर्मस्य परिपालनात् ॥ ४८ ॥

मूलम्

नानारागविरागाणि वसनान्यथ वै प्रभो।
प्रादुर्भवन्ति शतशो धर्मस्य परिपालनात् ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! धर्मपालनके प्रभावसे वहाँ भाँति-भाँतिके सैकड़ों रंग-बिरंगे वस्त्र प्रकट होते रहे॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो हलहलाशब्दस्तत्रासीद् घोरदर्शनः ।
तदद्भुततमं लोको वीक्ष्य सर्वे महीभृतः।
शशंसुर्द्रौपदीं तत्र कुत्सन्तो धृतराष्ट्रजम् ॥ ४९ ॥
शशाप तत्र भीमस्तु राजमध्ये बृहत्स्वनः।
क्रोधाद् विस्फुरमाणौष्ठो विनिष्पिष्य करे करम् ॥ ५० ॥

मूलम्

ततो हलहलाशब्दस्तत्रासीद् घोरदर्शनः ।
तदद्भुततमं लोको वीक्ष्य सर्वे महीभृतः।
शशंसुर्द्रौपदीं तत्र कुत्सन्तो धृतराष्ट्रजम् ॥ ४९ ॥
शशाप तत्र भीमस्तु राजमध्ये बृहत्स्वनः।
क्रोधाद् विस्फुरमाणौष्ठो विनिष्पिष्य करे करम् ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय वहाँ बड़ा भयंकर कोलाहल मच गया। जगत्‌में यह अद्भुत दृश्य देखकर सब राजा द्रौपदीकी प्रशंसा और दुःशासनकी निन्दा करने लगे। उस समय वहाँ समस्त राजाओंके बीच हाथ-पर-हाथ मलते हुए भीमसेनने क्रोधसे फड़कते हुए ओठोंद्वारा भयंकर गर्जनाके साथ यह शाप दिया (प्रतिज्ञा की)॥४९-५०॥

मूलम् (वचनम्)

भीम उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदं मे वाक्यमादध्वं क्षत्रिया लोकवासिनः।
नोक्तपूर्वं नरैरन्यैर्न चान्यो यद् वदिष्यति ॥ ५१ ॥

मूलम्

इदं मे वाक्यमादध्वं क्षत्रिया लोकवासिनः।
नोक्तपूर्वं नरैरन्यैर्न चान्यो यद् वदिष्यति ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीमसेनने कहा— देश-देशान्तरके निवासी क्षत्रियो! आपलोग मेरी इस बातपर ध्यान दें। ऐसी बात आजसे पहले न तो किसीने कही होगी और न दूसरा कोई कहेगा ही॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद्येतदेवमुक्त्वाहं न कुर्यां पृथिवीश्वराः।
पितामहानां पूर्वेषां नाहं गतिमवाप्नुयाम् ॥ ५२ ॥
अस्य पापस्य दुर्बुद्धेर्भारतापसदस्य च।
न पिबेयं बलाद् वक्षो भित्त्वा चेद् रुधिरं युधि॥५३॥

मूलम्

यद्येतदेवमुक्त्वाहं न कुर्यां पृथिवीश्वराः।
पितामहानां पूर्वेषां नाहं गतिमवाप्नुयाम् ॥ ५२ ॥
अस्य पापस्य दुर्बुद्धेर्भारतापसदस्य च।
न पिबेयं बलाद् वक्षो भित्त्वा चेद् रुधिरं युधि॥५३॥

अनुवाद (हिन्दी)

भूमिपालो! यह खोटी बुद्धिवाला दुःशासन भरतवंशके लिये कलंक है। मैं युद्धमें बलपूर्वक इस पापीकी छाती फाड़कर इसका रक्त पीऊँगा। यदि न पीऊँ अर्थात्—अपनी कही हुई उस बातको पूरा न करूँ, तो मुझे अपने पूर्वज बाप-दादोंकी श्रेष्ठ गति न मिले॥५२-५३॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य ते तद् वचः श्रुत्वा रौद्रं लोमप्रहर्षणम्।
प्रचक्रुर्बहुलां पूजां कुत्सन्तो धृतराष्ट्रजम् ॥ ५४ ॥

मूलम्

तस्य ते तद् वचः श्रुत्वा रौद्रं लोमप्रहर्षणम्।
प्रचक्रुर्बहुलां पूजां कुत्सन्तो धृतराष्ट्रजम् ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! भीमसेनकी यह रोंगटे खड़े कर देनेवाली भयंकर बात सुनकर वहाँ बैठे हुए राजाओंने धृतराष्ट्रपुत्र दुःशासनकी निन्दा करते हुए भीमसेनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की॥५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदा तु वाससां राशिः सभामध्ये समाचितः।
ततो दुःशासनः श्रान्तो व्रीडितः समुपाविशत् ॥ ५५ ॥

मूलम्

यदा तु वाससां राशिः सभामध्ये समाचितः।
ततो दुःशासनः श्रान्तो व्रीडितः समुपाविशत् ॥ ५५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब सभामें वस्त्रोंका ढेर लग गया, तब दुःशासन थककर लज्जित हो चुपचाप बैठ गया॥५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धिक्शब्दस्तु ततस्तत्र समभूल्लोमहर्षणः ।
सभ्यानां नरदेवानां दृष्ट्वा कुन्तीसुतांस्तथा ॥ ५६ ॥

मूलम्

धिक्शब्दस्तु ततस्तत्र समभूल्लोमहर्षणः ।
सभ्यानां नरदेवानां दृष्ट्वा कुन्तीसुतांस्तथा ॥ ५६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय कुन्तीपुत्रोंकी ओर देखकर सभामें उपस्थित नरेशोंकी ओरसे दुःशासनपर रोमांचकारी शब्दोंमें धिक्कारकी बौछार होने लगी॥५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न विब्रुवन्ति कौरव्याः प्रश्नमेतमिति स्म ह।
स जनः क्रोशति स्मात्र धृतराष्ट्रं विगर्हयन् ॥ ५७ ॥

मूलम्

न विब्रुवन्ति कौरव्याः प्रश्नमेतमिति स्म ह।
स जनः क्रोशति स्मात्र धृतराष्ट्रं विगर्हयन् ॥ ५७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कौरव द्रौपदीके पूर्वोक्त प्रश्नपर स्पष्ट विवेचन नहीं कर रहे थे, अतः वहाँ बैठे हुए लोग राजा धृतराष्ट्रकी निन्दा करते हुए उन्हें कोसने लगे॥५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो बाहू समुच्छ्रित्य निवार्य च सभासदः।
विदुरः सर्वधर्मज्ञ इदं वचनमब्रवीत् ॥ ५८ ॥

मूलम्

ततो बाहू समुच्छ्रित्य निवार्य च सभासदः।
विदुरः सर्वधर्मज्ञ इदं वचनमब्रवीत् ॥ ५८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब सम्पूर्ण धर्मोंके ज्ञाता विदुरजीने अपनी दोनों भुजाएँ ऊपर उठाकर सभासदोंको चुप कराया और इस प्रकार कहा॥

मूलम् (वचनम्)

विदुर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्रौपदी प्रश्नमुक्त्वैवं रोरवीति ह्यनाथवत्।
न च विब्रूत तं प्रश्नं सभ्या धर्मोऽत्र पीड्यते॥५९॥

मूलम्

द्रौपदी प्रश्नमुक्त्वैवं रोरवीति ह्यनाथवत्।
न च विब्रूत तं प्रश्नं सभ्या धर्मोऽत्र पीड्यते॥५९॥

अनुवाद (हिन्दी)

विदुरजी बोले— इस सभामें पधारे हुए भूपालगण! द्रुपदकुमारी कृष्णा यहाँ अपना प्रश्न उपस्थित करके इस तरह अनाथकी भाँति रो रही है; परंतु आपलोग उसका विवेचन नहीं करते, अतः यहाँ धर्मकी हानि हो रही है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभां प्रपद्यते ह्यार्तः प्रज्वलन्निव हव्यवाट्।
तं वै सत्येन धर्मेण सभ्याः प्रशमयन्त्युत ॥ ६० ॥

मूलम्

सभां प्रपद्यते ह्यार्तः प्रज्वलन्निव हव्यवाट्।
तं वै सत्येन धर्मेण सभ्याः प्रशमयन्त्युत ॥ ६० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संकटमें पड़ा हुआ मनुष्य अग्निकी भाँति चिन्तासे प्रज्वलित हुआ सभाकी शरण लेता है, उस समय सभासदगण धर्म और सत्यका आश्रय लेकर अपने वचनोंद्वारा उसे शान्त करते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मप्रश्नमतो ब्रूयादार्यः सत्येन मानवः।
विब्रूयुस्तत्र तं प्रश्नं कामक्रोधबलातिगाः ॥ ६१ ॥

मूलम्

धर्मप्रश्नमतो ब्रूयादार्यः सत्येन मानवः।
विब्रूयुस्तत्र तं प्रश्नं कामक्रोधबलातिगाः ॥ ६१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः श्रेष्ठ मनुष्यको उचित है कि वह धर्मानुकूल प्रश्नको सचाईके साथ उपस्थित करे और सभासदोंको चाहिये कि वे काम-क्रोधके वेगसे ऊपर उठकर उस प्रश्नका ठीक-ठीक विवेचन करें॥६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विकर्णेन यथाप्रज्ञमुक्तः प्रश्नो नराधिपाः।
भवन्तोऽपि हि तं प्रश्नं विब्रुवन्तु यथामति ॥ ६२ ॥

मूलम्

विकर्णेन यथाप्रज्ञमुक्तः प्रश्नो नराधिपाः।
भवन्तोऽपि हि तं प्रश्नं विब्रुवन्तु यथामति ॥ ६२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाओ! विकर्णने अपनी बुद्धिके अनुसार इस प्रश्नका उत्तर दिया है, अब आपलोग भी अपनी-अपनी बुद्धिके अनुसार उस प्रश्नका निर्णय करें॥६२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यो हि प्रश्नं न विब्रूयाद् धर्मदर्शी सभां गतः।
अनृते या फलावाप्तिस्तस्याः सोऽर्धं समश्नुते ॥ ६३ ॥

मूलम्

यो हि प्रश्नं न विब्रूयाद् धर्मदर्शी सभां गतः।
अनृते या फलावाप्तिस्तस्याः सोऽर्धं समश्नुते ॥ ६३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो धर्मज्ञ पुरुष सभामें जाकर वहाँ उपस्थित हुए प्रश्नका उत्तर नहीं देता, वह झूठ बोलनेके आधे फलका भागी होता है॥६३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यः पुनर्वितथं ब्रूयाद् धर्मदर्शी सभां गतः।
अनृतस्य फलं कृत्स्नं सम्प्राप्नोतीति निश्चयः ॥ ६४ ॥

मूलम्

यः पुनर्वितथं ब्रूयाद् धर्मदर्शी सभां गतः।
अनृतस्य फलं कृत्स्नं सम्प्राप्नोतीति निश्चयः ॥ ६४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार जो धर्मज्ञ मानव सभामें जाकर किसी प्रश्नपर झूठा निर्णय देता है, वह निश्चय ही असत्यभाषण-का पूरा फल (दण्ड) पाता है॥६४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
प्रह्लादस्य च संवादं मुनेराङ्गिरसस्य च ॥ ६५ ॥

मूलम्

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
प्रह्लादस्य च संवादं मुनेराङ्गिरसस्य च ॥ ६५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस विषयमें विज्ञपुरुष प्रह्लाद और अंगिराकुमार मुनि सुधन्वाके संवादरूप इस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं॥६५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रह्लादो नाम दैत्येन्द्रस्तस्य पुत्रो विरोचनः।
कन्याहेतोराङ्गिरसं सुधन्वानमुपाद्रवत् ॥ ६६ ॥

मूलम्

प्रह्लादो नाम दैत्येन्द्रस्तस्य पुत्रो विरोचनः।
कन्याहेतोराङ्गिरसं सुधन्वानमुपाद्रवत् ॥ ६६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दैत्यराज प्रह्लादके एक पुत्र था विरोचन। उसका केशिनी नामवाली एक कन्याकी प्राप्तिके लिये अंगिराके पुत्र सुधन्वाके साथ विवाद हो गया॥६६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहं ज्यायानहं ज्यायानिति कन्येप्सया तदा।
तयोर्देवनमत्रासीत् प्राणयोरिति नः श्रुतम् ॥ ६७ ॥

मूलम्

अहं ज्यायानहं ज्यायानिति कन्येप्सया तदा।
तयोर्देवनमत्रासीत् प्राणयोरिति नः श्रुतम् ॥ ६७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दोनों ही उस कन्याको पानेकी इच्छासे ‘मैं श्रेष्ठ हूँ, मैं श्रेष्ठ हूँ’ ऐसा कहने लगे। मेरे सुननेमें आया है कि उन दोनोंने अपनी बात सत्य करनेके लिये प्राणोंकी बाजी लगा दी॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तयोः प्रश्नविवादोऽभूत् प्रह्लादं तावपृच्छताम्।
ज्यायान् क आवयोरेकः प्रश्नं प्रब्रूहि मा मृषा ॥ ६८ ॥

मूलम्

तयोः प्रश्नविवादोऽभूत् प्रह्लादं तावपृच्छताम्।
ज्यायान् क आवयोरेकः प्रश्नं प्रब्रूहि मा मृषा ॥ ६८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रेष्ठताके प्रश्नको लेकर जब उनका विवाद बहुत बढ़ गया, तब उन्होंने दैत्यराज प्रह्लादसे जाकर पूछा—‘हम दोनोंमें कौन श्रेष्ठ है? आप इस प्रश्नका ठीक-ठीक उत्तर दीजिये, झूठ न बोलियेगा’॥६८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स वै विवदनाद् भीतः सुधन्वानं विलोकयन्।
तं सुधन्वाब्रवीत् क्रुद्धो ब्रह्मदण्ड इव ज्वलन् ॥ ६९ ॥

मूलम्

स वै विवदनाद् भीतः सुधन्वानं विलोकयन्।
तं सुधन्वाब्रवीत् क्रुद्धो ब्रह्मदण्ड इव ज्वलन् ॥ ६९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रह्लाद उस विवादसे भयभीत हो सुधन्वाकी ओर देखने लगे, तब सुधन्वाने प्रज्वलित ब्रह्मदण्डके समान कुपित होकर कहा—॥६९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि वै वक्ष्यसि मृषा प्रह्लादाथ न वक्ष्यसि।
शतधा ते शिरो वज्री वज्रेण प्रहरिष्यति ॥ ७० ॥

मूलम्

यदि वै वक्ष्यसि मृषा प्रह्लादाथ न वक्ष्यसि।
शतधा ते शिरो वज्री वज्रेण प्रहरिष्यति ॥ ७० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘प्रह्लाद! यदि तुम इस प्रश्नके उत्तरमें झूठ बोलोगे अथवा मौन रह जाओगे तो वज्रधारी इन्द्र अपने वज्रद्वारा तुम्हारे सिरके सैकड़ों टुकड़े कर देगा’॥७०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुधन्वना तथोक्तः सन् व्यथितोऽश्वत्थपर्णवत्।
जगाम कश्यपं दैत्यः परिप्रष्टुं महौजसम् ॥ ७१ ॥
सुधन्वाके ऐसा कहनेपर प्रह्लाद व्यथित हो पीपलके पत्तेकी तरह काँपने लगे और इसके विषयमें कुछ पूछनेके लिये वे महातेजस्वी कश्यपजीके पास गये॥७१॥

मूलम्

सुधन्वना तथोक्तः सन् व्यथितोऽश्वत्थपर्णवत्।
जगाम कश्यपं दैत्यः परिप्रष्टुं महौजसम् ॥ ७१ ॥
सुधन्वाके ऐसा कहनेपर प्रह्लाद व्यथित हो पीपलके पत्तेकी तरह काँपने लगे और इसके विषयमें कुछ पूछनेके लिये वे महातेजस्वी कश्यपजीके पास गये॥७१॥

मूलम् (वचनम्)

प्रह्लाद उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वं वै धर्मस्य विज्ञाता दैवस्येहासुरस्य च।
ब्राह्मणस्य महाभाग धर्मकृच्छ्रमिदं शृणु ॥ ७२ ॥

मूलम्

त्वं वै धर्मस्य विज्ञाता दैवस्येहासुरस्य च।
ब्राह्मणस्य महाभाग धर्मकृच्छ्रमिदं शृणु ॥ ७२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रह्लाद बोले— महाभाग! आप देवताओं, असुरों तथा ब्राह्मणके भी धर्मको जानते हैं। मुझपर एक धर्मसंकट उपस्थित हुआ है, उसे सुनिये॥७२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यो वै प्रश्नं न विब्रूयाद् वितथं चैव निर्दिशेत्।
के वै तस्य परे लोकास्तन्ममाचक्ष्व पृच्छतः ॥ ७३ ॥

मूलम्

यो वै प्रश्नं न विब्रूयाद् वितथं चैव निर्दिशेत्।
के वै तस्य परे लोकास्तन्ममाचक्ष्व पृच्छतः ॥ ७३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं पूछता हूँ कि जो प्रश्नका उत्तर ही न दे अथवा असत्य उत्तर दे दे, उसे परलोकमें कौन-से लोक प्राप्त होते हैं? यह मुझे बताइये॥७३॥

मूलम् (वचनम्)

कश्यप उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

जानन्नविब्रुवन् प्रश्नान् कामात् क्रोधाद् भयात् तथा।
सहस्रं वारुणान् पाशानात्मनि प्रतिमुञ्चति ॥ ७४ ॥

मूलम्

जानन्नविब्रुवन् प्रश्नान् कामात् क्रोधाद् भयात् तथा।
सहस्रं वारुणान् पाशानात्मनि प्रतिमुञ्चति ॥ ७४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कश्यपजीने कहा— जो जानते हुए भी काम, क्रोध तथा भयसे प्रश्नोंका उत्तर नहीं देता, वह अपने ऊपर वरुणदेवताके सहस्रों पाश डाल लेता है॥७४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

साक्षी वा विब्रुवन् साक्ष्यं गोकर्णशिथिलश्चरन्।
सहस्रं वारुणान् पाशानात्मनि प्रतिमुञ्चति ॥ ७५ ॥

मूलम्

साक्षी वा विब्रुवन् साक्ष्यं गोकर्णशिथिलश्चरन्।
सहस्रं वारुणान् पाशानात्मनि प्रतिमुञ्चति ॥ ७५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो गवाह गाय-बैलके ढीले-ढाले कानोंकी तरह शिथिल हो दोनों पक्षोंसे सम्बन्ध बनाये रखकर गवाही नहीं देता, वह भी अपनेको वरुणदेवताके सहस्रों पाशोंसे बाँध लेता है॥७५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य संवत्सरे पूर्णे पाश एकः प्रमुच्यते।
तस्मात् सत्यं तु वक्तव्यं जानता सत्यमञ्जसा ॥ ७६ ॥

मूलम्

तस्य संवत्सरे पूर्णे पाश एकः प्रमुच्यते।
तस्मात् सत्यं तु वक्तव्यं जानता सत्यमञ्जसा ॥ ७६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक वर्ष पूरा होनेपर उसका एक पाश खुलता है, अतः सच्ची बात जाननेवाले पुरुषको यथार्थरूपसे सत्य ही बोलना चाहिये॥७६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विद्धो धर्मो ह्यधर्मेण सभां यत्रोपपद्यते।
न चास्य शल्यं कृन्तन्ति विद्धास्तत्र सभासदः ॥ ७७ ॥

मूलम्

विद्धो धर्मो ह्यधर्मेण सभां यत्रोपपद्यते।
न चास्य शल्यं कृन्तन्ति विद्धास्तत्र सभासदः ॥ ७७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जहाँ धर्म अधर्मसे विद्ध होकर सभामें उपस्थित होता है, उसके काँटेको उससे बिंधे हुए सभासदलोग नहीं काट पाते (अर्थात् उनको पापका फल भोगना ही पड़ता है)॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्धं हरति वै श्रेष्ठः पादो भवति कर्तृषु।
पादश्चैव सभासत्सु ये न निन्दन्ति निन्दितम् ॥ ७८ ॥

मूलम्

अर्धं हरति वै श्रेष्ठः पादो भवति कर्तृषु।
पादश्चैव सभासत्सु ये न निन्दन्ति निन्दितम् ॥ ७८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सभामें जो अधर्म होता है, उसका आधा भाग स्वयं सभापति ले लेता है, एक चौथाई भाग करनेवालोंको मिलता है और एक चतुर्थांश उन सभासदोंको प्राप्त होता है जो निन्दनीय पुरुषकी निन्दा नहीं करते॥७८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनेना भवति श्रेष्ठो मुच्यन्ते च सभासदः।
एनो गच्छति कर्तारं निन्दार्हो यत्र निन्द्यते ॥ ७९ ॥

मूलम्

अनेना भवति श्रेष्ठो मुच्यन्ते च सभासदः।
एनो गच्छति कर्तारं निन्दार्हो यत्र निन्द्यते ॥ ७९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस सभामें निन्दाके योग्य मनुष्यकी निन्दा की जाती है, वहाँ सभापति निष्पाप हो जाता है, सभासद भी पापसे मुक्त हो जाते हैं और सारा पाप करनेवालेको ही लगता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वितथं तु वदेयुर्ये धर्मं प्रह्लाद पृच्छते।
इष्टापूर्तं च ते घ्नन्ति सप्त सप्त परावरान् ॥ ८० ॥

मूलम्

वितथं तु वदेयुर्ये धर्मं प्रह्लाद पृच्छते।
इष्टापूर्तं च ते घ्नन्ति सप्त सप्त परावरान् ॥ ८० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रह्लाद! जो लोग धर्मविषयक प्रश्न पूछनेवालेको झूठा उत्तर देते हैं, वे अपने इष्टापूर्त धर्मका नाश तो करते ही हैं आगे-पीछेकी सात-सात पीढ़ियोंके भी पुण्योंका वे हनन करते हैं॥८०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हृतस्वस्य हि यद् दुःखं हतपुत्रस्य चैव यत्।
ऋणिनः प्रति यच्चैव स्वार्थाद् भ्रष्टस्य चैव यत् ॥ ८१ ॥
स्त्रियाः पत्या विहीनाया राज्ञा ग्रस्तस्य चैव यत्।
अपुत्रायाश्च यद् दुःखं व्याघ्राघ्रातस्य चैव यत् ॥ ८२ ॥
अध्यूढायाश्च यद् दुःखं साक्षिभिर्विहतस्य च।
एतानि वै समान्याहुर्दुःखानि त्रिदिवेश्वराः ॥ ८३ ॥

मूलम्

हृतस्वस्य हि यद् दुःखं हतपुत्रस्य चैव यत्।
ऋणिनः प्रति यच्चैव स्वार्थाद् भ्रष्टस्य चैव यत् ॥ ८१ ॥
स्त्रियाः पत्या विहीनाया राज्ञा ग्रस्तस्य चैव यत्।
अपुत्रायाश्च यद् दुःखं व्याघ्राघ्रातस्य चैव यत् ॥ ८२ ॥
अध्यूढायाश्च यद् दुःखं साक्षिभिर्विहतस्य च।
एतानि वै समान्याहुर्दुःखानि त्रिदिवेश्वराः ॥ ८३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसका सर्वस्व छीन लिया गया हो, उसे जो दुःख होता है, जिसका पुत्र मर गया हो, उसे जो शोक होता है, ऋणग्रस्त और स्वार्थसे वंचित मनुष्यको जो क्लेश होता है, पतिसे विहीन होनेपर स्त्रीको तथा राजाके कोपभाजन मनुष्यको जो कष्ट उठाना पड़ता है, पुत्रहीना नारीको जो संताप होता है, शेरके चंगुलमें फँसे हुए प्राणीको जो व्याकुलता होती है, सौतवाली स्त्रीको जो दुःख होता है, साक्षियोंने जिसे धोखा दिया हो, उस मनुष्यको जो महान् क्लेश होता है—इन सभी प्रकारके दुःखोंको देवताओंने समान बतलाया है॥८१—८३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तानि सर्वाणि दुःखानि प्राप्नोति वितथं ब्रुवन्।
समक्षदर्शनात् साक्षी श्रवणाच्चेति धारणात् ॥ ८४ ॥
तस्मात् सत्यं ब्रुवन् साक्षी धर्मार्थाभ्यां न हीयते।

मूलम्

तानि सर्वाणि दुःखानि प्राप्नोति वितथं ब्रुवन्।
समक्षदर्शनात् साक्षी श्रवणाच्चेति धारणात् ॥ ८४ ॥
तस्मात् सत्यं ब्रुवन् साक्षी धर्मार्थाभ्यां न हीयते।

अनुवाद (हिन्दी)

झूठ बोलनेवाला मनुष्य उन सभी दुःखोंका भागी होता है। समक्ष दर्शन, श्रवण और धारणसे साक्षी संज्ञा होती है, अतः सत्य बोलनेवाला साक्षी कभी धर्म और अर्थसे वंचित नहीं होता॥८४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कश्यपस्य वचः श्रुत्वा प्रह्लादः पुत्रमब्रवीत् ॥ ८५ ॥

मूलम्

कश्यपस्य वचः श्रुत्वा प्रह्लादः पुत्रमब्रवीत् ॥ ८५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कश्यपजीकी यह बात सुनकर प्रह्लादने अपने पुत्रसे कहा—॥८५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रेयान् सुधन्वा त्वत्तो वै मत्तः श्रेयांस्तथाङ्गिराः।
माता सुधन्वनश्चापि मातृतः श्रेयसी तव।
विरोचन सुधन्वायं प्राणानामीश्वरस्तव ॥ ८६ ॥

मूलम्

श्रेयान् सुधन्वा त्वत्तो वै मत्तः श्रेयांस्तथाङ्गिराः।
माता सुधन्वनश्चापि मातृतः श्रेयसी तव।
विरोचन सुधन्वायं प्राणानामीश्वरस्तव ॥ ८६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘विरोचन! सुधन्वा तुमसे श्रेष्ठ है, उसके पिता अंगिरा मुझसे श्रेष्ठ हैं और सुधन्वाकी माता तुम्हारी मातासे श्रेष्ठ है। अब यह सुधन्वा ही तुम्हारे प्राणोंका स्वामी है’॥८६॥

मूलम् (वचनम्)

सुधन्वोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुत्रस्नेहं परित्यज्य यस्त्वं धर्मे व्यवस्थितः।
अनुजानामि ते पुत्रं जीवत्वेष शतं समाः ॥ ८७ ॥

मूलम्

पुत्रस्नेहं परित्यज्य यस्त्वं धर्मे व्यवस्थितः।
अनुजानामि ते पुत्रं जीवत्वेष शतं समाः ॥ ८७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुधन्वाने कहा— दैत्यराज! तुम पुत्रस्नेहकी परवा न करके जो धर्मपर डटे रह गये, इससे प्रसन्न होकर मैं तुम्हारे पुत्रको यह आज्ञा देता हूँ कि यह सौ वर्षोंतक जीवित रहे॥

मूलम् (वचनम्)

विदुर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं वै परमं धर्मं श्रुत्वा सर्वे सभासदः।
यथाप्रश्नं तु कृष्णाया मन्यध्वं तत्र किं परम् ॥ ८८ ॥

मूलम्

एवं वै परमं धर्मं श्रुत्वा सर्वे सभासदः।
यथाप्रश्नं तु कृष्णाया मन्यध्वं तत्र किं परम् ॥ ८८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विदुरजी कहते हैं— सभासदो! इस प्रकार इस उत्तम धर्ममय प्रसंगको सुनकर आप सब लोग द्रौपदीके प्रश्नके अनुसार यह बतावें कि उसके सम्बन्धमें आपकी क्या मान्यता है?॥८८॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

विदुरस्य वचः श्रुत्वा नोचुः किंचन पार्थिवाः।
कर्णो दुःशासनं त्वाह कृष्णां दासीं गृहान् नय ॥ ८९ ॥

मूलम्

विदुरस्य वचः श्रुत्वा नोचुः किंचन पार्थिवाः।
कर्णो दुःशासनं त्वाह कृष्णां दासीं गृहान् नय ॥ ८९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! विदुरकी यह बात सुनकर भी सब राजालोग कुछ न बोले। उस समय कर्णने दुःशासनसे कहा—‘इस दासी द्रौपदीको अपने घर ले जाओ’॥८९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तां वेपमानां सव्रीडां प्रलपन्तीं स्म पाण्डवान्।
दुःशासनः सभामध्ये विचकर्ष तपस्विनीम् ॥ ९० ॥

मूलम्

तां वेपमानां सव्रीडां प्रलपन्तीं स्म पाण्डवान्।
दुःशासनः सभामध्ये विचकर्ष तपस्विनीम् ॥ ९० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्रौपदी लज्जामें डूबी हुई थर-थर काँपती और पाण्डवोंको पुकारती थी। उस दशामें दुःशासनने उस भरी सभाके बीच उस बेचारी दुःखिया तपस्विनीको घसीटना आरम्भ किया॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि द्यूतपर्वणि द्रौपद्याकर्षणेऽष्टषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६८ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्वके अन्तर्गत द्यूतपर्वमें ‘द्रौपदीको भरी सभामें खींचना’ इस विषयसे सम्बन्ध रखनेवाला अड़सठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥६८॥

Misc Detail

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ४ श्लोक मिलाकर कुल ९४ श्लोक हैं)