०६७ द्रौपद्यानयनम्

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

सप्तषष्टितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

प्रातिकामीके बुलानेसे न आनेपर दुःशासनका सभामें द्रौपदीको केश पकड़कर घसीटकर लाना एवं सभासदोंसे द्रौपदीका प्रश्न

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

धिगस्तु क्षत्तारमिति ब्रुवाणो
दर्पेण मत्तो धृतराष्ट्रस्य पुत्रः।
अवैक्षत प्रातिकामीं सभाया-
मुवाच चैनं परमार्यमध्ये ॥ १ ॥

मूलम्

धिगस्तु क्षत्तारमिति ब्रुवाणो
दर्पेण मत्तो धृतराष्ट्रस्य पुत्रः।
अवैक्षत प्रातिकामीं सभाया-
मुवाच चैनं परमार्यमध्ये ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधन गर्वसे उन्मत्त हो रहा था। उसने ‘विदुरको धिक्कार है’ ऐसा कहकर प्रातिकामीकी ओर देखा और सभामें बैठे हुए श्रेष्ठ पुरुषोंके बीच उससे कहा॥१॥

मूलम् (वचनम्)

दुर्योधन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रातिकामिन् द्रौपदीमानयस्व
न ते भयं विद्यते पाण्डवेभ्यः।
क्षत्ता ह्ययं विवदत्येव भीतो
न चास्माकं वृद्धिकामः सदैव ॥ २ ॥

मूलम्

प्रातिकामिन् द्रौपदीमानयस्व
न ते भयं विद्यते पाण्डवेभ्यः।
क्षत्ता ह्ययं विवदत्येव भीतो
न चास्माकं वृद्धिकामः सदैव ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्योधन बोला— प्रातिकामिन्! तुम द्रौपदीको यहाँ ले आओ। तुम्हें पाण्डवोंसे कोई भय नहीं है। ये विदुर तो डरपोक हैं, अतः सदा ऐसी ही बातें कहा करते हैं। ये कभी हमलोगोंकी वृद्धि नहीं चाहते॥२॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तः प्रातिकामी स सूतः
प्रायाच्छीघ्रं राजवचो निशम्य ।
प्रविश्य च श्वेव हि सिंहगोष्ठं
समासदन्महिषीं पाण्डवानाम् ॥ ३ ॥

मूलम्

एवमुक्तः प्रातिकामी स सूतः
प्रायाच्छीघ्रं राजवचो निशम्य ।
प्रविश्य च श्वेव हि सिंहगोष्ठं
समासदन्महिषीं पाण्डवानाम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! दुर्योधनके ऐसा कहनेपर राजाकी आज्ञा शिरोधार्य करके वह सूत प्रातिकामी शीघ्र चला गया एवं जैसे कुत्ता सिंहकी माँदमें घुसे, उसी प्रकार उस राजभवनमें प्रवेश करके वह पाण्डवोंकी महारानीके पास गया॥३॥

मूलम् (वचनम्)

प्रातिकाम्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

युधिष्ठिरो द्यूतमदेन मत्तो
दुर्योधनो द्रौपदि त्वामजैषीत् ।
सा त्वं प्रपद्यस्व धृतराष्ट्रस्य वेश्म
नयामि त्वां कर्मणे याज्ञसेनि ॥ ४ ॥

मूलम्

युधिष्ठिरो द्यूतमदेन मत्तो
दुर्योधनो द्रौपदि त्वामजैषीत् ।
सा त्वं प्रपद्यस्व धृतराष्ट्रस्य वेश्म
नयामि त्वां कर्मणे याज्ञसेनि ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रातिकामी बोला— द्रुपदकुमारी! धर्मराज युधिष्ठिर जूएके मदसे उन्मत्त हो गये थे। उन्होंने सर्वस्व हारकर आपको दाँवपर लगा दिया। तब दुर्योधनने आपको जीत लिया। याज्ञसेनी! अब आप धृतराष्ट्रके महलमें पधारें। मैं आपको वहाँ दासीका काम करवानेके लिये ले चलता हूँ॥४॥

मूलम् (वचनम्)

द्रौपद्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं त्वेवं वदसि प्रातिकामिन्
को हि दीव्येद् भार्यया राजपुत्रः।
मूढो राजा द्यूतमदेन मत्तो
ह्यभून्नान्यत् कैतवमस्य किंचित् ॥ ५ ॥

मूलम्

कथं त्वेवं वदसि प्रातिकामिन्
को हि दीव्येद् भार्यया राजपुत्रः।
मूढो राजा द्यूतमदेन मत्तो
ह्यभून्नान्यत् कैतवमस्य किंचित् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्रौपदीने कहा— प्रातिकामिन्! तू ऐसी बात कैसे कहता है? कौन राजकुमार अपनी पत्नीको दाँवपर रखकर जूआ खेलेगा? क्या राजा युधिष्ठिर जूएके नशेमें इतने पागल हो गये कि उनके पास जुआरियोंको देनेके लिये दूसरा कोई धन नहीं रह गया?॥५॥

मूलम् (वचनम्)

प्रातिकाम्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदा नाभूत् कैतवमन्यदस्य
तदादेवीत् पाण्डवोऽजातशत्रुः ।
न्यस्ताः पूर्वं भ्रातरस्तेन राज्ञा
स्वयं चात्मा त्वमथो राजपुत्रि ॥ ६ ॥

मूलम्

यदा नाभूत् कैतवमन्यदस्य
तदादेवीत् पाण्डवोऽजातशत्रुः ।
न्यस्ताः पूर्वं भ्रातरस्तेन राज्ञा
स्वयं चात्मा त्वमथो राजपुत्रि ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रातिकामी बोला— राजकुमारी! जब जुआरियोंको देनेके लिये दूसरा कोई धन नहीं रह गया, तब अजातशत्रु पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर इस प्रकार जूआ खेलने लगे। पहले तो उन्होंने अपने भाइयोंको दाँवपर लगाया, उसके बाद अपनेको और अन्तमें आपको भी दाँवपर रख दिया॥६॥

मूलम् (वचनम्)

द्रौपद्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

गच्छ त्वं कितवं गत्वा सभायां पृच्छ सूतज।
किं नु पूर्वं पराजैषीरात्मानमथवा नु माम् ॥ ७ ॥

मूलम्

गच्छ त्वं कितवं गत्वा सभायां पृच्छ सूतज।
किं नु पूर्वं पराजैषीरात्मानमथवा नु माम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्रौपदीने कहा— सूतपुत्र! तुम सभामें उन जुआरी महाराजके पास जाओ और जाकर यह पूछो कि ‘आप पहले अपनेको हारे थे या मुझे?’॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतज्ज्ञात्वा समागच्छ ततो मां नय सूतज।
ज्ञात्वा चिकीर्षितमहं राज्ञो यास्यामि दुःखिता ॥ ८ ॥

मूलम्

एतज्ज्ञात्वा समागच्छ ततो मां नय सूतज।
ज्ञात्वा चिकीर्षितमहं राज्ञो यास्यामि दुःखिता ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूतनन्दन! यह जानकर आओ। तब मुझे ले चलो। राजा क्या करना चाहते हैं? यह जानकर ही मैं दुःखिनी अबला उस सभामें चलूँगी॥८॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभां गत्वा स चोवाच द्रौपद्यास्तद् वचस्तदा।
युधिष्ठिरं नरेन्द्राणां मध्ये स्थितमिदं वचः ॥ ९ ॥
कस्येशो नः पराजैषीरिति त्वामाह द्रौपदी।
किं नु पूर्वं पराजैषीरात्मानमथवापि माम् ॥ १० ॥

मूलम्

सभां गत्वा स चोवाच द्रौपद्यास्तद् वचस्तदा।
युधिष्ठिरं नरेन्द्राणां मध्ये स्थितमिदं वचः ॥ ९ ॥
कस्येशो नः पराजैषीरिति त्वामाह द्रौपदी।
किं नु पूर्वं पराजैषीरात्मानमथवापि माम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! प्रातिकामीने सभामें जाकर राजाओंके बीचमें बैठे हुए युधिष्ठिरसे द्रौपदीकी वह बात कह सुनायी। उसने कहा—‘द्रौपदी आपसे पूछना चाहती है कि किस-किस वस्तुके स्वामी रहते हुए आप मुझे हारे हैं? आप पहले अपनेको हारे हैं या मुझे?’॥९-१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युधिष्ठिरस्तु निश्चेता गतसत्त्व इवाभवत्।
न तं सूतं प्रत्युवाच वचनं साध्वसाधु वा ॥ ११ ॥

मूलम्

युधिष्ठिरस्तु निश्चेता गतसत्त्व इवाभवत्।
न तं सूतं प्रत्युवाच वचनं साध्वसाधु वा ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! उस समय युधिष्ठिर अचेत और निष्प्राण-से हो रहे थे, अतः उन्होंने प्रातिकामीको भला-बुरा कुछ भी उत्तर नहीं दिया॥११॥

मूलम् (वचनम्)

दुर्योधन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इहैवागत्य पाञ्चाली प्रश्नमेनं प्रभाषताम्।
इहैव सर्वे शृण्वन्तु तस्याश्चैतस्य यद् वचः ॥ १२ ॥

मूलम्

इहैवागत्य पाञ्चाली प्रश्नमेनं प्रभाषताम्।
इहैव सर्वे शृण्वन्तु तस्याश्चैतस्य यद् वचः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब दुर्योधन बोला— सूतपुत्र! जाकर कह दो, द्रौपदी यहीं आकर अपने इस प्रश्नको पूछे। यहीं सब सभासद् उसके प्रश्न और युधिष्ठिरके उत्तरको सुनें॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स गत्वा राजभवनं दुर्योधनवशानुगः।
उवाच द्रौपदीं सूतः प्रातिकामी व्यथान्वितः ॥ १३ ॥

मूलम्

स गत्वा राजभवनं दुर्योधनवशानुगः।
उवाच द्रौपदीं सूतः प्रातिकामी व्यथान्वितः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! प्रातिकामी दुर्योधनके वशमें था, इसलिये वह राजभवनमें जाकर द्रौपदीसे व्यथित होकर बोला॥१३॥

मूलम् (वचनम्)

प्रातिकाम्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभ्यास्त्वमी राजपुत्र्याह्वयन्ति
मन्ये प्राप्तः संक्षयः कौरवाणाम्।
न वै समृद्धिं पालयते लघीयान्
यस्त्वां सभां नेष्यति राजपुत्रि ॥ १४ ॥

मूलम्

सभ्यास्त्वमी राजपुत्र्याह्वयन्ति
मन्ये प्राप्तः संक्षयः कौरवाणाम्।
न वै समृद्धिं पालयते लघीयान्
यस्त्वां सभां नेष्यति राजपुत्रि ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रातिकामीने कहा— राजकुमारी! वे (दुर्योधन आदि) सभासद् तुम्हें सभामें ही बुला रहे हैं। मुझे तो ऐसा जान पड़ता है, अब कौरवोंके विनाशका समय आ गया है। जो (दुर्योधन) इतना गिर गया है कि तुम्हें सभामें बुलानेका साहस करता है, वह कभी अपने धन-वैभवकी रक्षा नहीं कर सकता॥१४॥

मूलम् (वचनम्)

द्रौपद्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं नूनं व्यदधात् संविधाता
स्पर्शावुभौ स्पृशतो वृद्धबालौ ।
धर्मं त्वेकं परमं प्राह लोके
स नः शमं धास्यति गोप्यमानः ॥ १५ ॥

मूलम्

एवं नूनं व्यदधात् संविधाता
स्पर्शावुभौ स्पृशतो वृद्धबालौ ।
धर्मं त्वेकं परमं प्राह लोके
स नः शमं धास्यति गोप्यमानः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्रौपदीने कहा— सूतपुत्र! निश्चय ही विधाताका ऐसा ही विधान है। बालक और वृद्ध सबको सुख-दुःख प्राप्त होते हैं। जगत्‌में एकमात्र धर्मको ही श्रेष्ठ बतलाया जाता है। यदि हम उसका पालन करें तो वह हमारा कल्याण करेगा॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽयं धर्मो मात्यगात् कौरवान् वै
सभ्यान् गत्वा पृच्छ धर्म्यं वचो मे।
ते मां ब्रूयुर्निश्चितं तत् करिष्ये
धर्मात्मानो नीतिमन्तो वरिष्ठाः ॥ १६ ॥

मूलम्

सोऽयं धर्मो मात्यगात् कौरवान् वै
सभ्यान् गत्वा पृच्छ धर्म्यं वचो मे।
ते मां ब्रूयुर्निश्चितं तत् करिष्ये
धर्मात्मानो नीतिमन्तो वरिष्ठाः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे इस धर्मका उल्लंघन न हो, इसलिये तुम सभामें बैठे हुए कुरुवंशियोंके पास जाकर मेरी यह धर्मानुकूल बात पूछो—‘इस समय मुझे क्या करना चाहिये?’ वे धर्मात्मा, नीतिज्ञ और श्रेष्ठ महापुरुष मुझे जैसी आज्ञा देंगे, मैं निश्चय ही वैसा करूँगी॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्वा सूतस्तद्वचो याज्ञसेन्याः
सभां गत्वा प्राह वाक्यं तदानीम्।
अधोमुखास्ते न च किंचिदूचु-
र्निर्बन्धं तं धार्तराष्ट्रस्य बुद्ध्वा ॥ १७ ॥

मूलम्

श्रुत्वा सूतस्तद्वचो याज्ञसेन्याः
सभां गत्वा प्राह वाक्यं तदानीम्।
अधोमुखास्ते न च किंचिदूचु-
र्निर्बन्धं तं धार्तराष्ट्रस्य बुद्ध्वा ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्रौपदीका यह कथन सुनकर सूत प्रातिकामीने पुनः सभामें जाकर द्रौपदीके प्रश्नको दुहराया; किंतु उस समय दुर्योधनके उस दुराग्रहको जानकर सभी नीचे मुँह किये बैठे रहे, कोई कुछ भी नहीं बोला॥१७॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

युधिष्ठिरस्तु तच्छ्रुत्वा दुर्योधनचिकीर्षितम् ।
द्रौपद्याः सम्मतं दूतं प्राहिणोद् भरतर्षभ ॥ १८ ॥
एकवस्त्रा त्वधोनीवी रोदमाना रजस्वला।
सभामागम्य पाञ्चालि श्वशुरस्याग्रतो भव ॥ १९ ॥

मूलम्

युधिष्ठिरस्तु तच्छ्रुत्वा दुर्योधनचिकीर्षितम् ।
द्रौपद्याः सम्मतं दूतं प्राहिणोद् भरतर्षभ ॥ १८ ॥
एकवस्त्रा त्वधोनीवी रोदमाना रजस्वला।
सभामागम्य पाञ्चालि श्वशुरस्याग्रतो भव ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! दुर्योधन क्या करना चाहता है, यह सुनकर युधिष्ठिरने द्रौपदीके पास एक ऐसा दूत भेजा, जिसे वह पहचानती थी और उसीके द्वारा यह संदेश कहलाया, ‘पांचालराजकुमारी! यद्यपि तुम रजस्वला और नीवीको नीचे रखकर एक ही वस्त्र धारण कर रही हो, तो भी उसी दशामें रोती हुई सभामें आकर अपने श्वशुरके सामने खड़ी हो जाओ॥१८-१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ त्वामागतां दृष्ट्वा राजपुत्रीं सभां तदा।
सभ्याः सर्वे विनिन्देरन् मनोभिर्धृतराष्ट्रजम् ॥ २० ॥

मूलम्

अथ त्वामागतां दृष्ट्वा राजपुत्रीं सभां तदा।
सभ्याः सर्वे विनिन्देरन् मनोभिर्धृतराष्ट्रजम् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम-जैसी राजकुमारीको सभामें आयी देख सभी सभासद् मन-ही-मन इस दुर्योधनकी निन्दा करेंगे’॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स गत्वा त्वरितं दूतः कृष्णाया भवनं नृप।
न्यवेदयन्मतं धीमान् धर्मराजस्य निश्चितम् ॥ २१ ॥

मूलम्

स गत्वा त्वरितं दूतः कृष्णाया भवनं नृप।
न्यवेदयन्मतं धीमान् धर्मराजस्य निश्चितम् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! वह बुद्धिमान् दूत तुरंत द्रौपदीके भवनमें गया। वहाँ उसने धर्मराजका निश्चित मत उसे बता दिया॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाण्डवाश्च महात्मानो दीना दुःखसमन्विताः।
सत्येनातिपरीताङ्गा नोदीक्षन्ते स्म किंचन ॥ २२ ॥

मूलम्

पाण्डवाश्च महात्मानो दीना दुःखसमन्विताः।
सत्येनातिपरीताङ्गा नोदीक्षन्ते स्म किंचन ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इधर महात्मा पाण्डव सत्यके बन्धनसे बँधकर अत्यन्त दीन और दुःखमग्न हो गये। उन्हें कुछ भी सूझ नहीं पड़ता था॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्त्वेषां मुखमालोक्य राजा
दुर्योधनः सूतमुवाच हृष्टः ।
इहैवैतामानय प्रातिकामिन्
प्रत्यक्षमस्याः कुरवो ब्रुवन्तु ॥ २३ ॥

मूलम्

ततस्त्वेषां मुखमालोक्य राजा
दुर्योधनः सूतमुवाच हृष्टः ।
इहैवैतामानय प्रातिकामिन्
प्रत्यक्षमस्याः कुरवो ब्रुवन्तु ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके दीन मुँहकी ओर देखकर राजा दुर्योधन अत्यन्त प्रसन्न हो सूतसे बोला—‘प्रातिकामिन्! तुम द्रौपदीको यहीं ले आओ। उसके सामने ही धर्मात्मा कौरव उसके प्रश्नोंका उत्तर देंगे’॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः सूतस्तस्य वशानुगामी
भीतश्च कोपाद् द्रुपदात्मजायाः ।
विहाय मानं पुनरेव सभ्या-
नुवाच कृष्णां किमहं ब्रवीमि ॥ २४ ॥

मूलम्

ततः सूतस्तस्य वशानुगामी
भीतश्च कोपाद् द्रुपदात्मजायाः ।
विहाय मानं पुनरेव सभ्या-
नुवाच कृष्णां किमहं ब्रवीमि ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर दुर्योधनके वशमें रहनेवाले प्रातिकामीने द्रौपदीके क्रोधसे डरते हुए अपने मान-सम्मानकी परवा न करके पुनः सभासदोंसे पूछा—‘मैं द्रौपदीको क्या उत्तर दूँ?’॥

मूलम् (वचनम्)

दुर्योधन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुःशासनैष मम सूतपुत्रो
वृकोदरादुद्विजतेऽल्पचेताः ।
स्वयं प्रगृह्यानय याज्ञसेनीं
किं ते करिष्यन्त्यवशाः सपत्नाः ॥ २५ ॥

मूलम्

दुःशासनैष मम सूतपुत्रो
वृकोदरादुद्विजतेऽल्पचेताः ।
स्वयं प्रगृह्यानय याज्ञसेनीं
किं ते करिष्यन्त्यवशाः सपत्नाः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्योधन बोला— दुःशासन! यह मेरा सेवक सूतपुत्र प्रातिकामी बड़ा मूर्ख है। इसे भीमसेनका डर लगा हुआ है। तुम स्वयं द्रौपदीको यहाँ पकड़ लाओ। हमारे शत्रु पाण्डव इस समय हमलोगोंके वशमें हैं। वे तुम्हारा क्या कर लेंगे॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः समुत्थाय स राजपुत्रः
श्रुत्वा भ्रातुः शासनं रक्तदृष्टिः।
प्रविश्य तद् वेश्म महारथाना-
मित्यब्रवीद् द्रौपदीं राजपुत्रीम् ॥ २६ ॥

मूलम्

ततः समुत्थाय स राजपुत्रः
श्रुत्वा भ्रातुः शासनं रक्तदृष्टिः।
प्रविश्य तद् वेश्म महारथाना-
मित्यब्रवीद् द्रौपदीं राजपुत्रीम् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भाईका यह आदेश सुनकर राजकुमार दुःशासन उठ खड़ा हुआ और लाल आँख किये वहाँसे चल दिया। महारथी पाण्डवोंके महलमें प्रवेश करके उसने राजकुमारी द्रौपदीसे इस प्रकार कहा—॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एह्येहि पाञ्चालि जितासि कृष्णे
दुर्योधनं पश्य विमुक्तलज्जा ।
कुरून् भजस्वायतपत्रनेत्रे
धर्मेण लब्धासि सभां परैहि ॥ २७ ॥

मूलम्

एह्येहि पाञ्चालि जितासि कृष्णे
दुर्योधनं पश्य विमुक्तलज्जा ।
कुरून् भजस्वायतपत्रनेत्रे
धर्मेण लब्धासि सभां परैहि ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पांचालि! आओ, आओ, तुम जूएमें जीती जा चुकी हो। कृष्णे! अब लज्जा छोड़कर दुर्योधनकी ओर देखो। कमलके समान विशाल नेत्रोंवाली द्रौपदी! हमने धर्मके अनुसार तुम्हें प्राप्त किया है, अतः तुम कौरवोंकी सेवा करो। अभी राजसभामें चली चलो’॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः समुत्थाय सुदुर्मनाः सा
विवर्णमामृज्य मुखं करेण ।
आर्ता प्रदुद्राव यतः स्त्रियस्ता
वृद्धस्य राज्ञः कुरुपुङ्गवस्य ॥ २८ ॥

मूलम्

ततः समुत्थाय सुदुर्मनाः सा
विवर्णमामृज्य मुखं करेण ।
आर्ता प्रदुद्राव यतः स्त्रियस्ता
वृद्धस्य राज्ञः कुरुपुङ्गवस्य ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सुनकर द्रौपदीका हृदय अत्यन्त दुःखित होने लगा। उसने अपने मलिन मुखको हाथसे पोंछा। फिर उठकर वह आर्त अबला उसी ओर भागी, जहाँ बूढ़े महाराज धृतराष्ट्रकी स्त्रियाँ बैठी हुई थीं॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो जवेनाभिससार रोषाद्
दुःशासनस्तामभिगर्जमानः ।
दीर्घेषु नीलेष्वथ चोर्मिमत्सु
जग्राह केशेषु नरेन्द्रपत्नीम् ॥ २९ ॥

मूलम्

ततो जवेनाभिससार रोषाद्
दुःशासनस्तामभिगर्जमानः ।
दीर्घेषु नीलेष्वथ चोर्मिमत्सु
जग्राह केशेषु नरेन्द्रपत्नीम् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब दुःशासन भी रोषसे गर्जता हुआ बड़े वेगसे उसके पीछे दौड़ा। उसने महाराज युधिष्ठिरकी पत्नी द्रौपदीके लम्बे, नीले और लहराते हुए केशोंको पकड़ लिया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये राजसूयावभृथे जलेन
महाक्रतौ मन्त्रपूतेन सिक्ताः ।
ते पाण्डवानां परिभूय वीर्यं
बलात् प्रमृष्टा धृतराष्ट्रजेन ॥ ३० ॥

मूलम्

ये राजसूयावभृथे जलेन
महाक्रतौ मन्त्रपूतेन सिक्ताः ।
ते पाण्डवानां परिभूय वीर्यं
बलात् प्रमृष्टा धृतराष्ट्रजेन ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो केश राजसूय महायज्ञके अवभृथस्नानमें मन्त्रपूत जलसे सींचे गये थे, उन्हींको दुःशासनने पाण्डवोंके पराक्रमकी अवहेलना करके बलपूर्वक पकड़ लिया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तां पराकृष्य सभासमीप-
मानीय कृष्णामतिदीर्घकेशीम् ।
दुःशासनो नाथवतीमनाथव-
च्चकर्ष वायुः कदलीमिवार्ताम् ॥ ३१ ॥

मूलम्

स तां पराकृष्य सभासमीप-
मानीय कृष्णामतिदीर्घकेशीम् ।
दुःशासनो नाथवतीमनाथव-
च्चकर्ष वायुः कदलीमिवार्ताम् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

लंबे-लंबे केशोंवाली वह द्रौपदी यद्यपि सनाथा थी, तो भी दुःशासन उस बेचारी आर्त अबलाको अनाथकी भाँति घसीटता हुआ सभाके समीप ले आया और जैसे वायु केलेके वृक्षको झकझोरकर झुका देता है, उसी प्रकार वह द्रौपदीको बलपूर्वक खींचने लगा॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा कृष्यमाणा नमिताङ्गयष्टिः
शनैरुवाचाथ रजस्वलास्मि ।
एकं च वासो मम मन्दबुद्धे
सभां नेतुं नार्हसि मामनार्य ॥ ३२ ॥

मूलम्

सा कृष्यमाणा नमिताङ्गयष्टिः
शनैरुवाचाथ रजस्वलास्मि ।
एकं च वासो मम मन्दबुद्धे
सभां नेतुं नार्हसि मामनार्य ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुःशासनके खींचनेसे द्रौपदीका शरीर झुक गया। उसने धीरेसे कहा—‘ओ मन्दबुद्धि दुष्टात्मा दुःशासन! मैं रजस्वला हूँ तथा मेरे शरीरपर एक ही वस्त्र है। इस दशामें मुझे सभामें ले जाना अनुचित है’॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽब्रवीत् तां प्रसभं निगृह्य
केशेषु कृष्णेषु तदा स कृष्णाम्।
कृष्णं च जिष्णुं च हरिं नरं च
त्राणाय विक्रोशति याज्ञसेनी ॥ ३३ ॥

मूलम्

ततोऽब्रवीत् तां प्रसभं निगृह्य
केशेषु कृष्णेषु तदा स कृष्णाम्।
कृष्णं च जिष्णुं च हरिं नरं च
त्राणाय विक्रोशति याज्ञसेनी ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सुनकर दुःशासन उसके काले-काले केशोंको और जोरसे पकड़कर कुछ बकने लगा; इधर यज्ञसेनकुमारी कृष्णाने अपनी रक्षाके लिये सर्वपापहारी, सर्वविजयी, नरस्वरूप भगवान् श्रीकृष्णको पुकारने लगी॥३३॥

मूलम् (वचनम्)

दुःशासन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

रजस्वला वा भव याज्ञसेनि
एकाम्बरा वाप्यथवा विवस्त्रा ।
द्यूते जिता चासि कृतासि दासी
दासीषु वासश्च यथोपजोषम् ॥ ३४ ॥

मूलम्

रजस्वला वा भव याज्ञसेनि
एकाम्बरा वाप्यथवा विवस्त्रा ।
द्यूते जिता चासि कृतासि दासी
दासीषु वासश्च यथोपजोषम् ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुःशासन बोला— द्रौपदी! तू रजस्वला, एकवस्त्रा अथवा नंगी ही क्यों न हो, हमने तुझे जूएमें जीता है; अतः तू हमारी दासी हो चुकी है, इसलिये अब तुझे हमारी इच्छाके अनुसार दासियोंमें रहना पड़ेगा॥३४॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रकीर्णकेशी पतितार्धवस्त्रा
दुःशासनेन व्यवधूयमाना ।
ह्रीमत्यमर्षेण च दह्यमाना
शनैरिदं वाक्यमुवाच कृष्णा ॥ ३५ ॥

मूलम्

प्रकीर्णकेशी पतितार्धवस्त्रा
दुःशासनेन व्यवधूयमाना ।
ह्रीमत्यमर्षेण च दह्यमाना
शनैरिदं वाक्यमुवाच कृष्णा ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! उस समय द्रौपदीके केश बिखर गये थे। दुःशासनके झकझोरनेसे उसका आधा वस्त्र भी खिसककर गिर गया था। वह लाजसे गड़ी जाती थी और भीतर-ही-भीतर क्रोधसे दग्ध हो रही थी। उसी दशामें वह धीरेसे इस प्रकार बोली॥३५॥

मूलम् (वचनम्)

द्रौपद्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इमे सभायामुपनीतशास्त्राः
क्रियावन्तः सर्व एवेन्द्रकल्पाः ।
गुरुस्थाना गुरवश्चैव सर्वे
तेषामग्रे नोत्सहे स्थातुमेवम् ॥ ३६ ॥

मूलम्

इमे सभायामुपनीतशास्त्राः
क्रियावन्तः सर्व एवेन्द्रकल्पाः ।
गुरुस्थाना गुरवश्चैव सर्वे
तेषामग्रे नोत्सहे स्थातुमेवम् ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्रौपदीने कहा— अरे दुष्ट! ये सभामें शास्त्रोंके विद्वान्, कर्मठ और इन्द्रके समान तेजस्वी मेरे पिताके समान सभी गुरुजन बैठे हुए हैं। मैं उनके सामने इस रूपमें खड़ी होना नहीं चाहती॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नृशंसकर्मंस्त्वमनार्यवृत्त
मा मा विवस्त्रां कुरु मा विकर्षीः।
न मर्षयेयुस्तव राजपुत्राः
सेन्द्राश्च देवा यदि ते सहायाः ॥ ३७ ॥

मूलम्

नृशंसकर्मंस्त्वमनार्यवृत्त
मा मा विवस्त्रां कुरु मा विकर्षीः।
न मर्षयेयुस्तव राजपुत्राः
सेन्द्राश्च देवा यदि ते सहायाः ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्रूरकर्मा दुराचारी दुःशासन! तू इस प्रकार मुझे न खींच, न खींच, मुझे वस्त्रहीन मत कर। इन्द्र आदि देवता भी तेरी सहायताके लिये आ जायँ, तो भी मेरे पति राजकुमार पाण्डव तेरे इस अत्याचारको सहन नहीं कर सकेंगे॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मे स्थितो धर्मसुतो महात्मा
धर्मश्च सूक्ष्मो निपुणोपलक्ष्यः ।
वाचापि भर्तुः परमाणुमात्र-
मिच्छामि दोषं न गुणान् विसृज्य ॥ ३८ ॥

मूलम्

धर्मे स्थितो धर्मसुतो महात्मा
धर्मश्च सूक्ष्मो निपुणोपलक्ष्यः ।
वाचापि भर्तुः परमाणुमात्र-
मिच्छामि दोषं न गुणान् विसृज्य ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मपुत्र महात्मा युधिष्ठिर धर्ममें ही स्थित हैं। धर्मका स्वरूप बड़ा सूक्ष्म है। सूक्ष्म बुद्धिवाले धर्मपालनमें निपुण महापुरुष ही उसे समझ सकते हैं। मैं अपने पतिके गुणोंको छोड़कर वाणीद्वारा उनके परमाणुतुल्य छोटे-से-छोटे दोषको भी कहना नहीं चाहती॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदं त्वकार्यं कुरुवीरमध्ये
रजस्वलां यत् परिकर्षसे माम्।
न चापि कश्चित् कुरुतेऽत्र कुत्सां
ध्रुवं तवेदं मतमभ्युपेताः ॥ ३९ ॥

मूलम्

इदं त्वकार्यं कुरुवीरमध्ये
रजस्वलां यत् परिकर्षसे माम्।
न चापि कश्चित् कुरुतेऽत्र कुत्सां
ध्रुवं तवेदं मतमभ्युपेताः ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अरे! तू इन कौरववीरोंके बीचमें जो मुझ रजस्वला स्त्रीको खींचकर लिये जा रहा है, यह अत्यन्त पापपूर्ण कृत्य है। मैं देखती हूँ यहाँ कोई भी मनुष्य तेरे इस कुकर्मकी निन्दा नहीं कर रहा है। निश्चय ही ये सब लोग तेरे मतमें हो गये॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धिगस्तु नष्टः खलु भारतानां
धर्मस्तथा क्षत्रविदां च वृत्तम्।
यत्र ह्यतीतां कुरुधर्मवेलां
प्रेक्षन्ति सर्वे कुरवः सभायाम् ॥ ४० ॥

मूलम्

धिगस्तु नष्टः खलु भारतानां
धर्मस्तथा क्षत्रविदां च वृत्तम्।
यत्र ह्यतीतां कुरुधर्मवेलां
प्रेक्षन्ति सर्वे कुरवः सभायाम् ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अहो! धिक्कार है! भरतवंशके नरेशोंका धर्म निश्चय ही नष्ट हो गया तथा क्षत्रियधर्मके जाननेवाले इन महापुरुषोंका सदाचार भी लुप्त हो गया; क्योंकि यहाँ कौरवोंकी धर्ममर्यादाका उल्लंघन हो रहा है, तो भी सभामें बैठे हुए सभी कुरुवंशी चुपचाप देख रहे हैं॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्रोणस्य भीष्मस्य च नास्ति सत्त्वं
क्षत्तुस्तथैवास्य महात्मनोऽपि ।
राज्ञस्तथा हीममधर्ममुग्रं
न लक्षयन्ते कुरुवृद्धमुख्याः ॥ ४१ ॥

मूलम्

द्रोणस्य भीष्मस्य च नास्ति सत्त्वं
क्षत्तुस्तथैवास्य महात्मनोऽपि ।
राज्ञस्तथा हीममधर्ममुग्रं
न लक्षयन्ते कुरुवृद्धमुख्याः ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जान पड़ता है द्रोणाचार्य, पितामह भीष्म, महात्मा विदुर तथा राजा धृतराष्ट्रमें अब कोई शक्ति नहीं रह गयी है; तभी तो ये कुरुवंशके, बड़े-बूढ़े महापुरुष राजा दुर्योधनके इस भयानक पापाचारकी ओर दृष्टिपात नहीं कर रहे हैं॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(इमं प्रश्नमिमे ब्रूत सर्व एव सभासदः।
जितां वाप्यजितां वा मां मन्यध्वे सर्वभूमिपाः॥)

मूलम्

(इमं प्रश्नमिमे ब्रूत सर्व एव सभासदः।
जितां वाप्यजितां वा मां मन्यध्वे सर्वभूमिपाः॥)

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे इस प्रश्नका सभी सभासद् उत्तर दें। राजाओ! आपलोग क्या समझते हैं? धर्मके अनुसार मैं जीती गयी हूँ या नहीं?

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा ब्रुवन्ती करुणं सुमध्यमा
भर्तॄन् कटाक्षैः कुपितानपश्यत् ।
सा पाण्डवान् कोपपरीतदेहान्
संदीपयामास कटाक्षपातैः ॥ ४२ ॥

मूलम्

तथा ब्रुवन्ती करुणं सुमध्यमा
भर्तॄन् कटाक्षैः कुपितानपश्यत् ।
सा पाण्डवान् कोपपरीतदेहान्
संदीपयामास कटाक्षपातैः ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! इस प्रकार करुण स्वरमें विलाप करती सुमध्यमा द्रौपदीने क्रोधमें भरे हुए अपने पतियोंकी ओर तिरछी दृष्टिसे देखा। पाण्डवोंके अंग-अंगमें क्रोधकी अग्नि व्याप्त हो गयी थी। द्रौपदीने अपने कटाक्षद्वारा देखकर उनकी क्रोधाग्निको और भी उद्दीप्त कर दिया॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हृतेन राज्येन तथा धनेन
रत्नैश्च मुख्यैर्न तथा बभूव।
यथा त्रपाकोपसमीरितेन
कृष्णाकटाक्षेण बभूव दुःखम् ॥ ४३ ॥

मूलम्

हृतेन राज्येन तथा धनेन
रत्नैश्च मुख्यैर्न तथा बभूव।
यथा त्रपाकोपसमीरितेन
कृष्णाकटाक्षेण बभूव दुःखम् ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राज्य, धन तथा मुख्य-मुख्य रत्नोंको हार जानेपर भी पाण्डवोंको उतना दुःख नहीं हुआ था, जितना कि द्रौपदीके लज्जा एवं क्रोधयुक्त कटाक्षपातसे हुआ था॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुःशासनश्चापि समीक्ष्य कृष्णा-
मवेक्षमाणां कृपणान् पतींस्तान् ।
आधूय वेगेन विसंज्ञकल्पा-
मुवाच दासीति हसन् सशब्दम् ॥ ४४ ॥

मूलम्

दुःशासनश्चापि समीक्ष्य कृष्णा-
मवेक्षमाणां कृपणान् पतींस्तान् ।
आधूय वेगेन विसंज्ञकल्पा-
मुवाच दासीति हसन् सशब्दम् ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्रौपदीको अपने दीन पतियोंकी ओर देखती देख दुःशासन उसे बड़े वेगसे झकझोरकर जोर-जोरसे हँसते हुए ‘दासी’ कहकर पुकारने लगा। उस समय द्रौपदी मूर्च्छित-सी हो रही थी॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्णस्तु तद्वाक्यमतीव हृष्टः
सम्पूजयामास हसन् सशब्दम् ।
गान्धारराजः सुबलस्य पुत्र-
स्तथैव दुःशासनमभ्यनन्दत् ॥ ४५ ॥

मूलम्

कर्णस्तु तद्वाक्यमतीव हृष्टः
सम्पूजयामास हसन् सशब्दम् ।
गान्धारराजः सुबलस्य पुत्र-
स्तथैव दुःशासनमभ्यनन्दत् ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कर्णको बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने खिलखिलाकर हँसते हुए दुःशासनके उस कथनकी बड़ी सराहना की। सुबलपुत्र गान्धारराज शकुनिने भी दुःशासनका अभिनन्दन किया॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभ्यास्तु ये तत्र बभूवुरन्ये
ताभ्यामृते धार्तराष्ट्रेण चैव ।
तेषामभूद् दुःखमतीव कृष्णां
दृष्ट्वा सभायां परिकृष्यमाणाम् ॥ ४६ ॥

मूलम्

सभ्यास्तु ये तत्र बभूवुरन्ये
ताभ्यामृते धार्तराष्ट्रेण चैव ।
तेषामभूद् दुःखमतीव कृष्णां
दृष्ट्वा सभायां परिकृष्यमाणाम् ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय वहाँ जितने सभासद् उपस्थित थे, उनमेंसे कर्ण, शकुनि और दुर्योधनको छोड़कर अन्य सब लोगोंको सभामें इस प्रकार घसीटी जाती हुई द्रौपदीकी दुर्दशा देखकर बड़ा दुःख हुआ॥४६॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

न धर्मसौक्ष्म्यात् सुभगे विवेक्तु
शक्नोमि ते प्रश्नमिमं यथावत्।
अस्वाम्यशक्तः पणितुं परस्वं
स्त्रियाश्च भर्तुर्वशतां समीक्ष्य ॥ ४७ ॥

मूलम्

न धर्मसौक्ष्म्यात् सुभगे विवेक्तु
शक्नोमि ते प्रश्नमिमं यथावत्।
अस्वाम्यशक्तः पणितुं परस्वं
स्त्रियाश्च भर्तुर्वशतां समीक्ष्य ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय भीष्मने कहा— सौभाग्यशालिनी बहू! धर्मका स्वरूप अत्यन्त सूक्ष्म होनेके कारण मैं तुम्हारे इस प्रश्नका ठीक-ठीक विवेचन नहीं कर सकता। जो स्वामी नहीं है वह पराये धनको दाँवपर नहीं लगा सकता, परंतु स्त्रीको सदा अपने स्वामीके अधीन देखा जाता है, अतः इन सब बातोंपर विचार करनेसे मुझसे कुछ कहते नहीं बनता॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्यजेत सर्वां पृथिवीं समृद्धां
युधिष्ठिरो धर्ममथो न जह्यात्।
उक्तं जितोऽस्मीति च पाण्डवेन
तस्मान्न शक्नोमि विवेक्तुमेतत् ॥ ४८ ॥

मूलम्

त्यजेत सर्वां पृथिवीं समृद्धां
युधिष्ठिरो धर्ममथो न जह्यात्।
उक्तं जितोऽस्मीति च पाण्डवेन
तस्मान्न शक्नोमि विवेक्तुमेतत् ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरा विश्वास है कि धर्मराज युधिष्ठिर धन-समृद्धिसे भरी हुई इस सारी पृथ्वीको त्याग सकते हैं, किंतु धर्मको नहीं छोड़ सकते। इन पाण्डुनन्दनने स्वयं कहा है कि मैं अपनेको हार गया; अतः मैं इस प्रश्नका विवेचन नहीं कर सकता॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्यूतेऽद्वितीयः शकुनिर्नरेषु
कुन्तीसुतस्तेन निसृष्टकामः ।
न मन्यते तां निकृतिं युधिष्ठिर-
स्तस्मान्न ते प्रश्नमिमं ब्रवीमि ॥ ४९ ॥

मूलम्

द्यूतेऽद्वितीयः शकुनिर्नरेषु
कुन्तीसुतस्तेन निसृष्टकामः ।
न मन्यते तां निकृतिं युधिष्ठिर-
स्तस्मान्न ते प्रश्नमिमं ब्रवीमि ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह शकुनि मनुष्योंमें द्यूतविद्याका अद्वितीय जानकार है। इसीने कुन्तीनन्दन युधिष्ठिरको प्रेरित करके उनके मनमें तुम्हें दाँवपर रखनेकी इच्छा उत्पन्न की है, परंतु युधिष्ठिर इसे शकुनिका छल नहीं मानते; इसीलिये मैं तुम्हारे इस प्रश्नका विवेचन नहीं कर पाता हूँ॥४९॥

मूलम् (वचनम्)

द्रौपद्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

आहूय राजा कुशलैरनार्यै-
र्दुष्टात्मभिर्नैकृतिकैः सभायाम् ।
द्यूतप्रियैर्नातिकृतप्रयत्नः
कस्मादयं नाम निसृष्टकामः ॥ ५० ॥

मूलम्

आहूय राजा कुशलैरनार्यै-
र्दुष्टात्मभिर्नैकृतिकैः सभायाम् ।
द्यूतप्रियैर्नातिकृतप्रयत्नः
कस्मादयं नाम निसृष्टकामः ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्रौपदीने कहा— जूआ खेलनेमें निपुण, अनार्य, दुष्टात्मा, कपटी तथा द्यूतप्रेमी धूर्तोंने राजा युधिष्ठिरको सभामें बुलाकर जूएका खेल आरम्भ कर दिया। इन्हें जूआ खेलनेका अधिक अभ्यास नहीं है। फिर इनके मनमें जूएकी इच्छा क्यों उत्पन्न की गयी?॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अशुद्धभावैर्निकृतिप्रवृत्तै-
रबुध्यमानः कुरुपाण्डवाग्र्यः ।
सम्भूय सर्वैश्च जितोऽपि यस्मात्
पश्चादयं कैतवमभ्युपेतः ॥ ५१ ॥

मूलम्

अशुद्धभावैर्निकृतिप्रवृत्तै-
रबुध्यमानः कुरुपाण्डवाग्र्यः ।
सम्भूय सर्वैश्च जितोऽपि यस्मात्
पश्चादयं कैतवमभ्युपेतः ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनके हृदयकी भावना शुद्ध नहीं है, जो सदा छल और कपटमें लगे रहते हैं, उन समस्त दुरात्माओंने मिलकर इन भोले-भाले कुरु-पाण्डव-शिरोमणि महाराज युधिष्ठिरको पहले जूएमें जीत लिया है, तत्पश्चात् ये मुझे दाँवपर लगानेके लिये विवश किये गये हैं॥५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिष्ठन्ति चेमे कुरवः सभाया-
मीशाः सुतानां च तथा स्नुषाणाम्।
समीक्ष्य सर्वे मम चापि वाक्यं
विब्रूत मे प्रश्नमिमं यथावत् ॥ ५२ ॥

मूलम्

तिष्ठन्ति चेमे कुरवः सभाया-
मीशाः सुतानां च तथा स्नुषाणाम्।
समीक्ष्य सर्वे मम चापि वाक्यं
विब्रूत मे प्रश्नमिमं यथावत् ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये कुरुवंशी महापुरुष जो सभामें बैठे हुए हैं, सभी पुत्रों और पुत्रवधुओंके स्वामी हैं (सभीके घरमें पुत्र और पुत्रवधुएँ हैं), अतः ये सब लोग मेरे कथनपर अच्छी तरह विचार करके इस प्रश्नका ठीक-ठीक विवेचन करें॥५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धा
न ते वृद्धा ये न वदन्ति धर्मम्।
नासौ धर्मो यत्र न सत्यमस्ति
न तत् सत्यं यच्छलेनानुविद्धम्॥)

मूलम्

(न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धा
न ते वृद्धा ये न वदन्ति धर्मम्।
नासौ धर्मो यत्र न सत्यमस्ति
न तत् सत्यं यच्छलेनानुविद्धम्॥)

अनुवाद (हिन्दी)

वह सभा नहीं है जहाँ वृद्ध पुरुष न हों, वे वृद्ध नहीं हैं जो धर्मकी बात न बतावें, वह धर्म नहीं है जिसमें सत्य न हो और वह सत्य नहीं है जो छलसे युक्त हो।

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा ब्रुवन्तीं करुणं रुदन्ती-
मवेक्षमाणां कृपणान् पतींस्तान् ।
दुःशासनः परुषाण्यप्रियाणि
वाक्यान्युवाचामधुराणि चैव ॥ ५३ ॥

मूलम्

तथा ब्रुवन्तीं करुणं रुदन्ती-
मवेक्षमाणां कृपणान् पतींस्तान् ।
दुःशासनः परुषाण्यप्रियाणि
वाक्यान्युवाचामधुराणि चैव ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! इस प्रकार द्रौपदी करुणस्वरमें बोलकर रोती हुई अपने दीन पतियोंकी ओर देखने लगी। उस समय दुःशासनने उसके प्रति कितने ही अप्रिय कठोर एवं कटुवचन कहे॥५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तां कृष्यमाणां च रजस्वलां च
स्रस्तोत्तरीयामतदर्हमाणाम् ।
वृकोदरः प्रेक्ष्य युधिष्ठिरं च
चकार कोपं परमार्तरूपः ॥ ५४ ॥

मूलम्

तां कृष्यमाणां च रजस्वलां च
स्रस्तोत्तरीयामतदर्हमाणाम् ।
वृकोदरः प्रेक्ष्य युधिष्ठिरं च
चकार कोपं परमार्तरूपः ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कृष्णा रजस्वलावस्थामें घसीटी जा रही थी, उसके सिरका कपड़ा सरक गया था, वह इस तिरस्कारके योग्य कदापि नहीं थी। उसकी यह दुरवस्था देखकर भीमसेनको बड़ी पीड़ा हुई। वे युधिष्ठिरकी ओर देखकर अत्यन्त कुपित हो उठे॥५४॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि द्यूतपर्वणि द्रौपदीप्रश्ने सप्तषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६७ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्वके अन्तर्गत द्यूतपर्वमें द्रौपदीप्रश्नविषयक सरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥६७॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २ श्लोक मिलाकर कुल ५६ श्लोक हैं)