०६५ द्रौपदीच्युतिः

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

पञ्चषष्टितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

युधिष्ठिरका धन, राज्य, भाइयों तथा द्रौपदीसहित अपनेको भी हारना

मूलम् (वचनम्)

शकुनिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहु वित्तं पराजैषीः पाण्डवानां युधिष्ठिर।
आचक्ष्व वित्तं कौन्तेय यदि तेऽस्त्यपराजितम् ॥ १ ॥

मूलम्

बहु वित्तं पराजैषीः पाण्डवानां युधिष्ठिर।
आचक्ष्व वित्तं कौन्तेय यदि तेऽस्त्यपराजितम् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शकुनि बोला— कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर! आप अबतक पाण्डवोंका बहुत-सा धन हार चुके। यदि आपके पास बिना हारा हुआ कोई धन शेष हो तो बताइये॥१॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

मम वित्तमसंख्येयं यदहं वेद सौबल।
अथ त्वं शकुने कस्माद् वित्तं समनुपृच्छसि ॥ २ ॥

मूलम्

मम वित्तमसंख्येयं यदहं वेद सौबल।
अथ त्वं शकुने कस्माद् वित्तं समनुपृच्छसि ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— सुबलपुत्र! मेरे पास असंख्य धन है, जिसे मैं जानता हूँ। शकुने! तुम मेरे धनका परिमाण क्यों पूछते हो?॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयुतं प्रयुतं चैव शङ्कुं पद्मं तथार्बुदम्।
खर्वं शङ्खं निखर्वं च महापद्मं च कोटयः ॥ ३ ॥
मध्यं चैव परार्थं च सपरं चात्र पण्यताम्।
एतन्मम धनं राजंस्तेन दीव्याम्यहं त्वया ॥ ४ ॥

मूलम्

अयुतं प्रयुतं चैव शङ्कुं पद्मं तथार्बुदम्।
खर्वं शङ्खं निखर्वं च महापद्मं च कोटयः ॥ ३ ॥
मध्यं चैव परार्थं च सपरं चात्र पण्यताम्।
एतन्मम धनं राजंस्तेन दीव्याम्यहं त्वया ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अयुत, प्रयुत, शंकु, पद्म, अर्बुद, खर्व, शंख, निखर्व, महापद्म, कोटि, मध्य, परार्ध और पर इतना धन मेरे पास है। राजन्! खेलो, मैं इसीको दाँवपर रखकर तुम्हारे साथ खेलता हूँ॥३-४॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतच्छ्रुत्वा व्यवसितो निकृतिं समुपाश्रितः।
जितमित्येव शकुनिर्युधिष्ठिरमभाषत ॥ ५ ॥

मूलम्

एतच्छ्रुत्वा व्यवसितो निकृतिं समुपाश्रितः।
जितमित्येव शकुनिर्युधिष्ठिरमभाषत ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! यह सुनकर शकुनिने छलका आश्रय ले पुनः इसी निश्चयके साथ युधिष्ठिरसे कहा—‘लो, यह धन भी मैंने जीत लिया’॥५॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

गवाश्वं बहुधेनूकमसंख्येयमजाविकम् ।
यत् किंचिदनुपर्णाशां प्राक् सिन्धोरपि सौबल।
एतन्मम धनं सर्वं तेन दीव्याम्यहं त्वया ॥ ६ ॥

मूलम्

गवाश्वं बहुधेनूकमसंख्येयमजाविकम् ।
यत् किंचिदनुपर्णाशां प्राक् सिन्धोरपि सौबल।
एतन्मम धनं सर्वं तेन दीव्याम्यहं त्वया ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— सुबलपुत्र! मेरे पास सिन्धु नदीके पूर्वी तटसे लेकर पर्णाशा नदीके किनारेतक जो भी बैल, घोड़े, गाय, भेड़ एवं बकरी आदि पशुधन हैं, वह असंख्य है। उनमें भी दूध देनेवाली गौओंकी संख्या अधिक है। यह सारा मेरा धन है, जिसे मैं दाँवपर रखकर तुम्हारे साथ खेलता हूँ॥६॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतच्छ्रुत्वा व्यवसितो निकृतिं समुपाश्रितः।
जितमित्येव शकुनिर्युधिष्ठिरमभाषत ॥ ७ ॥

मूलम्

एतच्छ्रुत्वा व्यवसितो निकृतिं समुपाश्रितः।
जितमित्येव शकुनिर्युधिष्ठिरमभाषत ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! यह सुनकर शठताके आश्रित हुए शकुनिने अपनी ही जीत घोषित करते हुए युधिष्ठिरसे कहा—‘लो, यह दाँव भी मैंने ही जीता’॥७॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुरं जनपदो भूमिरब्राह्मणधनैः सह।
अब्राह्मणाश्च पुरुषा राजञ्छिष्टं धनं मम।
एतद् राजन् मम धनं तेन दीव्याम्यहं त्वया ॥ ८ ॥

मूलम्

पुरं जनपदो भूमिरब्राह्मणधनैः सह।
अब्राह्मणाश्च पुरुषा राजञ्छिष्टं धनं मम।
एतद् राजन् मम धनं तेन दीव्याम्यहं त्वया ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— राजन्! ब्राह्मणोंको जीविकारूपमें जो ग्रामादि दिये गये हैं, उन्हें छोड़कर शेष जो नगर, जनपद तथा भूमि मेरे अधिकारमें है तथा जो ब्राह्मणेतर मनुष्य मेरे यहाँ रहते हैं, वे सब मेरे शेष धन हैं। शकुने! मैं इसी धनको दाँवपर रखकर तुम्हारे साथ जूआ खेलता हूँ॥८॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतच्छ्रुत्वा व्यवसितो निकृतिं समुपाश्रितः।
जितमित्येव शकुनिर्युधिष्ठिरमभाषत ॥ ९ ॥

मूलम्

एतच्छ्रुत्वा व्यवसितो निकृतिं समुपाश्रितः।
जितमित्येव शकुनिर्युधिष्ठिरमभाषत ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! यह सुनकर कपटका आश्रय ग्रहण करके शकुनिने पुनः अपनी ही जीतका निश्चय करके युधिष्ठिरसे कहा—‘इस दाँवपर भी मेरी ही विजय हुई’॥९॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजपुत्रा इमे राजञ्छोभन्ते यैर्विभूषिताः।
कुण्डलानि च निष्काश्च सर्वं राजविभूषणम्।
एतन्मम धनं राजंस्तेन दीव्याम्यहं त्वया ॥ १० ॥

मूलम्

राजपुत्रा इमे राजञ्छोभन्ते यैर्विभूषिताः।
कुण्डलानि च निष्काश्च सर्वं राजविभूषणम्।
एतन्मम धनं राजंस्तेन दीव्याम्यहं त्वया ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— राजन्! ये राजपुत्र जिन आभूषणोंसे विभूषित होकर शोभित हो रहे हैं, वे कुण्डल और गलेके स्वर्णभूषण आदि समस्त राजकीय आभूषण मेरे धन हैं। इन्हें दाँवपर लगाकर मैं तुम्हारे साथ खेलता हूँ॥१०॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतच्छ्रुत्वा व्यवसितो निकृतिं समुपाश्रितः।
जितमित्येव शकुनिर्युधिष्ठिरमभाषत ॥ ११ ॥

मूलम्

एतच्छ्रुत्वा व्यवसितो निकृतिं समुपाश्रितः।
जितमित्येव शकुनिर्युधिष्ठिरमभाषत ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! यह सुनकर छल-कपटका आश्रय लेनेवाले शकुनिने युधिष्ठिरसे निश्चयपूर्वक कहा—‘लो, यह भी मैंने जीता’॥११॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्यामो युवा लोहिताक्षः सिंहस्कन्धो महाभुजः।
नकुलो ग्लह एवैको विद्ध्येतन्मम तद्धनम् ॥ १२ ॥

मूलम्

श्यामो युवा लोहिताक्षः सिंहस्कन्धो महाभुजः।
नकुलो ग्लह एवैको विद्ध्येतन्मम तद्धनम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— श्यामवर्ण, तरुण, लाल नेत्रों और सिंहके समान कंधोंवाले महाबाहु नकुलको ही इस समय मैं दाँवपर रखता हूँ, इन्हींको मेरे दाँवका धन समझो॥१२॥

मूलम् (वचनम्)

शकुनिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रियस्ते नकुलो राजन् राजपुत्रो युधिष्ठिर।
अस्माकं वशतां प्राप्तो भूयः केनेह दीव्यसे ॥ १३ ॥

मूलम्

प्रियस्ते नकुलो राजन् राजपुत्रो युधिष्ठिर।
अस्माकं वशतां प्राप्तो भूयः केनेह दीव्यसे ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शकुनि बोला— धर्मराज युधिष्ठिर! आपके परमप्रिय राजकुमार नकुल तो हमारे अधीन हो गये, अब किस धनसे आप यहाँ खेल रहे हैं?॥१३॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वा तु तानक्षाञ्छकुनिः प्रत्यदीव्यत।
जितमित्येव शकुनिर्युधिष्ठिरमभाषत ॥ १४ ॥

मूलम्

एवमुक्त्वा तु तानक्षाञ्छकुनिः प्रत्यदीव्यत।
जितमित्येव शकुनिर्युधिष्ठिरमभाषत ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! ऐसा कहकर शकुनिने पासे फेंके और युधिष्ठिरसे कहा—‘लो, इस दाँवपर भी मेरी ही विजय हुई’॥१४॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयं धर्मान् सहदेवोऽनुशास्ति
लोके ह्यस्मिन् पण्डिताख्यां गतश्च।
अनर्हता राजपुत्रेण तेन
दीव्याम्यहं चाप्रियवत् प्रियेण ॥ १५ ॥

मूलम्

अयं धर्मान् सहदेवोऽनुशास्ति
लोके ह्यस्मिन् पण्डिताख्यां गतश्च।
अनर्हता राजपुत्रेण तेन
दीव्याम्यहं चाप्रियवत् प्रियेण ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— ये सहदेव धर्मोंका उपदेश करते हैं। संसारमें पण्डितके रूपमें इनकी ख्याति है। मेरे प्रिय राजकुमार सहदेव यद्यपि दाँवपर लगानेके योग्य नहीं हैं, तो भी मैं अप्रिय वस्तुकी भाँति इन्हें दाँवपर रखकर खेलता हूँ॥१५॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतच्छ्रुत्वा व्यवसितो निकृतिं समुपाश्रितः।
जितमित्येव शकुनिर्युधिष्ठिरमभाषत ॥ १६ ॥

मूलम्

एतच्छ्रुत्वा व्यवसितो निकृतिं समुपाश्रितः।
जितमित्येव शकुनिर्युधिष्ठिरमभाषत ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! यह सुनकर छली शकुनिने उसी निश्चयके साथ युधिष्ठिरसे कहा—‘यह दाँव भी मैंने ही जीता’॥१६॥

मूलम् (वचनम्)

शकुनिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

माद्रीपुत्रौ प्रियौ राजंस्तवेमौ विजितौ मया।
गरीयांसौ तु ते मन्ये भीमसेनधनंजयौ ॥ १७ ॥

मूलम्

माद्रीपुत्रौ प्रियौ राजंस्तवेमौ विजितौ मया।
गरीयांसौ तु ते मन्ये भीमसेनधनंजयौ ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शकुनि बोला— राजन्! आपके ये दोनों प्रिय भाई माद्रीके पुत्र नकुल-सहदेव तो मेरे द्वारा जीत लिये गये, अब रहे भीमसेन और अर्जुन। मैं समझता हूँ, ये दोनों आपके लिये अधिक गौरवकी वस्तु हैं (इसीलिये आप इन्हें दाँवपर नहीं लगाते)॥१७॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अधर्मं चरसे नूनं यो नावेक्षसि वै नयम्।
यो नः सुमनसां मूढ विभेदं कर्तुमिच्छसि ॥ १८ ॥

मूलम्

अधर्मं चरसे नूनं यो नावेक्षसि वै नयम्।
यो नः सुमनसां मूढ विभेदं कर्तुमिच्छसि ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— ओ मूढ़! तू निश्चय ही अधर्मका आचरण कर रहा है, जो न्यायकी ओर नहीं देखता। तू शुद्ध हृदयवाले हमारे भाइयोंमें फूट डालना चाहता है॥

मूलम् (वचनम्)

शकुनिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

गर्ते मत्तः प्रपतते प्रमत्तः स्थाणुमृच्छति।
ज्येष्ठो राजन् वरिष्ठोऽसि नमस्ते भरतर्षभ ॥ १९ ॥

मूलम्

गर्ते मत्तः प्रपतते प्रमत्तः स्थाणुमृच्छति।
ज्येष्ठो राजन् वरिष्ठोऽसि नमस्ते भरतर्षभ ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शकुनि बोला— राजन्! धनके लोभसे अधर्म करनेवाला मतवाला मनुष्य नरककुण्डमें सरिता है। अधिक उन्मत्त हुआ ठूँठा काठ हो जाता है। आप तो आयुमें बड़े और गुणोंमें श्रेष्ठ हैं। भरतवंशविभूषण! आपको नमस्कार है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वप्ने तानि न दृश्यन्ते जाग्रतो वा युधिष्ठिर।
कितवा यानि दीव्यन्तः प्रलपन्त्युत्कटा इव ॥ २० ॥

मूलम्

स्वप्ने तानि न दृश्यन्ते जाग्रतो वा युधिष्ठिर।
कितवा यानि दीव्यन्तः प्रलपन्त्युत्कटा इव ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मराज युधिष्ठिर! जुआरी जूआ खेलते समय पागल होकर जो अनाप-शनाप बातें बक जाया करते हैं, वे न कभी स्वप्नमें दिखायी देती हैं और न जाग्रत्कालमें ही॥२०॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यो नः संख्ये नौरिव पारनेता
जेता रिपूणां राजपुत्रस्तरस्वी ।
अनर्हता लोकवीरेण तेन
दीव्याम्यहं शकुने फाल्गुनेन ॥ २१ ॥

मूलम्

यो नः संख्ये नौरिव पारनेता
जेता रिपूणां राजपुत्रस्तरस्वी ।
अनर्हता लोकवीरेण तेन
दीव्याम्यहं शकुने फाल्गुनेन ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने कहा— शकुने! जो युद्धरूपी समुद्रमें हमलोगोंको नौकाकी भाँति पार लगानेवाले हैं तथा शत्रुओंपर विजय पाते हैं, वे लोकविख्यात वेगशाली वीर राजकुमार अर्जुन यद्यपि दाँवपर लगानेयोग्य नहीं हैं, तो भी उनको दाँवपर लगाकर मैं तुम्हारे साथ खेलता हूँ॥२१॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतच्छ्रुत्वा व्यवसितो निकृतिं समुपाश्रितः।
जितमित्येव शकुनिर्युधिष्ठिरमभाषत ॥ २२ ॥

मूलम्

एतच्छ्रुत्वा व्यवसितो निकृतिं समुपाश्रितः।
जितमित्येव शकुनिर्युधिष्ठिरमभाषत ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! यह सुनकर कपटी शकुनिने पूर्ववत् विजयका निश्चय करके युधिष्ठिरसे कहा—‘यह भी मैंने ही जीता’॥२२॥

मूलम् (वचनम्)

शकुनिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयं मया पाण्डवानां धनुर्धरः
पराजितः पाण्डवः सव्यसाची ।
भीमेन राजन् दयितेन दीव्य
यत् कैतवं पाण्डव तेऽवशिष्टम् ॥ २३ ॥

मूलम्

अयं मया पाण्डवानां धनुर्धरः
पराजितः पाण्डवः सव्यसाची ।
भीमेन राजन् दयितेन दीव्य
यत् कैतवं पाण्डव तेऽवशिष्टम् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शकुनि फिर बोला— राजन्! ये पाण्डवोंमें धनुर्धर वीर सव्यसाची अर्जुन मेरे द्वारा जीत लिये गये। पाण्डुनन्दन! अब आपके पास भीमसेन ही जुआरियोंको प्राप्त होनेवाले धनके रूपमें शेष हैं, अतः उन्हींको दाँवपर रखकर खेलिये॥२३॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यो नो नेता युधि नः प्रणेता
यथा वज्री दानवशत्रुरेकः ।
तिर्यक्प्रेक्षी संनतभ्रूर्महात्मा
सिंहस्कन्धो यश्च सदात्यमर्षी ॥ २४ ॥
बलेन तुल्यो यस्य पुमान् न विद्यते
गदाभृतामग्र्य इहारिमर्दनः ।
अनर्हता राजपुत्रेण तेन
दीव्याम्यहं भीमसेनेन राजन् ॥ २५ ॥

मूलम्

यो नो नेता युधि नः प्रणेता
यथा वज्री दानवशत्रुरेकः ।
तिर्यक्प्रेक्षी संनतभ्रूर्महात्मा
सिंहस्कन्धो यश्च सदात्यमर्षी ॥ २४ ॥
बलेन तुल्यो यस्य पुमान् न विद्यते
गदाभृतामग्र्य इहारिमर्दनः ।
अनर्हता राजपुत्रेण तेन
दीव्याम्यहं भीमसेनेन राजन् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने कहा— राजन्! जो युद्धमें हमारे सेनापति और दानवशत्रु वज्रधारी इन्द्रके समान अकेले ही आगे बढ़नेवाले हैं; जो तिरछी दृष्टिसे देखते हैं, जिनकी भौंहें धनुषकी भाँति झुकी हुई हैं, जिनका हृदय विशाल और कंधे सिंहके समान हैं, जो सदा अत्यन्त अमर्षमें भरे रहते हैं, बलमें जिनकी समानता करनेवाला कोई पुरुष नहीं है, जो गदाधारियोंमें अग्रगण्य तथा अपने शत्रुओंको कुचल डालनेवाले हैं, उन्हीं राजकुमार भीमसेनको दाँवपर लगाकर मैं जूआ खेलता हूँ। यद्यपि वे इसके योग्य नहीं हैं॥२४-२५॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतच्छ्रुत्वा व्यवसितो निकृतिं समुपाश्रितः।
जितमित्येव शकुनिर्युधिष्ठिरमभाषत ॥ २६ ॥

मूलम्

एतच्छ्रुत्वा व्यवसितो निकृतिं समुपाश्रितः।
जितमित्येव शकुनिर्युधिष्ठिरमभाषत ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! यह सुनकर शठताका आश्रय लेकर शकुनिने उसी निश्चयके साथ युधिष्ठिरसे कहा, ‘यह दाँव भी मैंने ही जीता’॥२६॥

मूलम् (वचनम्)

शकुनिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहु वित्तं पराजैषीर्भ्रातॄंश्च सहयद्विपान्।
आचक्ष्व वित्तं कौन्तेय यदि तेऽस्त्यपराजितम् ॥ २७ ॥

मूलम्

बहु वित्तं पराजैषीर्भ्रातॄंश्च सहयद्विपान्।
आचक्ष्व वित्तं कौन्तेय यदि तेऽस्त्यपराजितम् ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शकुनि बोला— कुन्तीनन्दन! आप अपने भाइयों और हाथी-घोड़ोंसहित बहुत धन हार चुके, अब आपके पास बिना हारा हुआ धन कोई अवशिष्ट हो, तो बतलाइये॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहं विशिष्टः सर्वेषां भ्रातॄणां दयितस्तथा।
कुर्यामहं जितः कर्म स्वयमात्मन्युपप्लुते ॥ २८ ॥

मूलम्

अहं विशिष्टः सर्वेषां भ्रातॄणां दयितस्तथा।
कुर्यामहं जितः कर्म स्वयमात्मन्युपप्लुते ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने कहा— मैं अपने सब भाइयोंमें बड़ा और सबका प्रिय हूँ; अतः अपनेको ही दाँवपर लगाता हूँ। यदि मैं हार गया तो पराजित दासकी भाँति सब कार्य करूँगा॥२८॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतच्छ्रुत्वा व्यवसितो निकृतिं समुपाश्रितः।
जितमित्येव शकुनिर्युधिष्ठिरमभाषत ॥ २९ ॥

मूलम्

एतच्छ्रुत्वा व्यवसितो निकृतिं समुपाश्रितः।
जितमित्येव शकुनिर्युधिष्ठिरमभाषत ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! यह सुनकर कपटी शकुनिने निश्चयपूर्वक अपनी जीत घोषित करते हुए युधिष्ठिरसे कहा—‘ये दाँव भी मैंने ही जीता’॥२९॥

मूलम् (वचनम्)

शकुनिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतत् पापिष्ठमकरोर्यदात्मानमहारयः ।
शिष्टे सति धने राजन् पाप आत्मपराजयः ॥ ३० ॥

मूलम्

एतत् पापिष्ठमकरोर्यदात्मानमहारयः ।
शिष्टे सति धने राजन् पाप आत्मपराजयः ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शकुनि फिर बोला— राजन्! आप अपनेको दाँवपर लगाकर जो हार गये, यह आपके द्वारा बड़ा अधर्म-कार्य हुआ। धनके शेष रहते हुए अपने-आपको हार जाना महान् पाप है॥३०॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वा मताक्षस्तान् ग्लहे सर्वानवस्थितान्।
पराजयं लोकवीरानुक्त्वा राज्ञां पृथक्-पृथक् ॥ ३१ ॥

मूलम्

एवमुक्त्वा मताक्षस्तान् ग्लहे सर्वानवस्थितान्।
पराजयं लोकवीरानुक्त्वा राज्ञां पृथक्-पृथक् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! पासा फेंकनेकी विद्यामें निपुण शकुनिने राजा युधिष्ठिरसे दाँव लगानेके विषयमें उक्त बातें कहकर सभामें बैठे हुए लोक-प्रसिद्ध वीर राजाओंको पृथक्-पृथक् पाण्डवोंकी पराजय सूचित की॥३१॥

मूलम् (वचनम्)

शकुनिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्ति ते वै प्रिया राजन् ग्लह एकोऽपराजितः।
पणस्व कृष्णां पाञ्चालीं तयाऽऽत्मानं पुनर्जय ॥ ३२ ॥

मूलम्

अस्ति ते वै प्रिया राजन् ग्लह एकोऽपराजितः।
पणस्व कृष्णां पाञ्चालीं तयाऽऽत्मानं पुनर्जय ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् शकुनिने फिर कहा— राजन्! आपकी प्रियतमा द्रौपदी एक ऐसा दाँव है, जिसे आप अबतक नहीं हारे हैं; अतः पांचालराजकुमारी कृष्णाको आप दाँवपर रखिये और उसके द्वारा फिर अपनेको जीत लीजिये॥३२॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैव ह्रस्वा न महती न कृष्णा नातिरोहिणी।
नीलकुञ्चितकेशी च तया दीव्याम्यहं त्वया ॥ ३३ ॥

मूलम्

नैव ह्रस्वा न महती न कृष्णा नातिरोहिणी।
नीलकुञ्चितकेशी च तया दीव्याम्यहं त्वया ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने कहा— जो न नाटी है न लंबी, न कृष्णवर्णा है न अधिक रक्तवर्णा तथा जिसके केश नीले और घुँघराले हैं, उस द्रौपदीको दाँवपर लगाकर मैं तुम्हारे साथ जूआ खेलता हूँ॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शारदोत्पलपत्राक्ष्या शारदोत्पलगन्धया ।
शारदोत्पलसेविन्या रूपेण श्रीसमानया ॥ ३४ ॥

मूलम्

शारदोत्पलपत्राक्ष्या शारदोत्पलगन्धया ।
शारदोत्पलसेविन्या रूपेण श्रीसमानया ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसके नेत्र शरद्-ऋतुके प्रफुल्ल कमलदलके समान सुन्दर एवं विशाल हैं। उसके शरीरसे शारदीय कमलके समान सुगन्ध फैलती रहती है। वह शरद्-ऋतुके कमलोंका सेवन करती है तथा रूपमें साक्षात् लक्ष्मीके समान है॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथैव स्यादानृशंस्यात् तथा स्याद् रूपसम्पदा।
तथा स्याच्छीलसम्पत्त्या यामिच्छेत् पुरुषः स्त्रियम् ॥ ३५ ॥

मूलम्

तथैव स्यादानृशंस्यात् तथा स्याद् रूपसम्पदा।
तथा स्याच्छीलसम्पत्त्या यामिच्छेत् पुरुषः स्त्रियम् ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुष जैसी स्त्री प्राप्त करनेकी अभिलाषा रखता है, उसमें वैसा ही दयाभाव है, वैसी ही रूपसम्पत्ति है तथा वैसे ही शील-स्वभाव हैं॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वैगुणैर्हि सम्पन्नामनुकूलां प्रियंवदाम् ।
यादृशीं धर्मकामार्थसिद्धिमिच्छेन्नरः स्त्रियम् ॥ ३६ ॥

मूलम्

सर्वैगुणैर्हि सम्पन्नामनुकूलां प्रियंवदाम् ।
यादृशीं धर्मकामार्थसिद्धिमिच्छेन्नरः स्त्रियम् ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह समस्त सद्‌गुणोंसे सम्पन्न तथा मनके अनुकूल और प्रिय वचन बोलनेवाली है। मनुष्य धर्म, काम और अर्थकी सिद्धिके लिये जैसी पत्नीकी इच्छा रखता है, द्रौपदी वैसी ही है॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चरमं संविशति या प्रथमं प्रतिबुध्यते।
आगोपालाविपालेभ्यः सर्वं वेद कृताकृतम् ॥ ३७ ॥

मूलम्

चरमं संविशति या प्रथमं प्रतिबुध्यते।
आगोपालाविपालेभ्यः सर्वं वेद कृताकृतम् ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह ग्वालों और भेड़ोंके चरवाहोंसे भी पीछे सोती और सबसे पहले जागती है। कौन-सा कार्य हुआ और कौन-सा नहीं हुआ, इन सबकी वह जानकारी रखती है॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आभाति पद्मवद् वक्त्रं सस्वेदं मल्लिकेव च।
वेदिमध्या दीर्घकेशी ताम्रास्या नातिलोमशा ॥ ३८ ॥

मूलम्

आभाति पद्मवद् वक्त्रं सस्वेदं मल्लिकेव च।
वेदिमध्या दीर्घकेशी ताम्रास्या नातिलोमशा ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसका स्वेदबिन्दुओंसे विभूषित मुख कमलके समान सुन्दर और मल्लिकाके समान सुगन्धित है। उसका मध्यभाग वेदीके समान कृश दिखायी देता है। उसके सिरके केश बड़े-बड़े हैं, मुख और ओष्ठ अरुणवर्णके हैं तथा उसके अंगोंमें अधिक रोमावलियाँ नहीं हैं॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तयैवंविधया राजन् पाञ्चाल्याहं सुमध्यया।
ग्लहं दीव्यामि चार्वङ्ग्या द्रौपद्या हन्त सौबल ॥ ३९ ॥

मूलम्

तयैवंविधया राजन् पाञ्चाल्याहं सुमध्यया।
ग्लहं दीव्यामि चार्वङ्ग्या द्रौपद्या हन्त सौबल ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुबलपुत्र! ऐसी सर्वांगसुन्दरी सुमध्यमा पांचाल-राजकुमारी द्रौपदीको दाँवपर रखकर मैं तुम्हारे साथ जूआ खेलता हूँ; यद्यपि ऐसा करते हुए मुझे महान् कष्ट हो रहा है॥३९॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्ते तु वचने धर्मराजेन धीमता।
धिग्धिगित्येव वृद्धानां सभ्यानां निःसृता गिरः ॥ ४० ॥

मूलम्

एवमुक्ते तु वचने धर्मराजेन धीमता।
धिग्धिगित्येव वृद्धानां सभ्यानां निःसृता गिरः ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! बुद्धिमान् धर्मराजके ऐसा कहते ही उस सभामें बैठे हुए बड़े-बूढ़े लोगोंके मुखसे ‘धिक्कार है, धिक्कार है’ की आवाज आने लगी॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चुक्षुभे सा सभा राजन् राज्ञां संजज्ञिरे शुचः।
भीष्मद्रोणकृपादीनां स्वेदश्च समजायत ॥ ४१ ॥

मूलम्

चुक्षुभे सा सभा राजन् राज्ञां संजज्ञिरे शुचः।
भीष्मद्रोणकृपादीनां स्वेदश्च समजायत ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! उस समय सारी सभामें हलचल मच गयी। राजाओंको बड़ा शोक हुआ। भीष्म, द्रोण और कृपाचार्य आदिके शरीरसे पसीना छूटने लगा॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शिरो गृहीत्वा विदुरो गतसत्त्व इवाभवत्।
आस्ते ध्यायन्नधोवक्त्रो निःश्वसन्निव पन्नगः ॥ ४२ ॥

मूलम्

शिरो गृहीत्वा विदुरो गतसत्त्व इवाभवत्।
आस्ते ध्यायन्नधोवक्त्रो निःश्वसन्निव पन्नगः ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विदुरजी तो दोनों हाथोंसे अपना सिर थामकर बेहोश-से हो गये। वे फुँफकारते हुए सर्पकी भाँति उच्छ्‌वास लेकर मुँह नीचे किये हुए गम्भीर चिन्तामें निमग्न हो बैठे रह गये॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(बाह्लीकः सोमदत्तश्च प्रातीपेयः ससंजयः।
द्रौणिभूरिश्रवाश्चैव युयुत्सुर्धृतराष्ट्रजः ॥
हस्तौ पिंषन्नधोवक्त्रा निःश्वसन्त इवोरगाः॥)

मूलम्

(बाह्लीकः सोमदत्तश्च प्रातीपेयः ससंजयः।
द्रौणिभूरिश्रवाश्चैव युयुत्सुर्धृतराष्ट्रजः ॥
हस्तौ पिंषन्नधोवक्त्रा निःश्वसन्त इवोरगाः॥)

अनुवाद (हिन्दी)

बाह्लीक, प्रतीपके पौत्र सोमदत्त, भीष्म, संजय, अश्वत्थामा, भूरिश्रवा तथा धृतराष्ट्रपुत्र युयुत्सु—ये सब मुँह नीचे किये सर्पोंके समान लंबी साँसें खींचते हुए अपने दोनों हाथ मलने लगे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

धृतराष्ट्रस्तु तं हृष्टः पर्यपृच्छत् पुनः पुनः।
किं जितं किं जितमिति ह्याकारं नाभ्यरक्षत ॥ ४३ ॥

मूलम्

धृतराष्ट्रस्तु तं हृष्टः पर्यपृच्छत् पुनः पुनः।
किं जितं किं जितमिति ह्याकारं नाभ्यरक्षत ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्र मन-ही-मन प्रसन्न हो उनसे बार-बार पूछ रहे थे, ‘क्या हमारे पक्षकी जीत हो रही है?’ वे अपनी प्रसन्नताकी आकृतिको न छिपा सके॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जहर्ष कर्णोऽतिभृशं सह दुःशासनादिभिः।
इतरेषां तु सभ्यानां नेत्रेभ्यः प्रापतज्जलम् ॥ ४४ ॥

मूलम्

जहर्ष कर्णोऽतिभृशं सह दुःशासनादिभिः।
इतरेषां तु सभ्यानां नेत्रेभ्यः प्रापतज्जलम् ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुःशासन आदिके साथ कर्णको तो बड़ा हर्ष हुआ; परंतु अन्य सभासदोंकी आँखोंसे आँसू गिरने लगे॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सौबलस्त्वभिधायैवं जितकाशी मदोत्कटः ।
जितमित्येव तानक्षान् पुनरेवान्वपद्यत ॥ ४५ ॥

मूलम्

सौबलस्त्वभिधायैवं जितकाशी मदोत्कटः ।
जितमित्येव तानक्षान् पुनरेवान्वपद्यत ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुबलपुत्र शकुनिने मैंने यह भी जीत लिया, ऐसा कहकर पासोंको पुनः उठा लिया। उस समय वह विजयोल्लाससे सुशोभित और मदोन्मत्त हो रहा था॥४५॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि द्यूतपर्वणि द्रौपदीपराजये पञ्चषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६५ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्वके अन्तर्गत द्यूतपर्वमें द्रौपदीपराजयविषयक पैंसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥६५॥

Misc Detail

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके १ श्लोक मिलाकर कुल ४६ श्लोक हैं)