श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
चतुष्षष्टितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
दुर्योधनका विदुरको फटकारना और विदुरका उसे चेतावनी देना
मूलम् (वचनम्)
दुर्योधन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
परेषामेव यशसा श्लाघसे त्वं
सदा क्षत्तः कुत्सयन् धार्तराष्ट्रान्।
जानीमहे विदुर यत् प्रियस्त्वं
बालानिवास्मानवमन्यसे नित्यमेव ॥ १ ॥
मूलम्
परेषामेव यशसा श्लाघसे त्वं
सदा क्षत्तः कुत्सयन् धार्तराष्ट्रान्।
जानीमहे विदुर यत् प्रियस्त्वं
बालानिवास्मानवमन्यसे नित्यमेव ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुर्योधन बोला— विदुर! तुम सदा हमारे शत्रुओंके ही सुयशकी डींग हाँकते रहते हो और हम सभी धृतराष्ट्रके पुत्रोंकी निन्दा किया करते हो। तुम किसके प्रेमी हो, यह हम जानते हैं, हमें मूर्ख समझकर तुम सदा हमारा अपमान ही करते रहते हो॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स विज्ञेयः पुरुषोऽन्यत्रकामो
निन्दाप्रशंसे हि तथा युनक्ति।
जिह्वा कथं ते हृदयं व्यनक्ति यो
न ज्यायसः कृथा मनसः प्रातिकूल्यम् ॥ २ ॥
मूलम्
स विज्ञेयः पुरुषोऽन्यत्रकामो
निन्दाप्रशंसे हि तथा युनक्ति।
जिह्वा कथं ते हृदयं व्यनक्ति यो
न ज्यायसः कृथा मनसः प्रातिकूल्यम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो दूसरोंको चाहनेवाला है, वह मनुष्य पहचानमें आ जाता है; क्योंकि वह जिसके प्रति द्वेष होता है, उसकी निन्दा और जिसके प्रति राग होता है, उसकी प्रशंसामें संलग्न रहता है। तुम्हारा हृदय हमारे प्रति किस प्रकार द्वेषसे परिपूर्ण है, यह बात तुम्हारी जिह्वा प्रकट कर देती है। तुम अपनेसे श्रेष्ठ पुरुषोंके प्रति इस प्रकार हृदयका द्वेष न प्रकट करो॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्सङ्गे च व्याल इवाहितोऽसि
मार्जारवत् पोषकं चोपहंसि ।
भर्तृघ्नं त्वां न हि पापीय आहु-
स्तस्मात् क्षत्तः किं न बिभेषि पापात् ॥ ३ ॥
मूलम्
उत्सङ्गे च व्याल इवाहितोऽसि
मार्जारवत् पोषकं चोपहंसि ।
भर्तृघ्नं त्वां न हि पापीय आहु-
स्तस्मात् क्षत्तः किं न बिभेषि पापात् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हमारे लिये तुम गोदमें बैठे साँपके समान हो और बिलावकी भाँति पालनेवालेका ही गला घोंट रहे हो। तुम स्वामिद्रोह रखते हो, फिर भी तुम्हें लोग पापी नहीं कहते? विदुर! तुम इस पापसे डरते क्यों नहीं?॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जित्वा शत्रून् फलमाप्तं महद् वै
मास्मान् क्षत्तः परुषाणीह वोचः।
द्विषद्भिस्त्वं सम्प्रयोगाभिनन्दी
मुहुर्द्वेषं यासि नः सम्प्रयोगात् ॥ ४ ॥
मूलम्
जित्वा शत्रून् फलमाप्तं महद् वै
मास्मान् क्षत्तः परुषाणीह वोचः।
द्विषद्भिस्त्वं सम्प्रयोगाभिनन्दी
मुहुर्द्वेषं यासि नः सम्प्रयोगात् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हमने शत्रुओंको जीतकर (धनरूप) महान् फल प्राप्त किया है। विदुर! तुम हमसे यहाँ कटु वचन न बोलो। तुम शत्रुओंके साथ मेल करके प्रसन्न हो रहे हो और हमारे साथ मेल करके भी अब (हमारे शत्रुओंकी प्रशंसा करके) हमलोगोंके बारंबार द्वेषके पात्र बन रहे हो॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अमित्रतां याति नरोऽक्षमं ब्रुवन्
निगूहते गुह्यममित्रसंस्तवे ।
तदाश्रितोऽपत्रप किं नु बाधसे
यदिच्छसि त्वं तदिहाभिभाषसे ॥ ५ ॥
मूलम्
अमित्रतां याति नरोऽक्षमं ब्रुवन्
निगूहते गुह्यममित्रसंस्तवे ।
तदाश्रितोऽपत्रप किं नु बाधसे
यदिच्छसि त्वं तदिहाभिभाषसे ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अक्षम्य कटुवचन बोलनेवाला मनुष्य शत्रु बन जाता है। शत्रुकी प्रशंसा करते समय भी लोग अपने गूढ़ मनोभावको छिपाये रखते हैं। निर्लज्ज विदुर! तुम भी उसी नीतिका आश्रय लेकर चुप क्यों नहीं रहते? हमारे काममें बाधा क्यों डालते हो? तुम जो मनमें आता है, वही बक जाते हो॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मा नोऽवमंस्था विद्म मनस्तवेदं
शिक्षस्व बुद्धिं स्थविराणां सकाशात्।
यशो रक्षस्व विदुर सम्प्रणीतं
मा व्यापृतः परकार्येषु भूस्त्वम् ॥ ६ ॥
मूलम्
मा नोऽवमंस्था विद्म मनस्तवेदं
शिक्षस्व बुद्धिं स्थविराणां सकाशात्।
यशो रक्षस्व विदुर सम्प्रणीतं
मा व्यापृतः परकार्येषु भूस्त्वम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विदुर! तुम हमलोगोंका अपमान न करो, तुम्हारे इस मनको हम जान चुके हैं। तुम बड़े-बूढ़ोंके निकट बैठकर बुद्धि सीखो। अपने पूर्वार्जित यशकी रक्षा करो। दूसरोंके कामोंमें हस्तक्षेप न करो॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं कर्तेति विदुर मा च मंस्था
मा नो नित्यं परुषाणीह वोचः।
न त्वां पृच्छामि विदुर यद्धितं मे
स्वस्ति क्षत्तर्मा तितिक्षून् क्षिणु त्वम् ॥ ७ ॥
मूलम्
अहं कर्तेति विदुर मा च मंस्था
मा नो नित्यं परुषाणीह वोचः।
न त्वां पृच्छामि विदुर यद्धितं मे
स्वस्ति क्षत्तर्मा तितिक्षून् क्षिणु त्वम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विदुर! ‘मैं ही कर्ता-धर्ता हूँ’ ऐसा न समझो और हमें प्रतिदिन कड़वी बातें न कहो। मैं अपने हितके सम्बन्धमें तुमसे कोई सलाह नहीं पूछता हूँ। तुम्हारा भला हो। हम तुम्हारी कठोर बातें सहते चले जाते हैं, इसलिये हम क्षमाशीलोंको तुम अपने वचनरूपी बाणोंसे छेदो मत॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकः शास्ता न द्वितीयोऽस्ति शास्ता
गर्भे शयानं पुरुषं शास्ति शास्ता।
तेनानुशिष्टः प्रवणादिवाम्भो
यथा नियुक्तोऽस्मि तथा भवामि ॥ ८ ॥
मूलम्
एकः शास्ता न द्वितीयोऽस्ति शास्ता
गर्भे शयानं पुरुषं शास्ति शास्ता।
तेनानुशिष्टः प्रवणादिवाम्भो
यथा नियुक्तोऽस्मि तथा भवामि ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देखो, इस जगत्का शासन करनेवाला एक ही है, दूसरा नहीं। वही शासक माताके गर्भमें सोये हुए शिशुपर भी शासन करता है; उसीके द्वारा मैं भी अनुशासित हूँ। अतः जैसे जल स्वाभाविक ही नीचेकी ओर जाता है, वैसे ही वह जगन्नियन्ता मुझे जिस काममें लगाता है, मैं वैसे ही उसी काममें लगता हूँ॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भिनत्ति शिरसा शैलमहिं भोजयते च यः।
धीरेव कुरुते तस्य कार्याणामनुशासनम्।
यो बलादनुशास्तीह सोऽमित्रं तेन विन्दति ॥ ९ ॥
मूलम्
भिनत्ति शिरसा शैलमहिं भोजयते च यः।
धीरेव कुरुते तस्य कार्याणामनुशासनम्।
यो बलादनुशास्तीह सोऽमित्रं तेन विन्दति ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिनसे प्रेरित होकर मनुष्य अपने सिरसे पर्वतको विदीर्ण करना चाहता है—अर्थात् पत्थरपर सिर पटककर स्वयं ही अपनेको पीड़ा देता है तथा जिनकी प्रेरणासे मनुष्य सर्पको भी दूध पिलाकर पालता है, उसी सर्वनियन्ताकी बुद्धि समस्त जगत्के कार्योंका अनुशासन करती है। जो बलपूर्वक किसीपर अपना उपदेश लादता है, वह अपने उस व्यवहारके द्वारा उसे अपना शत्रु बना लेता है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मित्रतामनुवृत्तं तु समुपेक्षेत पण्डितः।
प्रदीप्य यः प्रदीप्ताग्निं प्राक् चिरं नाभिधावति।
भस्मापि न स विन्देत शिष्टं क्वचन भारत ॥ १० ॥
मूलम्
मित्रतामनुवृत्तं तु समुपेक्षेत पण्डितः।
प्रदीप्य यः प्रदीप्ताग्निं प्राक् चिरं नाभिधावति।
भस्मापि न स विन्देत शिष्टं क्वचन भारत ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार मित्रताका अनुसरण करनेवाले मनुष्यको विद्वान् पुरुष त्याग दे। भारत! जो पहले कपूरमें आग लगाकर उसके प्रज्वलित हो जानेपर देरतक उसे बुझानेके लिये नहीं दौड़ता, वह कहीं उसकी बची हुई राख भी नहीं पाता॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न वासयेत् पारवर्ग्यं द्विषन्तं
विशेषतः क्षत्तरहितं मनुष्यम् ।
स यत्रेच्छसि विदुर तत्र गच्छ
सुसान्त्विता ह्यसती स्त्री जहाति ॥ ११ ॥
मूलम्
न वासयेत् पारवर्ग्यं द्विषन्तं
विशेषतः क्षत्तरहितं मनुष्यम् ।
स यत्रेच्छसि विदुर तत्र गच्छ
सुसान्त्विता ह्यसती स्त्री जहाति ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विदुर! जो शत्रुका पक्षपाती हो, अपनेसे द्वेष रखता हो और अहित करनेवाला हो, ऐसे मनुष्यको घरमें नहीं रहने देना चाहिये। अतः तुम्हारी जहाँ इच्छा हो, चले जाओ। कुलटा स्त्रीको मीठी-मीठी बातोंद्वारा कितनी ही सान्त्वना दी जाय, वह पतिको छोड़ ही देती है॥११॥
मूलम् (वचनम्)
विदुर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतावता पुरुषं ये त्यजन्ति
तेषां वृत्तं साक्षिवद् ब्रूहि राजन्।
राज्ञां हि चित्तानि परिप्लुतानि
सान्त्वं दत्त्वा मुसलैर्घातयन्ति ॥ १२ ॥
मूलम्
एतावता पुरुषं ये त्यजन्ति
तेषां वृत्तं साक्षिवद् ब्रूहि राजन्।
राज्ञां हि चित्तानि परिप्लुतानि
सान्त्वं दत्त्वा मुसलैर्घातयन्ति ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विदुरने कहा— राजन्! जो इस प्रकार मनके प्रतिकूल किंतु हितभरी शिक्षा देनेमात्रसे अपने हितैषी पुरुषको त्याग देते हैं, उनका वह बर्ताव कैसा है, यह आप साक्षीकी भाँति पक्षपातरहित होकर बताइये; क्योंकि राजाओंके चित्त द्वेषसे भरे होते हैं, इसलिये वे सामने मीठे वचनोंद्वारा सान्त्वना देकर पीठ-पीछे मूसलोंसे आघात करवाते हैं॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अबालत्वं मन्यसे राजपुत्र
बालोऽहमित्येव सुमन्दबुद्धे ।
यः सौहृदे पुरुषं स्थापयित्वा
पश्चादेनं दूषयते स बालः ॥ १३ ॥
मूलम्
अबालत्वं मन्यसे राजपुत्र
बालोऽहमित्येव सुमन्दबुद्धे ।
यः सौहृदे पुरुषं स्थापयित्वा
पश्चादेनं दूषयते स बालः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजकुमार दुर्योधन! तुम्हारी बुद्धि बड़ी मन्द है। तुम अपनेको विद्वान् और मुझे मूर्ख समझते हो। जो किसी पुरुषको सुहृद्के पदपर स्थापित करके फिर स्वयं ही उसपर दोषारोपण करता है, वही मूर्ख है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न श्रेयसे नीयते मन्दबुद्धिः
स्त्री श्रोत्रियस्येव गृहे प्रदुष्टा।
ध्रुवं न रोचेद् भरतर्षभस्य
पतिः कुमार्या इव षष्टिवर्षः ॥ १४ ॥
मूलम्
न श्रेयसे नीयते मन्दबुद्धिः
स्त्री श्रोत्रियस्येव गृहे प्रदुष्टा।
ध्रुवं न रोचेद् भरतर्षभस्य
पतिः कुमार्या इव षष्टिवर्षः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे श्रोत्रियके घरमें दुराचारिणी स्त्री कल्याणमय अग्निहोत्र आदि कार्योंमें नहीं लगायी जा सकती, उसी प्रकार मन्दबुद्धि पुरुषको कल्याणके मार्गपर नहीं लगाया जा सकता। जैसे कुमारी कन्याको साठ वर्षका बूढ़ा पति नहीं पसंद आ सकता, उसी प्रकार भरतवंशशिरोमणि दुर्योधनको निश्चय ही मेरा उपदेश रुचिकर नहीं प्रतीत होता॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतः प्रियं चेदनुकाङ्क्षसे त्वं
सर्वेषु कार्येषु हिताहितेषु ।
स्त्रियश्च राजन् जडपङ्गुकांश्च
पृच्छ त्वं वै तादृशांश्चैव सर्वान् ॥ १५ ॥
मूलम्
अतः प्रियं चेदनुकाङ्क्षसे त्वं
सर्वेषु कार्येषु हिताहितेषु ।
स्त्रियश्च राजन् जडपङ्गुकांश्च
पृच्छ त्वं वै तादृशांश्चैव सर्वान् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! यदि तुम भले-बुरे सभी कार्योंमें केवल चिकनी-चुपड़ी बातें ही सुनना चाहते हो, तो स्त्रियों, मूर्खों, पंगुओं तथा उसी तरहके अन्य सब मनुष्योंसे सलाह लिया करो॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लभ्यते खलु पापीयान् नरो नु प्रियवागिह।
अप्रियस्य हि पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः ॥ १६ ॥
मूलम्
लभ्यते खलु पापीयान् नरो नु प्रियवागिह।
अप्रियस्य हि पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस संसारमें सदा मनको प्रिय लगनेवाले वचन बोलनेवाला महापापी मनुष्य भी अवश्य मिल सकता है; परंतु हितकर होते हुए भी अप्रिय वचनको कहने और सुननेवाले दोनों दुर्लभ हैं॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्तु धर्मपरश्च स्याद्धित्वा भर्तुः प्रियाप्रिये।
अप्रियाण्याह पथ्यानि तेन राजा सहायवान् ॥ १७ ॥
मूलम्
यस्तु धर्मपरश्च स्याद्धित्वा भर्तुः प्रियाप्रिये।
अप्रियाण्याह पथ्यानि तेन राजा सहायवान् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो धर्ममें तत्पर रहकर स्वामीके प्रिय-अप्रियका विचार छोड़कर अप्रिय होनेपर भी हितकर वचन बोलता है, वही राजाका सच्चा सहायक है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अव्याधिजं कटुजं तीक्ष्णमुष्णं
यशोमुषं परुषं पूतिगन्धि ।
सतां पेयं यन्न पिबन्त्यसन्तो
मन्युं महाराज पिब प्रशाम्य ॥ १८ ॥
मूलम्
अव्याधिजं कटुजं तीक्ष्णमुष्णं
यशोमुषं परुषं पूतिगन्धि ।
सतां पेयं यन्न पिबन्त्यसन्तो
मन्युं महाराज पिब प्रशाम्य ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! जो पी लेनेपर मानसिक रोगोंका नाश करनेवाला है, कड़वी बातोंसे जिसकी उत्पत्ति होती है, जो तीखा, तापदायक, कीर्तिनाशक, कठोर और दूषित प्रतीत होता है, जिसे दुष्टलोग नहीं पी सकते तथा जो सत्पुरुषोंके पीनेकी वस्तु है, उस क्रोधको पीकर शान्त हो जाइये॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वैचित्रवीर्यस्य यशो धनं च
वाञ्छाम्यहं सहपुत्रस्य शश्वत् ।
यथा तथा तेऽस्तु नमश्च तेऽस्तु
ममापि च स्वस्ति दिशन्तु विप्राः ॥ १९ ॥
मूलम्
वैचित्रवीर्यस्य यशो धनं च
वाञ्छाम्यहं सहपुत्रस्य शश्वत् ।
यथा तथा तेऽस्तु नमश्च तेऽस्तु
ममापि च स्वस्ति दिशन्तु विप्राः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं तो चाहता हूँ कि विचित्रवीर्यनन्दन धृतराष्ट्र और उनके पुत्रोंको सदा यश और धन दोनों प्राप्त हो, परंतु दुर्योधन! तुम जैसे रहना चाहते हो, वैसे रहो, तुम्हें नमस्कार है। ब्राह्मणलोग मेरे लिये भी कल्याणका आशीर्वाद दें॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आशीविषान् नेत्रविषान् कोपयेन्न च पण्डितः।
एवं तेऽहं वदामीदं प्रयतः कुरुनन्दन ॥ २० ॥
मूलम्
आशीविषान् नेत्रविषान् कोपयेन्न च पण्डितः।
एवं तेऽहं वदामीदं प्रयतः कुरुनन्दन ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुनन्दन! मैं एकाग्र हृदयसे तुमसे यह बात बता रहा हूँ, ‘विद्वान् पुरुष उन सर्पोंको कुपित न करें, जो दाँतों और नेत्रोंसे भी विष उगलते रहते हैं (अर्थात् ये पाण्डव तुम्हारे लिये सर्पोंसे भी अधिक भयंकर हैं, इन्हें मत छेड़ो)’॥२०॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि द्यूतपर्वणि विदुरहितवाक्ये चतुष्षष्टितमोऽध्यायः ॥ ६४ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्वके अन्तर्गत द्यूतपर्वमें विदुरके हितकारक वचनविषयक चौसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥६४॥