श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
त्रिषष्टितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
विदुरजीके द्वारा जूएका घोर विरोध
मूलम् (वचनम्)
विदुर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्यूतं मूलं कलहस्याभ्युपैति
मिथो भेदं महते दारुणाय।
यदास्थितोऽयं धृतराष्ट्रस्य पुत्रो
दुर्योधनः सृजते वैरमुग्रम् ॥ १ ॥
मूलम्
द्यूतं मूलं कलहस्याभ्युपैति
मिथो भेदं महते दारुणाय।
यदास्थितोऽयं धृतराष्ट्रस्य पुत्रो
दुर्योधनः सृजते वैरमुग्रम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विदुरजी बोले— महाराज! जूआ खेलना झगड़ेकी जड़ है। इससे आपसमें फूट पैदा होती है, जो बड़े भयंकर संकटकी सृष्टि करती है। यह धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधन उसीका आश्रय लेकर इस समय भयानक वैरकी सृष्टि कर रहा है॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रातीपेयाः शान्तनवा भैमसेनाः सबाह्लिकाः।
दुर्योधनापराधेन कृच्छ्रं प्राप्स्यन्ति सर्वशः ॥ २ ॥
मूलम्
प्रातीपेयाः शान्तनवा भैमसेनाः सबाह्लिकाः।
दुर्योधनापराधेन कृच्छ्रं प्राप्स्यन्ति सर्वशः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुर्योधनके अपराधसे प्रतीप, शन्तनु, भीमसेन1 तथा बाह्लीकके वंशज सब प्रकारसे घोर संकटमें पड़ जायँगे॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुर्योधनो मदेनैष क्षेमं राष्ट्रादपोहति।
विषाणं गौरिव मदात् स्वयमारुजतेऽऽत्मनः ॥ ३ ॥
मूलम्
दुर्योधनो मदेनैष क्षेमं राष्ट्रादपोहति।
विषाणं गौरिव मदात् स्वयमारुजतेऽऽत्मनः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे मतवाला बैल मदोन्मत्त होकर स्वयं ही अपने सींगोंको तोड़ लेता है, उसी प्रकार यह दुर्योधन मदान्धताके कारण स्वयं अपने राज्यसे मंगलका बहिष्कार कर रहा है॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यश्चित्तमन्वेति परस्य राजन्
वीरः कविः स्वामवमन्य दृष्टिम्।
नावं समुद्रे इव बालनेत्रा-
मारुह्य घोरे व्यसने निमज्जेत् ॥ ४ ॥
मूलम्
यश्चित्तमन्वेति परस्य राजन्
वीरः कविः स्वामवमन्य दृष्टिम्।
नावं समुद्रे इव बालनेत्रा-
मारुह्य घोरे व्यसने निमज्जेत् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! जो वीर और विद्वान् मनुष्य अपनी दृष्टिकी अवहेलना करके दूसरेके चित्तके अनुसार चलता है, वह समुद्रमें मूर्ख नाविकद्वारा चलायी जाती हुई नावपर बैठे हुए मनुष्यके समान भयंकर विपत्तिमें पड़ जाता है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुर्योधनो ग्लहते पाण्डवेन
प्रियायसे त्वं जयतीति तच्च।
अतिनर्मा जायते सम्प्रहारो
यतो विनाशः समुपैति पुंसाम् ॥ ५ ॥
मूलम्
दुर्योधनो ग्लहते पाण्डवेन
प्रियायसे त्वं जयतीति तच्च।
अतिनर्मा जायते सम्प्रहारो
यतो विनाशः समुपैति पुंसाम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुर्योधन पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरके साथ दाँव लगाकर जूआ खेल रहा है, साथ ही वह जीत भी रहा है; यह सोचकर तुम बहुत प्रसन्न हो रहे हो; किंतु आजका यह अतिशय विनोद शीघ्र ही भयंकर युद्धके रूपमें परिणत होनेवाला है, जिससे (अगणित) मनुष्योंका संहार होगा॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आकर्षस्तेऽवाक्फलः सुप्रणीतो
हृदि प्रौढो मन्त्रपदः समाधिः।
युधिष्ठिरेण कलहस्तवाय-
मचिन्तितोऽनभिमतः स्वबन्धुना ॥ ६ ॥
मूलम्
आकर्षस्तेऽवाक्फलः सुप्रणीतो
हृदि प्रौढो मन्त्रपदः समाधिः।
युधिष्ठिरेण कलहस्तवाय-
मचिन्तितोऽनभिमतः स्वबन्धुना ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जूआ अधःपतन करनेवाला है; परंतु शकुनिने इसे उत्तम मानकर यहाँ उपस्थित किया है। यह जूएका निश्चय आपलोगोंके हृदयमें गुप्त मन्त्रणाके पश्चात् स्थिर हुआ है। परंतु यह जूएका खेल आपके अपने ही बन्धु युधिष्ठिरके साथ आपके विचार और इच्छाके विरुद्ध कलहके रूपमें परिणत हो जायगा॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रातीपेयाः शान्तनवाः शृणुध्वं
काव्यां वाचं संसदि कौरवाणाम्।
वैश्वानरं प्रज्वलितं सुघोरं
मा यास्यध्वं मन्दमनुप्रपन्नाः ॥ ७ ॥
मूलम्
प्रातीपेयाः शान्तनवाः शृणुध्वं
काव्यां वाचं संसदि कौरवाणाम्।
वैश्वानरं प्रज्वलितं सुघोरं
मा यास्यध्वं मन्दमनुप्रपन्नाः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रतीप और शन्तनुके वंशजो! कौरवोंकी सभामें मेरी कही हुई बात ध्यानसे सुनो। यह विद्वानोंको भी मान्य है। तुमलोग इस मूर्ख दुर्योधनके पीछे चलकर वैरकी धधकती हुई भयानक आगमें न कूदो॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा मन्युं पाण्डवोऽजातशत्रु-
र्न संयच्छेदक्षमदाभिभूतः ।
वृकोदरः सव्यसाची यमौ च
कोऽत्र द्वीपः स्यात् तुमुले वस्तदानीम् ॥ ८ ॥
मूलम्
यदा मन्युं पाण्डवोऽजातशत्रु-
र्न संयच्छेदक्षमदाभिभूतः ।
वृकोदरः सव्यसाची यमौ च
कोऽत्र द्वीपः स्यात् तुमुले वस्तदानीम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जूएके मदमें भूले हुए अजातशत्रु युधिष्ठिर जब अपना क्रोध न रोक सकेंगे तथा भीमसेन, अर्जुन एवं नकुल-सहदेव भी जब क्रुद्ध हो उठेंगे, उस समय घमासान युद्ध छिड़ जानेपर विपत्तिके महासागरमें डूबते हुए तुमलोगोंका कौन आश्रयदाता होगा?॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महाराज प्रभवस्त्वं धनानां
पुरा द्यूतान्मनसा यावदिच्छेः ।
बहुवित्तान् पाण्डवांश्चेज्जयस्त्वं
किं ते तत् स्याद् वसु विन्देह पार्थान् ॥ ९ ॥
मूलम्
महाराज प्रभवस्त्वं धनानां
पुरा द्यूतान्मनसा यावदिच्छेः ।
बहुवित्तान् पाण्डवांश्चेज्जयस्त्वं
किं ते तत् स्याद् वसु विन्देह पार्थान् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! आप जूएसे पहले भी मनसे जितना धन चाहते, उतना धन पा सकते थे; यदि अत्यन्त धनवान् पाण्डवोंको आपने जूएके द्वारा जीत ही लिया तो इससे आपका क्या होगा? कुन्तीके पुत्र स्वयं ही धनस्वरूप हैं। आप इन्हींको अपनाइये॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जानीमहे देवितं सौबलस्य
वेद द्यूते निकृतिं पर्वतीयः।
यतः प्राप्तः शकुनिस्तत्र यातु
मा यूयुधो भारत पाण्डवेयान् ॥ १० ॥
मूलम्
जानीमहे देवितं सौबलस्य
वेद द्यूते निकृतिं पर्वतीयः।
यतः प्राप्तः शकुनिस्तत्र यातु
मा यूयुधो भारत पाण्डवेयान् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं सुबलपुत्र शकुनिका जूआ खेलना कैसा है, यह जानता हूँ। यह पर्वतीय नरेश जूएकी सारी कपटविद्याको जानता है। मेरी इच्छा है कि यह शकुनि जहाँसे आया है, वहीं लौट जाय। भारत! इस तरह कौरवों तथा पाण्डवोंमें युद्धकी आग न भड़काओ॥१०॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि द्यूतपर्वणि विदुरवाक्ये त्रिषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६३ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्वके अन्तर्गत द्यूतपर्वमें विदुरवाक्यविषयक तिरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥६३॥
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कुरुकुलके एक पूर्वपुरुष। ↩︎