श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
द्विषष्टितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
धृतराष्ट्रको विदुरकी चेतावनी
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं प्रवर्तिते द्यूते घोरे सर्वापहारिणि।
सर्वसंशयनिर्मोक्ता विदुरो वाक्यमब्रवीत् ॥ १ ॥
मूलम्
एवं प्रवर्तिते द्यूते घोरे सर्वापहारिणि।
सर्वसंशयनिर्मोक्ता विदुरो वाक्यमब्रवीत् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! इस प्रकार जब सर्वस्वका अपहरण करनेवाली वह भयानक द्यूतक्रीड़ा चल रही थी, उसी समय समस्त संशयोंका निवारण करनेवाले विदुरजी बोल उठे॥१॥
मूलम् (वचनम्)
विदुर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
महाराज विजानीहि यत् त्वां वक्ष्यामि भारत।
मुमूर्षोरौषधमिव न रोचेतापि ते श्रुतम् ॥ २ ॥
मूलम्
महाराज विजानीहि यत् त्वां वक्ष्यामि भारत।
मुमूर्षोरौषधमिव न रोचेतापि ते श्रुतम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विदुरजीने कहा— भरतकुलतिलक महाराज धृतराष्ट्र! मरणासन्न रोगीको जैसे ओषधि अच्छी नहीं लगती, उसी प्रकार आपलोगोंको मेरी शास्त्रसम्मत बात भी अच्छी नहीं लगेगी। फिर भी मैं आपसे जो कुछ कह रहा हूँ, उसे अच्छी तरह सुनिये और समझिये॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद् वै पुरा जातमात्रो रुराव
गोमायुवद् विस्वरं पापचेताः ।
दुर्योधनो भरतानां कुलघ्नः
सोऽयं युक्तो भवतां कालहेतुः ॥ ३ ॥
मूलम्
यद् वै पुरा जातमात्रो रुराव
गोमायुवद् विस्वरं पापचेताः ।
दुर्योधनो भरतानां कुलघ्नः
सोऽयं युक्तो भवतां कालहेतुः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह भरतवंशका विनाश करनेवाला पापी दुर्योधन पहले जब गर्भसे बाहर निकला था, गीदड़के समान जोर-जोरसे चिल्लाने लगा था; अतः यह निश्चय ही आप सब लोगोंके विनाशका कारण बनेगा॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गृहे वसन्तं गोमायुं त्वं वै मोहान्न बुध्यसे।
दुर्योधनस्य रूपेण शृणु काव्यां गिरं मम ॥ ४ ॥
मूलम्
गृहे वसन्तं गोमायुं त्वं वै मोहान्न बुध्यसे।
दुर्योधनस्य रूपेण शृणु काव्यां गिरं मम ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! दुर्योधनके रूपमें आपके घरके भीतर एक गीदड़ निवास कर रहा है; परंतु आप मोहवश इस बातको समझ नहीं पाते। सुनिये, मैं आपको शुक्राचार्यकी कही हुई नीतिकी बात बतलाता हूँ॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मधु वै माध्विको लब्ध्वा प्रपातं नैव बुध्यते।
आरुह्य तं मज्जति वा पतनं चाधिगच्छति ॥ ५ ॥
मूलम्
मधु वै माध्विको लब्ध्वा प्रपातं नैव बुध्यते।
आरुह्य तं मज्जति वा पतनं चाधिगच्छति ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मधु बेचनेवाला मनुष्य जब कहीं ऊँचे वृक्ष आदिपर मधुका छत्ता देख लेता है, तब वहाँसे गिरनेकी सम्भावनाकी ओर ध्यान नहीं देता। वह ऊँचे स्थानपर चढ़कर या तो मधु पाकर मग्न हो जाता है अथवा उस स्थानसे नीचे गिर जाता है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽयं मत्तोऽक्षद्यूतेन मधुवन्न परीक्षते।
प्रपातं बुध्यते नैव वैरं कृत्वा महारथैः ॥ ६ ॥
मूलम्
सोऽयं मत्तोऽक्षद्यूतेन मधुवन्न परीक्षते।
प्रपातं बुध्यते नैव वैरं कृत्वा महारथैः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैसे ही यह दुर्योधन जूएके नशेमें इतना उन्मत्त हो गया है कि मधुमत्त पुरुषकी भाँति अपने ऊपर आनेवाले संकटको नहीं देखता। महारथी पाण्डवोंके साथ वैर करके हमें पतनके गर्तमें गिरकर मरना पड़ेगा, इस बातको समझ नहीं पा रहा है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विदितं मे महाप्राज्ञ भोजेष्वेवासमञ्जसम्।
पुत्रं संत्यक्तवान् पूर्वं पौराणां हितकाम्यया ॥ ७ ॥
मूलम्
विदितं मे महाप्राज्ञ भोजेष्वेवासमञ्जसम्।
पुत्रं संत्यक्तवान् पूर्वं पौराणां हितकाम्यया ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाप्राज्ञ! मुझे मालूम है कि भोजवंशके एक नरेशने पूर्वकालमें पुरवासियोंके हितकी इच्छासे अपने कुमार्गगामी पुत्रका परित्याग कर दिया था॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्धका यादवा भोजाः समेताः कंसमत्यजन्।
नियोगात् तु हते तस्मिन् कृष्णेनामित्रघातिना ॥ ८ ॥
मूलम्
अन्धका यादवा भोजाः समेताः कंसमत्यजन्।
नियोगात् तु हते तस्मिन् कृष्णेनामित्रघातिना ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अन्धकों, यादवों और भोजोंने मिलकर कंसको त्याग दिया तथा उन्हींके आदेशसे शत्रुघाती श्रीकृष्णने उसको मार डाला॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं ते ज्ञातयः सर्वे मोदमानाः शतं समाः।
त्वन्नियुक्तः सव्यसाची निगृह्णातु सुयोधनम् ॥ ९ ॥
मूलम्
एवं ते ज्ञातयः सर्वे मोदमानाः शतं समाः।
त्वन्नियुक्तः सव्यसाची निगृह्णातु सुयोधनम् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार उसके मारे जानेसे समस्त बन्धु-बान्धव सदाके लिये सुखी हो गये हैं। आप भी आज्ञा दें तो ये सव्यसाची अर्जुन इस दुर्योधनको बंदी बना ले सकते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निग्रहादस्य पापस्य मोदन्तां कुरवः सुखम्।
काकेनेमांश्चित्रबर्हान् शार्दूलान् क्रोष्टुकेन च।
क्रीणीष्व पाण्डवान् राजन् मा मज्जीः शोकसागरे ॥ १० ॥
मूलम्
निग्रहादस्य पापस्य मोदन्तां कुरवः सुखम्।
काकेनेमांश्चित्रबर्हान् शार्दूलान् क्रोष्टुकेन च।
क्रीणीष्व पाण्डवान् राजन् मा मज्जीः शोकसागरे ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी पापीके कैद हो जानेसे समस्त कौरव सुख और आनन्दसे रह सकते हैं। राजन्! दुर्योधन कौवा है और पाण्डव मोर। इस कौवेको देकर आप विचित्र पंखवाले मयूरोंको खरीद लीजिये। इस गीदड़के द्वारा इन पाण्डवरूपी शेरोंको अपनाइये। शोकके समुद्रमें डूबकर प्राण न दीजिये॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्यजेत् कुलार्थे पुरुषं ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत्।
ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत् ॥ ११ ॥
मूलम्
त्यजेत् कुलार्थे पुरुषं ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत्।
ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
समूचे कुलकी भलाईके लिये एक मनुष्यको त्याग दे, गाँवके हितके लिये एक कुलको छोड़ दे, देशकी भलाईके लिये एक गाँवको त्याग दे और आत्माके उद्धारके लिये सारी पृथ्वीका ही परित्याग कर दे॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वज्ञः सर्वभावज्ञः सर्वशत्रुभयंकरः ।
इति स्म भाषते काव्यो जम्भत्यागे महासुरान् ॥ १२ ॥
मूलम्
सर्वज्ञः सर्वभावज्ञः सर्वशत्रुभयंकरः ।
इति स्म भाषते काव्यो जम्भत्यागे महासुरान् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सबके मनोभावोंको जाननेवाले तथा सब शत्रुओंके लिये भयंकर सर्वज्ञ शुक्राचार्यने जम्भ दैत्यको त्याग करनेके समय समस्त बड़े-बड़े असुरोंसे यह कथा सुनायी थी॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हिरण्यष्ठीविनः कांश्चित् पक्षिणो वनगोचरान्।
गृहे किल कृतावासान् लोभाद् राजा न्यपीडयत्।
स चोपभोगलोभान्धो हिरण्यार्थी परंतप ॥ १३ ॥
मूलम्
हिरण्यष्ठीविनः कांश्चित् पक्षिणो वनगोचरान्।
गृहे किल कृतावासान् लोभाद् राजा न्यपीडयत्।
स चोपभोगलोभान्धो हिरण्यार्थी परंतप ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक वनमें कुछ पक्षी रहते थे, जो अपने मुखसे सोना उगला करते थे। एक दिन जब वे अपने घोंसलोंमें आरामसे बैठे थे, उस देशके राजाने उन्हें लोभवश मरवा डाला। शत्रुओंको संताप देनवाले नरेश! उस राजाको एक साथ बहुत-सा सुवर्ण पा लेनेकी इच्छा थी। उपभोगके लोभने उसे अंधा बना दिया था॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आयतिं च तदात्वं च उभे सद्यो व्यनाशयत्।
तदर्थकामस्तद्वत् त्वं मा द्रुहः पाण्डवान् नृप ॥ १४ ॥
मूलम्
आयतिं च तदात्वं च उभे सद्यो व्यनाशयत्।
तदर्थकामस्तद्वत् त्वं मा द्रुहः पाण्डवान् नृप ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः उसने उस धनके लोभसे उन पक्षियोंका वध करके वर्तमान और भविष्य दोनों लाभोंका तत्काल नाश कर दिया। राजन्! इसी प्रकार आप पाण्डवोंका सारा धन हड़प लेनेके लोभसे उनके साथ द्रोह न करें॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मोहात्मा तप्स्यसे पश्चात् पत्रिहा पुरुषो यथा।
(एतेन तव नाशः स्याद् बडिशाच्छफरो यथा।)
जातं जातं पाण्डवेभ्यः पुष्पमादत्स्व भारत ॥ १५ ॥
मालाकार इवारामे स्नेहं कुर्वन् पुनः पुनः।
मूलम्
मोहात्मा तप्स्यसे पश्चात् पत्रिहा पुरुषो यथा।
(एतेन तव नाशः स्याद् बडिशाच्छफरो यथा।)
जातं जातं पाण्डवेभ्यः पुष्पमादत्स्व भारत ॥ १५ ॥
मालाकार इवारामे स्नेहं कुर्वन् पुनः पुनः।
अनुवाद (हिन्दी)
अन्यथा उन पक्षियोंकी हिंसा करनेवाले राजाकी भाँति आपको भी मोहवश पश्चात्ताप करना पड़ेगा। इस द्रोहसे आपका उसी तरह सर्वनाश हो जायगा, जैसे बंसीका काँटा निगल लेनेसे मछलीका नाश हो जाता है। भरतकुलभूषण! जैसे माली उद्यानके वृक्षोंको बार-बार सींचता रहता है और समय-समयपर उनसे खिले पुष्पोंको चुनता भी रहता है, उसी प्रकार आप पाण्डवरूपी वृक्षोंको स्नेहजलसे सींचते हुए उनसे उत्पन्न होनेवाले धनरूपी पुष्पोंको लेते रहिये॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वृक्षानङ्गारकारीव मैनान् धाक्षीः समूलकान्।
मा गमः ससुतामात्यः सबलश्च यमक्षयम् ॥ १६ ॥
मूलम्
वृक्षानङ्गारकारीव मैनान् धाक्षीः समूलकान्।
मा गमः ससुतामात्यः सबलश्च यमक्षयम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे कोयला बनानेवाला वृक्षोंको जलाकर भस्म कर देता है, उसी प्रकार आप इन्हें जड़मूलसहित जलानेकी चेष्टा न कीजिये। कहीं ऐसा न हो कि पाण्डवोंके साथ विरोध करनेके कारण आपको पुत्र, मन्त्री और सेनाके साथ यमलोकमें जाना पड़े॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समवेतान् हि कः पार्थान् प्रतियुध्येत भारत।
मरुद्भिः सहितो राजन्नपि साक्षान्मरुत्पतिः ॥ १७ ॥
मूलम्
समवेतान् हि कः पार्थान् प्रतियुध्येत भारत।
मरुद्भिः सहितो राजन्नपि साक्षान्मरुत्पतिः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतवंशीय राजन्! देवताओंसहित साक्षात् देवराज इन्द्र ही क्यों न हों, जब कुन्तीपुत्र संगठित होकर युद्धके लिये तैयार होंगे, उनका मुकाबला कौन कर सकता है?॥१७॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि द्यूतपर्वणि विदुरहितवाक्ये द्विषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६२ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्वके अन्तर्गत द्यूतपर्वमें विदुरके हितकारक वचनसम्बन्धी बासठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥६२॥
Misc Detail
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका श्लोक मिलाकर कुल १७ श्लोक हैं)