०६० द्यूतारम्भः

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

षष्टितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

द्यूतक्रीड़ाका आरम्भ

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपोह्यमाने द्यूते तु राजानः सर्व एव ते।
धृतराष्ट्रं पुरस्कृत्य विविशुस्तां सभां ततः ॥ १ ॥

मूलम्

उपोह्यमाने द्यूते तु राजानः सर्व एव ते।
धृतराष्ट्रं पुरस्कृत्य विविशुस्तां सभां ततः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! जब जूएका खेल आरम्भ होने लगा, उस समय सब राजालोग धृतराष्ट्रको आगे करके उस सभामें आये॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीष्मो द्रोणः कृपश्चैव विदुरश्च महामतिः।
नातिप्रीतेन मनसा तेऽन्ववर्तन्त भारत ॥ २ ॥

मूलम्

भीष्मो द्रोणः कृपश्चैव विदुरश्च महामतिः।
नातिप्रीतेन मनसा तेऽन्ववर्तन्त भारत ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! भीष्म, द्रोण, कृप और परम बुद्धिमान् विदुर—ये सब लोग असंतुष्ट चित्तसे ही धृतराष्ट्रके पीछे-पीछे वहाँ आये॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते द्वन्द्वशः पृथक् चैव सिंहग्रीवा महौजसः।
सिंहासनानि भूरीणि विचित्राणि च भेजिरे ॥ ३ ॥

मूलम्

ते द्वन्द्वशः पृथक् चैव सिंहग्रीवा महौजसः।
सिंहासनानि भूरीणि विचित्राणि च भेजिरे ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सिंहके समान ग्रीवावाले वे महातेजस्वी राजालोग कहीं एक-एक आसनपर दो-दो तथा कहीं पृथक्-पृथक् एक-एक आसनपर एक ही व्यक्ति बैठे। इस प्रकार उन्होंने वहाँ रखे हुए बहुसंख्यक विचित्र सिंहासनोंको ग्रहण किया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शुशुभे सा सभा राजन् राजभिस्तैः समागतैः।
देवैरिव महाभागैः समवेतैस्त्रिविष्टपम् ॥ ४ ॥

मूलम्

शुशुभे सा सभा राजन् राजभिस्तैः समागतैः।
देवैरिव महाभागैः समवेतैस्त्रिविष्टपम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! जैसे महाभाग देवताओंके एकत्र होनेसे स्वर्गलोक सुशोभित होता है, उसी प्रकार उन आगन्तुक नरेशोंसे उस सभाकी बड़ी शोभा हो रही थी॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वे वेदविदः शूराः सर्वे भास्वरमूर्तयः।
प्रावर्तत महाराज सुहृद् द्यूतमनन्तरम् ॥ ५ ॥

मूलम्

सर्वे वेदविदः शूराः सर्वे भास्वरमूर्तयः।
प्रावर्तत महाराज सुहृद् द्यूतमनन्तरम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! वे सब-के-सब वेदवेत्ता एवं शूरवीर थे तथा उनके शरीर तेजोयुक्त थे। उनके बैठ जानेके अनन्तर वहाँ सुहृदोंकी द्यूतक्रीड़ा आरम्भ हुई॥५॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयं बहुधनो राजन् सागरावर्तसम्भवः।
मणिर्हारोत्तरः श्रीमान् कनकोत्तमभूषणः ॥ ६ ॥

मूलम्

अयं बहुधनो राजन् सागरावर्तसम्भवः।
मणिर्हारोत्तरः श्रीमान् कनकोत्तमभूषणः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने कहा— राजन्! यह समुद्रके आवर्तमें उत्पन्न हुआ कान्तिमान् मणिरत्न बहुत बड़े मूल्यका है। मेरे हारोंमें यह सर्वोत्तम है तथा इसपर उत्तम सुवर्ण जड़ा गया है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतद् राजन् मम धनं प्रतिपाणोऽस्ति कस्तव।
येन मां त्वं महाराज धनेन प्रतिदीव्यसे ॥ ७ ॥

मूलम्

एतद् राजन् मम धनं प्रतिपाणोऽस्ति कस्तव।
येन मां त्वं महाराज धनेन प्रतिदीव्यसे ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! मेरी ओरसे यही धन दाँवपर रखा गया है। इसके बदलेमें तुम्हारी ओरसे कौन-सा धन दाँवपर रखा जाता है, जिस धनके द्वारा तुम मेरे साथ खेलना चाहते हो॥

मूलम् (वचनम्)

दुर्योधन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सन्ति मे मणयश्चैव धनानि सुबहूनि च।
मत्सरश्च न मेऽर्थेषु जयस्वैनं दुरोदरम् ॥ ८ ॥

मूलम्

सन्ति मे मणयश्चैव धनानि सुबहूनि च।
मत्सरश्च न मेऽर्थेषु जयस्वैनं दुरोदरम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्योधन बोला— मेरे पास भी मणियाँ और बहुत-सा धन है, मुझे अपने धनपर अहंकार नहीं है। आप इस जूएको जीतिये॥८॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो जग्राह शकुनिस्तानक्षानक्षतत्त्ववित् ।
जितमित्येव शकुनिर्युधिष्ठिरमभाषत ॥ ९ ॥

मूलम्

ततो जग्राह शकुनिस्तानक्षानक्षतत्त्ववित् ।
जितमित्येव शकुनिर्युधिष्ठिरमभाषत ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तदनन्तर पासे फेंकनेकी कलामें अत्यन्त निपुण शकुनिने उन पासोंको हाथमें लिया और उन्हें फेंककर युधिष्ठिरसे कहा—‘लो, यह दाँव मैंने जीता’॥९॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि द्यूतपर्वणि द्यूतारम्भे षष्टितमोऽध्यायः ॥ ६० ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्वके अन्तर्गत द्यूतपर्वमें द्यूतारम्भविषयक साठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥६०॥