श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
एकोनषष्टितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
जूएके अनौचित्यके सम्बन्धमें युधिष्ठिर और शकुनिका संवाद
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रविश्य तां सभां पार्था युधिष्ठिरपुरोगमाः।
समेत्य पार्थिवान् सर्वान् पूजार्हानभिपूज्य च ॥ १ ॥
यथावयः समेयाना उपविष्टा यथार्हतः।
आसनेषु विचित्रेषु स्पर्ध्यास्तरणवत्सु च ॥ २ ॥
मूलम्
प्रविश्य तां सभां पार्था युधिष्ठिरपुरोगमाः।
समेत्य पार्थिवान् सर्वान् पूजार्हानभिपूज्य च ॥ १ ॥
यथावयः समेयाना उपविष्टा यथार्हतः।
आसनेषु विचित्रेषु स्पर्ध्यास्तरणवत्सु च ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! युधिष्ठिर आदि कुन्तीकुमार उस सभामें पहुँचकर सब राजाओंसे मिले। अवस्थाक्रमके अनुसार समस्त पूजनीय राजाओंका बारी-बारीसे सम्मान करके सबसे मिलने-जुलनेके पश्चात् वे यथायोग्य सुन्दर रमणीय गलीचोंसे युक्त विचित्र आसनोंपर बैठे॥१-२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषु तत्रोपविष्टेषु सर्वेष्वथ नृपेषु च।
शकुनिः सौबलस्तत्र युधिष्ठिरमभाषत ॥ ३ ॥
मूलम्
तेषु तत्रोपविष्टेषु सर्वेष्वथ नृपेषु च।
शकुनिः सौबलस्तत्र युधिष्ठिरमभाषत ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके एवं सब नरेशोंके बैठ जानेपर वहाँ सुबलकुमार शकुनिने युधिष्ठिरसे कहा॥३॥
मूलम् (वचनम्)
शकुनिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपस्तीर्णा सभा राजन् सर्वे त्वयि कृतक्षणाः।
अक्षानुप्त्वा देवनस्य समयोऽस्तु युधिष्ठिर ॥ ४ ॥
मूलम्
उपस्तीर्णा सभा राजन् सर्वे त्वयि कृतक्षणाः।
अक्षानुप्त्वा देवनस्य समयोऽस्तु युधिष्ठिर ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शकुनि बोला— महाराज युधिष्ठिर! सभामें पासे फेंकनेवाला वस्त्र बिछा दिया गया है, सब आपकी ही प्रतीक्षा कर रहे हैं। अब पासे फेंककर जूआ खेलनेका अवसर मिलना चाहिये॥४॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
निकृतिर्देवनं पापं न क्षात्रोऽत्र पराक्रमः।
न च नीतिर्ध्रुवा राजन् किं त्वं द्यूतं प्रशंससि॥५॥
मूलम्
निकृतिर्देवनं पापं न क्षात्रोऽत्र पराक्रमः।
न च नीतिर्ध्रुवा राजन् किं त्वं द्यूतं प्रशंससि॥५॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने कहा— राजन्! जूआ तो एक प्रकारका छल है तथा पापका कारण है! इसमें न तो क्षत्रियोचित पराक्रम दिखाया जा सकता है और न इसकी कोई निश्चित नीति ही है। फिर तुम द्यूतकी प्रशंसा क्यों करते हो?॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हि मानं प्रशंसन्ति निकृतौ कितवस्य हि।
शकुने मैव नो जैषीरमार्गेण नृशंसवत् ॥ ६ ॥
मूलम्
न हि मानं प्रशंसन्ति निकृतौ कितवस्य हि।
शकुने मैव नो जैषीरमार्गेण नृशंसवत् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शकुने! जुआरियोंका छल-कपटमें ही सम्मान होता है; सज्जन पुरुष वैसे सम्मानकी प्रशंसा नहीं करते। अतः तुम क्रूर मनुष्यकी भाँति अनुचित मार्गसे हमें जीतनेकी चेष्टा न करो॥६॥
मूलम् (वचनम्)
शकुनिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यो वेत्ति संख्यां निकृतौ विधिज्ञ-
श्चेष्टास्वखिन्नः कितवोऽक्षजासु ।
महामतिर्यश्च जानाति द्यूतं
स वै सर्वं सहते प्रक्रियासु ॥ ७ ॥
मूलम्
यो वेत्ति संख्यां निकृतौ विधिज्ञ-
श्चेष्टास्वखिन्नः कितवोऽक्षजासु ।
महामतिर्यश्च जानाति द्यूतं
स वै सर्वं सहते प्रक्रियासु ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शकुनि बोला— जिस अंकपर पासा पड़ता है, उसे जो पहले ही समझ लेता है, जो शठताका प्रतीकार करना जानता है एवं पासे फेंकने आदि समस्त व्यापारोंमें उत्साहपूर्वक लगा रहता है तथा जो परम बुद्धिमान् पुरुष द्यूतक्रीड़ाविषयक सब बातोंकी जानकारी रखता है, वही जूएका असली खिलाड़ी है; वह द्यूतक्रीड़ामें दूसरोंकी सारी शठतापूर्ण चेष्टाओंको सह लेता है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अक्षग्लहः सोऽभिभवेत् परं न-
स्तेनैव दोषो भवतीह पार्थ।
दीव्यामहे पार्थिव मा विशङ्कां
कुरुष्य पाणं च चिरं च मा कृथाः ॥ ८ ॥
मूलम्
अक्षग्लहः सोऽभिभवेत् परं न-
स्तेनैव दोषो भवतीह पार्थ।
दीव्यामहे पार्थिव मा विशङ्कां
कुरुष्य पाणं च चिरं च मा कृथाः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीनन्दन! यदि पासा विपरीत पड़ जाय तो हम खिलाड़ियोंमेंसे एक पक्षको पराजित कर सकता है; अतः जय-पराजय दैवाधीन पासोंके ही आश्रित है। उसीसे पराजयरूप दोषकी प्राप्ति होती है। हारनेकी शंका तो हमें भी है, फिर भी हम खेलते हैं। अतः भूमिपाल! आप शंका न कीजिये, दाँव लगाइये, अब विलम्ब न कीजिये॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमाहायमसितो देवलो मुनिसत्तमः ।
इमानि लोकद्वाराणि यो वै भ्राम्यति सर्वदा ॥ ९ ॥
इदं वै देवनं पापं निकृत्या कितवैः सह।
धर्मेण तु जयो युद्धे तत्परं न तु देवनम्॥१०॥
मूलम्
एवमाहायमसितो देवलो मुनिसत्तमः ।
इमानि लोकद्वाराणि यो वै भ्राम्यति सर्वदा ॥ ९ ॥
इदं वै देवनं पापं निकृत्या कितवैः सह।
धर्मेण तु जयो युद्धे तत्परं न तु देवनम्॥१०॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने कहा— मुनिश्रेष्ठ असित-देवलने, जो सदा इन लोकद्वारोंमें भ्रमण करते रहते हैं, ऐसा कहा है कि जुआरियोंके साथ शठतापूर्वक जो जूआ खेला जाता है, पाप है। धर्मानुकूल विजय तो युद्धमें ही प्राप्त होती है; अतः क्षत्रियोंके लिये युद्ध ही उत्तम है, जूआ खेलना नहीं॥९-१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नार्या म्लेच्छन्ति भाषाभिर्मायया न चरन्त्युत।
अजिह्ममशठं युद्धमेतत् सत्पुरुषव्रतम् ॥ ११ ॥
मूलम्
नार्या म्लेच्छन्ति भाषाभिर्मायया न चरन्त्युत।
अजिह्ममशठं युद्धमेतत् सत्पुरुषव्रतम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रेष्ठ पुरुष वाणीद्वारा किसीके प्रति अनुचित शब्द नहीं निकालते तथा कपटपूर्ण बर्ताव नहीं करते। कुटिलता और शठतासे रहित युद्ध ही सत्पुरुषोंका व्रत है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शक्तितो ब्राह्मणान् नूनं रक्षितुं प्रयतामहे।
तद् वै वित्तं मातिदेवीर्मा जैषीः शकुने परान् ॥ १२ ॥
मूलम्
शक्तितो ब्राह्मणान् नूनं रक्षितुं प्रयतामहे।
तद् वै वित्तं मातिदेवीर्मा जैषीः शकुने परान् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शकुने! हमलोग जिस धनसे अपनी शक्तिके अनुसार ब्राह्मणोंकी रक्षा करनेका ही प्रयत्न करते हैं, उसको तुम जूआ खेलकर हमलोगोंसे हड़पनेकी चेष्टा न करो॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निकृत्या कामये नाहं सुखान्युत धनानि वा।
कितवस्येह कृतिनो वृत्तमेतन्न पूज्यते ॥ १३ ॥
मूलम्
निकृत्या कामये नाहं सुखान्युत धनानि वा।
कितवस्येह कृतिनो वृत्तमेतन्न पूज्यते ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं धूर्ततापूर्ण बर्तावके द्वारा सुख अथवा धन पानेकी इच्छा नहीं करता; क्योंकि जुआरीके कार्यको विद्वान् पुरुष अच्छा नहीं समझते॥१३॥
मूलम् (वचनम्)
शकुनिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रोत्रियः श्रोत्रियानेति निकृत्यैव युधिष्ठिर।
विद्वानविदुषोऽभ्येति नाहुस्तां निकृतिं जनाः ॥ १४ ॥
मूलम्
श्रोत्रियः श्रोत्रियानेति निकृत्यैव युधिष्ठिर।
विद्वानविदुषोऽभ्येति नाहुस्तां निकृतिं जनाः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शकुनि बोला— युधिष्ठिर! श्रोत्रिय विद्वान् दूसरे श्रोत्रिय विद्वानोंके पास जब उन्हें जीतनेके लिये जाता है, तब शठतासे ही काम लेता है। विद्वान् अविद्वानोंको शठतासे ही पराजित करता है; परंतु इसे जनसाधारण शठता नहीं कहते॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अक्षैर्हि शिक्षितोऽभ्येति निकृत्यैव युधिष्ठिर।
विद्वानविदुषोऽभ्येति नाहुस्तां निकृतिं जनाः ॥ १५ ॥
मूलम्
अक्षैर्हि शिक्षितोऽभ्येति निकृत्यैव युधिष्ठिर।
विद्वानविदुषोऽभ्येति नाहुस्तां निकृतिं जनाः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मराज! जो द्यूतविद्यामें पूर्ण शिक्षित है, वह अशिक्षितोंपर शठतासे ही विजय पाता है। विद्वान् पुरुष अविद्वानोंको जो परास्त करता है, वह भी शठता ही है; किंतु लोग उसे शठता नहीं कहते॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अकृतास्त्रं कृतास्त्रश्च दुर्बलं बलवत्तरः।
एवं कर्मसु सर्वेषु निकृत्यैव युधिष्ठिर।
विद्वानविदुषोऽभ्येति नाहुस्तां निकृतिं जनाः ॥ १६ ॥
मूलम्
अकृतास्त्रं कृतास्त्रश्च दुर्बलं बलवत्तरः।
एवं कर्मसु सर्वेषु निकृत्यैव युधिष्ठिर।
विद्वानविदुषोऽभ्येति नाहुस्तां निकृतिं जनाः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मराज युधिष्ठिर! अस्त्रविद्यामें निपुण योद्धा अनाड़ीको एवं बलिष्ठ पुरुष दुर्बलको शठतासे ही जीतना चाहता है। इस प्रकार सब कार्योंमें विद्वान् पुरुष अविद्वानोंको शठतासे ही जीतते हैं; किंतु लोग उसे शठता नहीं कहते॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं त्वं मामिहाभ्येत्य निकृतिं यदि मन्यसे।
देवनाद् विनिवर्तस्व यदि ते विद्यते भयम् ॥ १७ ॥
मूलम्
एवं त्वं मामिहाभ्येत्य निकृतिं यदि मन्यसे।
देवनाद् विनिवर्तस्व यदि ते विद्यते भयम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार आप यदि मेरे पास आकर यह मानते हैं कि आपके साथ शठता की जायगी एवं यदि आपको भय मालूम होता है तो इस जूएके खेलसे निवृत्त हो जाइये॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
आहूतो न निवर्तेयमिति मे व्रतमाहितम्।
विधिश्च बलवान् राजन् दिष्टस्यास्मि वशे स्थितः ॥ १८ ॥
मूलम्
आहूतो न निवर्तेयमिति मे व्रतमाहितम्।
विधिश्च बलवान् राजन् दिष्टस्यास्मि वशे स्थितः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने कहा— राजन्! मैं बुलानेपर पीछे नहीं हटता, यह मेरा निश्चित व्रत है। दैव बलवान् है। मैं दैवके वशमें हूँ॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्मिन् समागमे केन देवनं मे भविष्यति।
प्रतिपाणश्च कोऽन्योऽस्ति ततो द्यूतं प्रवर्तताम् ॥ १९ ॥
मूलम्
अस्मिन् समागमे केन देवनं मे भविष्यति।
प्रतिपाणश्च कोऽन्योऽस्ति ततो द्यूतं प्रवर्तताम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अच्छा तो यहाँ जिन लोगोंका जमाव हुआ है, उनमें किसके साथ मुझे जूआ खेलना होगा? मेरे मुकाबलेमें बैठकर दूसरा कौन पुरुष दाँव लगायेगा? इसका निश्चय हो जाय, तो जूएका खेल प्रारम्भ हो॥१९॥
मूलम् (वचनम्)
दुर्योधन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं दातास्मि रत्नानां धनानां च विशाम्पते ॥ २० ॥
मदर्थे देविता चायं शकुनिर्मातुलो मम।
मूलम्
अहं दातास्मि रत्नानां धनानां च विशाम्पते ॥ २० ॥
मदर्थे देविता चायं शकुनिर्मातुलो मम।
अनुवाद (हिन्दी)
दुर्योधन बोला— महाराज! दाँवपर लगानेके लिये धन और रत्न तो मैं दूँगा; परंतु मेरी ओरसे खेलेंगे ये मेरे मामा शकुनि॥२०॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्येनान्यस्य वै द्यूतं विषमं प्रतिभाति मे।
एतद् विद्वन्नुपादत्स्व काममेवं प्रवर्तताम् ॥ २१ ॥
मूलम्
अन्येनान्यस्य वै द्यूतं विषमं प्रतिभाति मे।
एतद् विद्वन्नुपादत्स्व काममेवं प्रवर्तताम् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने कहा— दूसरेके लिये दूसरेका जूआ खेलना मुझे तो अनुचित ही प्रतीत होता है। विद्वन्! इस बातको समझ लो, फिर इच्छानुसार जूएका खेल प्रारम्भ हो॥२१॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि द्यूतपर्वणि युधिष्ठिरशकुनिसंवादे एकोनषष्टितमोऽध्यायः ॥ ५९ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्वके अन्तर्गत द्यूतपर्वमें युधिष्ठिरशकुनिसंवादविषयक उनसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५९॥