०५७ विदुरधृतराष्ट्रसंवादः

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

सप्तपञ्चाशत्तमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

विदुर और धृतराष्ट्रकी बातचीत

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

मतमाज्ञाय पुत्रस्य धृतराष्ट्रो नराधिपः।
मत्वा च दुस्तरं दैवमेतद् राजंश्चकार ह ॥ १ ॥

मूलम्

मतमाज्ञाय पुत्रस्य धृतराष्ट्रो नराधिपः।
मत्वा च दुस्तरं दैवमेतद् राजंश्चकार ह ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! अपने पुत्र दुर्योधनका मत जानकर राजा धृतराष्ट्रने दैवको दुस्तर माना और यह कार्य किया॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्यायेन तथोक्तस्तु विदुरो विदुषां वरः।
नाभ्यनन्दद् वचो भ्रातुर्वचनं चेदमब्रवीत् ॥ २ ॥

मूलम्

अन्यायेन तथोक्तस्तु विदुरो विदुषां वरः।
नाभ्यनन्दद् वचो भ्रातुर्वचनं चेदमब्रवीत् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विद्वानोंमें श्रेष्ठ विदुरने धृतराष्ट्रका वह अन्यायपूर्ण आदेश सुनकर भाईकी उस बातका अभिनन्दन नहीं किया और इस प्रकार कहा॥२॥

मूलम् (वचनम्)

विदुर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाभिनन्दे नृपते प्रैषमेतं
मैवं कृथाः कुलनाशाद् बिभेमि।
पुत्रैर्भिन्नैः कलहस्ते ध्रुवं स्या-
देतच्छङ्के द्यूतकृते नरेन्द्र ॥ ३ ॥

मूलम्

नाभिनन्दे नृपते प्रैषमेतं
मैवं कृथाः कुलनाशाद् बिभेमि।
पुत्रैर्भिन्नैः कलहस्ते ध्रुवं स्या-
देतच्छङ्के द्यूतकृते नरेन्द्र ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विदुर बोले— महराज! मैं आपके इस आदेशका अभिनन्दन नहीं करता, आप ऐसा काम मत कीजिये। इससे मुझे समस्त कुलके विनाशका भय है। नरेन्द्र! पुत्रोंमें भेद होनेपर निश्चय ही आपको कलहका सामना करना पड़ेगा। इस जूएके कारण मुझे ऐसी आशंका हो रही है॥३॥

मूलम् (वचनम्)

धृतराष्ट्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नेह क्षत्तः कलहस्तप्स्यते मां
न चेद् दैवं प्रतिलोमं भविष्यत्।
धात्रा तु दिष्टस्य वशे किलेदं
सर्वं जगच्चेष्टति न स्वतन्त्रम् ॥ ४ ॥

मूलम्

नेह क्षत्तः कलहस्तप्स्यते मां
न चेद् दैवं प्रतिलोमं भविष्यत्।
धात्रा तु दिष्टस्य वशे किलेदं
सर्वं जगच्चेष्टति न स्वतन्त्रम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्रने कहा— विदुर! यदि दैव प्रतिकूल न हो, तो मुझे कलह भी कष्ट नहीं दे सकेगा। विधाताका बनाया हुआ यह सम्पूर्ण जगत् दैवके अधीन होकर ही चेष्टा कर रहा है, स्वतन्त्र नहीं है॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदद्य विदुर प्राप्य राजानं मम शासनात्।
क्षिप्रमानय दुर्धर्षं कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम् ॥ ५ ॥

मूलम्

तदद्य विदुर प्राप्य राजानं मम शासनात्।
क्षिप्रमानय दुर्धर्षं कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये विदुर! तुम मेरी आज्ञासे आज राजा युधिष्ठिरके पास जाकर उन दुर्धर्ष कुन्तीकुमार युधिष्ठिरको यहाँ शीघ्र बुला ले आओ॥५॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि द्यूतपर्वणि युधिष्ठिरानयने सप्तपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५७ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्वके अन्तर्गत द्यूतपर्वमें युधिष्ठिरके बुलानेसे सम्बन्ध रखनेवाला सत्तावनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५७॥