०५५ धृतराष्ट्रोत्तेजनम्

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

दुर्योधनका धृतराष्ट्रको उकसाना

मूलम् (वचनम्)

दुर्योधन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्य नास्ति निजा प्रज्ञा केवलं तु बहुश्रुतः।
न स जानाति शास्त्रार्थं दर्वी सूपरसानिव ॥ १ ॥

मूलम्

यस्य नास्ति निजा प्रज्ञा केवलं तु बहुश्रुतः।
न स जानाति शास्त्रार्थं दर्वी सूपरसानिव ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्योधन बोला— पिताजी! जिसके पास अपनी बुद्धि नहीं है, जिसने केवल बहुत-से शास्त्रोंका श्रवणभर किया है, वह शास्त्रके तात्पर्यको नहीं समझ सकता; ठीक उसी तरह, जैसे कलछी दालके रसको नहीं जानती॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जानन् वै मोहयसि मां नावि नौरिव संयता।
स्वार्थे किं नावधानं ते उताहो द्वेष्टि मां भवान्॥२॥

मूलम्

जानन् वै मोहयसि मां नावि नौरिव संयता।
स्वार्थे किं नावधानं ते उताहो द्वेष्टि मां भवान्॥२॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक नौकामें बँधी हुई दूसरी नौकाके समान आप विदुरकी बुद्धिके आश्रित हैं। जानते हुए भी मुझे मोहमें क्यों डालते हैं, स्वार्थसाधनके लिये क्या आपमें तनिक भी सावधानी नहीं है अथवा आप मुझसे द्वेष रखते हैं?॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न सन्तीमे धार्तराष्ट्रा येषां त्वमनुशासिता।
भविष्यमर्थमाख्यासि सर्वदा कृत्यमात्मनः ॥ ३ ॥

मूलम्

न सन्तीमे धार्तराष्ट्रा येषां त्वमनुशासिता।
भविष्यमर्थमाख्यासि सर्वदा कृत्यमात्मनः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप जिनके शासक हैं, वे धार्तराष्ट्र नहींके बराबर हैं (क्योंकि आप उन्हें स्वेच्छासे उन्नतिके पथपर बढ़ने नहीं देते)। आप सदा अपने वर्तमान कर्तव्यको भविष्यपर ही टालते रहते हैं॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परनेयोऽग्रणीर्यस्य स मार्गान् प्रति मुह्यति।
पन्थानमनुगच्छेयुः कथं तस्य पदानुगाः ॥ ४ ॥

मूलम्

परनेयोऽग्रणीर्यस्य स मार्गान् प्रति मुह्यति।
पन्थानमनुगच्छेयुः कथं तस्य पदानुगाः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस दलका अगुआ दूसरेकी बुद्धिपर चलता हो, वह अपने मार्गमें सदा मोहित होता रहता है। फिर उसके पीछे चलनेवाले लोग अपने मार्गका अनुसरण कैसे कर सकते हें?॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजन् परिणतप्रज्ञो वृद्धसेवी जितेन्द्रियः।
प्रतिपन्नान् स्वकार्येषु सम्मोहयसि नो भृशम् ॥ ५ ॥

मूलम्

राजन् परिणतप्रज्ञो वृद्धसेवी जितेन्द्रियः।
प्रतिपन्नान् स्वकार्येषु सम्मोहयसि नो भृशम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! आपकी बुद्धि परिपक्व है, आप वृद्ध पुरुषोंकी सेवा करते रहते हैं, आपने अपनी इन्द्रियोंपर विजय पा ली है, तो भी जब हमलोग अपने कार्योंमें तत्पर होते हैं, उस समय आप हमें बार-बार मोहमें ही डाल देते हैं॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोकवृत्ताद् राजवृत्तमन्यदाह बृहस्पतिः ।
तस्माद् राज्ञाप्रमत्तेन स्वार्थश्चिन्त्यः सदैव हि ॥ ६ ॥
क्षत्रियस्य महाराज जये वृत्तिः समाहिता।
स वै धर्मस्त्वधर्मो वा स्ववृत्तौ का परीक्षणा ॥ ७ ॥

मूलम्

लोकवृत्ताद् राजवृत्तमन्यदाह बृहस्पतिः ।
तस्माद् राज्ञाप्रमत्तेन स्वार्थश्चिन्त्यः सदैव हि ॥ ६ ॥
क्षत्रियस्य महाराज जये वृत्तिः समाहिता।
स वै धर्मस्त्वधर्मो वा स्ववृत्तौ का परीक्षणा ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बृहस्पतिने राजव्यवहारको लोकव्यवहारसे भिन्न बताया है; अतः राजाको सावधान होकर सदा अपने प्रयोजनका ही चिन्तन करना चाहिये। महाराज! क्षत्रियकी वृत्ति विजयमें ही लगी रहती है, वह चाहे धर्म हो या अधर्म। अपनी वृत्तिके विषयमें क्या परीक्षा करनी है?॥६-७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रकालयेद् दिशः सर्वाः प्रतोदेनेव सारथिः।
प्रत्यमित्रश्रियं दीप्तां जिघृक्षुर्भरतर्षभ ॥ ८ ॥

मूलम्

प्रकालयेद् दिशः सर्वाः प्रतोदेनेव सारथिः।
प्रत्यमित्रश्रियं दीप्तां जिघृक्षुर्भरतर्षभ ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतकुलभूषण! शत्रुकी जगमगाती हुई राजलक्ष्मीको अपने अधिकारमें करनेकी इच्छावाला भूपाल सम्पूर्ण दिशाओंका उसी प्रकार संचालन करे, जैसे सारथि चाबुकसे घोड़ोंको हाँककर अपनी रुचिके अनुसार चलाता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रच्छन्नो वा प्रकाशो वा योगो योऽरिं प्रबाधते।
तद् वै शस्त्रं शस्त्रविदां न शस्त्रं छेदनं स्मृतम्॥९॥

मूलम्

प्रच्छन्नो वा प्रकाशो वा योगो योऽरिं प्रबाधते।
तद् वै शस्त्रं शस्त्रविदां न शस्त्रं छेदनं स्मृतम्॥९॥

अनुवाद (हिन्दी)

गुप्त या प्रकट, जो उपाय शत्रुको संकटमें डाल दे, वही शस्त्रज्ञ पुरुषोंका शस्त्र है। केवल काटनेवाला शस्त्र ही शस्त्र नहीं है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शत्रुश्चैव हि मित्रं च न लेख्यं न च मातृका।
यो वै संतापयति यं स शत्रुः प्रोच्यते नृप॥१०॥

मूलम्

शत्रुश्चैव हि मित्रं च न लेख्यं न च मातृका।
यो वै संतापयति यं स शत्रुः प्रोच्यते नृप॥१०॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! अमुक शत्रु है और अमुक मित्र, इसका कोई लेखा नहीं है और न शत्रु-मित्रसूचक कोई अक्षर ही है। जो जिसको संताप देता है, वही उसका शत्रु कहा जाता है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असंतोषः श्रियो मूलं तस्मात् तं कामयाम्यहम्।
समुच्छ्रये यो यतते स राजन् परमो नयः ॥ ११ ॥

मूलम्

असंतोषः श्रियो मूलं तस्मात् तं कामयाम्यहम्।
समुच्छ्रये यो यतते स राजन् परमो नयः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

असंतोष ही लक्ष्मीकी प्राप्तिका मूल कारण है; अतः मैं असंतोष चाहता हूँ। राजन्! जो अपनी उन्नतिके लिये प्रयत्न करता है, उसका वह प्रयत्न ही सर्वोत्तम नीति है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ममत्वं हि न कर्तव्यमैश्वर्ये वा धनेऽपि वा।
पूर्वावाप्तं हरन्त्यन्ये राजधर्मं हि तं विदुः ॥ १२ ॥

मूलम्

ममत्वं हि न कर्तव्यमैश्वर्ये वा धनेऽपि वा।
पूर्वावाप्तं हरन्त्यन्ये राजधर्मं हि तं विदुः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐश्वर्य अथवा धनमें ममता नहीं करनी चाहिये, क्योंकि पहलेके उपार्जित धनको दूसरे लोग बलात् छीन लेते हैं। यही राजधर्म माना गया है॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्रोहसमयं कृत्वा चिच्छेद नमुचेः शिरः।
शक्रः साभिमता तस्य रिपौ वृत्तिः सनातनी ॥ १३ ॥

मूलम्

अद्रोहसमयं कृत्वा चिच्छेद नमुचेः शिरः।
शक्रः साभिमता तस्य रिपौ वृत्तिः सनातनी ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्रने नमुचिसे कभी वैर न करनेकी प्रतिज्ञा करके उसपर विश्वास जमाया और मौका देखकर उसका सिर काट लिया। तात! शत्रुके प्रति इसी प्रकारका व्यवहार सदासे होता चला आया है। यह इन्द्रको भी मान्य है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्वावेतौ ग्रसते भूमिः सर्पो बिलशयानिव।
राजानं चाविरोद्धारं ब्राह्मणं चाप्रवासिनम् ॥ १४ ॥

मूलम्

द्वावेतौ ग्रसते भूमिः सर्पो बिलशयानिव।
राजानं चाविरोद्धारं ब्राह्मणं चाप्रवासिनम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे सर्प बिलमें रहनेवाले चूहों आदिको निगल जाता है, उसी प्रकार यह भूमि विरोध न करनेवाले राजा तथा परदेशमें न विचरनेवाले ब्राह्मण (संन्यासी)-को ग्रस लेती है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नास्ति वै जातितः शत्रुः पुरुषस्य विशाम्पते।
येन साधारणी वृत्तिः स शत्रुर्नेतरो जनः ॥ १५ ॥

मूलम्

नास्ति वै जातितः शत्रुः पुरुषस्य विशाम्पते।
येन साधारणी वृत्तिः स शत्रुर्नेतरो जनः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! मनुष्यका जन्मसे कोई शत्रु नहीं होता, जिसके साथ एक-सी जीविका होती है अर्थात् जो लोग एक ही वृत्तिसे जीवननिर्वाह करते हैं, वे ही (ईर्ष्याके कारण) आपसमें एक-दूसरेके शत्रु होते हैं, दूसरे नहीं॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शत्रुपक्षं समृध्यन्तं यो मोहात् समुपेक्षते।
व्याधिराप्यायित इव तस्य मूलं छिनत्ति सः ॥ १६ ॥

मूलम्

शत्रुपक्षं समृध्यन्तं यो मोहात् समुपेक्षते।
व्याधिराप्यायित इव तस्य मूलं छिनत्ति सः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो निरन्तर बढ़ते हुए शत्रुपक्षकी ओरसे मोहवश उदासीन हो जाता है, बढ़े हुए रोगकी भाँति शत्रु उस उदासीन राजाकी जड़ काट डालता है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अल्पोऽपि ह्यरिरत्यर्थं वर्धमानः पराक्रमैः।
वल्मीको मूलज इव ग्रसते वृक्षमन्तिकात् ॥ १७ ॥

मूलम्

अल्पोऽपि ह्यरिरत्यर्थं वर्धमानः पराक्रमैः।
वल्मीको मूलज इव ग्रसते वृक्षमन्तिकात् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे वृक्षकी जड़में उत्पन्न हुई दीमक उसमें लगी रहनेके कारण उस वृक्षको ही खा जाती है, वैसे ही छोटा-सा भी शत्रु यदि पराक्रमसे बहुत बढ़ जाय, तो वह पहलेके प्रबल शत्रुको भी नष्ट कर डालता है॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आजमीढ रिपोर्लक्ष्मीर्मा ते रोचिष्ट भारत।
एष भारः सत्त्ववतां नयः शिरसि विष्ठितः ॥ १८ ॥

मूलम्

आजमीढ रिपोर्लक्ष्मीर्मा ते रोचिष्ट भारत।
एष भारः सत्त्ववतां नयः शिरसि विष्ठितः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतकुलभूषण! अजमीढनन्दन! आपको शत्रुकी लक्ष्मी अच्छी नहीं लगनी चाहिये। हर समय न्यायको सिरपर चढ़ाये रखना भी बुद्धिमानोंके लिये भार ही है॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जन्मवृद्धिमिवार्थानां यो वृद्धिमभिकाङ्क्षते ।
एधते ज्ञातिषु स वै सद्यो वृद्धिर्हि विक्रमः ॥ १९ ॥

मूलम्

जन्मवृद्धिमिवार्थानां यो वृद्धिमभिकाङ्क्षते ।
एधते ज्ञातिषु स वै सद्यो वृद्धिर्हि विक्रमः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो जन्मकालसे शरीर आदिकी वृद्धिके समान धनवृद्धिकी भी अभिलाषा करता है, वह कुटुम्बीजनोंमें बहुत आगे बढ़ जाता है। पराक्रम करना तत्काल उन्नतिका कारण है॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाप्राप्य पाण्डवैश्वर्यं संशयो मे भविष्यति।
अवाप्स्ये वा श्रियं तां हि शयिष्ये वा हतो युधि॥२०॥

मूलम्

नाप्राप्य पाण्डवैश्वर्यं संशयो मे भविष्यति।
अवाप्स्ये वा श्रियं तां हि शयिष्ये वा हतो युधि॥२०॥

अनुवाद (हिन्दी)

जबतक मैं पाण्डवोंकी सम्पत्तिको प्राप्त न कर लूँ, तबतक मेरे मनमें दुविधा ही रहेगी। इसलिये या तो मैं पाण्डवोंकी उस सम्पत्तिको ले लूँगा अथवा युद्धमें मरकर सो जाऊँगा (तभी मेरी दुविधा मिटेगी)॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतादृशस्य किं मेऽद्य जीवितेन विशाम्पते।
वर्धन्ते पाण्डवा नित्यं वयं त्वस्थिरवृद्धयः ॥ २१ ॥

मूलम्

एतादृशस्य किं मेऽद्य जीवितेन विशाम्पते।
वर्धन्ते पाण्डवा नित्यं वयं त्वस्थिरवृद्धयः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! आज जो मेरी दशा है, इसमें मेरे जीवित रहनेसे क्या लाभ? पाण्डव प्रतिदिन उन्नति कर रहे हैं और हम लोगोंकी वृद्धि (उन्नति) अस्थिर है—अधिक कालतक टिकनेवाली नहीं जान पड़ती है॥२१॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि द्यूतपर्वणि दुर्योधनसंतापे पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५५ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्वके अन्तर्गत द्यूतपर्वमें दुर्योधनसंतापविषयक पचपनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५५॥