०५४ दुर्योधनबोधनम्

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

चतुःपञ्चाशत्तमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

धृतराष्ट्रका दुर्योधनको समझाना

मूलम् (वचनम्)

धृतराष्ट्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वं वै ज्येष्ठो ज्यैष्ठिनेयः पुत्र मा पाण्डवान् द्विषः।
द्वेष्टा ह्यसुखमादत्ते यथैव निधनं तथा ॥ १ ॥

मूलम्

त्वं वै ज्येष्ठो ज्यैष्ठिनेयः पुत्र मा पाण्डवान् द्विषः।
द्वेष्टा ह्यसुखमादत्ते यथैव निधनं तथा ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्र बोले— दुर्योधन! तुम मेरे ज्येष्ठ पुत्र हो, जेठी रानीके गर्भसे उत्पन्न हुए हो। बेटा! पाण्डवोंसे द्वेष मत करो; क्योंकि द्वेष करनेवाला मनुष्य मृत्युके समान कष्ट पाता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अव्युत्पन्नं समानार्थं तुल्यमित्रं युधिष्ठिरम्।
अद्विषन्तं कथं द्विष्यात् त्वादृशो भरतर्षभ ॥ २ ॥

मूलम्

अव्युत्पन्नं समानार्थं तुल्यमित्रं युधिष्ठिरम्।
अद्विषन्तं कथं द्विष्यात् त्वादृशो भरतर्षभ ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर किसीके साथ छल नहीं करते, उनका धन तुम्हारे ही जैसा है। जो तुम्हारे मित्र हैं, वे उनके भी मित्र हैं और युधिष्ठिर तुमसे कभी द्वेष नहीं करते। भरतकुलतिलक! फिर तुम्हारे-जैसे पुरुषको उनसे द्वेष क्यों करना चाहिये?॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुल्याभिजनवीर्यश्च कथं भ्रातुः श्रियं नृप।
पुत्र कामयसे मोहान्मैवं भूः शाम्य मा शुचः ॥ ३ ॥

मूलम्

तुल्याभिजनवीर्यश्च कथं भ्रातुः श्रियं नृप।
पुत्र कामयसे मोहान्मैवं भूः शाम्य मा शुचः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! तुम्हारा और युधिष्ठिरका कुल एवं पराक्रम एक-सा है। बेटा! तुम मोहवश अपने भाईकी लक्ष्मीकी इच्छा क्यों करते हो? ऐसे अधम न बनो; शान्तभावसे रहो। शोक न करो॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ यज्ञविभूतिं तां काङ्क्षसे भरतर्षभ।
ऋत्विजस्तव तन्वन्तु सप्ततन्तुं महाध्वरम् ॥ ४ ॥

मूलम्

अथ यज्ञविभूतिं तां काङ्क्षसे भरतर्षभ।
ऋत्विजस्तव तन्वन्तु सप्ततन्तुं महाध्वरम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! यदि तुम उस यज्ञ-वैभवको पानेकी अभिलाषा रखते हो तो ऋत्विजलोग तुम्हारे लिये भी गायत्री आदि सात छन्दरूपी तन्तुओंसे युक्त राजसूय महायज्ञका अनुष्ठान करा देंगे॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आहरिष्यन्ति राजानस्तवापि विपुलं धनम्।
प्रीत्या च बहुमानाच्च रत्नान्याभरणानि च ॥ ५ ॥

मूलम्

आहरिष्यन्ति राजानस्तवापि विपुलं धनम्।
प्रीत्या च बहुमानाच्च रत्नान्याभरणानि च ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसमें देश-देशके राजालोग तुम्हारे लिये भी बड़े प्रेम और आदरसे रत्न, आभूषण तथा बहुत धन ले आयेंगे॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(मही कामदुघा सा हि वीरपत्नीति चोच्यते।
तथा वीर्याश्रिता भूमिस्तनुते हि मनोरथम्॥
तवाप्यस्ति हि चेद् वीर्यं भोक्ष्यसे हि महीमिमाम्॥)

मूलम्

(मही कामदुघा सा हि वीरपत्नीति चोच्यते।
तथा वीर्याश्रिता भूमिस्तनुते हि मनोरथम्॥
तवाप्यस्ति हि चेद् वीर्यं भोक्ष्यसे हि महीमिमाम्॥)

अनुवाद (हिन्दी)

बेटा! यह पृथ्वी कामधेनु है। इसे वीरपत्नी भी कहते हैं। अपने पराक्रमसे जीती हुई भूमि मनोवांछित फल प्रदान करती है। यदि तुममें भी बल और पराक्रम हो तो तुम इस पृथ्वीका यथेष्ट उपभोग कर सकते हो।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनार्याचरितं तात परस्वस्पृहणं भृशम्।
स्वसंतुष्टः स्वधर्मस्थो यः स वै सुखमेधते ॥ ६ ॥
अव्यापारः परार्थेषु नित्योद्योगः स्वकर्मसु।
रक्षणं समुपात्तानामेतद् वैभवलक्षणम् ॥ ७ ॥

मूलम्

अनार्याचरितं तात परस्वस्पृहणं भृशम्।
स्वसंतुष्टः स्वधर्मस्थो यः स वै सुखमेधते ॥ ६ ॥
अव्यापारः परार्थेषु नित्योद्योगः स्वकर्मसु।
रक्षणं समुपात्तानामेतद् वैभवलक्षणम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात! दूसरेके धनकी स्पृहा रखना नीच पुरुषोंका काम है। जो भलीभाँति अपने धनसे संतुष्ट तथा अपने धर्ममें ही स्थित है, वही सुखपूर्वक उन्नतिशील होता है। दूसरेके धनको हड़पनेकी कोई चेष्टा न करना, अपने कर्तव्यको पूरा करनेके लिये सदा प्रयत्नशील रहना और अपनेको जो कुछ प्राप्त है, उसकी रक्षा करना—यही उत्तम वैभवका लक्षण है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विपत्तिष्वव्यथो दक्षो नित्यमुत्थानवान् नरः।
अप्रमत्तो विनीतात्मा नित्यं भद्राणि पश्यति ॥ ८ ॥

मूलम्

विपत्तिष्वव्यथो दक्षो नित्यमुत्थानवान् नरः।
अप्रमत्तो विनीतात्मा नित्यं भद्राणि पश्यति ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो विपत्तिमें व्यथित नहीं होता, सदा उद्योगशील बना रहता है, जिसमें प्रमादका अभाव है तथा जिसके हृदयमें विनयरूप सद्‌गुण है, वह चतुर मनुष्य सदा कल्याण ही देखता है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाहूनिवैतान् मा छेत्सीः पाण्डुपुत्रास्तथैव ते।
भ्रातॄणां तद्धनार्थं वै मित्रद्रोहं च मा कुरु ॥ ९ ॥

मूलम्

बाहूनिवैतान् मा छेत्सीः पाण्डुपुत्रास्तथैव ते।
भ्रातॄणां तद्धनार्थं वै मित्रद्रोहं च मा कुरु ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये पाण्डुपुत्र तुम्हारी भुजाओंके समान हैं, इन्हें काटो मत। इसी प्रकार तुम भाइयोंके धनके लिये मित्रद्रोह न करो॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाण्डोः पुत्रान् मा द्विषस्वेह राजं-
स्तथैव ते भ्रातृधनं समग्रम्।
मित्रद्रोहे तात महानधर्मः
पितामहा ये तव तेऽपि तेषाम् ॥ १० ॥

मूलम्

पाण्डोः पुत्रान् मा द्विषस्वेह राजं-
स्तथैव ते भ्रातृधनं समग्रम्।
मित्रद्रोहे तात महानधर्मः
पितामहा ये तव तेऽपि तेषाम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! तुम पाण्डवोंसे द्वेष न करो। वे तुम्हारे भाई हैं और भाइयोंका सारा धन तुम्हारा ही है। तात! मित्रद्रोहसे बहुत बड़ा पाप होता है। देखो, जो तुम्हारे बाप-दादे हैं, वे ही उनके भी हैं॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्तर्वेद्यां ददद् वित्तं कामाननुभवन् प्रियान्।
क्रीडन् स्त्रीभिर्निरातङ्कः प्रशाम्य भरतर्षभ ॥ ११ ॥

मूलम्

अन्तर्वेद्यां ददद् वित्तं कामाननुभवन् प्रियान्।
क्रीडन् स्त्रीभिर्निरातङ्कः प्रशाम्य भरतर्षभ ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! तुम यज्ञमें धन दान करो, मनको प्रिय लगनेवाले भोग भोगो और निर्भय होकर स्त्रियोंके साथ क्रीड़ा करते हुए शान्त रहो॥११॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि द्यूतपर्वणि दुर्योधनसंतापे चतुःपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५४ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्वके अन्तर्गत द्यूतपर्वमें दुर्योधनसंतापविषयक चौवनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५४॥

Misc Detail

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके १ श्लोक मिलाकर कुल १२ श्लोक हैं)