०५१ युधिष्ठिरवसुवर्णनम्

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

एकपञ्चाशत्तमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

युधिष्ठिरको भेंटमें मिली हुई वस्तुओंका दुर्योधनद्वारा वर्णन

मूलम् (वचनम्)

दुर्योधन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यन्मया पाण्डवेयानां दृष्टं तच्छृणु भारत।
आहृतं भूमिपालैर्हि वसु मुख्यं ततस्ततः ॥ १ ॥

मूलम्

यन्मया पाण्डवेयानां दृष्टं तच्छृणु भारत।
आहृतं भूमिपालैर्हि वसु मुख्यं ततस्ततः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्योधन बोला— भारत! मैंने पाण्डवोंके यज्ञमें राजाओंके द्वारा भिन्न-भिन्न देशोंसे लाये हुए जो उत्तम धनरत्न देखे थे, उन्हें बताता हूँ, सुनिये॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाविदं मूढमात्मानं दृष्ट्वाहं तदरेर्धनम्।
फलतो भूमितो वापि प्रतिपद्यस्व भारत ॥ २ ॥

मूलम्

नाविदं मूढमात्मानं दृष्ट्वाहं तदरेर्धनम्।
फलतो भूमितो वापि प्रतिपद्यस्व भारत ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतकुलभूषण! आप सच मानिये, शत्रुओंका वह वैभव देखकर मेरा मन मूढ़-सा हो गया था। मैं इस बातको न जान सका कि यह धन कितना है और किस देशसे लाया गया है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

और्णान्‌ बैलान् वार्षदंशान् जातरूपपरिष्कृतान्।
प्रावाराजिनमुख्यांश्च काम्बोजः प्रददौ बहून् ॥ ३ ॥
अश्वांस्तित्तिरिकल्माषांस्त्रिशतं शुकनासिकान् ।
उष्ट्रवामीस्त्रिशतं च पुष्टाः पीलुशमीङ्गुदैः ॥ ४ ॥

मूलम्

और्णान्‌ बैलान् वार्षदंशान् जातरूपपरिष्कृतान्।
प्रावाराजिनमुख्यांश्च काम्बोजः प्रददौ बहून् ॥ ३ ॥
अश्वांस्तित्तिरिकल्माषांस्त्रिशतं शुकनासिकान् ।
उष्ट्रवामीस्त्रिशतं च पुष्टाः पीलुशमीङ्गुदैः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

काम्बोजनरेशने भेड़के ऊन, बिलमें रहनेवाले चूहे आदिके रोएँ तथा बिल्लियोंकी रोमावलियोंसे तैयार किये हुए सुवर्णचित्रित बहुत-से सुन्दर वस्त्र और मृगचर्म भेंटमें दिये थे। तीतर पक्षीकी भाँति चितकबरे और तोतेके समान नाकवाले तीन सौ घोड़े दिये थे। इसके सिवा तीन-तीन सौ ऊँटनियाँ और खच्चरियाँ भी दी थीं, जो पीलु, शमी और इंगुद खाकर मोटी-ताजी हुई थीं॥३-४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोवासना ब्राह्मणाश्च दासनीयाश्च सर्वशः।
प्रीत्यर्थं ते महाराज धर्मराज्ञो महात्मनः ॥ ५ ॥
त्रिखर्वं बलिमादाय द्वारि तिष्ठन्ति वारिताः।
ब्रह्मणा वाटधानाश्च गोमन्तः शतसङ्घशः ॥ ६ ॥
कमण्डलूनुपादाय जातरूपमयाञ्छुभान् ।
एवं बलिं समादाय प्रवेशं लेभिरे न च ॥ ७ ॥

मूलम्

गोवासना ब्राह्मणाश्च दासनीयाश्च सर्वशः।
प्रीत्यर्थं ते महाराज धर्मराज्ञो महात्मनः ॥ ५ ॥
त्रिखर्वं बलिमादाय द्वारि तिष्ठन्ति वारिताः।
ब्रह्मणा वाटधानाश्च गोमन्तः शतसङ्घशः ॥ ६ ॥
कमण्डलूनुपादाय जातरूपमयाञ्छुभान् ।
एवं बलिं समादाय प्रवेशं लेभिरे न च ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! ब्राह्मणलोग तथा गाय-बैलोंका पोषण करनेवाले वैश्य और दास-कर्मके योग्य शूद्र आदि सभी महात्मा धर्मराजकी प्रसन्नताके लिये तीन खर्बके लागतकी भेंट लेकर दरवाजेपर रोके हुए खड़े थे। ब्राह्मणलोग तथा हरी-भरी खेती उपजाकर जीवन-निर्वाह करनेवाले और बहुत-से गाय-बैल रखनेवाले वैश्य सैकड़ों दलोंमें इकट्ठे होकर सोनेके बने हुए सुन्दर कलश एवं अन्य भेंट-सामग्री लेकर द्वारपर खड़े थे। परंतु भीतर प्रवेश नहीं कर पाते थे॥५—७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(यश्च स द्विजमुख्येन राज्ञः शङ्खो निवेदितः।
प्रीत्या दत्तः कुणिन्देन धर्मराजाय धीमते॥

मूलम्

(यश्च स द्विजमुख्येन राज्ञः शङ्खो निवेदितः।
प्रीत्या दत्तः कुणिन्देन धर्मराजाय धीमते॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्विजोंमें प्रधान राजा कुणिन्दने परम बुद्धिमान् धर्मराज युधिष्ठिरको बड़े प्रेमसे एक शंख निवेदन किया।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं सर्वे भ्रातरो भ्रात्रे ददुः शङ्खं किरीटिने।
तं प्रत्यगृह्णाद् बीभत्सुस्तोयजं हेममालिनम्॥
चितं निष्कसहस्रेण भ्राजमानं स्वतेजसा।

मूलम्

तं सर्वे भ्रातरो भ्रात्रे ददुः शङ्खं किरीटिने।
तं प्रत्यगृह्णाद् बीभत्सुस्तोयजं हेममालिनम्॥
चितं निष्कसहस्रेण भ्राजमानं स्वतेजसा।

अनुवाद (हिन्दी)

उस शंखको सब भाइयोंने मिलकर किरीटधारी अर्जुनको दे दिया। उसमें सोनेका हार जड़ा हुआ था और एक हजार स्वर्णमुद्राएँ मढ़ी गयी थीं। अर्जुनने उसे सादर ग्रहण किया। वह शंख अपने तेजसे प्रकाशित हो रहा था।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रुचिरं दर्शनीयं च भूषितं विश्वकर्मणा॥
अधारयच्च धर्मश्च तं नमस्य पुनः पुनः।

मूलम्

रुचिरं दर्शनीयं च भूषितं विश्वकर्मणा॥
अधारयच्च धर्मश्च तं नमस्य पुनः पुनः।

अनुवाद (हिन्दी)

साक्षात् विश्वकर्माने उसे रत्नोंद्वारा विभूषित किया था। वह बहुत ही सुन्दर और दर्शनीय था। साक्षात् धर्मने उस शंखको बार-बार नमस्कार करके धारण किया था।

विश्वास-प्रस्तुतिः

यो अन्नदाने नदति स ननादाधिकं तदा॥
प्रणादाद् भूमिपास्तस्य पेतुर्हीनाः स्वतेजसा॥

मूलम्

यो अन्नदाने नदति स ननादाधिकं तदा॥
प्रणादाद् भूमिपास्तस्य पेतुर्हीनाः स्वतेजसा॥

अनुवाद (हिन्दी)

अन्नदान करनेपर वह शंख अपने-आप बज उठता था। उस समय उस शंखने बड़े जोरसे अपनी ध्वनिका विस्तार किया। उसके गम्भीर नादसे समस्त भूमिपाल तेजोहीन होकर पृथ्वीपर गिर पड़े।

विश्वास-प्रस्तुतिः

धृष्टद्युम्नः पाण्डवाश्च सात्यकिः केशवोऽष्टमः।
सत्त्वस्थाः शौर्यसम्पन्ना अन्योन्यप्रियकारिणः ॥

मूलम्

धृष्टद्युम्नः पाण्डवाश्च सात्यकिः केशवोऽष्टमः।
सत्त्वस्थाः शौर्यसम्पन्ना अन्योन्यप्रियकारिणः ॥

अनुवाद (हिन्दी)

केवल धृष्टद्युम्न, पाँच पाण्डव, सात्यकि तथा आठवें श्रीकृष्ण धैर्यपूर्वक खड़े रहे। ये सब-के-सब एक-दूसरेका प्रिय करनेवाले तथा शौर्यसे सम्पन्न हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

विसंज्ञान् भूमिपान् दृष्ट्वा मां च ते प्राहसंस्तदा॥
ततः प्रहृष्टो बीभत्सुरददाद्धेमशृङ्गिणः ।
शतान्यनडुहां पञ्च द्विजमुख्याय भारत॥

मूलम्

विसंज्ञान् भूमिपान् दृष्ट्वा मां च ते प्राहसंस्तदा॥
ततः प्रहृष्टो बीभत्सुरददाद्धेमशृङ्गिणः ।
शतान्यनडुहां पञ्च द्विजमुख्याय भारत॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्होंने मुझको तथा दूसरे भूमिपालोंको मूर्च्छित हुआ देख जोर-जोरसे हँसना आरम्भ किया। उस समय अर्जुनने अत्यन्त प्रसन्न होकर एक श्रेष्ठ ब्राह्मणको पाँच सौ हृष्ट-पुष्ट बैल दिये। वे बैल गाड़ीका बोझ ढोनेमें समर्थ थे और उनके सींगोंमें सोना मढ़ा गया था।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुमुखेन बलिर्मुख्यः प्रेषितोऽजातशत्रवे ।
कुणिन्देन हिरण्यं च वासांसि विविधानि च॥

मूलम्

सुमुखेन बलिर्मुख्यः प्रेषितोऽजातशत्रवे ।
कुणिन्देन हिरण्यं च वासांसि विविधानि च॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! राजा सुमुखने अजातशत्रु युधिष्ठिरके पास भेंटकी प्रमुख वस्तुएँ भेजी थीं। कुणिन्दने भाँति-भाँतिके वस्त्र और सुवर्ण दिये थे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

काश्मीरराजो मार्द्वीकं शुद्धं च रसवन्मधु।
बलिं च कृत्स्नमादाय पाण्डवायाभ्युपाहरत्॥

मूलम्

काश्मीरराजो मार्द्वीकं शुद्धं च रसवन्मधु।
बलिं च कृत्स्नमादाय पाण्डवायाभ्युपाहरत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

काश्मीरनरेशने मीठे तथा रसीले शुद्ध अंगूरोंके गुच्छे भेंट किये थे। साथ ही सब प्रकारकी उपहार-सामग्री लेकर उन्होंने पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरकी सेवामें उपस्थित की थी।

विश्वास-प्रस्तुतिः

यवना हयानुपादाय पर्वतीयान् मनोजवान्।
आसनानि महार्हाणि कम्बलांश्च महाधनान्॥
नवान् विचित्रान् सूक्ष्मांश्च परार्घ्यान् सुप्रदर्शनान्।
अन्यच्च विविधं रत्नं द्वारि तिष्ठन्ति वारिताः॥

मूलम्

यवना हयानुपादाय पर्वतीयान् मनोजवान्।
आसनानि महार्हाणि कम्बलांश्च महाधनान्॥
नवान् विचित्रान् सूक्ष्मांश्च परार्घ्यान् सुप्रदर्शनान्।
अन्यच्च विविधं रत्नं द्वारि तिष्ठन्ति वारिताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

कितने ही यवन मनके समान वेगशाली पर्वतीय घोड़े, बहुमूल्य आसन, नूतन, सूक्ष्म, विचित्र दर्शनीय और कीमती कम्बल, भाँति-भाँतिके रत्न तथा अन्य वस्तुएँ लेकर राजद्वारपर खड़े थे, फिर भी अंदर नहीं जाने पाते थे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुतायुरपि कालिङ्गो मणिरत्नमनुत्तमम् ।

मूलम्

श्रुतायुरपि कालिङ्गो मणिरत्नमनुत्तमम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

कलिंगनरेश श्रुतायुने उत्तम मणिरत्न भेंट किये।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दक्षिणात्‌ सागराभ्याशात् प्रावारांश्च परःशतान्॥
औदकानि सरत्नानि बलिं चादाय भारत।
अन्येभ्यो भूमिपालेभ्यः पाण्डवाय न्यवेदयत्॥

मूलम्

दक्षिणात्‌ सागराभ्याशात् प्रावारांश्च परःशतान्॥
औदकानि सरत्नानि बलिं चादाय भारत।
अन्येभ्यो भूमिपालेभ्यः पाण्डवाय न्यवेदयत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके सिवा, उन्होंने दूसरे भूपालोंसे दक्षिण समुद्रके निकटसे सैकड़ों उत्तरीय वस्त्र, शंख, रत्न तथा अन्य उपहार-सामग्री लेकर पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरको समर्पित की।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दार्दुरं चन्दनं मुख्यं भारान् षण्णवतिं ध्रुवम्।
पाण्डवाय ददौ पाण्ड्यः शङ्खांस्तावत एव च॥

मूलम्

दार्दुरं चन्दनं मुख्यं भारान् षण्णवतिं ध्रुवम्।
पाण्डवाय ददौ पाण्ड्यः शङ्खांस्तावत एव च॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्ड्यनरेशने मलय और दर्दुरपर्वतके श्रेष्ठ चन्दनके छियानबे भार युधिष्ठिरको भेंट किये। फिर उतने ही शंख भी समर्पित किये।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चन्दनागरु चानन्तं मुक्तावैदूर्यचित्रकाः ।
चोलश्च केरलश्चोभौ ददतुः पाण्डवाय वै॥

मूलम्

चन्दनागरु चानन्तं मुक्तावैदूर्यचित्रकाः ।
चोलश्च केरलश्चोभौ ददतुः पाण्डवाय वै॥

अनुवाद (हिन्दी)

चोल और केरलदेशके नरेशोंने असंख्य चन्दन, अगुरु तथा मोती, वैदूर्य तथा चित्रक नामक रत्न धर्मराज युधिष्ठिरको अर्पित किये।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अश्मको हेमशृङ्गीश्च दोग्ध्रीर्हेमविभूषिताः ।
सवत्साः कुम्भदोहाश्च गाः सहस्राण्यदाद् दश॥

मूलम्

अश्मको हेमशृङ्गीश्च दोग्ध्रीर्हेमविभूषिताः ।
सवत्साः कुम्भदोहाश्च गाः सहस्राण्यदाद् दश॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा अश्मकने बछड़ोंसहित दस हजार दुधारू गौएँ भेंट कीं, जिनके सींगोंमें सोना मढ़ा हुआ था और गलेमें सोनेके आभूषण पहनाये गये थे। उनके थन घड़ोंके समान दिखायी देते थे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सैन्धवानां सहस्राणि हयानां पञ्चविंशतिम्।
अददात् सैन्धवो राजा हेममाल्यैरलंकृतान्॥

मूलम्

सैन्धवानां सहस्राणि हयानां पञ्चविंशतिम्।
अददात् सैन्धवो राजा हेममाल्यैरलंकृतान्॥

अनुवाद (हिन्दी)

सिन्धुनरेशने सुवर्णमालाओंसे अलंकृत पचीस हजार सिन्धुदेशीय घोड़े उपहारमें दिये थे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सौवीरो हस्तिभिर्युक्तान् रथांश्च त्रिशतावरान्।
जातरूपपरिष्कारान् मणिरत्नविभूषितान् ॥
मध्यंदिनार्कप्रतिमांस्तेजसाप्रतिमानिव ।
बलिं च कृत्स्नमादाय पाण्डवाय न्यवेदयत्॥

मूलम्

सौवीरो हस्तिभिर्युक्तान् रथांश्च त्रिशतावरान्।
जातरूपपरिष्कारान् मणिरत्नविभूषितान् ॥
मध्यंदिनार्कप्रतिमांस्तेजसाप्रतिमानिव ।
बलिं च कृत्स्नमादाय पाण्डवाय न्यवेदयत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

सौवीरराजने हाथी जुते हुए रथ प्रदान किये, जो तीन सौसे कम न रहे होंगे। उन रथोंको सुवर्ण, मणि तथा रत्नोंसे सजाया गया था। वे दोपहरके सूर्यकी भाँति जगमगा रहे थे। उनसे जो प्रभा फैल रही थी, उसकी कहीं भी उपमा न थी। इन रथोंके सिवा, उन्होंने अन्य सब प्रकारकी भी उपहार-सामग्री युधिष्ठिरको भेंट की थी।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवन्तिराजो रत्नानि विविधानि सहस्रशः।
हाराङ्गदांश्च मुख्यान् वै विविधं च विभूषणम्॥
दासीनामयुतं चैव बलिमादाय भारत।
सभाद्वारि नरश्रेष्ठ दिदृक्षुरवतिष्ठते ॥

मूलम्

अवन्तिराजो रत्नानि विविधानि सहस्रशः।
हाराङ्गदांश्च मुख्यान् वै विविधं च विभूषणम्॥
दासीनामयुतं चैव बलिमादाय भारत।
सभाद्वारि नरश्रेष्ठ दिदृक्षुरवतिष्ठते ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरश्रेष्ठ भरतनन्दन! अवन्तीनरेश नाना प्रकारके सहस्रों रत्न, हार, श्रेष्ठ अंगद (बाजूबंद), भाँति-भाँतिके अन्यान्य आभूषण, दस हजार दासियों तथा अन्यान्य उपहार-सामग्री साथ लेकर राजसभाके द्वारपर खड़े थे और भीतर जाकर युधिष्ठिरका दर्शन पानेके लिये उत्सुक हो रहे थे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दशार्णश्चेदिराजश्च शूरसेनश्च वीर्यवान् ।
बलिं च कृत्स्नमादाय पाण्डवाय न्यवेदयत्॥

मूलम्

दशार्णश्चेदिराजश्च शूरसेनश्च वीर्यवान् ।
बलिं च कृत्स्नमादाय पाण्डवाय न्यवेदयत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

दशार्णनरेश, चेदिराज तथा पराक्रमी राजा शूरसेनने सब प्रकारकी उपहार-सामग्री लाकर युधिष्ठिरको समर्पित की।

विश्वास-प्रस्तुतिः

काशिराजेन हृष्टेन बली राजन् निवेदितः॥
अशीतिगोसहस्राणि शतान्यष्टौ च दन्तिनाम्।
विविधानि च रत्नानि काशिराजो बलिं ददौ॥

मूलम्

काशिराजेन हृष्टेन बली राजन् निवेदितः॥
अशीतिगोसहस्राणि शतान्यष्टौ च दन्तिनाम्।
विविधानि च रत्नानि काशिराजो बलिं ददौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! काशीनरेशने भी बड़ी प्रसन्नताके साथ अस्सी हजार गौएँ, आठ सौ गजराज तथा नाना प्रकारके रत्न भेंट किये।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृतक्षणश्च वैदेहः कौसलश्च बृहद्बलः।
ददतुर्वाजिमुख्यांश्च सहस्राणि चतुर्दश ॥

मूलम्

कृतक्षणश्च वैदेहः कौसलश्च बृहद्बलः।
ददतुर्वाजिमुख्यांश्च सहस्राणि चतुर्दश ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विदेहराज कृतक्षण तथा कोसलनरेश बृहद्बलने चौदह-चौदह हजार उत्तम घोड़े दिये थे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

शैब्यो वसादिभिः सार्धं त्रिगर्तो मालवैः सह।
तस्मै रत्नानि ददतुरेकैको भूमिपोऽमितम्॥
हारांस्तु मुक्तान् मुख्यांश्च विविधं च विभूषणम्।)

मूलम्

शैब्यो वसादिभिः सार्धं त्रिगर्तो मालवैः सह।
तस्मै रत्नानि ददतुरेकैको भूमिपोऽमितम्॥
हारांस्तु मुक्तान् मुख्यांश्च विविधं च विभूषणम्।)

अनुवाद (हिन्दी)

वस आदि नरेशोंसहित राजा शैब्य तथा मालवोंसहित त्रिगर्तराजने युधिष्ठिरको बहुत-से रत्न भेंट किये, उनमेंसे एक-एक भूपालने असंख्य हार, श्रेष्ठ मोती तथा भाँति-भाँतिके आभूषण समर्पित किये थे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

शतं दासीसहस्राणां कार्पासिकनिवासिनाम् ॥ ८ ॥
श्यामास्तन्व्यो दीर्घकेश्यो हेमाभरणभूषिताः ।

मूलम्

शतं दासीसहस्राणां कार्पासिकनिवासिनाम् ॥ ८ ॥
श्यामास्तन्व्यो दीर्घकेश्यो हेमाभरणभूषिताः ।

अनुवाद (हिन्दी)

कार्पासिक देशमें निवास करनेवाली एक लाख दासियाँ उस यज्ञमें सेवा कर रही थीं। वे सब-की-सब श्यामा तथा तन्वंगी थीं। उन सबके केश बड़े-बड़े थे और वे सभी सोनेके आभूषणोंसे विभूषित थीं॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शूद्रा विप्रोत्तमार्हाणि राङ्कवाण्यजिनानि च ॥ ९ ॥
बलिं च कृत्स्नमादाय भरुकच्छनिवासिनः।
उपनिन्युर्महाराज हयान् गान्धारदेशजान् ॥ १० ॥

मूलम्

शूद्रा विप्रोत्तमार्हाणि राङ्कवाण्यजिनानि च ॥ ९ ॥
बलिं च कृत्स्नमादाय भरुकच्छनिवासिनः।
उपनिन्युर्महाराज हयान् गान्धारदेशजान् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! भरुकच्छ (भड़ौंच)-निवासी शूद्र श्रेष्ठ ब्राह्मणोंके उपयोगमें आनेयोग्य रंकुमृगके चर्म तथा अन्य सब प्रकारकी भेंट-सामग्री लेकर उपस्थित हुए थे। वे अपने साथ गान्धारदेशके बहुत-से घोड़े भी लाये थे॥९-१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इन्द्रकृष्टैर्वर्तयन्ति धान्यैर्ये च नदीमुखैः।
समुद्रनिष्कुटे जाताः पारेसिन्धु च मानवाः ॥ ११ ॥
ते वैरामाः पारदाश्च आभीराः कितवैः सह।
विविधं बलिमादाय रत्नानि विविधानि च ॥ १२ ॥
अजाविकं गोहिरण्यं खरोष्ट्रं फलजं मधु।
कम्बलान् विविधांश्चैव द्वारि तिष्ठन्ति वारिताः ॥ १३ ॥

मूलम्

इन्द्रकृष्टैर्वर्तयन्ति धान्यैर्ये च नदीमुखैः।
समुद्रनिष्कुटे जाताः पारेसिन्धु च मानवाः ॥ ११ ॥
ते वैरामाः पारदाश्च आभीराः कितवैः सह।
विविधं बलिमादाय रत्नानि विविधानि च ॥ १२ ॥
अजाविकं गोहिरण्यं खरोष्ट्रं फलजं मधु।
कम्बलान् विविधांश्चैव द्वारि तिष्ठन्ति वारिताः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो समुद्रतटवर्ती गृहोद्यानमें तथा सिन्धुके उस पार रहते हैं, वर्षाद्वारा इन्द्रके पैदा किये हुए तथा नदीके जलसे उत्पन्न हुए नाना प्रकारके धान्योंद्वारा जीवन-निर्वाह करते हैं, वे वैराम, पारद, आभीर तथा कितव जातिके लोग नाना प्रकारके रत्न एवं भाँति-भाँतिकी भेंट-सामग्री—बकरी, भेड़, गाय, सुवर्ण, गधे, ऊँट, फलसे तैयार किया हुआ मधु तथा अनेक प्रकारके कम्बल लेकर राजद्वारपर रोक दिये जानेके कारण (बाहर ही) खड़े थे और भीतर नहीं जाने पाते थे॥११—१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राग्ज्योतिषाधिपः शूरो म्लेच्छानामधिपो बली।
यवनैः सहितो राजा भगदत्तो महारथः ॥ १४ ॥
आजानेयान् हयाञ्छीघ्रानादायानिलरंहसः ।
बलिं च कृत्स्नमादाय द्वारि तिष्ठति वारितः ॥ १५ ॥

मूलम्

प्राग्ज्योतिषाधिपः शूरो म्लेच्छानामधिपो बली।
यवनैः सहितो राजा भगदत्तो महारथः ॥ १४ ॥
आजानेयान् हयाञ्छीघ्रानादायानिलरंहसः ।
बलिं च कृत्स्नमादाय द्वारि तिष्ठति वारितः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्राग्ज्योतिषपुरके अधिपति तथा म्लेच्छोंके स्वामी शूरवीर एवं बलवान् महारथी राजा भगदत्त यवनोंके साथ पधारे थे और वायुके समान वेगवाले अच्छी जातिके शीघ्रगामी घोड़े तथा सब प्रकारकी भेंट-सामग्री लेकर राजद्वारपर खड़े थे। (अधिक भीड़के कारण) उनका प्रवेश भी रोक दिया गया था॥१४-१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अश्मसारमयं भाण्डं शुद्धदन्तत्सरूनसीन् ।
प्राग्ज्योतिषाधिपो दत्त्वा भगदत्तोऽव्रजत् तदा ॥ १६ ॥

मूलम्

अश्मसारमयं भाण्डं शुद्धदन्तत्सरूनसीन् ।
प्राग्ज्योतिषाधिपो दत्त्वा भगदत्तोऽव्रजत् तदा ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय प्राग्ज्योतिषनरेश भगदत्त हीरे और पद्मराग आदि मणियोंके आभूषण तथा विशुद्ध हाथी-दाँतकी मूँठवाले खड्ग देकर भीतर गये थे॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्व्यक्षांस्त्र्यक्षाल्ँललाटाक्षान् नानादिग्भ्यः समागतान् ।
औष्णीकानन्तवासांश्च रोमकान् पुरुषादकान् ॥ १७ ॥
एकपादांश्च तत्राहमपश्यं द्वारि वारितान्।
राजानो बलिमादाय नानावर्णाननेकशः ॥ १८ ॥
कृष्णग्रीवान् महाकायान् रासभान् दूरपातिनः।
आजह्रुर्दशसाहस्रान् विनीतान् दिक्षु विश्रुतान् ॥ १९ ॥

मूलम्

द्व्यक्षांस्त्र्यक्षाल्ँललाटाक्षान् नानादिग्भ्यः समागतान् ।
औष्णीकानन्तवासांश्च रोमकान् पुरुषादकान् ॥ १७ ॥
एकपादांश्च तत्राहमपश्यं द्वारि वारितान्।
राजानो बलिमादाय नानावर्णाननेकशः ॥ १८ ॥
कृष्णग्रीवान् महाकायान् रासभान् दूरपातिनः।
आजह्रुर्दशसाहस्रान् विनीतान् दिक्षु विश्रुतान् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्व्यक्ष, त्र्यक्ष, ललाटाक्ष, औष्णीक, अन्तवास, रोमक, पुरुषादक तथा एकपाद—इन देशोंके राजा नाना दिशाओंसे आकर राजद्वारपर रोक दिये जानेके कारण खड़े थे, यह मैंने अपनी आँखों देखा था। ये राजालोग भेंट-सामग्री लेकर आये थे और अपने साथ अनेक रंगवाले बहुत-से दूरगामी गधे (खच्चर) लाये थे, जिनकी गर्दन काली और शरीर विशाल थे। उनकी संख्या दस हजार थी। वे सभी रासभ सिखलाये हुए तथा सम्पूर्ण दिशाओंमें विख्यात थे॥१७—१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रमाणरागसम्पन्नान् वङ्क्षुतीरसमुद्भवान् ।
बल्यर्थं ददतस्तस्मै हिरण्यं रजतं बहु ॥ २० ॥
दत्त्वा प्रवेशं प्राप्तास्ते युधिष्ठिरनिवेशने।

मूलम्

प्रमाणरागसम्पन्नान् वङ्क्षुतीरसमुद्भवान् ।
बल्यर्थं ददतस्तस्मै हिरण्यं रजतं बहु ॥ २० ॥
दत्त्वा प्रवेशं प्राप्तास्ते युधिष्ठिरनिवेशने।

अनुवाद (हिन्दी)

उनकी लंबाई, चौड़ाई और ऊँचाई जैसी होनी चाहिये, वैसी ही थी। उनका रंग भी अच्छा था। वे समस्त रासभ वंक्षु नदीके तटपर उत्पन्न हुए थे। उक्त राजालोग युधिष्ठिरको भेंटके लिये बहुत-सा सोना और चाँदी देते थे और देकर युधिष्ठिरके यज्ञमण्डपमें प्रविष्ट होते थे॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इन्द्रगोपकवर्णाभाञ्छुकवर्णान् मनोजवान् ॥ २१ ॥
तथैवेन्द्रायुधनिभान् संध्याभ्रसदृशानपि ।
अनेकवर्णानारण्यान्‌ गृहीत्वाश्वान् महाजवान् ॥ २२ ॥
जातरूपमनर्घ्यं च ददुस्तस्यैकपादकाः ।

मूलम्

इन्द्रगोपकवर्णाभाञ्छुकवर्णान् मनोजवान् ॥ २१ ॥
तथैवेन्द्रायुधनिभान् संध्याभ्रसदृशानपि ।
अनेकवर्णानारण्यान्‌ गृहीत्वाश्वान् महाजवान् ॥ २२ ॥
जातरूपमनर्घ्यं च ददुस्तस्यैकपादकाः ।

अनुवाद (हिन्दी)

एकपाददेशीय राजाओंने इन्द्रगोप (बीरबहूटी)-के समान लाल, तोतेके समान हरे, मनके समान वेगशाली, इन्द्रधनुषके तुल्य बहुरंगे, संध्याकालके बादलोंके सदृश लाल और अनेक वर्णवाले महावेगशाली जंगली घोड़े एवं बहुमूल्य सुवर्ण उन्हें भेंटमें दिये॥२१-२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चीनाञ्छकांस्तथा चौड्रान् बर्बरान् वनवासिनः ॥ २३ ॥
वार्ष्णेयान्‌ हारहूणांश्च कृष्णान्‌ हैमवतांस्तथा।
नीपानूपानधिगतान् विविधान् द्वारवारितान् ॥ २४ ॥
बल्यर्थं ददतस्तस्य नानारूपाननेकशः ।
कृष्णग्रीवान् महाकायान् रासभाञ्छतपातिनः ।
अहार्षुर्दशसाहस्रान् विनीतान् दिक्षु विश्रुतान् ॥ २५ ॥

मूलम्

चीनाञ्छकांस्तथा चौड्रान् बर्बरान् वनवासिनः ॥ २३ ॥
वार्ष्णेयान्‌ हारहूणांश्च कृष्णान्‌ हैमवतांस्तथा।
नीपानूपानधिगतान् विविधान् द्वारवारितान् ॥ २४ ॥
बल्यर्थं ददतस्तस्य नानारूपाननेकशः ।
कृष्णग्रीवान् महाकायान् रासभाञ्छतपातिनः ।
अहार्षुर्दशसाहस्रान् विनीतान् दिक्षु विश्रुतान् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

चीन, शक, ओड्र, वनवासी बर्बर, वार्ष्णेय, हार, हूण, कृष्ण, हिमालयप्रदेश, नीप और अनूप देशोंके नाना रूपधारी राजा वहाँ भेंट देनेके लिये आये थे, किंतु रोक दिये जानेके कारण दरवाजेपर ही खड़े थे। उन्होंने अनेक रूपवाले दस हजार गधे भेंटके लिये वहाँ प्रस्तुत किये थे, जिनकी गर्दन काली और शरीर विशाल थे, जो सौ कोसतक लगातार चल सकते थे। वे सभी सिखलाये हुए तथा सब दिशाओंमें विख्यात थे॥२३—२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रमाणरागस्पर्शाढ्यं बाह्लीचीनसमुद्भवम् ।
और्णं च राङ्कवं चैव कीटजं पट्टजं तथा ॥ २६ ॥
कुटीकृतं तथैवात्र कमलाभं सहस्रशः।
श्लक्ष्णं वस्त्रमकार्पासमाविकं मृदु चाजिनम् ॥ २७ ॥
निशितांश्चैव दीर्घासीनृष्टिशक्तिपरश्वधान् ।
अपरान्तसमुद्भूतांस्तथैव परशूञ्छितान् ॥ २८ ॥
रसान् गन्धांश्च विविधान् रत्नानि च सहस्रशः।
बलिं च कृत्स्नमादाय द्वारि तिष्ठन्ति वारिताः ॥ २९ ॥
शकास्तुषाराः कङ्काश्च रोमशाः शृङ्गिणो नराः।

मूलम्

प्रमाणरागस्पर्शाढ्यं बाह्लीचीनसमुद्भवम् ।
और्णं च राङ्कवं चैव कीटजं पट्टजं तथा ॥ २६ ॥
कुटीकृतं तथैवात्र कमलाभं सहस्रशः।
श्लक्ष्णं वस्त्रमकार्पासमाविकं मृदु चाजिनम् ॥ २७ ॥
निशितांश्चैव दीर्घासीनृष्टिशक्तिपरश्वधान् ।
अपरान्तसमुद्भूतांस्तथैव परशूञ्छितान् ॥ २८ ॥
रसान् गन्धांश्च विविधान् रत्नानि च सहस्रशः।
बलिं च कृत्स्नमादाय द्वारि तिष्ठन्ति वारिताः ॥ २९ ॥
शकास्तुषाराः कङ्काश्च रोमशाः शृङ्गिणो नराः।

अनुवाद (हिन्दी)

जिनकी लंबाई-चौड़ाई पूरी थी, जिनका रंग सुन्दर और स्पर्श सुखद था, ऐसे बाह्लीक चीनके बने हुए, ऊनी, हिरनके रोमसमूहसे बने हुए, रेशमी, पाटके, विचित्र गुच्छेदार तथा कमलके तुल्य कोमल सहस्रों चिकने वस्त्र, जिनमें कपासका नाम भी नहीं था तथा मुलायम मृगचर्म—ये सभी वस्तुएँ भेंटके लिये प्रस्तुत थीं। तीखी और लंबी तलवारें, ऋष्टि, शक्ति, फरसे, अपरान्त (पश्चिम) देशके बने हुए तीखे परशु, भाँति-भाँतिके रस और गन्ध, सहस्रों रत्न तथा सम्पूर्ण भेंट-सामग्री लेकर शक, तुषार, कंक, रोमश तथा शृंगीदेशके लोग राजद्वारपर रोके जाकर खड़े थे॥२६—२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महागजान् दूरगमान् गणितानर्बुदान् हयान् ॥ ३० ॥
शतशश्चैव बहुशः सुवर्णं पद्मसम्मितम्।
बलिमादाय विविधं द्वारि तिष्ठन्ति वारिताः ॥ ३१ ॥

मूलम्

महागजान् दूरगमान् गणितानर्बुदान् हयान् ॥ ३० ॥
शतशश्चैव बहुशः सुवर्णं पद्मसम्मितम्।
बलिमादाय विविधं द्वारि तिष्ठन्ति वारिताः ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दूरतक जानेवाले बड़े-बड़े हाथी, जिनकी संख्या एक अर्बुद थी एवं घोड़े, जिनकी संख्या कई सौ अर्बुद थी और सुवर्ण जो एक पद्मकी लागतका था—इन सबको तथा भाँति-भाँतिकी दूसरी उपहार-सामग्रीको साथ लेकर कितने ही नरेश राजद्वारपर रोके जाकर भेंट देनेके लिये खड़े थे॥३०-३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसनानि महार्हाणि यानानि शयनानि च।
मणिकाञ्चनचित्राणि गजदन्तमयानि च ॥ ३२ ॥
कवचानि विचित्राणि शस्त्राणि विविधानि च।
रथांश्च विविधाकाराञ्जातरूपपरिष्कृतान् ॥ ३३ ॥
हयैर्विनीतैः सम्पन्नान् वैयाघ्रपरिवारितान् ।
विचित्रांश्च परिस्तोमान् रत्नानि विविधानि च ॥ ३४ ॥
नाराचानर्धनाराचाञ्छस्त्राणि विविधानि च ।
एतद् दत्त्वा महद् द्रव्यं पूर्वदेशाधिपा तृपाः॥
प्रविष्टा यज्ञसदनं पाण्डवस्य महात्मनः ॥ ३५ ॥

मूलम्

आसनानि महार्हाणि यानानि शयनानि च।
मणिकाञ्चनचित्राणि गजदन्तमयानि च ॥ ३२ ॥
कवचानि विचित्राणि शस्त्राणि विविधानि च।
रथांश्च विविधाकाराञ्जातरूपपरिष्कृतान् ॥ ३३ ॥
हयैर्विनीतैः सम्पन्नान् वैयाघ्रपरिवारितान् ।
विचित्रांश्च परिस्तोमान् रत्नानि विविधानि च ॥ ३४ ॥
नाराचानर्धनाराचाञ्छस्त्राणि विविधानि च ।
एतद् दत्त्वा महद् द्रव्यं पूर्वदेशाधिपा तृपाः॥
प्रविष्टा यज्ञसदनं पाण्डवस्य महात्मनः ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बहुमूल्य आसन, वाहन, रत्न तथा सुवर्णसे जटित हाथीदाँतकी बनी हुए शय्याएँ, विचित्र कवच, भाँति-भाँतिके शस्त्र, सुवर्णभूषित, व्याघ्रचर्मसे आच्छादित और सुशिक्षित घोड़ोंसे जुते हुए अनेक प्रकारके रथ, हाथियोंपर बिछाने योग्य विचित्र कम्बल, विभिन्न प्रकारके रत्न, नाराच, अर्धनाराच तथा अनेक तरहके शस्त्र—इन सब बहुमूल्य वस्तुओंको देकर पूर्वदेशके नरपतिगण महात्मा पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरके यज्ञमण्डपमें प्रविष्ट हुए थे॥३२—३५॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि द्यूतपर्वणि दुर्योधनसंतापे एकपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५१ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्वके अन्तर्गत द्यूतपर्वमें दुर्योधनसंतापविषयक इक्यावनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५१॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २६ श्लोक मिलाकर कुल ६१ श्लोक हैं)