०४७ दुर्योधनभ्रान्तिः

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

दुर्योधनका मयनिर्मित सभाभवनको देखना और पग-पगपर भ्रमके कारण उपहासका पात्र बनना तथा युधिष्ठिरके वैभवको देखकर उसका चिन्तित होना

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

वसन् दुर्योधनस्तस्यां सभायां पुरुषर्षभ।
शनैर्ददर्श तां सर्वां सभां शकुनिना सह ॥ १ ॥

मूलम्

वसन् दुर्योधनस्तस्यां सभायां पुरुषर्षभ।
शनैर्ददर्श तां सर्वां सभां शकुनिना सह ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— नरश्रेष्ठ जनमेजय! राजा दुर्योधनने उस सभाभवनमें निवास करते समय शकुनिके साथ धीरे-धीरे उस सारी सभाका निरीक्षण किया॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्यां दिव्यानभिप्रायान् ददर्श कुरुनन्दनः।
न दृष्टपूर्वा ये तेन नगरे नागसाह्वये ॥ २ ॥

मूलम्

तस्यां दिव्यानभिप्रायान् ददर्श कुरुनन्दनः।
न दृष्टपूर्वा ये तेन नगरे नागसाह्वये ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुनन्दन दुर्योधन उस सभामें उन दिव्य अभिप्रायों (दृश्यों)-को देखने लगा, जिन्हें उसने हस्तिनापुरमें पहले कभी नहीं देखा था॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स कदाचित् सभामध्ये धार्तराष्ट्रो महीपतिः।
स्फाटिकं स्थलमासाद्य जलमित्यभिशङ्कया ॥ ३ ॥
स्ववस्त्रोत्कर्षणं राजा कृतवान् बुद्धिमोहितः।
दुर्मना विमुखश्चैव परिचक्राम तां सभाम् ॥ ४ ॥

मूलम्

स कदाचित् सभामध्ये धार्तराष्ट्रो महीपतिः।
स्फाटिकं स्थलमासाद्य जलमित्यभिशङ्कया ॥ ३ ॥
स्ववस्त्रोत्कर्षणं राजा कृतवान् बुद्धिमोहितः।
दुर्मना विमुखश्चैव परिचक्राम तां सभाम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक दिनकी बात है, राजा दुर्योधन उस सभाभवनमें घूमता हुआ स्फटिक-मणिमय स्थलपर जा पहुँचा और वहाँ जलकी आशंकासे उसने अपना वस्त्र ऊपर उठा लिया। इस प्रकार बुद्धि-मोह हो जानेसे उसका मन उदास हो गया और वह उस स्थानसे लौटकर सभामें दूसरी ओर चक्कर लगाने लगा॥३-४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः स्थले निपतितो दुर्मना व्रीडितो नृपः।
निःश्वसन् विमुखश्चापि परिचक्राम तां सभाम् ॥ ५ ॥

मूलम्

ततः स्थले निपतितो दुर्मना व्रीडितो नृपः।
निःश्वसन् विमुखश्चापि परिचक्राम तां सभाम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर वह स्थलमें ही गिर पड़ा, इससे वह मन-ही-मन दुःखी और लज्जित हो गया तथा वहाँसे हटकर लम्बी साँसें लेता हुआ सभाभवनमें घूमने लगा॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः स्फाटिकतोयां वै स्फाटिकाम्बुजशोभिताम्।
वापीं मत्वा स्थलमिव सवासाः प्रापतज्जले ॥ ६ ॥

मूलम्

ततः स्फाटिकतोयां वै स्फाटिकाम्बुजशोभिताम्।
वापीं मत्वा स्थलमिव सवासाः प्रापतज्जले ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् स्फटिकमणिके समान स्वच्छ जलसे भरी और स्फटिकमणिमय कमलोंसे सुशोभित बावलीको स्थल मानकर वह वस्त्रसहित जलमें गिर पड़ा॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जले निपतितं दृष्ट्वा भीमसेनो महाबलः।
जहास जहसुश्चैव किंकराश्च सुयोधनम् ॥ ७ ॥
वासांसि च शुभान्यस्मै प्रददू राजशासनात्।
तथागतं तु तं दृष्ट्वा भीमसेनो महाबलः ॥ ८ ॥
अर्जुनश्च यमौ चोभौ सर्वे ते प्राहसंस्तदा।
नामर्षयत् ततस्तेषामवहासममर्षणः ॥ ९ ॥

मूलम्

जले निपतितं दृष्ट्वा भीमसेनो महाबलः।
जहास जहसुश्चैव किंकराश्च सुयोधनम् ॥ ७ ॥
वासांसि च शुभान्यस्मै प्रददू राजशासनात्।
तथागतं तु तं दृष्ट्वा भीमसेनो महाबलः ॥ ८ ॥
अर्जुनश्च यमौ चोभौ सर्वे ते प्राहसंस्तदा।
नामर्षयत् ततस्तेषामवहासममर्षणः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसे जलमें गिरा देख महाबली भीमसेन हँसने लगे। उनके सेवकोंने भी दुर्योधनकी हँसी उड़ायी तथा राजाज्ञासे उन्होंने दुर्योधनको सुन्दर वस्त्र दिये। दुर्योधनकी यह दुरवस्था देख महाबली भीमसेन, अर्जुन और नकुल-सहदेव सभी उस समय जोर-जोरसे हँसने लगे। दुर्योधन स्वभावसे ही अमर्षशील था; अतः वह उनका उपहास न सह सका॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आकारं रक्षमाणस्तु न स तान् समुदैक्षत।
पुनर्वसनमुत्क्षिप्य प्रतरिष्यन्निव स्थलम् ॥ १० ॥

मूलम्

आकारं रक्षमाणस्तु न स तान् समुदैक्षत।
पुनर्वसनमुत्क्षिप्य प्रतरिष्यन्निव स्थलम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह अपने चेहरेके भावको छिपाये रखनेके लिये उनकी ओर दृष्टि नहीं डालता था। फिर स्थलमें ही जलका भ्रम हो जानेसे वह कपड़े उठाकर इस प्रकार चलने लगा; मानो तैरनेकी तैयारी कर रहा हो॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आरुरोह ततः सर्वे जहसुश्च पुनर्जनाः।
द्वारं तु पिहिताकारं स्फाटिकं प्रेक्ष्य भूमिपः।
प्रविशन्नाहतो मूर्ध्नि व्याघूर्णित इव स्थितः ॥ ११ ॥

मूलम्

आरुरोह ततः सर्वे जहसुश्च पुनर्जनाः।
द्वारं तु पिहिताकारं स्फाटिकं प्रेक्ष्य भूमिपः।
प्रविशन्नाहतो मूर्ध्नि व्याघूर्णित इव स्थितः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार जब वह ऊपर चढ़ा, तब सब लोग उसकी भ्रान्तिपर हँसने लगे। उसके बाद राजा दुर्योधनने एक स्फटिकमणिका बना हुआ दरवाजा देखा, जो वास्तवमें बंद था, तो भी खुला दीखता था। उसमें प्रवेश करते ही उसका सिर टकरा गया और उसे चक्कर-सा आ गया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तादृशं च परं द्वारं स्फाटिकोरुकपाटकम्।
विघट्‌टयन् कराभ्यां तु निष्क्रम्याग्रे पपात ह ॥ १२ ॥

मूलम्

तादृशं च परं द्वारं स्फाटिकोरुकपाटकम्।
विघट्‌टयन् कराभ्यां तु निष्क्रम्याग्रे पपात ह ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ठीक उसी तरहका एक दूसरा दरवाजा मिला, जिसमें स्फटिकमणिके बड़े-बड़े किंवाड़ लगे थे। यद्यपि वह खुला था, तो भी दुर्योधनने उसे बंद समझकर उसपर दोनों हाथोंसे धक्का देना चाहा। किंतु धक्केसे वह स्वयं द्वारके बाहर निकलकर गिर पड़ा॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्वारं तु वितताकारं समापेदे पुनश्च सः।
तद्वत्तं चेति मन्वानो द्वारस्थानादुपारमत् ॥ १३ ॥

मूलम्

द्वारं तु वितताकारं समापेदे पुनश्च सः।
तद्वत्तं चेति मन्वानो द्वारस्थानादुपारमत् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आगे जानेपर उसे एक बहुत बड़ा फाटक और मिला; परंतु कहीं पिछले दरवाजोंकी भाँति यहाँ भी कोई अप्रिय घटना न घटित हो इस भयसे वह उस दरवाजेके इधरसे ही लौट आया॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं प्रलम्भान् विविधान् प्राप्य तत्र विशाम्पते।
पाण्डवेयाभ्यनुज्ञातस्ततो दुर्योधनो नृपः ॥ १४ ॥
अप्रहृष्टेन मनसा राजसूये महाक्रतौ।
प्रेक्ष्य तामद्भुतामृद्धिं जगाम गजसाह्वयम् ॥ १५ ॥

मूलम्

एवं प्रलम्भान् विविधान् प्राप्य तत्र विशाम्पते।
पाण्डवेयाभ्यनुज्ञातस्ततो दुर्योधनो नृपः ॥ १४ ॥
अप्रहृष्टेन मनसा राजसूये महाक्रतौ।
प्रेक्ष्य तामद्भुतामृद्धिं जगाम गजसाह्वयम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! इस प्रकार बार-बार धोखा खाकर राजा दुर्योधन राजसूय महायज्ञमें पाण्डवोंके पास आयी हुई अद्‌भुत समृद्धिपर दृष्टि डालकर पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर-की आज्ञा ले अप्रसन्न मनसे हस्तिनापुरको चला गया॥१४-१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाण्डवश्रीप्रतप्तस्य ध्यायमानस्य गच्छतः ।
दुर्योधनस्य नृपतेः पापा मतिरजायत ॥ १६ ॥

मूलम्

पाण्डवश्रीप्रतप्तस्य ध्यायमानस्य गच्छतः ।
दुर्योधनस्य नृपतेः पापा मतिरजायत ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डवोंकी राजलक्ष्मीसे संतप्त हो उसीका चिन्तन करते हुए जानेवाले राजा दुर्योधनके मनमें पापपूर्ण विचारका उदय हुआ॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पार्थान् सुमनसो दृष्ट्वा पार्थिवांश्च वशानुगान्।
कृत्स्नं चापि हितं लोकमाकुमारं कुरूद्वह ॥ १७ ॥
महिमानं परं चापि पाण्डवानां महात्मनाम्।
दुर्योधनो धार्तराष्ट्रो विवर्णः समपद्यत ॥ १८ ॥

मूलम्

पार्थान् सुमनसो दृष्ट्वा पार्थिवांश्च वशानुगान्।
कृत्स्नं चापि हितं लोकमाकुमारं कुरूद्वह ॥ १७ ॥
महिमानं परं चापि पाण्डवानां महात्मनाम्।
दुर्योधनो धार्तराष्ट्रो विवर्णः समपद्यत ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुश्रेष्ठ! यह देखकर कि कुन्तीके पुत्रोंका मन प्रसन्न है, भूमण्डलके सब नरेश उनके वशमें हैं तथा बच्चोंसे लेकर बूढ़ोंतक सारा जगत् उनका हितैषी है, इस प्रकार महात्मा पाण्डवोंकी महिमा अत्यन्त बढ़ी हुई देखकर धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधनका रंग फीका पड़ गया॥१७-१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तु गच्छन्ननेकाग्रः सभामेकोऽन्वचिन्तयत्।
श्रियं च तामनुपमां धर्मराजस्य धीमतः ॥ १९ ॥

मूलम्

स तु गच्छन्ननेकाग्रः सभामेकोऽन्वचिन्तयत्।
श्रियं च तामनुपमां धर्मराजस्य धीमतः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रास्तेमें जाते समय वह नाना प्रकारके विचारोंसे चिन्तातुर था। वह अकेला ही परम बुद्धिमान् धर्मराज युधिष्ठिरकी अलौकिक सभा तथा अनुपम लक्ष्मीके विषयमें सोच रहा था॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रमत्तो धृतराष्ट्रस्य पुत्रो दुर्योधनस्तदा।
नाभ्यभाषत् सुबलजं भाषमाणं पुनः पुनः ॥ २० ॥

मूलम्

प्रमत्तो धृतराष्ट्रस्य पुत्रो दुर्योधनस्तदा।
नाभ्यभाषत् सुबलजं भाषमाणं पुनः पुनः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस समय धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधन उन्मत्त-सा हो रहा था। वह शकुनिके बार-बार पूछनेपर भी उसे कोई उत्तर नहीं दे रहा था॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनेकाग्रं तु तं दृष्ट्वा शकुनिः प्रत्यभाषत।
दुर्योधन कुतोमूलं निःश्वसन्निव गच्छसि ॥ २१ ॥

मूलम्

अनेकाग्रं तु तं दृष्ट्वा शकुनिः प्रत्यभाषत।
दुर्योधन कुतोमूलं निःश्वसन्निव गच्छसि ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसे नाना प्रकारकी चिन्ताओंसे युक्त देख शकुनि-ने पूछा—‘दुर्योधन! तुम्हें कहाँसे यह दुःखका कारण प्राप्त हो गया, जिससे तुम लंबी साँसें खींचते चल रहे हो’॥२१॥

मूलम् (वचनम्)

दुर्योधन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्ट्वेमां पृथिवीं कृत्स्नां युधिष्ठिरवशानुगाम्।
जितामस्त्रप्रतापेन श्वेताश्वस्य महात्मनः ॥ २२ ॥
तं च यज्ञं तथाभूतं दृष्ट्वा पार्थस्य मातुल।
यथा शक्रस्य देवेषु तथाभूतं महाद्युतेः ॥ २३ ॥
अमर्षेण तु सम्पूर्णो दह्यमानो दिवानिशम्।
शुचिशुक्रागमे काले शुष्येत् तोयमिवाल्पकम् ॥ २४ ॥

मूलम्

दृष्ट्वेमां पृथिवीं कृत्स्नां युधिष्ठिरवशानुगाम्।
जितामस्त्रप्रतापेन श्वेताश्वस्य महात्मनः ॥ २२ ॥
तं च यज्ञं तथाभूतं दृष्ट्वा पार्थस्य मातुल।
यथा शक्रस्य देवेषु तथाभूतं महाद्युतेः ॥ २३ ॥
अमर्षेण तु सम्पूर्णो दह्यमानो दिवानिशम्।
शुचिशुक्रागमे काले शुष्येत् तोयमिवाल्पकम् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्योधनने कहा— मामाजी! मैंने देखा है, श्वेतवाहन महात्मा अर्जुनके अस्त्रोंके प्रतापसे जीती हुई यह सारी पृथ्वी युधिष्ठिरके वशमें हो गयी है। महातेजस्वी युधिष्ठिरका वह राजसूययज्ञ उसी प्रकार सम्पन्न हुआ है, जैसे देवताओंमें देवराज इन्द्रका यज्ञ पूर्ण हुआ था। यह सब देखकर मैं दिन-रात ईर्ष्यासे भरा ठीक उसी प्रकार जलता रहता हूँ, जैसे ग्रीष्म-ऋतुमें थोड़ा-सा जल जल्दी सूख जाता है॥२२—२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पश्य सात्वतमुख्येन शिशुपालो निपातितः।
न च तत्र पुमानासीत् कश्चित् तस्य पदानुगः ॥ २५ ॥

मूलम्

पश्य सात्वतमुख्येन शिशुपालो निपातितः।
न च तत्र पुमानासीत् कश्चित् तस्य पदानुगः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

और भी देखिये, यदुवंशशिरोमणि श्रीकृष्णने शिशुपालको मार गिराया, परंतु वहाँ कोई भी वीर पुरुष उसका बदला लेनेको तैयार नहीं हुआ॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दह्यमाना हि राजानः पाण्डवोत्थेन वह्निना।
क्षान्तवन्तोऽपराधं ते को हि तत् क्षन्तुमर्हति ॥ २६ ॥

मूलम्

दह्यमाना हि राजानः पाण्डवोत्थेन वह्निना।
क्षान्तवन्तोऽपराधं ते को हि तत् क्षन्तुमर्हति ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डवजनित आगसे दग्ध होनेवाले राजाओंने वह अपराध क्षमा कर दिया। अन्यथा इतने बड़े अन्यायको कौन सह सकता है?॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वासुदेवेन तत् कर्म यथायुक्तं महत् कृतम्।
सिद्धं च पाण्डुपुत्राणां प्रतापेन महात्मनाम् ॥ २७ ॥

मूलम्

वासुदेवेन तत् कर्म यथायुक्तं महत् कृतम्।
सिद्धं च पाण्डुपुत्राणां प्रतापेन महात्मनाम् ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वासुदेव श्रीकृष्णने जैसा महान् अनुचित कर्म किया था, वह महामना पाण्डवोंके प्रतापसे सफल हो गया॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा हि रत्नान्यादाय विविधानि नृपा नृपम्।
उपातिष्ठन्त कौन्तेयं वैश्या इव करप्रदाः ॥ २८ ॥

मूलम्

तथा हि रत्नान्यादाय विविधानि नृपा नृपम्।
उपातिष्ठन्त कौन्तेयं वैश्या इव करप्रदाः ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे कर देनेवाले व्यापारी वैश्य नाना प्रकारके रत्नोंकी भेंट लेकर राजाकी सेवामें उपस्थित होते हैं, उसी प्रकार सब राजा अनेक प्रकारके उत्तम रत्न लेकर राजा युधिष्ठिरकी सेवामें उपस्थित हुए थे॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रियं तथाऽऽगतां दृष्ट्वा ज्वलन्तीमिव पाण्डवे।
अमर्षवशमापन्नो दह्यामि न तथोचितः ॥ २९ ॥

मूलम्

श्रियं तथाऽऽगतां दृष्ट्वा ज्वलन्तीमिव पाण्डवे।
अमर्षवशमापन्नो दह्यामि न तथोचितः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डुपुत्र युधिष्ठिरके समीप प्राप्त हुई उस प्रकाश-मयी लक्ष्मीको देखकर मैं ईर्ष्यावश जल रहा हूँ। यद्यपि मेरी यह दुरवस्था उचित नहीं है॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं स निश्चयं कृत्वा ततो वचनमब्रवीत्।
पुनर्गान्धारनृपतिं दह्यमान इवाग्निना ॥ ३० ॥

मूलम्

एवं स निश्चयं कृत्वा ततो वचनमब्रवीत्।
पुनर्गान्धारनृपतिं दह्यमान इवाग्निना ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा निश्चय करके दुर्योधन चिन्ताकी आगसे दग्ध-सा होता हुआ पुनः गान्धारराज शकुनिसे बोला॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वह्निमेव प्रवेक्ष्यामि भक्षयिष्यामि वा विषम्।
अपो वापि प्रवेक्ष्यामि न हि शक्ष्यामि जीवितुम् ॥ ३१ ॥

मूलम्

वह्निमेव प्रवेक्ष्यामि भक्षयिष्यामि वा विषम्।
अपो वापि प्रवेक्ष्यामि न हि शक्ष्यामि जीवितुम् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं आगमें प्रवेश कर जाऊँगा, विष खा लूँगा अथवा जलमें डूब मरूँगा, अब मैं जीवित नहीं रह सकूँगा॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

को हि नाम पुमाल्ँलोके मर्षयिष्यति सत्त्ववान्।
सपत्नानृद्ध्यतो दृष्ट्वा हीनमात्मानमेव च ॥ ३२ ॥

मूलम्

को हि नाम पुमाल्ँलोके मर्षयिष्यति सत्त्ववान्।
सपत्नानृद्ध्यतो दृष्ट्वा हीनमात्मानमेव च ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संसारमें कौन ऐसा शक्तिशाली पुरुष होगा, जो शत्रुओंकी वृद्धि और अपनी हीन दशा होती देखकर भी चुपचाप सहन कर लेगा॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽहं न स्त्री न चाप्यस्त्री न पुमान्नापुमानपि।
योऽहं तां मर्षयाम्यद्य तादृशीं श्रियमागताम् ॥ ३३ ॥

मूलम्

सोऽहं न स्त्री न चाप्यस्त्री न पुमान्नापुमानपि।
योऽहं तां मर्षयाम्यद्य तादृशीं श्रियमागताम् ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं इस समय न तो स्त्री हूँ, न अस्त्रबलसे सम्पन्न हूँ, न पुरुष हूँ और न नपुंसक ही हूँ, तो भी अपने शत्रुओंके पास आयी हुई वैसी उत्कृष्ट सम्पत्तिको देखकर भी चुपचाप सहन कर रहा हूँ?॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ईश्वरत्वं पृथिव्याश्च वसुमत्तां च तादृशीम्।
यज्ञं च तादृशं दृष्ट्वा मादृशः को न संज्वरेत्॥३४॥

मूलम्

ईश्वरत्वं पृथिव्याश्च वसुमत्तां च तादृशीम्।
यज्ञं च तादृशं दृष्ट्वा मादृशः को न संज्वरेत्॥३४॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुओंके पास समस्त भूमण्डलका वह साम्राज्य, वैसी धन-रत्नोंसे भरी सम्पदा और उनका वैसा उत्कृष्ट राजसूययज्ञ देखकर मेरे-जैसा कौन पुरुष चिन्तित न होगा?॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अशक्तश्चैक एवाहं तामाहर्तुं नृपश्रियम्।
सहायांश्च न पश्यामि तेन मृत्युं विचिन्तये ॥ ३५ ॥

मूलम्

अशक्तश्चैक एवाहं तामाहर्तुं नृपश्रियम्।
सहायांश्च न पश्यामि तेन मृत्युं विचिन्तये ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं अकेला उस राजलक्ष्मीको हड़प लेनेमें असमर्थ हूँ और अपने पास योग्य सहायक नहीं देखता हूँ, इसीलिये मृत्युका चिन्तन करता हूँ॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दैवमेव परं मन्ये पौरुषं च निरर्थकम्।
दृष्ट्वा कुन्तीसुते शुद्धां श्रियं तामहतां तथा ॥ ३६ ॥

मूलम्

दैवमेव परं मन्ये पौरुषं च निरर्थकम्।
दृष्ट्वा कुन्तीसुते शुद्धां श्रियं तामहतां तथा ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीपुत्र युधिष्ठिरके पास उस अक्षय विशुद्ध लक्ष्मीका संचय देख मैं दैवको ही प्रबल मानता हूँ, पुरुषार्थ तो निरर्थक जान पड़ता है॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृतो यत्नो मया पूर्वं विनाशे तस्य सौबल।
तच्च सर्वमतिक्रम्य संवृद्धोऽप्स्विव पङ्कजम् ॥ ३७ ॥

मूलम्

कृतो यत्नो मया पूर्वं विनाशे तस्य सौबल।
तच्च सर्वमतिक्रम्य संवृद्धोऽप्स्विव पङ्कजम् ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुबलपुत्र! मैंने पहले धर्मराज युधिष्ठिरको नष्ट कर देनेका प्रयत्न किया था, किंतु उन सारे संकटोंको लाँघ करके वे जलमें कमलकी भाँति उत्तरोत्तर बढ़ते गये॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेन दैवं परं मन्ये पौरुषं च निरर्थकम्।
धार्तराष्ट्राश्च हीयन्ते पार्था वर्धन्ति नित्यशः ॥ ३८ ॥

मूलम्

तेन दैवं परं मन्ये पौरुषं च निरर्थकम्।
धार्तराष्ट्राश्च हीयन्ते पार्था वर्धन्ति नित्यशः ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसीसे मैं दैवको उत्तम मानता हूँ और पुरुषार्थको निरर्थक; क्योंकि हम धृतराष्ट्रपुत्र हानि उठा रहे हैं और ये कुन्तीके पुत्र प्रतिदिन उन्नति करते जा रहे हैं॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽहं श्रियं च तां दृष्ट्वा सभां तां च तथाविधाम्।
रक्षिभिश्चावहासं तं परितप्ये यथाग्निना ॥ ३९ ॥

मूलम्

सोऽहं श्रियं च तां दृष्ट्वा सभां तां च तथाविधाम्।
रक्षिभिश्चावहासं तं परितप्ये यथाग्निना ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं उस राजलक्ष्मीको, उस दिव्य सभाको तथा रक्षकोंद्वारा किये गये अपने उपहासको देखकर निरन्तर संतप्त हो रहा हूँ, मानो आगमें जलता होऊँ॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स मामभ्यनुजानीहि मातुलाद्य सुदुःखितम्।
अमर्षं च समाविष्टं धृतराष्ट्रे निवेदय ॥ ४० ॥

मूलम्

स मामभ्यनुजानीहि मातुलाद्य सुदुःखितम्।
अमर्षं च समाविष्टं धृतराष्ट्रे निवेदय ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मामाजी! अब मुझे (मरनेके लिये) आज्ञा दीजिये, क्योंकि मैं बहुत दुःखी हूँ और ईर्ष्याकी आगमें जल रहा हूँ। महाराज धृतराष्ट्रको मेरी यह अवस्था सूचित कर दीजियेगा॥४०॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि द्यूतपर्वणि दुर्योधनसंतापे सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४७ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्वके अन्तर्गत द्यूतपर्वमें दुर्योधनसंतापविषयक सैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥४७॥