श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
भीष्मकी बातोंसे चिढ़े हुए शिशुपालका उन्हें फटकारना तथा भीष्मका श्रीकृष्णसे युद्ध करनेके लिये समस्त राजाओंको चुनौती देना
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैषा चेदिपतेर्बुद्धिर्यया त्वाऽऽह्वयतेऽच्युतम् ।
नूनमेष जगद्भर्तुः कृष्णस्यैव विनिश्चयः ॥ १ ॥
मूलम्
नैषा चेदिपतेर्बुद्धिर्यया त्वाऽऽह्वयतेऽच्युतम् ।
नूनमेष जगद्भर्तुः कृष्णस्यैव विनिश्चयः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— भीमसेन यह चेदिराज शिशुपालकी बुद्धि नहीं है, जिसके द्वारा वह युद्धसे कभी पीछे न हटनेवाले तुम-जैसे महावीरको ललकार रहा है, अवश्य ही सम्पूर्ण जगत्के स्वामी भगवान् श्रीकृष्णका ही यह निश्चित विधान है॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
को हि मां भीमसेनाद्य क्षितावर्हति पार्थिवः।
क्षेप्तुं कालपरीतात्मा यथैष कुलपांसनः ॥ २ ॥
मूलम्
को हि मां भीमसेनाद्य क्षितावर्हति पार्थिवः।
क्षेप्तुं कालपरीतात्मा यथैष कुलपांसनः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीमसेन! कालने ही इसके मन और बुद्धिको ग्रस लिया है, अन्यथा इस भूमण्डलमें कौन ऐसा राजा होगा, जो मुझपर इस तरह आक्षेप कर सके, जैसे यह कुलकलंक शिशुपाल कर रहा है॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष ह्यस्य महाबाहुस्तेजोंऽशश्च हरेर्ध्रुवम्।
तमेव पुनरादातुमिच्छत्युत तथा विभुः ॥ ३ ॥
मूलम्
एष ह्यस्य महाबाहुस्तेजोंऽशश्च हरेर्ध्रुवम्।
तमेव पुनरादातुमिच्छत्युत तथा विभुः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह महाबाहु चेदिराज निश्चय ही भगवान् श्रीकृष्णके तेजका अंश है। ये सर्वव्यापी भगवान् अपने उस अंशको पुनः समेट लेना चाहते हैं॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
येनैष कुरुशार्दूल शार्दूल इव चेदिराट्।
गर्जत्यतीव दुर्बुद्धिः सर्वानस्मानचिन्तयन् ॥ ४ ॥
मूलम्
येनैष कुरुशार्दूल शार्दूल इव चेदिराट्।
गर्जत्यतीव दुर्बुद्धिः सर्वानस्मानचिन्तयन् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुसिंह भीम! यही कारण है कि यह दुर्बुद्धि शिशुपाल हम सबको कुछ न समझकर आज सिंहके समान गरज रहा है॥४॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो न ममृषे चैद्यस्तद् भीष्मवचनं तदा।
उवाच चैनं संक्रुद्धः पुनर्भीष्ममथोत्तरम् ॥ ५ ॥
मूलम्
ततो न ममृषे चैद्यस्तद् भीष्मवचनं तदा।
उवाच चैनं संक्रुद्धः पुनर्भीष्ममथोत्तरम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! भीष्मकी यह बात शिशुपाल न सह सका। वह पुनः अत्यन्त क्रोधमें भरकर भीष्मको उनकी बातोंका उत्तर देते हुए बोला॥५॥
मूलम् (वचनम्)
शिशुपाल उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्विषतां नोऽस्तु भीष्मैष प्रभावः केशवस्य यः।
यस्य संस्तववक्ता त्वं वन्दिवत् सततोत्थितः ॥ ६ ॥
मूलम्
द्विषतां नोऽस्तु भीष्मैष प्रभावः केशवस्य यः।
यस्य संस्तववक्ता त्वं वन्दिवत् सततोत्थितः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शिशुपालने कहा— भीष्म! तुम सदा भाटकी तरह खड़े होकर जिसकी स्तुति गाया करते हो, उस कृष्णका जो प्रभाव है, वह हमारे शत्रुओंके पास ही रहे॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संस्तवे च मनो भीष्म परेषां रमते यदि।
तदा संस्तौषि राज्ञस्त्वमिमं हित्वा जनार्दनम् ॥ ७ ॥
मूलम्
संस्तवे च मनो भीष्म परेषां रमते यदि।
तदा संस्तौषि राज्ञस्त्वमिमं हित्वा जनार्दनम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्म! यदि तुम्हारा मन सदा दूसरोंकी स्तुतिमें ही लगता है तो इस जनार्दनको छोड़कर इन राजाओंकी ही स्तुति करो॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दरदं स्तुहि बाह्लीकमिमं पार्थिवसत्तमम्।
जायमानेन येनेयमभवद् दारिता मही ॥ ८ ॥
मूलम्
दरदं स्तुहि बाह्लीकमिमं पार्थिवसत्तमम्।
जायमानेन येनेयमभवद् दारिता मही ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये दरददेशके राजा हैं, इनकी स्तुति करो। ये भूमिपालोंमें श्रेष्ठ बाह्लीक बैठे हैं, इनके गुण गाओ। इन्होंने जन्म लेते ही अपने शरीरके भारसे इस पृथ्वीको विदीर्ण कर दिया था॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वङ्गाङ्गविषयाध्यक्षं सहस्राक्षसमं बले ।
स्तुहि कर्णमिमं भीष्म महाचापविकर्षणम् ॥ ९ ॥
मूलम्
वङ्गाङ्गविषयाध्यक्षं सहस्राक्षसमं बले ।
स्तुहि कर्णमिमं भीष्म महाचापविकर्षणम् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्म! ये जो वंग और अंग दोनों देशोंके राजा हैं, इन्द्रके समान बल-पराक्रमसे सम्पन्न हैं तथा महान् धनुषकी प्रत्यंचा खींचनेवाले हैं, इन वीरवर कर्णकी कीर्तिका गान करो॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्येमे कुण्डले दिव्ये सहजे देवनिर्मिते।
कवचं च महाबाहो बालार्कसदृशप्रभम् ॥ १० ॥
मूलम्
यस्येमे कुण्डले दिव्ये सहजे देवनिर्मिते।
कवचं च महाबाहो बालार्कसदृशप्रभम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाबाहो! इन कर्णके ये दोनों दिव्य कुण्डल जन्मके साथ ही प्रकट हुए हैं। किसी देवताने ही इन कुण्डलोंका निर्माण किया है। कुण्डलोंके साथ-साथ इनके शरीरपर यह दिव्य कवच भी जन्मसे ही पैदा हुआ है, जो प्रातःकालके सूर्यके समान प्रकाशित हो रहा है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वासवप्रतिमो येन जरासंधोऽतिदुर्जयः ।
विजितो बाहुयुद्धेन देहभेदं च लम्भितः ॥ ११ ॥
मूलम्
वासवप्रतिमो येन जरासंधोऽतिदुर्जयः ।
विजितो बाहुयुद्धेन देहभेदं च लम्भितः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिन्होंने इन्द्रके तुल्य पराक्रमी तथा अत्यन्त दुर्जय जरासंधको बाहुयुद्धके द्वारा केवल परास्त ही नहीं किया, उनके शरीरको चीर भी डाला, उन भीमसेनकी स्तुति करो॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रोणं द्रौणिं च साधु त्वं पितापुत्रौ महारथौ।
स्तुहि स्तुत्यावुभौ भीष्म सततं द्विजसत्तमौ ॥ १२ ॥
मूलम्
द्रोणं द्रौणिं च साधु त्वं पितापुत्रौ महारथौ।
स्तुहि स्तुत्यावुभौ भीष्म सततं द्विजसत्तमौ ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्रोणाचार्य और अश्वत्थामा दोनों पिता-पुत्र महारथी हैं तथा ब्राह्मणोंमें श्रेष्ठ हैं, अतएव स्तुत्य भी हैं। भीष्म! तुम उन दोनोंकी अच्छी तरह स्तुति करो॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ययोरन्यतरो भीष्म संक्रुद्धः सचराचराम्।
इमां वसुमतीं कुर्यान्निःशेषामिति मे मतिः ॥ १३ ॥
मूलम्
ययोरन्यतरो भीष्म संक्रुद्धः सचराचराम्।
इमां वसुमतीं कुर्यान्निःशेषामिति मे मतिः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्म! इन दोनों पिता-पुत्रोंमेंसे यदि एक भी अत्यन्त क्रोधमें भर जाय, तो चराचर प्राणियोंसहित इस सारी पृथ्वीको नष्ट कर सकता है, ऐसा मेरा विश्वास है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रोणस्य हि समं युद्धे न पश्यामि नराधिपम्।
नाश्वत्थाम्नः समं भीष्म न च तौ स्तोतुमिच्छसि ॥ १४ ॥
मूलम्
द्रोणस्य हि समं युद्धे न पश्यामि नराधिपम्।
नाश्वत्थाम्नः समं भीष्म न च तौ स्तोतुमिच्छसि ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्म! मुझे तो कोई भी ऐसा राजा नहीं दिखायी देता, जो युद्धमें द्रोण अथवा अश्वत्थामाकी बराबरी कर सके। तो भी तुम इन दोनोंकी स्तुति करना नहीं चाहते॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पृथिव्यां सागरान्तायां यो वै प्रतिसमो भवेत्।
दुर्योधनं त्वं राजेन्द्रमतिक्रम्य महाभुजम् ॥ १५ ॥
जयद्रथं च राजानं कृतास्त्रं दृढविक्रमम्।
द्रुमं किम्पुरुषाचार्यं लोके प्रथितविक्रमम्।
अतिक्रम्य महावीर्यं किं प्रशंससि केशवम् ॥ १६ ॥
मूलम्
पृथिव्यां सागरान्तायां यो वै प्रतिसमो भवेत्।
दुर्योधनं त्वं राजेन्द्रमतिक्रम्य महाभुजम् ॥ १५ ॥
जयद्रथं च राजानं कृतास्त्रं दृढविक्रमम्।
द्रुमं किम्पुरुषाचार्यं लोके प्रथितविक्रमम्।
अतिक्रम्य महावीर्यं किं प्रशंससि केशवम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस समुद्रपर्यन्त सारी पृथ्वीपर जो अद्वितीय अनुपम वीर हैं, उन राजाधिराज महाबाहु दुर्योधनको, अस्त्रविद्यामें निपुण और सुदृढ़पराक्रमी राजा जयद्रथको और विश्वविख्यात विक्रमशाली महाबली किम्पुरुषा-चार्य द्रुमको छोड़कर तुम कृष्णकी प्रशंसा क्यों करते हो?॥१५-१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वृद्धं च भारताचार्यं तथा शारद्वतं कृपम्।
अतिक्रम्य महावीर्यं किं प्रशंससि केशवम् ॥ १७ ॥
मूलम्
वृद्धं च भारताचार्यं तथा शारद्वतं कृपम्।
अतिक्रम्य महावीर्यं किं प्रशंससि केशवम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शरद्वान् मुनिके पुत्र महापराक्रमी कृप भरतवंशके वृद्ध आचार्य हैं। इनका उल्लंघन करके तुम कृष्णका गुण क्यों गाते हो?॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनुर्धराणां प्रवरं रुक्मिणं पुरुषोत्तमम्।
अतिक्रम्य महावीर्यं किं प्रशंससि केशवम् ॥ १८ ॥
मूलम्
धनुर्धराणां प्रवरं रुक्मिणं पुरुषोत्तमम्।
अतिक्रम्य महावीर्यं किं प्रशंससि केशवम् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धनुर्धरोंमें श्रेष्ठ पुरुषरत्न महाबली रुक्मीकी अवहेलना करके तुम केशवकी प्रशंसाके गीत क्यों गाते हो?॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भीष्मकं च महावीर्यं दन्तवक्रं च भूमिपम्।
भगदत्तं यूपकेतुं जयत्सेनं च मागधम् ॥ १९ ॥
विराटद्रुपदौ चोभौ शकुनिं च बृहद्बलम्।
विन्दानुविन्दावावन्त्यौ पाण्ड्यं श्वेतमथोत्तरम् ॥ २० ॥
शङ्खं च सुमहाभागं वृषसेनं च मानिनम्।
एकलव्यं च विक्रान्तं कालिङ्गं च महारथम् ॥ २१ ॥
अतिक्रम्य महावीर्यं किं प्रशंससि केशवम्।
मूलम्
भीष्मकं च महावीर्यं दन्तवक्रं च भूमिपम्।
भगदत्तं यूपकेतुं जयत्सेनं च मागधम् ॥ १९ ॥
विराटद्रुपदौ चोभौ शकुनिं च बृहद्बलम्।
विन्दानुविन्दावावन्त्यौ पाण्ड्यं श्वेतमथोत्तरम् ॥ २० ॥
शङ्खं च सुमहाभागं वृषसेनं च मानिनम्।
एकलव्यं च विक्रान्तं कालिङ्गं च महारथम् ॥ २१ ॥
अतिक्रम्य महावीर्यं किं प्रशंससि केशवम्।
अनुवाद (हिन्दी)
महापराक्रमी भीष्मक, भूमिपाल दन्तवक्र, भगदत्त, यूपकेतु, जयत्सेन, मगधराज सहदेव, विराट, द्रुपद, शकुनि, बृहद्बल, अवन्तीके राजकुमार विन्द-अनुविन्द, पाण्ड्यनरेश, श्वेत, उत्तर, महाभाग शंख, अभिमानी वृषसेन, पराक्रमी एकलव्य तथा महारथी एवं महाबली कलिंगनरेशकी अवहेलना करके कृष्णकी प्रशंसा क्यों कर रहे हो?॥१९—२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शल्यादीनपि कस्मात् त्वं न स्तौषि वसुधाधिपान्।
स्तवाय यदि ते बुद्धिर्वर्तते भीष्म सर्वदा ॥ २२ ॥
मूलम्
शल्यादीनपि कस्मात् त्वं न स्तौषि वसुधाधिपान्।
स्तवाय यदि ते बुद्धिर्वर्तते भीष्म सर्वदा ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्म! यदि तुम्हारा मन सदा दूसरोंकी स्तुति करनेमें ही लगता है तो इन शल्य आदि श्रेष्ठ राजाओंकी स्तुति क्यों नहीं करते?॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं हि शक्यं मया कर्तुं यद् वृद्धानां त्वया नृप।
पुरा कथयतां नूनं न श्रुतं धर्मवादिनाम् ॥ २३ ॥
मूलम्
किं हि शक्यं मया कर्तुं यद् वृद्धानां त्वया नृप।
पुरा कथयतां नूनं न श्रुतं धर्मवादिनाम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्म! तुमने पहले बड़े-बूढ़े धर्मोपदेशकोंके मुखसे यदि यह धर्मसंगत बात, जिसे मैं अभी बताऊँगा नहीं सुनी, तो मैं क्या कर सकता हूँ?॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मनिन्दाऽऽत्मपूजा च परनिन्दा परस्तवः।
अनाचरितमार्याणां वृत्तमेतच्चतुर्विधम् ॥ २४ ॥
मूलम्
आत्मनिन्दाऽऽत्मपूजा च परनिन्दा परस्तवः।
अनाचरितमार्याणां वृत्तमेतच्चतुर्विधम् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्म! अपनी निन्दा, अपनी प्रशंसा, दूसरेकी निन्दा और दूसरेकी स्तुति—ये चार प्रकारके कार्य पहलेके श्रेष्ठ पुरुषोंने कभी नहीं किये हैं॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदस्तव्यमिमं शश्वन्मोहात् संस्तौषि भक्तितः।
केशवं तच्च ते भीष्म न कश्चिदनुमन्यते ॥ २५ ॥
मूलम्
यदस्तव्यमिमं शश्वन्मोहात् संस्तौषि भक्तितः।
केशवं तच्च ते भीष्म न कश्चिदनुमन्यते ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्म! जो स्तुतिके सर्वथा अयोग्य है, उसी केशवकी तुम मोहवश सदा भक्तिभावसे जो स्तुति करते रहते हो, उसका कोई अनुमोदन नहीं करता॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथं भोजस्य पुरुषे वर्गपाले दुरात्मनि।
समावेशयसे सर्वं जगत् केवलकाम्यया ॥ २६ ॥
मूलम्
कथं भोजस्य पुरुषे वर्गपाले दुरात्मनि।
समावेशयसे सर्वं जगत् केवलकाम्यया ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुरात्मा कृष्ण तो राजा कंसका सेवक है, उनकी गौओंका चरवाहा रहा है। तुम केवल स्वार्थवश इसमें सारे जगत्का समावेश कर रहे हो॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ चैषा न ते बुद्धिः प्रकृतिं याति भारत।
मयैव कथितं पूर्वं भूलिङ्गशकुनिर्यथा ॥ २७ ॥
मूलम्
अथ चैषा न ते बुद्धिः प्रकृतिं याति भारत।
मयैव कथितं पूर्वं भूलिङ्गशकुनिर्यथा ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! तुम्हारी बुद्धि ठिकानेपर नहीं आ रही है। मैं यह बात पहले ही बता चुका हूँ कि तुम भूलिंग पक्षीके समान कहते कुछ और करते कुछ हो॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूलिङ्गशकुनिर्नाम पार्श्वे हिमवतः परे।
भीष्म तस्याः सदा वाचः श्रूयन्तेऽर्थविगर्हिताः ॥ २८ ॥
मूलम्
भूलिङ्गशकुनिर्नाम पार्श्वे हिमवतः परे।
भीष्म तस्याः सदा वाचः श्रूयन्तेऽर्थविगर्हिताः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्म! हिमालयके दूसरे भागमें भूलिंग नामसे प्रसिद्ध एक चिड़िया रहती है। उसके मुखसे सदा ऐसी बात सुनायी पड़ती है, जो उसके कार्यके विपरीत भावकी सूचक होनेके कारण अत्यन्त निन्दनीय जान पड़ती है॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मा साहसमितीदं सा सततं वाशते किल।
साहसं चात्मनातीव चरन्ती नावबुध्यते ॥ २९ ॥
मूलम्
मा साहसमितीदं सा सततं वाशते किल।
साहसं चात्मनातीव चरन्ती नावबुध्यते ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह चिड़िया सदा यही बोला करती है—‘मा साहसम्’ (अर्थात् साहसका काम न करो), परंतु वह स्वयं ही भारी साहसका काम करती हुई भी यह नहीं समझ पाती॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा हि मांसार्गलं भीष्म मुखात् सिंहस्य खादतः।
दन्तान्तरविलग्नं यत् तदादत्तेऽल्पचेतना ॥ ३० ॥
मूलम्
सा हि मांसार्गलं भीष्म मुखात् सिंहस्य खादतः।
दन्तान्तरविलग्नं यत् तदादत्तेऽल्पचेतना ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्म! वह मूर्ख चिड़िया मांस खाते हुए सिंहके दाँतोंमें लगे हुए मांसके टुकड़ेको अपनी चोंचसे चुगती रहती है॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इच्छतः सा हि सिंहस्य भीष्म जीवत्यसंशयम्।
तद्वत् त्वमप्यधर्मिष्ठ सदा वाचः प्रभाषसे ॥ ३१ ॥
मूलम्
इच्छतः सा हि सिंहस्य भीष्म जीवत्यसंशयम्।
तद्वत् त्वमप्यधर्मिष्ठ सदा वाचः प्रभाषसे ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
निःसंदेह सिंहकी इच्छासे ही वह अबतक जी रही है। पापी भीष्म! इसी प्रकार तुम भी सदा बढ़-बढ़कर बातें करते हो॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इच्छतां भूमिपालानां भीष्म जीवस्यसंशयम्।
लोकविद्विष्टकर्मा हि नान्योऽस्ति भवता समः ॥ ३२ ॥
मूलम्
इच्छतां भूमिपालानां भीष्म जीवस्यसंशयम्।
लोकविद्विष्टकर्मा हि नान्योऽस्ति भवता समः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्म! निःसंदेह तुम्हारा जीवन इन राजाओंकी इच्छासे ही बचा हुआ है; क्योंकि तुम्हारे समान दूसरा कोई राजा ऐसा नहीं है, जिसके कर्म सम्पूर्ण जगत्से द्वेष करनेवाले हों॥३२॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततश्चेदिपतेः श्रुत्वा भीष्मः स कटुकं वचः।
उवाचेदं वचो राजंश्चेदिराजस्य शृण्वतः ॥ ३३ ॥
मूलम्
ततश्चेदिपतेः श्रुत्वा भीष्मः स कटुकं वचः।
उवाचेदं वचो राजंश्चेदिराजस्य शृण्वतः ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! शिशुपालका यह कटु वचन सुनकर भीष्मजीने शिशुपालके सुनते हुए यह बात कही—॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इच्छतां किल नामाहं जीवाम्येषां महीक्षिताम्।
सोऽहं न गणयाम्येतांस्तृणेनापि नराधिपान् ॥ ३४ ॥
मूलम्
इच्छतां किल नामाहं जीवाम्येषां महीक्षिताम्।
सोऽहं न गणयाम्येतांस्तृणेनापि नराधिपान् ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अहो! शिशुपालके कथनानुसार मैं इन राजाओंकी इच्छापर जी रहा हूँ; परंतु मैं तो इन समस्त भूपालोंको तिनके-बराबर भी नहीं समझता’॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्ते तु भीष्मेण ततः संचुक्रुशुर्नृपाः।
केचिज्जहृषिरे तत्र केचिद् भीष्मं जगर्हिरे ॥ ३५ ॥
मूलम्
एवमुक्ते तु भीष्मेण ततः संचुक्रुशुर्नृपाः।
केचिज्जहृषिरे तत्र केचिद् भीष्मं जगर्हिरे ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मके ऐसा कहनेपर बहुत-से राजा कुपित हो उठे। कुछ लोगोंको हर्ष हुआ तथा कुछ भीष्मजीकी निन्दा करने लगे॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
केचिदूचुर्महेष्वासाः श्रुत्वा भीष्मस्य तद् वचः।
पापोऽवलिप्तो वृद्धश्च नायं भीष्मोऽर्हति क्षमाम् ॥ ३६ ॥
मूलम्
केचिदूचुर्महेष्वासाः श्रुत्वा भीष्मस्य तद् वचः।
पापोऽवलिप्तो वृद्धश्च नायं भीष्मोऽर्हति क्षमाम् ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुछ महान् धनुर्धर नरेश भीष्मकी वह बात सुनकर कहने लगे—‘यह बूढ़ा भीष्म पापी और घमण्डी है; अतः क्षमाके योग्य नहीं है॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हन्यतां दुर्मतिर्भीष्मः पशुवत् साध्वयं नृपाः।
सर्वैः समेत्य संरब्धैर्दह्यतां वा कटाग्निना ॥ ३७ ॥
मूलम्
हन्यतां दुर्मतिर्भीष्मः पशुवत् साध्वयं नृपाः।
सर्वैः समेत्य संरब्धैर्दह्यतां वा कटाग्निना ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजाओ! क्रोधमें भरे हुए हम सब लोग मिलकर इस खोटी बुद्धिवाले भीष्मको पशुकी भाँति गला दबाकर मार डालें अथवा घास-फूसकी आगमें इसे जीते-जी जला दें’॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति तेषां वचः श्रुत्वा ततः कुरुपितामहः।
उवाच मतिमान् भीष्मस्तानेव वसुधाधिपान् ॥ ३८ ॥
मूलम्
इति तेषां वचः श्रुत्वा ततः कुरुपितामहः।
उवाच मतिमान् भीष्मस्तानेव वसुधाधिपान् ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन राजाओंकी ये बातें सुनकर कुरुकुलके पितामह बुद्धिमान् भीष्मजी फिर उन्हीं नरेशोंसे बोले—॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उक्तस्योक्तस्य नेहान्तमहं समुपलक्षये ।
यत् तु वक्ष्यामि तत् सर्वं शृणुध्वं वसुधाधिपाः ॥ ३९ ॥
मूलम्
उक्तस्योक्तस्य नेहान्तमहं समुपलक्षये ।
यत् तु वक्ष्यामि तत् सर्वं शृणुध्वं वसुधाधिपाः ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजाओ! यदि मैं सबकी बातका अलग-अलग उत्तर दूँ तो यहाँ उसकी समाप्ति होती नहीं दिखायी देती। अतः मैं जो कुछ कह रहा हूँ, वह सब ध्यान देकर सुनो॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पशुवद् घातनं वा मे दहनं वा कटाग्निना।
क्रियतां मूर्ध्नि वो न्यस्तं मयेदं सकलं पदम् ॥ ४० ॥
मूलम्
पशुवद् घातनं वा मे दहनं वा कटाग्निना।
क्रियतां मूर्ध्नि वो न्यस्तं मयेदं सकलं पदम् ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तुमलोगोंमें साहस या शक्ति हो, तो पशुकी भाँति मेरी हत्या कर दो अथवा घास-फूसकी आगमें मुझे जला दो। मैंने तो तुमलोगोंके मस्तकपर अपना यह पूरा पैर रख दिया॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष तिष्ठति गोविन्दः पूजितोऽस्माभिरच्युतः।
यस्य वस्त्वरते बुद्धिर्मरणाय स माधवम् ॥ ४१ ॥
कृष्णमाह्वयतामद्य युद्धे चक्रगदाधरम् ।
यादवस्यैव देवस्य देहं विशतु पातितः ॥ ४२ ॥
मूलम्
एष तिष्ठति गोविन्दः पूजितोऽस्माभिरच्युतः।
यस्य वस्त्वरते बुद्धिर्मरणाय स माधवम् ॥ ४१ ॥
कृष्णमाह्वयतामद्य युद्धे चक्रगदाधरम् ।
यादवस्यैव देवस्य देहं विशतु पातितः ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘हमने जिनकी पूजा की है, अपनी महिमासे कभी च्युत न होनेवाले वे भगवान् गोविन्द तुमलोगोंके सामने मौजूद हैं। तुमलोगोंमेंसे जिसकी बुद्धि मृत्युका आलिंगन करनेके लिये उतावली हो रही हो, वह इन्हीं यदुकुल-तिलक चक्रगदाधर श्रीकृष्णको आज युद्धके लिये ललकारे और इनके हाथों मारा जाकर इन्हीं भगवान्के शरीरमें प्रविष्ट हो जाय’॥४१-४२॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि शिशुपालवधपर्वणि भीष्मवाक्ये चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४४ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्वके अन्तर्गत शिशुपालवधपर्वमें भीष्मवाक्यविषयक चौवालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥४४॥