श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
द्विचत्वारिंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
शिशुपालकी बातोंपर भीमसेनका क्रोध और भीष्मजीका उन्हें शान्त करना
मूलम् (वचनम्)
शिशुपाल उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
स मे बहुमतो राजा जरासंधो महाबलः।
योऽनेन युद्धं नेयेष दासोऽयमिति संयुगे ॥ १ ॥
मूलम्
स मे बहुमतो राजा जरासंधो महाबलः।
योऽनेन युद्धं नेयेष दासोऽयमिति संयुगे ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शिशुपाल बोला— महाबली राजा जरासंध मेरे लिये बड़े ही सम्माननीय थे। वे कृष्णको दास समझकर इसके साथ युद्धमें लड़ना ही नहीं चाहते थे॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
केशवेन कृतं कर्म जरासंधवधे तदा।
भीमसेनार्जुनाभ्यां च कस्तत् साध्विति मन्यते ॥ २ ॥
मूलम्
केशवेन कृतं कर्म जरासंधवधे तदा।
भीमसेनार्जुनाभ्यां च कस्तत् साध्विति मन्यते ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब इस केशवने जरासंधके वधके लिये भीमसेन और अर्जुनको साथ लेकर जो नीच कर्म किया है, उसे कौन अच्छा मान सकता है?॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अद्वारेण प्रविष्टेन छद्मना ब्रह्मवादिना।
दृष्टः प्रभावः कृष्णेन जरासंधस्य भूपतेः ॥ ३ ॥
मूलम्
अद्वारेण प्रविष्टेन छद्मना ब्रह्मवादिना।
दृष्टः प्रभावः कृष्णेन जरासंधस्य भूपतेः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पहले तो (चैत्यकगिरिके शिखरको तोड़कर) बिना दरवाजेके ही इसने नगरमें प्रवेश किया। उसपर भी छद्मवेष बना लिया और अपनेको ब्राह्मण प्रसिद्ध कर दिया। इस प्रकार इस कृष्णने भूपाल जरासंधका प्रभाव देखा॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
येन धर्मात्मनाऽऽत्मानं ब्रह्मण्यमविजानता ।
नेषितं पाद्यमस्मै तद् दातुमग्रे दुरात्मने ॥ ४ ॥
मूलम्
येन धर्मात्मनाऽऽत्मानं ब्रह्मण्यमविजानता ।
नेषितं पाद्यमस्मै तद् दातुमग्रे दुरात्मने ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस धर्मात्मा जरासंधने जब इस दुरात्माके आगे ब्राह्मण अतिथिके योग्य पाद्य आदि प्रस्तुत किये, तब इसने यह जानकर कि मैं ब्राह्मण नहीं हूँ, उसे ग्रहण करनेकी इच्छा नहीं की॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भुज्यतामिति तेनोक्ताः कृष्णभीमधनंजयाः ।
जरासंधेन कौरव्य कृष्णेन विकृतं कृतम् ॥ ५ ॥
मूलम्
भुज्यतामिति तेनोक्ताः कृष्णभीमधनंजयाः ।
जरासंधेन कौरव्य कृष्णेन विकृतं कृतम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कौरव्य भीष्म! तत्पश्चात् जब उन्होंने कृष्ण, भीम और अर्जुन तीनोंसे भोजन करनेका आग्रह किया, तब इस कृष्णने ही उसका निषेध किया था॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद्ययं जगतः कर्ता यथैनं मूर्ख मन्यसे।
कस्मान्न ब्राह्मणं सम्यगात्मानमवगच्छति ॥ ६ ॥
मूलम्
यद्ययं जगतः कर्ता यथैनं मूर्ख मन्यसे।
कस्मान्न ब्राह्मणं सम्यगात्मानमवगच्छति ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मूर्ख भीष्म! यदि यह कृष्ण सम्पूर्ण जगत्का कर्ता-धर्ता है, जैसा कि तुम इसे मानते हो तो यह अपनेको भलीभाँति ब्राह्मण भी क्यों नहीं मानता?॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदं त्वाश्चर्यभूतं मे यदिमे पाण्डवास्त्वया।
अपकृष्टाः सतां मार्गान्मन्यन्ते तच्च साध्विति ॥ ७ ॥
मूलम्
इदं त्वाश्चर्यभूतं मे यदिमे पाण्डवास्त्वया।
अपकृष्टाः सतां मार्गान्मन्यन्ते तच्च साध्विति ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुझे सबसे बढ़कर आश्चर्यकी बात तो यह जान पड़ती है कि ये पाण्डव भी तुम्हारे द्वारा सन्मार्गसे दूर हटा दिये गये हैं; इसलिये ये भी कृष्णके इस कार्यको ठीक समझते हैं॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ वा नैतदाश्चर्यं येषां त्वमसि भारत।
स्त्रीसधर्मा च वृद्धश्च सर्वार्थानां प्रदर्शकः ॥ ८ ॥
मूलम्
अथ वा नैतदाश्चर्यं येषां त्वमसि भारत।
स्त्रीसधर्मा च वृद्धश्च सर्वार्थानां प्रदर्शकः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अथवा भारत! स्त्रीके समान धर्मवाले (नपुंसक) और बूढ़े तुम-जैसे लोग जिनके सभी कार्योंमें पथ-प्रदर्शन करते हैं, उनका ऐसा समझना कोई आश्चर्यकी बात नहीं है॥८॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा रूक्षं रूक्षाक्षरं बहु।
चुकोप बलिनां श्रेष्ठो भीमसेनः प्रतापवान् ॥ ९ ॥
मूलम्
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा रूक्षं रूक्षाक्षरं बहु।
चुकोप बलिनां श्रेष्ठो भीमसेनः प्रतापवान् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! शिशुपालकी बातें बड़ी रूखी थीं। उनका एक-एक अक्षर कटुतासे भरा हुआ था। उन्हें सुनकर बलवानोंमें श्रेष्ठ प्रतापी भीमसेन क्रोधाग्निसे जल उठे॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा पद्मप्रतीकाशे स्वभावायतविस्तृते ।
भूयः क्रोधाभिताम्राक्षे रक्ते नेत्रे बभूवतुः ॥ १० ॥
मूलम्
तथा पद्मप्रतीकाशे स्वभावायतविस्तृते ।
भूयः क्रोधाभिताम्राक्षे रक्ते नेत्रे बभूवतुः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनकी आँखें स्वभावतः बड़ी-बड़ी और कमलके समान सुन्दर थीं। वे क्रोधके कारण अधिक लाल हो गयीं; मानो उनमें खून उतर आया हो॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रिशिखां भ्रुकुटीं चास्य ददृशुः सर्वपार्थिवाः।
ललाटस्थां त्रिकूटस्थां गङ्गां त्रिपथगामिव ॥ ११ ॥
मूलम्
त्रिशिखां भ्रुकुटीं चास्य ददृशुः सर्वपार्थिवाः।
ललाटस्थां त्रिकूटस्थां गङ्गां त्रिपथगामिव ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सब राजाओंने देखा, उनके ललाटमें तीन रेखाओंसे युक्त भ्रुकुटी तन गयी है; मानो त्रिकूटपर्वतपर त्रिपथगामिनी गंगा लहरा उठी हों॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दन्तान् संदशतस्तस्य कोपाद् ददृशुराननम्।
युगान्ते सर्वभूतानि कालस्येव जिघत्सतः ॥ १२ ॥
मूलम्
दन्तान् संदशतस्तस्य कोपाद् ददृशुराननम्।
युगान्ते सर्वभूतानि कालस्येव जिघत्सतः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे दाँतोंसे दाँत पीसने लगे, रोषकी अधिकतासे उनका मुख ऐसा भयंकर दिखायी देने लगा; मानो प्रलयकालमें समस्त प्राणियोंको निगल जानेकी इच्छावाला विकराल काल ही प्रकट हो गया हो॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्पतन्तं तु वेगेन जग्राहैनं मनस्विनम्।
भीष्म एव महाबाहुर्महासेनमिवेश्वरः ॥ १३ ॥
मूलम्
उत्पतन्तं तु वेगेन जग्राहैनं मनस्विनम्।
भीष्म एव महाबाहुर्महासेनमिवेश्वरः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे उछलकर शिशुपालके पास पहुँचना ही चाहते थे कि महाबाहु भीष्मने बड़े वेगसे उठकर उन मनस्वी भीमको पकड़ लिया, मानो महेश्वरने कार्तिकेयको रोक लिया हो॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य भीमस्य भीष्मेण वार्यमाणस्य भारत।
गुरुणा विविधैर्वाक्यैः क्रोधः प्रशममागतः ॥ १४ ॥
मूलम्
तस्य भीमस्य भीष्मेण वार्यमाणस्य भारत।
गुरुणा विविधैर्वाक्यैः क्रोधः प्रशममागतः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! पितामह भीष्मके द्वारा अनेक प्रकारकी बातें कहकर रोके जानेपर भीमसेनका क्रोध शान्त हो गया॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नातिचक्राम भीष्मस्य स हि वाक्यमरिंदमः।
समुद्वृत्तो घनापाये वेलामिव महोदधिः ॥ १५ ॥
मूलम्
नातिचक्राम भीष्मस्य स हि वाक्यमरिंदमः।
समुद्वृत्तो घनापाये वेलामिव महोदधिः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुदमन भीम भीष्मजीकी आज्ञाका उल्लंघन उसी प्रकार न कर सके, जैसे वर्षाके अन्तमें उमड़ा हुआ होनेपर भी महासागर अपनी तटभूमिसे आगे नहीं बढ़ता है॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शिशुपालस्तु संक्रुद्धे भीमसेने जनाधिप।
नाकम्पत तदा वीरः पौरुषे स्वे व्यवस्थितः ॥ १६ ॥
मूलम्
शिशुपालस्तु संक्रुद्धे भीमसेने जनाधिप।
नाकम्पत तदा वीरः पौरुषे स्वे व्यवस्थितः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! भीमसेनके कुपित होनेपर भी वीर शिशुपाल भयभीत नहीं हुआ। उसे अपने पुरुषार्थका पूरा भरोसा था॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्पतन्तं तु वेगेन पुनः पुनररिंदमः।
न स तं चिन्तयामास सिंहः क्रुद्धो मृगं यथा॥१७॥
मूलम्
उत्पतन्तं तु वेगेन पुनः पुनररिंदमः।
न स तं चिन्तयामास सिंहः क्रुद्धो मृगं यथा॥१७॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीमको बार-बार वेगसे उछलते देख शत्रुदमन शिशुपालने उनकी कुछ भी परवाह नहीं की, जैसे क्रोधमें भरा हुआ सिंह मृगको कुछ भी नहीं समझता॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रहसंश्चाब्रवीद् वाक्यं चेदिराजः प्रतापवान्।
भीमसेनमभिक्रुद्धं दृष्ट्वा भीमपराक्रमम् ॥ १८ ॥
मूलम्
प्रहसंश्चाब्रवीद् वाक्यं चेदिराजः प्रतापवान्।
भीमसेनमभिक्रुद्धं दृष्ट्वा भीमपराक्रमम् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय भयानक पराक्रमी भीमसेनको कुपित देख प्रतापी चेदिराज हँसते हुए बोला—॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुञ्चैनं भीष्म पश्यन्तु यावदेनं नराधिपाः।
मत्प्रभावविनिर्दग्धं पतङ्गमिव वह्निना ॥ १९ ॥
मूलम्
मुञ्चैनं भीष्म पश्यन्तु यावदेनं नराधिपाः।
मत्प्रभावविनिर्दग्धं पतङ्गमिव वह्निना ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भीष्म! छोड़ दो इसे, ये सभी राजा देख लें कि यह भीम मेरे प्रभावसे उसी प्रकार दग्ध हो जायगा जैसे फतिंगा आगके पास जाते ही भस्म हो जाता है’॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततश्चेदिपतेर्वाक्यं श्रुत्वा तत् कुरुसत्तमः।
भीमसेनमुवाचेदं भीष्मो मतिमतां वरः ॥ २० ॥
मूलम्
ततश्चेदिपतेर्वाक्यं श्रुत्वा तत् कुरुसत्तमः।
भीमसेनमुवाचेदं भीष्मो मतिमतां वरः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब चेदिराजकी वह बात सुनकर बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ कुरुकुलतिलक भीष्मने भीमसे यह कहा॥२०॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि शिशुपालवधपर्वणि भीमक्रोधे द्विचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४२ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्वके अन्तर्गत शिशुपालवधपर्वमें भीमक्रोधविषयक बयालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥४२॥