श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
एकचत्वारिंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
शिशुपालद्वारा भीष्मकी निन्दा
मूलम् (वचनम्)
शिशुपाल उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
विभीषिकाभिर्बह्वीभिर्भीषयन् सर्वपार्थिवान् ।
न व्यपत्रपसे कस्माद् वृद्धः सन् कुलपांसन ॥ १ ॥
मूलम्
विभीषिकाभिर्बह्वीभिर्भीषयन् सर्वपार्थिवान् ।
न व्यपत्रपसे कस्माद् वृद्धः सन् कुलपांसन ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शिशुपाल बोला— कुलको कलंकित करनेवाले भीष्म! तुम अनेक प्रकारकी विभीषिकाओंद्वारा इन सब राजाओंको डरानेकी चेष्टा कर रहे हो। बड़े-बूढ़े होकर भी तुम्हें अपने इस कृत्यपर लज्जा क्यों नहीं आती?॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
युक्तमेतत् तृतीयायां प्रकृतौ वर्तता त्वया।
वक्तुं धर्मादपेतार्थं त्वं हि सर्वकुरूत्तमः ॥ २ ॥
मूलम्
युक्तमेतत् तृतीयायां प्रकृतौ वर्तता त्वया।
वक्तुं धर्मादपेतार्थं त्वं हि सर्वकुरूत्तमः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम तीसरी प्रकृतिमें स्थित (नपुंसक) हो, अतः तुम्हारे लिये इस प्रकार धर्मविरुद्ध बातें कहना उचित ही है। फिर भी यह आश्चर्य है कि तुम समूचे कुरुकुलके श्रेष्ठ पुरुष कहे जाते हो॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नावि नौरिव सम्बद्धा यथान्धो बान्धमन्वियात्।
तथाभूता हि कौरव्या येषां भीष्म त्वमग्रणीः ॥ ३ ॥
मूलम्
नावि नौरिव सम्बद्धा यथान्धो बान्धमन्वियात्।
तथाभूता हि कौरव्या येषां भीष्म त्वमग्रणीः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्म! जैसे एक नाव दूसरी नावमें बाँध दी जाय, एक अंधा दूसरे अंधेके पीछे चले; वही दशा इन सब कौरवोंकी है, जिन्हें तुम-जैसा अगुआ मिला है॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूतनाघातपूर्वाणि कर्माण्यस्य विशेषतः ।
त्वया कीर्तयतास्माकं भूयः प्रव्यथितं मनः ॥ ४ ॥
मूलम्
पूतनाघातपूर्वाणि कर्माण्यस्य विशेषतः ।
त्वया कीर्तयतास्माकं भूयः प्रव्यथितं मनः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुमने श्रीकृष्णके पूतना-वध आदि कर्मोंका जो विशेषरूपसे वर्णन किया है, उससे हमारे मनको पुनः बहुत बड़ी चोट पहुँची है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवलिप्तस्य मूर्खस्य केशवं स्तोतुमिच्छतः।
कथं भीष्म न ते जिह्वा शतधेयं विदीर्यते ॥ ५ ॥
मूलम्
अवलिप्तस्य मूर्खस्य केशवं स्तोतुमिच्छतः।
कथं भीष्म न ते जिह्वा शतधेयं विदीर्यते ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्म! तुम्हें अपने ज्ञानीपनका बड़ा घमंड है, परंतु तुम हो वास्तवमें बड़े मूर्ख! ओह! इस केशवकी स्तुति करनेकी इच्छा होते ही तुम्हारी जीभके सैकड़ों टुकड़े क्यों नहीं हो जाते?॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्र कुत्सा प्रयोक्तव्या भीष्म बालतरैर्नरैः।
तमिमं ज्ञानवृद्धः सन् गोपं संस्तोतुमिच्छसि ॥ ६ ॥
मूलम्
यत्र कुत्सा प्रयोक्तव्या भीष्म बालतरैर्नरैः।
तमिमं ज्ञानवृद्धः सन् गोपं संस्तोतुमिच्छसि ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्म! जिसके प्रति मूर्ख-से-मूर्ख मनुष्योंको भी घृणा करनी चाहिये, उसी ग्वालियेकी तुम ज्ञानवृद्ध होकर भी स्तुति करना चाहते हो (यह आश्चर्य है!)॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद्यनेन हतो बाल्ये शकुनिश्चित्रमत्र किम्।
तौ वाश्ववृषभौ भीष्म यौ न युद्धविशारदौ ॥ ७ ॥
मूलम्
यद्यनेन हतो बाल्ये शकुनिश्चित्रमत्र किम्।
तौ वाश्ववृषभौ भीष्म यौ न युद्धविशारदौ ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्म! यदि इसने बचपनमें एक पक्षी (बकासुर)-को अथवा जो युद्धकी कलासे सर्वथा अनभिज्ञ थे, उन अश्व (केशी) और वृषभ (अरिष्टासुर) नामक पशुओंको मार डाला तो इसमें क्या आश्चर्यकी बात हो गयी?॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चेतनारहितं काष्ठं यद्यनेन निपातितम्।
पादेन शकटं भीष्म तत्र किं कृतमद्भुतम् ॥ ८ ॥
मूलम्
चेतनारहितं काष्ठं यद्यनेन निपातितम्।
पादेन शकटं भीष्म तत्र किं कृतमद्भुतम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्म! छकड़ा क्या है, चेतनाशून्य लकड़ियोंका ढेर ही तो, यदि इसने पैरसे उसको उलट ही दिया तो कौन अनोखी करामात कर डाली?॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(अर्कप्रमाणौ तौ वृक्षौ यद्यनेन निपातितौ।
नागश्च पातितोऽनेन तत्र को विस्मयः कृतः॥)
मूलम्
(अर्कप्रमाणौ तौ वृक्षौ यद्यनेन निपातितौ।
नागश्च पातितोऽनेन तत्र को विस्मयः कृतः॥)
अनुवाद (हिन्दी)
आकके पौधोंके बराबर दो अर्जुन वृक्षोंको यदि श्रीकृष्णने गिरा दिया अथवा एक नागको ही मार गिराया तो कौन बड़े आश्चर्यका काम कर डाला?।
विश्वास-प्रस्तुतिः
वल्मीकमात्रः सप्ताहं यद्यनेन धृतोऽचलः।
तदा गोवर्धनो भीष्म न तच्चित्रं मतं मम ॥ ९ ॥
मूलम्
वल्मीकमात्रः सप्ताहं यद्यनेन धृतोऽचलः।
तदा गोवर्धनो भीष्म न तच्चित्रं मतं मम ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्म! यदि इसने गोवर्धनपर्वतको सात दिनतक अपने हाथपर उठाये रखा तो उसमें भी मुझे कोई आश्चर्यकी बात नहीं जान पड़ती; क्योंकि गोवर्धन तो दीमकोंकी खोदी हुई मिट्टीका ढेरमात्र है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भुक्तमेतेन बह्वन्नं क्रीडता नगमूर्धनि।
इति ते भीष्म शृण्वानाः परे विस्मयमागताः ॥ १० ॥
मूलम्
भुक्तमेतेन बह्वन्नं क्रीडता नगमूर्धनि।
इति ते भीष्म शृण्वानाः परे विस्मयमागताः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्म! कृष्णने गोवर्धनपर्वतके शिखरपर खेलते हुए अकेले ही बहुत-सा अन्न खा लिया, यह बात भी तुम्हारे मुँहसे सुनकर दूसरे लोगोंको ही आश्चर्य हुआ होगा (मुझे नहीं)॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्य चानेन धर्मज्ञ भुक्तमन्नं बलीयसः।
स चानेन हतः कंस इत्येतन्न महाद्भुतम् ॥ ११ ॥
मूलम्
यस्य चानेन धर्मज्ञ भुक्तमन्नं बलीयसः।
स चानेन हतः कंस इत्येतन्न महाद्भुतम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मज्ञ भीष्म! जिस महाबली कंसका अन्न खाकर यह पला था, उसीको इसने मार डाला। यह भी इसके लिये कोई बड़ी अद्भुत बात नहीं है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न ते श्रुतमिदं भीष्म नूनं कथयतां सताम्।
यद् वक्ष्ये त्वामधर्मज्ञं वाक्यं कुरुकुलाधम ॥ १२ ॥
मूलम्
न ते श्रुतमिदं भीष्म नूनं कथयतां सताम्।
यद् वक्ष्ये त्वामधर्मज्ञं वाक्यं कुरुकुलाधम ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुकुलाधम भीष्म! तुम धर्मको बिलकुल नहीं जानते। मैं तुमसे धर्मकी जो बात कहूँगा, वह तुमने संत-महात्माओंके मुखसे भी नहीं सुनी होगी॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्त्रीषु गोषु न शस्त्राणि पातयेद् ब्राह्मणेषु च।
यस्य चान्नानि भुञ्जीत यत्र च स्यात् प्रतिश्रयः ॥ १३ ॥
मूलम्
स्त्रीषु गोषु न शस्त्राणि पातयेद् ब्राह्मणेषु च।
यस्य चान्नानि भुञ्जीत यत्र च स्यात् प्रतिश्रयः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्त्रीपर, गौपर, ब्राह्मणोंपर तथा जिसका अन्न खाय अथवा जिनके यहाँ अपनेको आश्रय मिला हो, उनपर भी हथियार न चलाये॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति सन्तोऽनुशासन्ति सज्जनं धर्मिणः सदा।
भीष्म लोके हि तत् सर्वं वितथं त्वयि दृश्यते॥१४॥
मूलम्
इति सन्तोऽनुशासन्ति सज्जनं धर्मिणः सदा।
भीष्म लोके हि तत् सर्वं वितथं त्वयि दृश्यते॥१४॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्म! जगत्में साधु धर्मात्मा पुरुष सज्जनोंको सदा इसी धर्मका उपदेश देते रहते हैं; किंतु तुम्हारे निकट यह सब धर्म मिथ्या दिखायी देता है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्ञानवृद्धं च वृद्धं च भूयांसं केशवं मम।
अजानत इवाख्यासि संस्तुवन् कौरवाधम ॥ १५ ॥
मूलम्
ज्ञानवृद्धं च वृद्धं च भूयांसं केशवं मम।
अजानत इवाख्यासि संस्तुवन् कौरवाधम ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कौरवाधम! तुम मेरे सामने इस कृष्णकी स्तुति करते हुए इसे ज्ञानवृद्ध और वयोवृद्ध बता रहे हो, मानो मैं इसके विषयमें कुछ जानता ही न होऊँ॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गोघ्नः स्त्रीघ्नश्च सन् भीष्म त्वद्वाक्याद् यदि पूज्यते।
एवंभूतश्च यो भीष्म कथं संस्तवमर्हति ॥ १६ ॥
मूलम्
गोघ्नः स्त्रीघ्नश्च सन् भीष्म त्वद्वाक्याद् यदि पूज्यते।
एवंभूतश्च यो भीष्म कथं संस्तवमर्हति ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्म! यदि तुम्हारे कहनेसे गोघाती और स्त्रीहन्ता होते हुए भी इस कृष्णकी पूजा हो रही है तो तुम्हारी धर्मज्ञताकी हद हो गयी। तुम्हीं बताओ, जो इन दोनों ही प्रकारकी हत्याओंका अपराधी है, वह स्तुतिका अधिकारी कैसे हो सकता है?॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
असौ मतिमतां श्रेष्ठो य एष जगतः प्रभुः।
सम्भावयति चाप्येवं त्वद्वाक्याच्च जनार्दनः।
एवमेतत् सर्वमिति तत् सर्वं वितथं ध्रुवम् ॥ १७ ॥
मूलम्
असौ मतिमतां श्रेष्ठो य एष जगतः प्रभुः।
सम्भावयति चाप्येवं त्वद्वाक्याच्च जनार्दनः।
एवमेतत् सर्वमिति तत् सर्वं वितथं ध्रुवम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम कहते हो—‘ये बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ हैं, ये ही सम्पूर्ण जगत्के ईश्वर हैं’ और तुम्हारे ही कहनेसे यह कृष्ण अपनेको ऐसा ही समझने भी लगा है। वह इन सभी बातोंको ज्यों-की-त्यों ठीक मानता है; परंतु मेरी दृष्टिमें कृष्णके सम्बन्धमें तुम्हारे द्वारा जो कुछ कहा गया है, वह सब निश्चय ही झूठा है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न गाथागाथिनं शास्ति बहु चेदपि गायति।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि भूलिङ्गशकुनिर्यथा ॥ १८ ॥
मूलम्
न गाथागाथिनं शास्ति बहु चेदपि गायति।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि भूलिङ्गशकुनिर्यथा ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कोई भी गीत गानेवालेको कुछ सिखा नहीं सकता, चाहे वह कितनी ही बार क्यों न गाता हो। भूलिंग पक्षीकी भाँति सब प्राणी अपनी प्रकृतिका ही अनुसरण करते हैं॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नूनं प्रकृतिरेषा ते जघन्या नात्र संशयः।
अति पापीयसी चैषा पाण्डवानामपीष्यते ॥ १९ ॥
मूलम्
नूनं प्रकृतिरेषा ते जघन्या नात्र संशयः।
अति पापीयसी चैषा पाण्डवानामपीष्यते ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
निश्चय ही तुम्हारी यह प्रकृति बड़ी अधम है, इसमें संशय नहीं है। अतएव इन पाण्डवोंकी प्रकृति भी तुम्हारे ही समान अत्यन्त पापमयी होती जा रही है॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
येषामर्च्यतमः कृष्णस्त्वं च येषां प्रदर्शकः।
धर्मवांस्त्वमधर्मज्ञः सतां मार्गादवप्लुतः ॥ २० ॥
मूलम्
येषामर्च्यतमः कृष्णस्त्वं च येषां प्रदर्शकः।
धर्मवांस्त्वमधर्मज्ञः सतां मार्गादवप्लुतः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अथवा क्यों न हो, जिनका परम पूजनीय कृष्ण है और सत्पुरुषोंके मार्गसे गिरा हुआ तुम-जैसा धर्मज्ञानशून्य धर्मात्मा जिनका मार्गदर्शक है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
को हि धर्मिणमात्मानं जानन् ज्ञानविदां वरः।
कुर्याद् यथा त्वया भीष्म कृतं धर्ममवेक्षता ॥ २१ ॥
मूलम्
को हि धर्मिणमात्मानं जानन् ज्ञानविदां वरः।
कुर्याद् यथा त्वया भीष्म कृतं धर्ममवेक्षता ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्म! कौन ऐसा पुरुष होगा, जो अपनेको ज्ञानवानोंमें श्रेष्ठ और धर्मात्मा जानते हुए भी ऐसे नीच कर्म करेगा, जो धर्मपर दृष्टि रखते हुए भी तुम्हारे द्वारा किये गये हैं॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चेत् त्वं धर्मं विजानासि यदि प्राज्ञा मतिस्तव।
अन्यकामा हि धर्मज्ञा कन्यका प्राज्ञमानिना।
अम्बा नामेति भद्रं ते कथं सापहृता त्वया ॥ २२ ॥
मूलम्
चेत् त्वं धर्मं विजानासि यदि प्राज्ञा मतिस्तव।
अन्यकामा हि धर्मज्ञा कन्यका प्राज्ञमानिना।
अम्बा नामेति भद्रं ते कथं सापहृता त्वया ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि तुम धर्मको जानते हो, यदि तुम्हारी बुद्धि उत्तम ज्ञान और विवेकसे सम्पन्न है तो तुम्हारा भला हो, बताओ, काशिराजकी जो धर्मज्ञ कन्या अम्बा दूसरे पुरुषमें अनुरक्त थी, उसका अपनेको पण्डित माननेवाले तुमने क्यों अपहरण किया?॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां त्वयापि हृतां भीष्म कन्यां नैषितवान् यतः।
भ्राता विचित्रवीर्यस्ते सतां मार्गमनुष्ठितः ॥ २३ ॥
मूलम्
तां त्वयापि हृतां भीष्म कन्यां नैषितवान् यतः।
भ्राता विचित्रवीर्यस्ते सतां मार्गमनुष्ठितः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्म! तुम्हारे द्वारा अपहरण की गयी उस काशिराजकी कन्याको तुम्हारे भाई विचित्रवीर्यने अपनानेकी इच्छा नहीं की, क्योंकि वे सन्मार्गपर स्थित रहनेवाले थे॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दारयोर्यस्य चान्येन मिषतः प्राज्ञमानिनः।
तव जातान्यपत्यानि सज्जनाचरिते पथि ॥ २४ ॥
मूलम्
दारयोर्यस्य चान्येन मिषतः प्राज्ञमानिनः।
तव जातान्यपत्यानि सज्जनाचरिते पथि ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्हींकी दोनों विधवा पत्नियोंके गर्भसे तुम-जैसे पण्डितमानीके देखते-देखते दूसरे पुरुषद्वारा संतानें उत्पन्न की गयीं, फिर भी तुम अपनेको साधु पुरुषोंके मार्गपर स्थिर मानते हो॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
को हि धर्मोऽस्ति ते भीष्म ब्रह्मचर्यमिदं वृथा।
यद् धारयसि मोहाद् वा क्लीबत्वाद् वा न संशयः॥२५॥
मूलम्
को हि धर्मोऽस्ति ते भीष्म ब्रह्मचर्यमिदं वृथा।
यद् धारयसि मोहाद् वा क्लीबत्वाद् वा न संशयः॥२५॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्म! तुम्हारा धर्म क्या है! तुम्हारा यह ब्रह्मचर्य भी व्यर्थका ढकोसलामात्र है, जिसे तुमने मोहवश अथवा नपुंसकताके कारण धारण कर रखा है, इसमें संशय नहीं॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न त्वहं तव धर्मज्ञ पश्याम्युपचयं क्वचित्।
न हि ते सेविता वृद्धा य एवं धर्ममब्रवीः॥२६॥
मूलम्
न त्वहं तव धर्मज्ञ पश्याम्युपचयं क्वचित्।
न हि ते सेविता वृद्धा य एवं धर्ममब्रवीः॥२६॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मज्ञ भीष्म! मैं तुम्हारी कहीं कोई उन्नति भी तो नहीं देख रहा हूँ। मेरा तो विश्वास है, तुमने ज्ञानवृद्ध पुरुषोंका कभी संग नहीं किया है। तभी तो तुम ऐसे धर्मका उपदेश करते हो॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इष्टं दत्तमधीतं च यज्ञाश्च बहुदक्षिणाः।
सर्वमेतदपत्यस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥ २७ ॥
मूलम्
इष्टं दत्तमधीतं च यज्ञाश्च बहुदक्षिणाः।
सर्वमेतदपत्यस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यज्ञ, दान, स्वाध्याय तथा बहुत दक्षिणावाले बड़े-बड़े यज्ञ—ये सब संतानकी सोलहवीं कलाके बराबर भी नहीं हो सकते॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्रतोपवासैर्बहुभिः कृतं भवति भीष्म यत्।
सर्वं तदनपत्यस्य मोघं भवति निश्चयात् ॥ २८ ॥
मूलम्
व्रतोपवासैर्बहुभिः कृतं भवति भीष्म यत्।
सर्वं तदनपत्यस्य मोघं भवति निश्चयात् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्म! अनेक व्रतों और उपवासोंद्वारा जो पुण्य कार्य किया जाता है, वह सब संतानहीन पुरुषके लिये निश्चय ही व्यर्थ हो जाता है॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽनपत्यश्च वृद्धश्च मिथ्याधर्मानुसारकः ।
हंसवत् त्वमपीदानीं ज्ञातिभ्यः प्राप्नुया वधम् ॥ २९ ॥
मूलम्
सोऽनपत्यश्च वृद्धश्च मिथ्याधर्मानुसारकः ।
हंसवत् त्वमपीदानीं ज्ञातिभ्यः प्राप्नुया वधम् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम संतानहीन, वृद्ध और मिथ्याधर्मका अनुसरण करनेवाले हो; अतः इस समय हंसकी भाँति तुम भी अपने जातिभाइयोंके हाथसे ही मारे जाओगे॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं हि कथयन्त्यन्ये नरा ज्ञानविदः पुरा।
भीष्म यत् तदहं सम्यग् वक्ष्यामि तव शृण्वतः ॥ ३० ॥
मूलम्
एवं हि कथयन्त्यन्ये नरा ज्ञानविदः पुरा।
भीष्म यत् तदहं सम्यग् वक्ष्यामि तव शृण्वतः ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्म! पहलेके विवेकी मनुष्य एक प्राचीन वृत्तान्त सुनाया करते हैं, वही मैं ज्यों-का-त्यों तुम्हारे सामने उपस्थित करता हूँ, सुनो॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वृद्धः किल समुद्रान्ते कश्चिद्धंसोऽभवत् पुरा।
धर्मवागन्यथावृत्तः पक्षिणः सोऽनुशास्ति च ॥ ३१ ॥
धर्मं चरत माधर्ममिति तस्य वचः किल।
पक्षिणः शुश्रुवुर्भीष्म सततं सत्यवादिनः ॥ ३२ ॥
मूलम्
वृद्धः किल समुद्रान्ते कश्चिद्धंसोऽभवत् पुरा।
धर्मवागन्यथावृत्तः पक्षिणः सोऽनुशास्ति च ॥ ३१ ॥
धर्मं चरत माधर्ममिति तस्य वचः किल।
पक्षिणः शुश्रुवुर्भीष्म सततं सत्यवादिनः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पूर्वकालकी बात है, समुद्रके निकट कोई बूढ़ा हंस रहता था। वह धर्मकी बातें करता; परंतु उसका आचरण ठीक उसके विपरीत होता था। वह पक्षियोंको सदा यह उपदेश किया करता कि धर्म करो, अधर्मसे दूर रहो। सदा सत्य बोलनेवाले उस हंसके मुखसे दूसरे-दूसरे पक्षी यही उपदेश सुना करते थे॥३१-३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथास्य भक्ष्यमाजह्रुः समुद्रजलचारिणः ।
अण्डजा भीष्म तस्यान्ये धर्मार्थमिति शुश्रुम ॥ ३३ ॥
मूलम्
अथास्य भक्ष्यमाजह्रुः समुद्रजलचारिणः ।
अण्डजा भीष्म तस्यान्ये धर्मार्थमिति शुश्रुम ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्म! ऐसा सुननेमें आया है कि वे समुद्रके जलमें विचरनेवाले पक्षी धर्म समझकर उसके लिये भोजन जुटा दिया करते थे॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते च तस्य समभ्याशे निक्षिप्याण्डानि सर्वशः।
समुद्राम्भस्यमज्जन्त चरन्तो भीष्म पक्षिणः।
तेषामण्डानि सर्वेषां भक्षयामास पापकृत् ॥ ३४ ॥
मूलम्
ते च तस्य समभ्याशे निक्षिप्याण्डानि सर्वशः।
समुद्राम्भस्यमज्जन्त चरन्तो भीष्म पक्षिणः।
तेषामण्डानि सर्वेषां भक्षयामास पापकृत् ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्म! हंसपर विश्वास हो जानेके कारण वे सभी पक्षी अपने अण्डे उसके पास ही रखकर समुद्रके जलमें गोते लगाते और विचरते थे; परंतु वह पापी हंस उन सबके अण्डे खा जाता था॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स हंसः सम्प्रमत्तानामप्रमत्तः स्वकर्मणि।
ततः प्रक्षीयमाणेषु तेषु तेष्वण्डजोऽपरः।
अशङ्कत महाप्राज्ञः स कदाचिद् ददर्श ह ॥ ३५ ॥
मूलम्
स हंसः सम्प्रमत्तानामप्रमत्तः स्वकर्मणि।
ततः प्रक्षीयमाणेषु तेषु तेष्वण्डजोऽपरः।
अशङ्कत महाप्राज्ञः स कदाचिद् ददर्श ह ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे बेचारे पक्षी असावधान थे और वह अपना काम बनानेके लिये सदा चौकन्ना रहता था। तदनन्तर जब वे अण्डे नष्ट होने लगे, तब एक बुद्धिमान् पक्षीको हंसपर कुछ संदेह हुआ और एक दिन उसने उसकी सारी करतूत देख भी ली॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः स कथयामास दृष्ट्वा हंसस्य किल्बिषम्।
तेषां परमदुःखार्तः स पक्षी सर्वपक्षिणाम् ॥ ३६ ॥
मूलम्
ततः स कथयामास दृष्ट्वा हंसस्य किल्बिषम्।
तेषां परमदुःखार्तः स पक्षी सर्वपक्षिणाम् ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हंसका यह पापपूर्ण कृत्य देखकर वह पक्षी दुःखसे अत्यन्त आतुर हो उठा और उसने अन्य सब पक्षियोंसे सारा हाल कह सुनाया॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः प्रत्यक्षतो दृष्ट्वा पक्षिणस्ते समीपगाः।
निजघ्नुस्तं तदा हंसं मिथ्यावृत्तं कुरूद्वह ॥ ३७ ॥
मूलम्
ततः प्रत्यक्षतो दृष्ट्वा पक्षिणस्ते समीपगाः।
निजघ्नुस्तं तदा हंसं मिथ्यावृत्तं कुरूद्वह ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुवंशी भीष्म! तब उन पक्षियोंने निकट जाकर सब कुछ प्रत्यक्ष देख लिया और धर्मात्माका मिथ्या ढोंग बनाये हुए उस हंसको मार डाला॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते त्वां हंससधर्माणमपीमे वसुधाधिपाः।
निहन्युर्भीष्म संक्रुद्धाः पक्षिणस्तं यथाण्डजम् ॥ ३८ ॥
गाथामप्यत्र गायन्ति ये पुराणविदो जनाः।
भीष्म यां तां च ते सम्यक् कथयिष्यामि भारत॥३९॥
मूलम्
ते त्वां हंससधर्माणमपीमे वसुधाधिपाः।
निहन्युर्भीष्म संक्रुद्धाः पक्षिणस्तं यथाण्डजम् ॥ ३८ ॥
गाथामप्यत्र गायन्ति ये पुराणविदो जनाः।
भीष्म यां तां च ते सम्यक् कथयिष्यामि भारत॥३९॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम भी उस हंसके ही समान हो, अतः ये सब नरेश अत्यन्त कुपित होकर आज तुम्हें उसी तरह मार डालेंगे, जैसे उन पक्षियोंने हंसकी हत्या कर डाली थी। भीष्म! इस विषयमें पुराणवेत्ता विद्वान् एक गाथा गाया करते हैं। भरतकुलभूषण! मैं उसे भी तुमको भलीभाँति सुनाये देता हूँ॥३८-३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्तरात्मन्यभिहते रौषि पत्ररथाशुचि ।
अण्डभक्षणकर्मैतत् तव वाचमतीयते ॥ ४० ॥
मूलम्
अन्तरात्मन्यभिहते रौषि पत्ररथाशुचि ।
अण्डभक्षणकर्मैतत् तव वाचमतीयते ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘हंस! तुम्हारी अन्तरात्मा रागादि दोषोंसे दूषित है, तुम्हारा यह अण्डभक्षणरूप अपवित्र कर्म तुम्हारी इस धर्मोपदेशमयी वाणीके सर्वथा विरुद्ध है’॥४०॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते समापर्वणि शिशुपालवधपर्वणि शिशुपालवाक्ये एकचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४१ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्वके अन्तर्गत शिशुपालवधपर्वमें शिशुपालवाक्यविषयक इकतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥४१॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल ४१ श्लोक हैं)