०३९ सहदेवाह्वया राजक्षोभः

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

सहदेवकी राजाओंको चुनौती तथा क्षुब्ध हुए शिशुपाल आदि नरेशोंका युद्धके लिये उद्यत होना

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वा ततो भीष्मो विरराम महाबलः।
व्याजहारोत्तरं तत्र सहदेवोऽर्थवद् वचः ॥ १ ॥

मूलम्

एवमुक्त्वा ततो भीष्मो विरराम महाबलः।
व्याजहारोत्तरं तत्र सहदेवोऽर्थवद् वचः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! ऐसा कहकर महाबली भीष्म चुप हो गये। तत्पश्चात् माद्रीकुमार सहदेवने शिशुपालकी बातोंका मुँहतोड़ उत्तर देते हुए यह सार्थक बात कही—॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

केशवं केशिहन्तारमप्रमेयपराक्रमम् ।
पूज्यमानं मया यो वः कृष्णं न सहते नृपाः॥२॥
सर्वेषां बलिनां मूर्ध्नि मयेदं निहितं पदम्।
एवमुक्ते मया सम्यगुत्तरं प्रब्रवीतु सः ॥ ३ ॥
स एव हि मया वध्यो भविष्यति न संशयः।

मूलम्

केशवं केशिहन्तारमप्रमेयपराक्रमम् ।
पूज्यमानं मया यो वः कृष्णं न सहते नृपाः॥२॥
सर्वेषां बलिनां मूर्ध्नि मयेदं निहितं पदम्।
एवमुक्ते मया सम्यगुत्तरं प्रब्रवीतु सः ॥ ३ ॥
स एव हि मया वध्यो भविष्यति न संशयः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजाओ! केशी दैत्यका वध करनेवाले अनन्त-पराक्रमी भगवान् श्रीकृष्णकी मेरे द्वारा जो पूजा की गयी है, उसे आपलोगोंमेंसे जो सहन न कर सकें, उन सब बलवानोंके मस्तकपर मैंने यह पैर रख दिया। मैंने खूब सोच-समझकर यह बात कही है। जो इसका उत्तर देना चाहे, वह सामने आ जाय। मेरे द्वारा वह वधके योग्य होगा; इसमें संशय नहीं है॥२-३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मतिमन्तश्च ये केचिदाचार्यं पितरं गुरुम् ॥ ४ ॥
अर्च्यमर्चितमर्घार्हमनुजानन्तु ते नृपाः ।

मूलम्

मतिमन्तश्च ये केचिदाचार्यं पितरं गुरुम् ॥ ४ ॥
अर्च्यमर्चितमर्घार्हमनुजानन्तु ते नृपाः ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो बुद्धिमान् राजा हों वे मेरे द्वारा की हुई आचार्य, पिता, गुरु, पूजनीय तथा अर्घ्यनिवेदनके सर्वथा योग्य भगवान् श्रीकृष्णकी पूजाका हृदयसे अनुमोदन करें’॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो न व्याजहारैषां कश्चिद् बुद्धिमतां सताम् ॥ ५ ॥
मानिनां बलिनां राज्ञां मध्ये वै दर्शिते पदे।

मूलम्

ततो न व्याजहारैषां कश्चिद् बुद्धिमतां सताम् ॥ ५ ॥
मानिनां बलिनां राज्ञां मध्ये वै दर्शिते पदे।

अनुवाद (हिन्दी)

सहदेवने महामानी और बलवान् राजाओंके बीच खड़े होकर अपना पैर दिखाया था, तो भी जो बुद्धिमान् एवं श्रेष्ठ नरेश थे, उनमेंसे कोई कुछ न बोला॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽपतत् पुष्पवृष्टिः सहदेवस्य मूर्धनि ॥ ६ ॥
अदृश्यरूपा वाचश्चाप्यब्रुवन् साधु साध्विति।

मूलम्

ततोऽपतत् पुष्पवृष्टिः सहदेवस्य मूर्धनि ॥ ६ ॥
अदृश्यरूपा वाचश्चाप्यब्रुवन् साधु साध्विति।

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय सहदेवके मस्तकपर आकाशसे फूलोंकी वर्षा होने लगी और अदृश्यरूपसे खड़े हुए देवताओंने ‘साधु’, ‘साधु’ कहकर उनके सत्साहसकी प्रशंसा की॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आविध्यदजितं कृष्णं भविष्यद्‌भूतजल्पकः ॥ ७ ॥
सर्वसंशयनिर्मोक्ता नारदः सर्वलोकवित् ।
उवाचाखिलभूतानां मध्ये स्पष्टतरं वचः ॥ ८ ॥

मूलम्

आविध्यदजितं कृष्णं भविष्यद्‌भूतजल्पकः ॥ ७ ॥
सर्वसंशयनिर्मोक्ता नारदः सर्वलोकवित् ।
उवाचाखिलभूतानां मध्ये स्पष्टतरं वचः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर कभी पराजित न होनेवाले भगवान् श्रीकृष्णकी महिमाके ज्ञाता, भूत, वर्तमान और भविष्य—तीनों कालोंकी बातें बतानेवाले, सब लोगोंके सभी संशयोंका निवारण करनेवाले तथा सम्पूर्ण लोकोंसे परिचित देवर्षि नारद समस्त उपस्थित प्राणियोंके बीच स्पष्ट शब्दोंमें बोले—॥७-८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृष्णं कमलपत्राक्षं नार्चयिष्यन्ति ये नराः।
जीवन्मृतास्तु ते ज्ञेया न सम्भाष्याः कदाचन ॥ ९ ॥

मूलम्

कृष्णं कमलपत्राक्षं नार्चयिष्यन्ति ये नराः।
जीवन्मृतास्तु ते ज्ञेया न सम्भाष्याः कदाचन ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो मानव कमलनयन भगवान् श्रीकृष्णकी पूजा नहीं करेंगे, वे जीते-जी ही मृतक-तुल्य समझे जायँगे। ऐसे लोगोंसे कभी बातचीत नहीं करनी चाहिये’॥९॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूजयित्वा च पूजार्हान् ब्रह्मक्षत्रविशेषवित्।
सहदेवो नृणां देवः समापद्यत कर्म तत् ॥ १० ॥

मूलम्

पूजयित्वा च पूजार्हान् ब्रह्मक्षत्रविशेषवित्।
सहदेवो नृणां देवः समापद्यत कर्म तत् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! वहाँ आये हुए ब्राह्मणों और क्षत्रियोंमें विशिष्ट व्यक्तियोंको पहचानने-वाले नरदेव सहदेवने क्रमशः पूज्य व्यक्तियोंकी पूजा करके वह अर्घ्यनिवेदनका कार्य पूरा कर दिया॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन्नभ्यर्चिते कृष्णे सुनीथः शत्रुकर्षणः।
अतिताम्रेक्षणः कोपादुवाच मनुजाधिपान् ॥ ११ ॥

मूलम्

तस्मिन्नभ्यर्चिते कृष्णे सुनीथः शत्रुकर्षणः।
अतिताम्रेक्षणः कोपादुवाच मनुजाधिपान् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार श्रीकृष्णका पूजन सम्पन्न हो जानेपर शत्रुविजयी शिशुपालने क्रोधसे अत्यन्त लाल आँखें करके समस्त राजाओंसे कहा—॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्थितः सेनापतिर्योऽहं मन्यध्वं किं तु साम्प्रतम्।
युधि तिष्ठाम संनह्य समेतान् वृष्णिपाण्डवान् ॥ १२ ॥

मूलम्

स्थितः सेनापतिर्योऽहं मन्यध्वं किं तु साम्प्रतम्।
युधि तिष्ठाम संनह्य समेतान् वृष्णिपाण्डवान् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भूमिपालो! मैं सबका सेनापति बनकर खड़ा हूँ। अब तुमलोग किस चिन्तामें पड़े हो। आओ, हम सब लोग युद्धके लिये सुसज्जित हो पाण्डवों और यादवोंकी सम्मिलित सेनाका सामना करनेके लिये डट जायँ’॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति सर्वान् समुत्साह्य राज्ञस्तांश्चेदिपुङ्गवः।
यज्ञोपघाताय ततः सोऽमन्त्रयत राजभिः ॥ १३ ॥
तत्राहूता गताः सर्वे सुनीथप्रमुखा गणाः।
समदृश्यन्त संक्रुद्धा विवर्णवदनास्तथा ॥ १४ ॥

मूलम्

इति सर्वान् समुत्साह्य राज्ञस्तांश्चेदिपुङ्गवः।
यज्ञोपघाताय ततः सोऽमन्त्रयत राजभिः ॥ १३ ॥
तत्राहूता गताः सर्वे सुनीथप्रमुखा गणाः।
समदृश्यन्त संक्रुद्धा विवर्णवदनास्तथा ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार उन सब राजाओंको युद्धके लिये उत्साहित करके चेदिराजने युधिष्ठिरके यज्ञमें विघ्न डालनेके उद्देश्यसे राजाओंसे सलाह की। शिशुपालके इस प्रकार बुलानेपर उसके सेनापतित्वमें सुनीथ आदि कुछ प्रमुख नरेशगण चले आये। वे सब-के-सब अत्यन्त क्रोधसे भर रहे थे एवं उनके मुखकी कान्ति बदली हुई दिखायी देती थी॥१३-१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युधिष्ठिराभिषेकं च वासुदेवस्य चार्हणम्।
न स्याद् यथा तथा कार्यमेवं सर्वे तदाब्रुवन् ॥ १५ ॥

मूलम्

युधिष्ठिराभिषेकं च वासुदेवस्य चार्हणम्।
न स्याद् यथा तथा कार्यमेवं सर्वे तदाब्रुवन् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन सबने यह कहा कि ‘युधिष्ठिरके अभिषेक और श्रीकृष्णकी पूजाका कार्य सफल न हो, वैसा प्रयत्न करना चाहिये’॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निष्कर्षान्निश्चयात् सर्वे राजानः क्रोधमूर्छिताः।
अब्रुवंस्तत्र राजानो निर्वेदादात्मनिश्चयात् ॥ १६ ॥

मूलम्

निष्कर्षान्निश्चयात् सर्वे राजानः क्रोधमूर्छिताः।
अब्रुवंस्तत्र राजानो निर्वेदादात्मनिश्चयात् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस निर्णय एवं निष्कर्षपर पहुँचकर वे सभी नरेश क्रोधसे मोहित हो गये। सहदेवकी बातोंसे अपमानका अनुभव करके अपनी शक्तिकी प्रबलताका विश्वास करके राजाओंने उपर्युक्त बातें कही थीं॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुहृद्भिर्वार्यमाणानां तेषां हि वपुराबभौ।
आमिषादपकृष्टानां सिंहानामिव गर्जताम् ॥ १७ ॥

मूलम्

सुहृद्भिर्वार्यमाणानां तेषां हि वपुराबभौ।
आमिषादपकृष्टानां सिंहानामिव गर्जताम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपने सगे-सम्बन्धियोंके मना करनेपर भी उनका क्रोधसे तमतमाता हुआ शरीर उन सिंहोंके समान सुशोभित हुआ, जो मांससे वंचित कर दिये जानेके कारण दहाड़ रहे हों।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं बलौघमपर्यन्तं राजसागरमक्षयम् ।
कुर्वाणं समयं कृष्णो युद्धाय बुबुधे तदा ॥ १८ ॥

मूलम्

तं बलौघमपर्यन्तं राजसागरमक्षयम् ।
कुर्वाणं समयं कृष्णो युद्धाय बुबुधे तदा ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाओंका वह समुदाय अक्षय समुद्रकी भाँति उमड़ रहा था। उसका कहीं अन्त नहीं दिखायी देता था। सेनाएँ ही उसकी अपार जलराशि थीं। उसे इस प्रकार शपथ करते देख भगवान् श्रीकृष्णने यह समझ लिया कि अब ये नरेश युद्धके लिये तैयार हैं॥१८॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि अर्घाभिहरणपर्वणि राजमन्त्रणे एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ३९ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्वके अन्तर्गत अर्घाभिहरणपर्वमें राजाओंकी मन्त्रणाविषयक उन्तालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३९॥