श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
सप्तत्रिंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
शिशुपालके आक्षेपपूर्ण वचन
मूलम् (वचनम्)
शिशुपाल उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नायमर्हति वार्ष्णेयस्तिष्ठत्स्विह महात्मसु ।
महीपतिषु कौरव्य राजवत् पार्थिवार्हणम् ॥ १ ॥
मूलम्
नायमर्हति वार्ष्णेयस्तिष्ठत्स्विह महात्मसु ।
महीपतिषु कौरव्य राजवत् पार्थिवार्हणम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शिशुपाल बोला— कौरव्य! यहाँ इन महात्मा भूमिपतियोंके रहते हुए यह वृष्णिवंशी कृष्ण राजाओंकी भाँति राजोचित पूजाका अधिकारी कदापि नहीं हो सकता॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नायं युक्तः समाचारः पाण्डवेषु महात्मसु।
यत् कामात् पुण्डरीकाक्षं पाण्डवार्चितवानसि ॥ २ ॥
बाला यूयं न जानीध्वं धर्मः सूक्ष्मो हि पाण्डवाः।
अयं च स्मृत्यतिक्रान्तो ह्यापगेयोऽल्पदर्शनः ॥ ३ ॥
मूलम्
नायं युक्तः समाचारः पाण्डवेषु महात्मसु।
यत् कामात् पुण्डरीकाक्षं पाण्डवार्चितवानसि ॥ २ ॥
बाला यूयं न जानीध्वं धर्मः सूक्ष्मो हि पाण्डवाः।
अयं च स्मृत्यतिक्रान्तो ह्यापगेयोऽल्पदर्शनः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महात्मा पाण्डवोंके लिये यह विपरीत आचार कभी उचित नहीं है। पाण्डुकुमार! तुमने स्वार्थवश कमलनयन श्रीकृष्णका पूजन किया है। पाण्डवो! अभी तुमलोग बालक हो। तुम्हें धर्मका पता नहीं है, क्योंकि धर्मका स्वरूप अत्यन्त सूक्ष्म है। ये गंगानन्दन भीष्म बहुत बूढ़े हो गये हैं। अब इनकी स्मरणशक्ति जवाब दे चुकी है। इनकी सूझ और समझ भी बहुत कम हो गयी है (तभी इन्होंने श्रीकृष्णपूजाकी सम्मति दी है)॥२-३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वादृशो धर्मयुक्तो हि कुर्वाणः प्रियकाम्यया।
भवत्यभ्यधिकं भीष्म लोकेष्ववमतः सताम् ॥ ४ ॥
मूलम्
त्वादृशो धर्मयुक्तो हि कुर्वाणः प्रियकाम्यया।
भवत्यभ्यधिकं भीष्म लोकेष्ववमतः सताम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्म तुम्हारे-जैसा धर्मात्मा पुरुष भी जब मनमाना अथवा किसीका प्रिय करनेके लिये मुँहदेखी करने लगता है, तब वह साधु पुरुषोंके समाजमें अधिक अपमानका पात्र बन जाता है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथं ह्यराजा दाशाहो मध्ये सर्वमहीक्षिताम्।
अर्हणामर्हति तथा यथा युष्माभिरर्चितः ॥ ५ ॥
मूलम्
कथं ह्यराजा दाशाहो मध्ये सर्वमहीक्षिताम्।
अर्हणामर्हति तथा यथा युष्माभिरर्चितः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह सभी जानते हैं कि यदुवंशी कृष्ण राजा नहीं है, फिर सम्पूर्ण भूपालोंके बीच तुमलोगोंने जिस प्रकार इसकी पूजा की है, वैसी पूजाका अधिकारी यह कैसे हो सकता है?॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ वा मन्यसे कृष्णं स्थविरं कुरुपुङ्गव।
वसुदेवे स्थिते वृद्धे कथमर्हति तत्सुतः ॥ ६ ॥
मूलम्
अथ वा मन्यसे कृष्णं स्थविरं कुरुपुङ्गव।
वसुदेवे स्थिते वृद्धे कथमर्हति तत्सुतः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुपुंगव! अथवा यदि तुम श्रीकृष्णको बड़ा-बूढ़ा समझते हो तो इसके पिता वृद्ध वसुदेवजीके रहते हुए उनका यह पुत्र कैसे पूजाका पात्र हो सकता है?॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ वा वासुदेवोऽपि प्रियकामोऽनुवृत्तवान्।
द्रुपदे तिष्ठति कथं माधवोऽर्हति पूजनम् ॥ ७ ॥
आचार्यं मन्यसे कृष्णमथ वा कुरुनन्दन।
द्रोणे तिष्ठति वार्ष्णेयं कस्मादर्चितवानसि ॥ ८ ॥
मूलम्
अथ वा वासुदेवोऽपि प्रियकामोऽनुवृत्तवान्।
द्रुपदे तिष्ठति कथं माधवोऽर्हति पूजनम् ॥ ७ ॥
आचार्यं मन्यसे कृष्णमथ वा कुरुनन्दन।
द्रोणे तिष्ठति वार्ष्णेयं कस्मादर्चितवानसि ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अथवा यह मान लिया जाय कि वासुदेव कृष्ण तुमलोगोंका प्रिय चाहनेवाला और तुम्हारा अनुसरण करनेवाला सुहृद् है, इसीलिये तुमने इसकी पूजा की है, तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि तुम्हारे सबसे बड़े सुहृद् तो राजा द्रुपद हैं। उनके रहते यह माधव पूजा पानेका अधिकारी कैसे हो सकता है। कुरुनन्दन! अथवा यह समझ लें कि तुम कृष्णको आचार्य मानते हो, फिर भी आचार्योंमें भी बड़े-बूढ़े द्रोणाचार्यके रहते हुए इस यदुवंशीकी पूजा तुमने क्यों की है?॥७-८॥
सूचना (हिन्दी)
भीष्मका युधिष्ठिरको श्रीकृष्णकी महिमा बताना
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋत्विजं मन्यसे कृष्णमथ वा कुरुनन्दन।
द्वैपायने स्थिते वृद्धे कथं कृष्णोऽर्चितस्त्वया ॥ ९ ॥
मूलम्
ऋत्विजं मन्यसे कृष्णमथ वा कुरुनन्दन।
द्वैपायने स्थिते वृद्धे कथं कृष्णोऽर्चितस्त्वया ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुकुलको आनन्दित करनेवाले युधिष्ठिर! अथवा यदि यह कहा जाय कि तुम कृष्णको अपना ऋत्विज् समझते हो तो ऋत्विजोंमें भी सबसे वृद्ध द्वैपायन वेदव्यासके रहते हुए तुमने कृष्णकी अग्रपूजा कैसे की?॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भीष्मे शान्तनवे राजन् स्थिते पुरुषसत्तमे।
स्वच्छन्दमृत्युके राजन् कथं कृष्णोऽर्चितस्त्वया ॥ १० ॥
अश्वत्थाम्नि स्थिते वीरे सर्वशास्त्रविशारदे।
कथं कृष्णस्त्वया राजन्नर्चितः कुरुनन्दन ॥ ११ ॥
मूलम्
भीष्मे शान्तनवे राजन् स्थिते पुरुषसत्तमे।
स्वच्छन्दमृत्युके राजन् कथं कृष्णोऽर्चितस्त्वया ॥ १० ॥
अश्वत्थाम्नि स्थिते वीरे सर्वशास्त्रविशारदे।
कथं कृष्णस्त्वया राजन्नर्चितः कुरुनन्दन ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! शान्तनुनन्दन भीष्म पुरुषशिरोमणि तथा स्वच्छन्दमृत्यु हैं। इनके रहते तुमने कृष्णकी अर्चना कैसे की? कुरुनन्दन युधिष्ठिर! सम्पूर्ण शास्त्रोंके निपुण विद्वान् वीर अश्वत्थामाके रहते हुए तुमने कृष्णकी पूजा कैसे कर डाली?॥१०-११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुर्योधने च राजेन्द्रे स्थिते पुरुषसत्तमे।
कृपे च भारताचार्ये कथं कृष्णस्त्वयार्चितः ॥ १२ ॥
द्रुमं किम्पुरुषाचार्यमतिक्रम्य तथार्चितः ।
भीष्मके चैव दुर्धर्षे पाण्डुवत् कृतलक्षणे ॥ १३ ॥
नृपे च रुक्मिणि श्रेष्ठे एकलव्ये तथैव च।
शल्ये मद्राधिपे चैव कथं कृष्णस्त्वयार्चितः ॥ १४ ॥
मूलम्
दुर्योधने च राजेन्द्रे स्थिते पुरुषसत्तमे।
कृपे च भारताचार्ये कथं कृष्णस्त्वयार्चितः ॥ १२ ॥
द्रुमं किम्पुरुषाचार्यमतिक्रम्य तथार्चितः ।
भीष्मके चैव दुर्धर्षे पाण्डुवत् कृतलक्षणे ॥ १३ ॥
नृपे च रुक्मिणि श्रेष्ठे एकलव्ये तथैव च।
शल्ये मद्राधिपे चैव कथं कृष्णस्त्वयार्चितः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरुषप्रवर राजाधिराज दुर्योधन और भरतवंशके आचार्य महात्मा कृपके रहते हुए तुमने कृष्णकी पूजाका औचित्य कैसे स्वीकार किया? तुमने किम्पुरुषोंके आचार्य द्रुमका उल्लंघन करके कृष्णकी अग्रपूजा क्यों की? पाण्डुके समान दुर्धर्ष वीर तथा राजोचित शुभ-लक्षणोंसे सम्पन्न भीष्मक, राजा रुक्मी और उसी प्रकार श्रेष्ठ धनुर्धर एकलव्य तथा मद्रराज शल्यके रहते हुए तुम्हारे द्वारा कृष्णकी पूजा किस दृष्टिसे की गयी?॥१२—१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयं च सर्वराज्ञां वै बलश्लाघी महाबलः।
जामदग्न्यस्य दयितः शिष्यो विप्रस्य भारत ॥ १५ ॥
येनात्मबलमाश्रित्य राजानो युधि निर्जिताः।
तं च कर्णमतिक्रम्य कथं कृष्णस्त्वयार्चितः ॥ १६ ॥
मूलम्
अयं च सर्वराज्ञां वै बलश्लाघी महाबलः।
जामदग्न्यस्य दयितः शिष्यो विप्रस्य भारत ॥ १५ ॥
येनात्मबलमाश्रित्य राजानो युधि निर्जिताः।
तं च कर्णमतिक्रम्य कथं कृष्णस्त्वयार्चितः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! ये जो अपने बलके द्वारा सब राजाओंसे होड़ लेते हैं, विप्रवर परशुरामजीके प्रिय शिष्य हैं तथा जिन्होंने अपने बलका भरोसा करके युद्धमें अनेक राजाओंको परास्त किया है, उन महाबली कर्णको छोड़कर तुमने कृष्णकी आराधना कैसे की?॥१५-१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैवर्त्विग् नैव चाचार्यो न राजा मधुसूदनः।
अर्चितश्च कुरुश्रेष्ठ किमन्यत्प्रियकाम्यया ॥ १७ ॥
मूलम्
नैवर्त्विग् नैव चाचार्यो न राजा मधुसूदनः।
अर्चितश्च कुरुश्रेष्ठ किमन्यत्प्रियकाम्यया ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुश्रेष्ठ! मधुसूदन कृष्ण न ऋत्विज् है, न आचार्य है और न राजा ही है; फिर तुमने किस प्रिय कामनासे इसकी पूजा की है?॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ वाभ्यर्चनीयोऽयं युष्माकं मधुसूदनः।
किं राजभिरिहानीतैरवमानाय भारत ॥ १८ ॥
मूलम्
अथ वाभ्यर्चनीयोऽयं युष्माकं मधुसूदनः।
किं राजभिरिहानीतैरवमानाय भारत ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! अथवा यदि यह मधुसूदन ही तुमलोगोंका पूजनीय देवता है, इसलिये इसकी ही पूजा तुम्हें करनी थी तो इन राजाओंको केवल अपमानित करनेके लिये बुलानेकी क्या आवश्यकता थी?॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वयं तु न भयादस्य कौन्तेयस्य महात्मनः।
प्रयच्छामः करान् सर्वे न लोभान्न च सान्त्वनात् ॥ १९ ॥
मूलम्
वयं तु न भयादस्य कौन्तेयस्य महात्मनः।
प्रयच्छामः करान् सर्वे न लोभान्न च सान्त्वनात् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाओ! हम सब लोग इन महात्मा कुन्तीनन्दन युधिष्ठिरको जो कर दे रहे हैं, वह भय, लोभ अथवा कोई विशेष आश्वासन मिलनेके कारण नहीं॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्य धर्मप्रवृत्तस्य पार्थिवत्वं चिकीर्षतः।
करानस्मै प्रयच्छामः सोऽयमस्मान् न मन्यते ॥ २० ॥
मूलम्
अस्य धर्मप्रवृत्तस्य पार्थिवत्वं चिकीर्षतः।
करानस्मै प्रयच्छामः सोऽयमस्मान् न मन्यते ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हमने तो यही समझा था कि यह धर्माचरणमें संलग्न रहनेवाला क्षत्रिय सम्राट्का पद पाना चाहता है तो अच्छा ही है। यही सोचकर हम उसे कर देते हैं, परंतु यह राजा युधिष्ठिर हमलोगोंको नहीं मानता है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किमन्यदवमानाद्धि यदेनं राजसंसदि ।
अप्राप्तलक्षणं कृष्णमर्घ्येणार्चितवानसि ॥ २१ ॥
मूलम्
किमन्यदवमानाद्धि यदेनं राजसंसदि ।
अप्राप्तलक्षणं कृष्णमर्घ्येणार्चितवानसि ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर! इससे बढ़कर दूसरा अपमान और क्या हो सकता है कि तुमने राजाओंकी सभामें जिसे राजोचित चिह्न छत्र-चँवर आदि प्राप्त नहीं हुआ है, उस कृष्णकी अर्घ्यके द्वारा पूजा की है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अकस्माद् धर्मपुत्रस्य धर्मात्मेति यशो गतम्।
को हि धर्मच्युते पूजामेवं युक्तां नियोजयेत् ॥ २२ ॥
मूलम्
अकस्माद् धर्मपुत्रस्य धर्मात्मेति यशो गतम्।
को हि धर्मच्युते पूजामेवं युक्तां नियोजयेत् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मपुत्र युधिष्ठिरको अकस्मात् ही धर्मात्मा होनेका यश प्राप्त हो गया है, अन्यथा कौन ऐसा धर्मनिष्ठ पुरुष होगा जो किसी धर्मच्युतकी इस प्रकार पूजा करेगा॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
योऽयं वृष्णिकुले जातो राजानं हतवान् पुरा।
जरासंधं महात्मानमन्यायेन दुरात्मवान् ॥ २३ ॥
मूलम्
योऽयं वृष्णिकुले जातो राजानं हतवान् पुरा।
जरासंधं महात्मानमन्यायेन दुरात्मवान् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वृष्णिकुलमें पैदा हुए इस दुरात्माने तो कुछ ही दिन पहले महात्मा राजा जरासंधका अन्यायपूर्वक वध किया है॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अद्य धर्मात्मता चैव व्यपकृष्टा युधिष्ठिरात्।
दर्शितं कृपणत्वं च कृष्णेऽर्घ्यस्य निवेदनात् ॥ २४ ॥
मूलम्
अद्य धर्मात्मता चैव व्यपकृष्टा युधिष्ठिरात्।
दर्शितं कृपणत्वं च कृष्णेऽर्घ्यस्य निवेदनात् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आज युधिष्ठिरका धर्मात्मापन दूर निकल गया, क्योंकि इन्होंने कृष्णको अर्घ्य निवेदन करके अपनी कायरता ही दिखायी है॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि भीताश्च कौन्तेयाः कृपणाश्च तपस्विनः।
ननु त्वयापि बोद्धव्यं यां पूजां माधवार्हसि ॥ २५ ॥
मूलम्
यदि भीताश्च कौन्तेयाः कृपणाश्च तपस्विनः।
ननु त्वयापि बोद्धव्यं यां पूजां माधवार्हसि ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अब शिशुपालने भगवान् श्रीकृष्णको देखकर कहा—) माधव! कुन्तीके पुत्र डरपोक, कायर और तपस्वी हैं। इन्होंने तुम्हें ठीक-ठीक न जानकर यदि तुम्हारी पूजा कर दी तो तुम्हें तो समझना चाहिये था कि तुम किस पूजाके अधिकारी हो?॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ वा कृपणैरेतामुपनीतां जनार्दन।
पूजामनर्हः कस्मात् त्वमभ्यनुज्ञातवानसि ॥ २६ ॥
मूलम्
अथ वा कृपणैरेतामुपनीतां जनार्दन।
पूजामनर्हः कस्मात् त्वमभ्यनुज्ञातवानसि ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अथवा जनार्दन! इन कायरोंद्वारा उपस्थित की हुई इस अग्रपूजाको उसके योग्य न होते हुए भी तुमने क्यों स्वीकार कर लिया?॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयुक्तामात्मनः पूजां त्वं पुनर्बहु मन्यसे।
हविषः प्राप्य निष्यन्दं प्राशिता श्वेव निर्जने ॥ २७ ॥
मूलम्
अयुक्तामात्मनः पूजां त्वं पुनर्बहु मन्यसे।
हविषः प्राप्य निष्यन्दं प्राशिता श्वेव निर्जने ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे कुत्ता एकान्तमें चूकर गिरे हुए थोड़े-से हविष्य (घृत)-को चाट ले और अपनेको धन्य धन्य मानने लगे, उसी प्रकार तुम अपने लिये अयोग्य पूजा स्वीकार करके अपने-आपको बहुत बड़ा मान रहे हो॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न त्वयं पार्थिवेन्द्राणामपमानः प्रयुज्यते।
त्वामेव कुरवो व्यक्तं प्रलम्भन्ते जनार्दन ॥ २८ ॥
मूलम्
न त्वयं पार्थिवेन्द्राणामपमानः प्रयुज्यते।
त्वामेव कुरवो व्यक्तं प्रलम्भन्ते जनार्दन ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कृष्ण! तुम्हारी इस अग्रपूजासे हम राजाधिराजोंका कोई अपमान नहीं होता, परंतु ये कुरुवंशी पाण्डव तुम्हें अर्घ्य देकर वास्तवमें तुम्हींको ठग रहे हैं॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्लीबे दारक्रिया यादृगन्धे वा रूपदर्शनम्।
अराज्ञो राजवत् पूजा तथा ते मधुसूदन ॥ २९ ॥
मूलम्
क्लीबे दारक्रिया यादृगन्धे वा रूपदर्शनम्।
अराज्ञो राजवत् पूजा तथा ते मधुसूदन ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मधुसूदन! जैसे नपुंसकका ब्याह रचाना और अंधेको रूप दिखाना उनका उपहास ही करना है, उसी प्रकार तुम-जैसे राज्यहीनकी यह राजाओंके समान पूजा भी विडम्बनामात्र ही है॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्टो युधिष्ठिरो राजा दृष्टो भीष्मश्च यादृशः।
वासुदेवोऽप्ययं दृष्टः सर्वमेतद् यथातथम् ॥ ३० ॥
मूलम्
दृष्टो युधिष्ठिरो राजा दृष्टो भीष्मश्च यादृशः।
वासुदेवोऽप्ययं दृष्टः सर्वमेतद् यथातथम् ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आज मैंने राजा युधिष्ठिरको देख लिया; भीष्म भी जैसे हैं, उनको भी देख लिया और इस वासुदेव कृष्णका भी वास्तविक रूप क्या है, यह भी देख लिया। वास्तवमें ये सब ऐसे ही हैं॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा शिशुपालस्तानुत्थाय परमासनात् ।
निर्ययौ सदसस्तस्मात् सहितो राजभिस्तदा ॥ ३१ ॥
मूलम्
इत्युक्त्वा शिशुपालस्तानुत्थाय परमासनात् ।
निर्ययौ सदसस्तस्मात् सहितो राजभिस्तदा ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनसे ऐसा कहकर शिशुपाल अपने उत्तम आसनसे उठकर कुछ राजाओंके साथ उस सभाभवनसे जानेको उद्यत हो गया॥३१॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि अर्घाभिहरणपर्वणि शिशुपालक्रोधे सप्तत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३७ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्वके अन्तर्गत अर्घाभिहरणपर्वमें शिशुपालका क्रोधविषयक सैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३७॥