श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
पञ्चत्रिंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
राजसूययज्ञका वर्णन
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
पितामहं गुरुं चैव प्रत्युद्गम्य युधिष्ठिरः।
अभिवाद्य ततो राजन्निदं वचनमब्रवीत् ॥ १ ॥
भीष्मं द्रोणं कृपं द्रौणिं दुर्योधनविविंशती।
अस्मिन् यज्ञे भवन्तों मामनुगृह्णन्तु सर्वशः ॥ २ ॥
मूलम्
पितामहं गुरुं चैव प्रत्युद्गम्य युधिष्ठिरः।
अभिवाद्य ततो राजन्निदं वचनमब्रवीत् ॥ १ ॥
भीष्मं द्रोणं कृपं द्रौणिं दुर्योधनविविंशती।
अस्मिन् यज्ञे भवन्तों मामनुगृह्णन्तु सर्वशः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! पितामह भीष्म तथा गुरु द्रोणाचार्य आदिकी अगवानी करके युधिष्ठिरने उनके चरणोंमें प्रणाम किया और भीष्म, द्रोण, कृप, अश्वत्थामा, दुर्योधन और विविंशतिसे कहा—‘इस यज्ञमें आपलोग सब प्रकारसे मुझपर अनुग्रह करें॥१-२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदं वः सुमहच्चैव यदिहास्ति धनं मम।
प्रणयन्तु भवन्तो मां यथेष्टमभिमन्त्रिताः ॥ ३ ॥
मूलम्
इदं वः सुमहच्चैव यदिहास्ति धनं मम।
प्रणयन्तु भवन्तो मां यथेष्टमभिमन्त्रिताः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यहाँ मेरा जो यह महान् धन है, उसे आपलोग मेरी प्रार्थना मानकर इच्छानुसार सत्कर्मोंमें लगाइये॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्त्वा स तान् सर्वान् दीक्षितः पाण्डवाग्रजः।
युयोज स यथायोगमधिकारेष्वनन्तरम् ॥ ४ ॥
मूलम्
एवमुक्त्वा स तान् सर्वान् दीक्षितः पाण्डवाग्रजः।
युयोज स यथायोगमधिकारेष्वनन्तरम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यज्ञदीक्षित युधिष्ठिरने ऐसा कहकर उन सबको यथायोग्य अधिकारोंमें लगाया॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भक्ष्यभोज्याधिकारेषु दुःशासनमयोजयत् ।
परिग्रहे ब्राह्मणानामश्वत्थामानमुक्तवान् ॥ ५ ॥
मूलम्
भक्ष्यभोज्याधिकारेषु दुःशासनमयोजयत् ।
परिग्रहे ब्राह्मणानामश्वत्थामानमुक्तवान् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भक्ष्य-भोज्य आदि सामग्रीकी देख-रेख तथा उसके बाँटने परोसनेकी व्यवस्थाका अधिकार दुःशासनको दिया। ब्राह्मणोंके स्वागत-सत्कारका भार उन्होंने अश्वत्थामाको सौंप दिया॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राज्ञां तु प्रतिपूजार्थं संजयं स न्ययोजयत्।
कृताकृतपरिज्ञाने भीष्मद्रोणौ महामती ॥ ६ ॥
मूलम्
राज्ञां तु प्रतिपूजार्थं संजयं स न्ययोजयत्।
कृताकृतपरिज्ञाने भीष्मद्रोणौ महामती ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाओंकी सेवा और सत्कारके लिये धर्मराजने संजयको नियुक्त किया। कौन काम हुआ और कौन नहीं हुआ, इसकी देख-रेखका काम महाबुद्धिमान् भीष्म और द्रोणाचार्यको मिला॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हिरण्यस्य सुवर्णस्य रत्नानां चान्ववेक्षणे।
दक्षिणानां च वै दाने कृपं राजा न्ययोजयत् ॥ ७ ॥
तथान्यान् पुरुषव्याघ्रांस्तस्मिंस्तस्मिन् न्ययोजयत् ।
बाह्लिको धृतराष्ट्रश्च सोमदत्तो जयद्रथः।
नकुलेन समानीताः स्वामिवत् तत्र रेमिरे ॥ ८ ॥
मूलम्
हिरण्यस्य सुवर्णस्य रत्नानां चान्ववेक्षणे।
दक्षिणानां च वै दाने कृपं राजा न्ययोजयत् ॥ ७ ॥
तथान्यान् पुरुषव्याघ्रांस्तस्मिंस्तस्मिन् न्ययोजयत् ।
बाह्लिको धृतराष्ट्रश्च सोमदत्तो जयद्रथः।
नकुलेन समानीताः स्वामिवत् तत्र रेमिरे ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उत्तम वर्णके स्वर्ण तथा रत्नोंको परखने, रखने और दक्षिणा देनेके कार्यमें राजाने कृपाचार्यकी नियुक्ति की। इसी प्रकार दूसरे-दूसरे श्रेष्ठ पुरुषोंको यथायोग्य भिन्न-भिन्न कार्योंमें लगाया। नकुलके द्वारा सम्मानपूर्वक बुलाकर लाये हुए बाह्लिक, धृतराष्ट्र, सोमदत्त और जयद्रथ वहाँ घरके मालिककी तरह सुखपूर्वक रहने और इच्छानुसार विचरने लगे॥७-८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षत्ता व्ययकरस्त्वासीद् विदुरः सर्वधर्मवित्।
दुर्योधनस्त्वर्हणानि प्रतिजग्राह सर्वशः ॥ ९ ॥
मूलम्
क्षत्ता व्ययकरस्त्वासीद् विदुरः सर्वधर्मवित्।
दुर्योधनस्त्वर्हणानि प्रतिजग्राह सर्वशः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सम्पूर्ण धर्मोंके ज्ञाता विदुरजी धनको व्यय करनेके कार्यमें नियुक्त किये गये थे तथा राजा दुर्योधन कर देनेवाले राजाओंसे सब प्रकारकी भेंट स्वीकार करने और व्यवस्थापूर्वक रखनेका काम सँभाल रहे थे॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चरणक्षालने कृष्णो ब्राह्मणानां स्वयं ह्यभूत्।
सर्वलोकसमावृत्तः पिप्रीषुः फलमुत्तमम् ॥ १० ॥
मूलम्
चरणक्षालने कृष्णो ब्राह्मणानां स्वयं ह्यभूत्।
सर्वलोकसमावृत्तः पिप्रीषुः फलमुत्तमम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सब लोगोंसे घिरे हुए भगवान् श्रीकृष्ण सबको संतुष्ट करनेकी इच्छासे स्वयं ही ब्राह्मणोंके चरण पखारनेमें लगे थे, जिससे उत्तम फलकी प्राप्ति होती है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रष्टुकामाः सभां चैव धर्मराजं युधिष्ठिरम्।
न कश्चिदाहरत् तत्र सहस्रावरमर्हणम् ॥ ११ ॥
मूलम्
द्रष्टुकामाः सभां चैव धर्मराजं युधिष्ठिरम्।
न कश्चिदाहरत् तत्र सहस्रावरमर्हणम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मराज युधिष्ठिरको और उनकी सभाको देखनेकी इच्छासे आये हुए राजाओंमेंसे कोई भी ऐसा नहीं था, जो एक हजार स्वर्णमुद्राओंसे कम भेंट लाया हो॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रत्नैश्च बहुभिस्तत्र धर्मराजमवर्धयत् ।
कथं तु मम कौरव्यो रत्नदानैः समाप्नुयात् ॥ १२ ॥
यज्ञमित्येव राजानः स्पर्धमाना ददुर्धनम्।
मूलम्
रत्नैश्च बहुभिस्तत्र धर्मराजमवर्धयत् ।
कथं तु मम कौरव्यो रत्नदानैः समाप्नुयात् ॥ १२ ॥
यज्ञमित्येव राजानः स्पर्धमाना ददुर्धनम्।
अनुवाद (हिन्दी)
प्रत्येक राजा बहुसंख्यक रत्नोंकी भेंट देकर धर्मराज युधिष्ठिरके धनकी वृद्धि करने लगा। सभी राजा यह होड़ लगाकर धन दे रहे थे कि कुरुनन्दन युधिष्ठिर किसी प्रकार मेरे ही दिये हुए रत्नोंके दानसे अपना यज्ञ सम्पूर्ण करें॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवनैः सविमानाग्रैः सोदर्कैर्बलसंवृतैः ॥ १३ ॥
लोकराजविमानैश्च ब्राह्मणावसथैः सह ।
कृतैरावसथैर्दिव्यैर्विमानप्रतिमैस्तथा ॥ १४ ॥
विचित्रै रत्नवद्भिश्च ऋद्ध्या परमया युतैः।
राजभिश्च समावृत्तैरतीव श्रीसमृद्धिभिः ।
अशोभत सदो राजन् कौन्तेयस्य महात्मनः ॥ १५ ॥
मूलम्
भवनैः सविमानाग्रैः सोदर्कैर्बलसंवृतैः ॥ १३ ॥
लोकराजविमानैश्च ब्राह्मणावसथैः सह ।
कृतैरावसथैर्दिव्यैर्विमानप्रतिमैस्तथा ॥ १४ ॥
विचित्रै रत्नवद्भिश्च ऋद्ध्या परमया युतैः।
राजभिश्च समावृत्तैरतीव श्रीसमृद्धिभिः ।
अशोभत सदो राजन् कौन्तेयस्य महात्मनः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन् ! जिनके शिखर यज्ञ देखनेके लिये आये हुए देवताओंके विमानोंका स्पर्श कर रहे थे, जो जलाशयोंसे परिपूर्ण और सेनाओंसे घिरे हुए थे, उन सुन्दर भवनों, इन्द्रादि लोकपालोंके विमानों, ब्राह्मणोंके निवासस्थानों तथा परम समृद्धिसे सम्पन्न रत्नोंसे परिपूर्ण चित्र एवं विमानके तुल्य बने हुए दिव्य गृहोंसे, समागत राजाओंसे तथा असीम श्रीसमृद्धियोंसे महात्मा कुन्तीनन्दन युधिष्ठिरकी वह सभा बड़ी शोभा पा रही थी॥१३—१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋद्ध्या तु वरुणं देवं स्पर्धमानो युधिष्ठिरः।
षडग्निनाथ यज्ञेन सोऽयजद् दक्षिणावता ॥ १६ ॥
मूलम्
ऋद्ध्या तु वरुणं देवं स्पर्धमानो युधिष्ठिरः।
षडग्निनाथ यज्ञेन सोऽयजद् दक्षिणावता ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज युधिष्ठिर अपनी अनुपम समृद्धिद्वारा वरुणदेवताकी बराबरी कर रहे थे। उन्होंने यज्ञमें छः अग्नियोंकी1 स्थापना करके पर्याप्त दक्षिणा देकर उस यज्ञके द्वारा भगवान्का यजन किया॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वाञ्जनान् सर्वकामैः समृद्धैः समतर्पयत्।
अन्नवान् बहुभक्ष्यश्च भुक्तवज्जनसंवृतः ।
रत्नोपहारसम्पन्नो बभूव स समागमः ॥ १७ ॥
मूलम्
सर्वाञ्जनान् सर्वकामैः समृद्धैः समतर्पयत्।
अन्नवान् बहुभक्ष्यश्च भुक्तवज्जनसंवृतः ।
रत्नोपहारसम्पन्नो बभूव स समागमः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाने उस यज्ञमें आये हुए सब लोगोंको उनकी सभी कामनाएँ पूर्ण करके संतुष्ट किया। वह यज्ञसमारोह अन्नसे भरापूरा था, उसमें खाने-पीनेकी सब सामग्रियाँ पर्याप्त मात्रामें सदा प्रस्तुत रहती थीं। वह यज्ञ खा-पीकर तृप्त हुए लोगोंसे ही पूर्ण था। वहाँ कोई भूखा नहीं रहने पाता था तथा उस उत्सवसमारोहमें सब ओर रत्नोंका ही उपहार दिया जाता था॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इडाज्यहोमाहुतिभिर्मन्त्रशिक्षाविशारदैः ।
तस्मिन् हि ततृपुर्देवास्तते यज्ञे महर्षिभिः ॥ १८ ॥
मूलम्
इडाज्यहोमाहुतिभिर्मन्त्रशिक्षाविशारदैः ।
तस्मिन् हि ततृपुर्देवास्तते यज्ञे महर्षिभिः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मन्त्रशिक्षामें निपुण महर्षियोंद्वारा विस्तारपूर्वक किये जानेवाले उस यज्ञमें इडा (मन्त्र-पाठ एवं स्तुति), घृतहोम तथा तिल आदि शाकल्य पदार्थोंकी आहुतियोंसे देवतालोग तृप्त हो गये॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा देवास्तथा विप्रा दक्षिणान्नमहाधनैः।
ततृपुः सर्ववर्णाश्च तस्मिन् यज्ञे मुदान्विताः ॥ १९ ॥
मूलम्
यथा देवास्तथा विप्रा दक्षिणान्नमहाधनैः।
ततृपुः सर्ववर्णाश्च तस्मिन् यज्ञे मुदान्विताः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस प्रकार देवता तृप्त हुए उसी प्रकार दक्षिणामें अन्न और महान् धन पाकर ब्राह्मण भी तृप्त हो गये। अधिक क्या कहा जाय, उस यज्ञमें सभी वर्णके लोग बड़े प्रसन्न थे, सबको पूर्ण तृप्ति मिली थी॥१९॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि राजसूयपर्वणि यज्ञकरणे पञ्चत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३५ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्वके अन्तर्गत राजसूयपर्वमें यज्ञकरणविषयक पैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३५॥
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नीलकण्ठीकी टीकामें छः अग्नियाँ इस प्रकार बतायी गयी हैं—आरम्भणीय, क्षत्र, धृति, व्युष्टि, द्विरात्र और दशपेय। ↩︎