श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
(राजसूयपर्व)
त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
युधिष्ठिरके शासनकी विशेषता, श्रीकृष्णकी आज्ञासे युधिष्ठिरका राजसूययज्ञकी दीक्षा लेना तथा राजाओं, ब्राह्मणों एवं सगे-सम्बन्धियोंको बुलानेके लिये निमन्त्रण भेजना
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
(एवं निर्जित्य पृथिवीं भ्रातरः कुरुनन्दन।
वर्तमानाः स्वधर्मेण शशासुः पृथिवीमिमाम्॥
मूलम्
(एवं निर्जित्य पृथिवीं भ्रातरः कुरुनन्दन।
वर्तमानाः स्वधर्मेण शशासुः पृथिवीमिमाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— कुशनन्दन! इस प्रकार सारी पृथ्वीको जीतकर अपने धर्मके अनुसार बर्ताव करते हुए पाँचों भाई पाण्डव इस भूमण्डलका शासन करने लगे।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चतुर्भिर्भीमसेनाद्यैर्भ्रातृभिः सहितो नृपः ।
अनुगृह्य प्रजाः सर्वाः सर्ववर्णानगोपयत्॥
मूलम्
चतुर्भिर्भीमसेनाद्यैर्भ्रातृभिः सहितो नृपः ।
अनुगृह्य प्रजाः सर्वाः सर्ववर्णानगोपयत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीमसेन आदि चारों भाइयोंके साथ राजा युधिष्ठिर सम्पूर्ण प्रजापर अनुग्रह करते हुए सब वर्णके लोगोंको संतुष्ट रखते थे।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अविरोधेन सर्वेषां हितं चक्रे युधिष्ठिरः।
प्रीयतां दीयतां सर्वं मुक्त्वा कोषं बलं विना॥
साधु धर्मेति पार्थस्य नान्यच्छ्रूयेत भाषितम्।
मूलम्
अविरोधेन सर्वेषां हितं चक्रे युधिष्ठिरः।
प्रीयतां दीयतां सर्वं मुक्त्वा कोषं बलं विना॥
साधु धर्मेति पार्थस्य नान्यच्छ्रूयेत भाषितम्।
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर किसीका भी विरोध न करके सबके हितसाधनमें लगे रहते थे। ‘सबको तृप्त एवं प्रसन्न किया जाय, खजाना खोलकर सबको खुले हाथ दान दिया जाय, किसीपर बलप्रयोग न किया जाय, धर्म! तुम धन्य हो।’ इत्यादि बातोंके सिवा युधिष्ठिरके मुखसे और कुछ नहीं सुनायी पड़ता था।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवंवृत्ते जगत् तस्मिन् पितरीवान्वरज्यत॥
न तस्य विद्यते द्वेष्टा ततोऽस्याजातशत्रुता।)
मूलम्
एवंवृत्ते जगत् तस्मिन् पितरीवान्वरज्यत॥
न तस्य विद्यते द्वेष्टा ततोऽस्याजातशत्रुता।)
अनुवाद (हिन्दी)
उनके ऐसे बर्तावके कारण सारा जगत् उनके प्रति वैसा ही अनुराग रखने लगा, जैसे पुत्र पिताके प्रति अनुरक्त होता है। राजा युधिष्ठिरसे द्वेष रखनेवाला कोई नहीं था, इसीलिये वे ‘अजातशत्रु’ कहलाते थे।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रक्षणाद् धर्मराजस्य सत्यस्य परिपालनात्।
शत्रूणां क्षपणाच्चैव स्वकर्मनिरताः प्रजाः ॥ १ ॥
मूलम्
रक्षणाद् धर्मराजस्य सत्यस्य परिपालनात्।
शत्रूणां क्षपणाच्चैव स्वकर्मनिरताः प्रजाः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मराज युधिष्ठिर प्रजाकी रक्षा, सत्यका पालन और शत्रुओंका संहार करते थे। उनके इन कार्योंसे निश्चिन्त एवं उत्साहित होकर प्रजावर्गके सब लोग अपने-अपने वर्णाश्रमोचित कर्मोंके पालनमें संलग्न रहते थे॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बलीनां सम्यगादानाद् धर्मतश्चानुशासनात् ।
निकामवर्षी पर्जन्यः स्फीतो जनपदोऽभवत् ॥ २ ॥
मूलम्
बलीनां सम्यगादानाद् धर्मतश्चानुशासनात् ।
निकामवर्षी पर्जन्यः स्फीतो जनपदोऽभवत् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
न्यायपूर्वक कर लेने और धर्मपूर्वक शासन करनेसे उनके राज्यमें मेघ इच्छानुसार वर्षा करते थे। इस प्रकार युधिष्ठिरका सम्पूर्ण जनपद धन-धान्यसे सम्पन्न हो गया था॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वारम्भाः सुप्रवृत्ता गोरक्षा कर्षणं वणिक्।
विशेषात् सर्वमेवैतत् संजज्ञे राजकर्मणः ॥ ३ ॥
मूलम्
सर्वारम्भाः सुप्रवृत्ता गोरक्षा कर्षणं वणिक्।
विशेषात् सर्वमेवैतत् संजज्ञे राजकर्मणः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गोरक्षा, खेती और व्यापार आदि सभी कार्य अच्छे ढंगसे होने लगे। विशेषतः राजाकी सुव्यवस्थासे ही यह सब कुछ उत्तमरूपसे सम्पन्न होता था॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दस्युभ्यो वञ्चकेभ्यो वा राजन् प्रति परस्परम्।
राजवल्लभतश्चैव नाश्रूयन्त मृषा गिरः ॥ ४ ॥
मूलम्
दस्युभ्यो वञ्चकेभ्यो वा राजन् प्रति परस्परम्।
राजवल्लभतश्चैव नाश्रूयन्त मृषा गिरः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! औरोंकी तो बात ही क्या है, चोरों, ठगों, राजा अथवा राजाके विश्वासपात्र व्यक्तियोंके मुखसे भी वहाँ कोई झूठी बात नहीं सुनी जाती थी। केवल प्रजाके साथ ही नहीं, आपसमें भी वे लोग झूठ-कपटका बर्ताव नहीं करते थे॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवर्षं चातिवर्षं च व्याधिपावकमूर्च्छनम्।
सर्वमेतत् तदा नासीद् धर्मनित्ये युधिष्ठिरे ॥ ५ ॥
मूलम्
अवर्षं चातिवर्षं च व्याधिपावकमूर्च्छनम्।
सर्वमेतत् तदा नासीद् धर्मनित्ये युधिष्ठिरे ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मपरायण युधिष्ठिरके शासनकालमें अनावृष्टि, अतिवृष्टि, रोग-व्याधि तथा आग लगने आदि उपद्रवोंका नाम भी नहीं था॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रियं कर्तुमुपस्थातुं बलिकर्मं स्वभावजम्।
अभिहर्तुं नृपा जग्मुर्नान्यैः कार्यैः कथंचन ॥ ६ ॥
मूलम्
प्रियं कर्तुमुपस्थातुं बलिकर्मं स्वभावजम्।
अभिहर्तुं नृपा जग्मुर्नान्यैः कार्यैः कथंचन ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा लोग उनके यहाँ स्वाभाविक भेंट देने अथवा उनका कोई प्रिय कार्य करनेके लिये ही आते थे, युद्ध आदि दूसरे किसी कामसे नहीं॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्म्यैर्धनागमैस्तस्य ववृधे निचयो महान्।
कर्तुं यस्य न शक्येत क्षयो वर्षशतैरपि ॥ ७ ॥
मूलम्
धर्म्यैर्धनागमैस्तस्य ववृधे निचयो महान्।
कर्तुं यस्य न शक्येत क्षयो वर्षशतैरपि ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मपूर्वक प्राप्त होनेवाले धनकी आयसे उनका महान् धन-भण्डार इतना बढ़ गया था कि सैकड़ों वर्षोंतक खुले हाथ लुटानेपर भी उसे समाप्त नहीं किया जा सकता था॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वकोष्ठस्य परीमाणं कोशस्य च महीपतिः।
विज्ञाय राजा कौन्तेयो यज्ञायैव मनो दधे ॥ ८ ॥
मूलम्
स्वकोष्ठस्य परीमाणं कोशस्य च महीपतिः।
विज्ञाय राजा कौन्तेयो यज्ञायैव मनो दधे ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीनन्दन राजा युधिष्ठिरने अपने अन्न-वस्त्रके भंडार तथा खजानेका परिमाण जानकर यज्ञ करनेका ही निश्चय किया॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुहृदश्चैव ये सर्वे पृथक् च सह चाब्रुवन्।
यज्ञकालस्तव विभो क्रियतामत्र साम्प्रतम् ॥ ९ ॥
मूलम्
सुहृदश्चैव ये सर्वे पृथक् च सह चाब्रुवन्।
यज्ञकालस्तव विभो क्रियतामत्र साम्प्रतम् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके जितने हितैषी सुहृद् थे, वे सभी अलग-अलग और एक साथ यही कहने लगे—‘प्रभो! यह आपके यज्ञ करनेका उपयुक्त समय आया है; अतः अब उसका आरम्भ कीजिये’॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथैवं ब्रुवतामेव तेषामभ्याययौ हरिः।
ऋषिः पुराणो वेदात्मादृश्यश्चैव विजानताम् ॥ १० ॥
मूलम्
अथैवं ब्रुवतामेव तेषामभ्याययौ हरिः।
ऋषिः पुराणो वेदात्मादृश्यश्चैव विजानताम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे सुहृद् इस तरहकी बातें कर ही रहे थे कि उसी समय भगवान् श्रीहरि आ पहुँचे। वे पुराणपुरुष, नारायण ऋषि, वेदात्मा एवं विज्ञानीजनोंके लिये भी अगम्य परमेश्वर हैं॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जगतस्तस्थुषां श्रेष्ठः प्रभवश्चाप्ययश्च ह।
भूतभव्यभवन्नाथः केशवः केशिसूदनः ॥ ११ ॥
मूलम्
जगतस्तस्थुषां श्रेष्ठः प्रभवश्चाप्ययश्च ह।
भूतभव्यभवन्नाथः केशवः केशिसूदनः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे ही स्थावर-जंगम प्राणियोंके उत्तम उत्पत्ति-स्थान और लयके अधिष्ठान हैं। भूत, वर्तमान और भविष्य—तीनों कालोंके नियन्ता हैं। वे ही केशी दैत्यको मारनेवाले केशव हैं॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राकारः सर्ववृष्णीनामापत्स्वभयदोऽरिहा ।
बलाधिकारे निक्षिप्य सम्यगानकदुन्दुभिम् ॥ १२ ॥
उच्चावचमुपादाय धर्मराजाय माधवः ।
धनौघं पुरुषव्याघ्रो बलेन महताऽऽवृतः ॥ १३ ॥
मूलम्
प्राकारः सर्ववृष्णीनामापत्स्वभयदोऽरिहा ।
बलाधिकारे निक्षिप्य सम्यगानकदुन्दुभिम् ॥ १२ ॥
उच्चावचमुपादाय धर्मराजाय माधवः ।
धनौघं पुरुषव्याघ्रो बलेन महताऽऽवृतः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे सम्पूर्ण वृष्णिवंशियोंके परकोटेकी भाँति संरक्षक, आपत्तिमें अभय देनेवाले तथा उनके शत्रुओंका संहार करनेवाले हैं। पुरुषसिंह माधव अपने पिता वसुदेवजीको द्वारकाकी सेनाके आधिपत्यपर स्थापित करके धर्मराजके लिये नाना प्रकारके धन-रत्नोंकी भेंट ले विशाल सेनाके साथ वहाँ आये थे॥१२-१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं धनौघमपर्यन्तं रत्नसागरमक्षयम् ।
नादयन् रथघोषेण प्रविवेश पुरोत्तमम् ॥ १४ ॥
मूलम्
तं धनौघमपर्यन्तं रत्नसागरमक्षयम् ।
नादयन् रथघोषेण प्रविवेश पुरोत्तमम् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस धनराशिकी कहीं सीमा नहीं थी, मानो रत्नोंका अक्षय महासागर हो। उसे लेकर रथोंकी आवाजसे समूची दिशाओंको प्रतिध्वनित करते हुए वे उत्तम नगर इन्द्रप्रस्थमें प्रविष्ट हुए॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूर्णमापूरयंस्तेषां द्विषच्छोकावहोऽभवत् ।
असूर्यमिव सूर्येण निवातमिव वायुना।
कृष्णेन समुपेतेन जहृषे भारतं पुरम् ॥ १५ ॥
मूलम्
पूर्णमापूरयंस्तेषां द्विषच्छोकावहोऽभवत् ।
असूर्यमिव सूर्येण निवातमिव वायुना।
कृष्णेन समुपेतेन जहृषे भारतं पुरम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाण्डवोंका धन-भण्डार तो यों ही भरा-पूरा था, भगवान्ने (उन्हें अक्षय धनकी भेंट देकर) उसे और भी पूर्ण कर दिया। उनका शुभागमन पाण्डवोंके शत्रुओंका शोक बढ़ानेवाला था। बिना सूर्यका अन्धकारपूर्ण जगत् सूर्योदय होनेसे जिस प्रकार प्रकाशसे भर जाता है, बिना वायुके स्थानमें वायुके चलनेसे जैसे नूतन प्राण-शक्तिका संचार हो उठता है, उसी प्रकार भगवान् श्रीकृष्णके पदार्पण करनेपर समस्त इन्द्रप्रस्थमें हर्षोल्लास छा गया॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं मुदाभिसमागम्य सत्कृत्य च यथाविधि।
स पृष्ट्वा कुशलं चैव सुखासीनं युधिष्ठिरः ॥ १६ ॥
धौम्यद्वैपायनमुखैर्ऋत्विग्भिः पुरुषर्षभ ।
भीमार्जुनयमैश्चैव सहितः कृष्णमब्रवीत् ॥ १७ ॥
मूलम्
तं मुदाभिसमागम्य सत्कृत्य च यथाविधि।
स पृष्ट्वा कुशलं चैव सुखासीनं युधिष्ठिरः ॥ १६ ॥
धौम्यद्वैपायनमुखैर्ऋत्विग्भिः पुरुषर्षभ ।
भीमार्जुनयमैश्चैव सहितः कृष्णमब्रवीत् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरश्रेष्ठ जनमेजय! राजा युधिष्ठिर बड़े प्रसन्न होकर उनसे मिले। उनका विधिपूर्वक स्वागत-सत्कार करके कुशलमंगल पूछा और जब वे सुखपूर्वक बैठ गये, तब धौम्य, द्वैपायन आदि ऋत्विजों तथा भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव—चारों भाइयोंके साथ निकट जाकर युधिष्ठिरने श्रीकृष्णसे कहा॥१६-१७॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वत्कृते पृथिवी सर्वा मद्वशे कृष्ण वर्तते।
धनं च बहु वार्ष्णेय त्वत्प्रसादादुपार्जितम् ॥ १८ ॥
मूलम्
त्वत्कृते पृथिवी सर्वा मद्वशे कृष्ण वर्तते।
धनं च बहु वार्ष्णेय त्वत्प्रसादादुपार्जितम् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने कहा— श्रीकृष्ण! आपकी दयासे आपकी सेवाके लिये सारी पृथ्वी इस समय मेरे अधीन हो गयी है। वार्ष्णेय! मुझे धन भी बहुत प्राप्त हो गया है॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽहमिच्छामि तत् सर्वं विधिवद् देवकीसुत।
उपयोक्तुं द्विजाग्र्येभ्यो हव्यवाहे च माधव ॥ १९ ॥
मूलम्
सोऽहमिच्छामि तत् सर्वं विधिवद् देवकीसुत।
उपयोक्तुं द्विजाग्र्येभ्यो हव्यवाहे च माधव ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवकीनन्दन माधव! वह सारा धन मैं विधिपूर्वक श्रेष्ठ ब्राह्मणों तथा हव्यवाहन अग्निके उपयोगमें लाना चाहता हूँ॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदहं यष्टुमिच्छामि दाशार्ह सहितस्त्वया।
अनुजैश्च महाबाहो तन्मानुज्ञातुमर्हसि ॥ २० ॥
मूलम्
तदहं यष्टुमिच्छामि दाशार्ह सहितस्त्वया।
अनुजैश्च महाबाहो तन्मानुज्ञातुमर्हसि ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाबाहु दाशार्ह! अब मैं आप तथा अपने छोटे भाइयोंके साथ यज्ञ करना चाहता हूँ। इसके लिये आप मुझे आज्ञा दें॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद् दीक्षापय गोविन्द त्वमात्मानं महाभुज।
त्वयीष्टवति दाशार्ह विपाप्मा भविता ह्यहम् ॥ २१ ॥
मूलम्
तद् दीक्षापय गोविन्द त्वमात्मानं महाभुज।
त्वयीष्टवति दाशार्ह विपाप्मा भविता ह्यहम् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विशाल भुजाओंवाले गोविन्द! आप स्वयं यज्ञकी दीक्षा ग्रहण कीजिये। दाशार्ह! आपके यज्ञ करनेपर मैं पापरहित हो जाऊँगा॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मां वाप्यभ्यनुजानीहि सहैभिरनुजैर्विभो ।
अनुज्ञातस्त्वया कृष्ण प्राप्नुयां क्रतुमुत्तमम् ॥ २२ ॥
मूलम्
मां वाप्यभ्यनुजानीहि सहैभिरनुजैर्विभो ।
अनुज्ञातस्त्वया कृष्ण प्राप्नुयां क्रतुमुत्तमम् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! अथवा मुझे अपने इन छोटे भाइयोंके साथ दीक्षा ग्रहण करनेकी आज्ञा दीजिये। श्रीकृष्ण! आपकी अनुज्ञा मिलनेपर ही मैं उस उत्तम यज्ञकी दीक्षा ग्रहण करूँगा॥२२॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं कृष्णः प्रत्युवाचेदं बहूक्त्वा गुणविस्तरम्।
त्वमेव राजशार्दूल सम्राडर्हो महाक्रतुम्।
सम्प्राप्नुहि त्वया प्राप्ते कृतकृत्यास्ततो वयम् ॥ २३ ॥
मूलम्
तं कृष्णः प्रत्युवाचेदं बहूक्त्वा गुणविस्तरम्।
त्वमेव राजशार्दूल सम्राडर्हो महाक्रतुम्।
सम्प्राप्नुहि त्वया प्राप्ते कृतकृत्यास्ततो वयम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तब भगवान् श्रीकृष्णने राजसूययज्ञके गुणोंका विस्तारपूर्वक वर्णन करके उनसे इस प्रकार कहा—‘राजसिंह! आप सम्राट् होने योग्य हैं, अतः आप ही इस महान् यज्ञकी दीक्षा ग्रहण कीजिये। आपके दीक्षा लेनेपर हम सबलोग कृतकृत्य हो जायँगे॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यजस्वाभीप्सितं यज्ञं मयि श्रेयस्यवस्थिते।
नियुङ्क्ष्व त्वं च मां कृत्ये सर्वं कर्तास्मि ते वचः॥२४॥
मूलम्
यजस्वाभीप्सितं यज्ञं मयि श्रेयस्यवस्थिते।
नियुङ्क्ष्व त्वं च मां कृत्ये सर्वं कर्तास्मि ते वचः॥२४॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप अपने इस अभीष्ट यज्ञको प्रारम्भ कीजिये। मैं आपका कल्याण करनेके लिये सदा उद्यत हूँ। मुझे आवश्यक कार्यमें लगाइये, मैं आपकी सब आज्ञाओंका पालन करूँगा’॥२४॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सफलः कृष्ण संकल्पः सिद्धिश्च नियता मम।
यस्य मे त्वं हृषीकेश यथेप्सितमुपस्थितः ॥ २५ ॥
मूलम्
सफलः कृष्ण संकल्पः सिद्धिश्च नियता मम।
यस्य मे त्वं हृषीकेश यथेप्सितमुपस्थितः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर बोले— श्रीकृष्ण मेरा संकल्प सफल हो गया, मेरी सिद्धि सुनिश्चित है; क्योंकि हृषीकेश! आप मेरी इच्छाके अनुसार स्वयं ही यहाँ उपस्थित हो गये हैं॥२५॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुज्ञातस्तु कृष्णेन पाण्डवो भ्रातृभिः सह।
ईजितुं राजसूयेन साधनान्युपचक्रमे ॥ २६ ॥
मूलम्
अनुज्ञातस्तु कृष्णेन पाण्डवो भ्रातृभिः सह।
ईजितुं राजसूयेन साधनान्युपचक्रमे ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! भगवान् श्रीकृष्णसे आज्ञा लेकर भाइयोंसहित पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरने राजसूययज्ञ करनेके लिये साधन जुटाना आरम्भ किया॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्त्वाज्ञापयामास पाण्डवोऽरिनिबर्हणः ।
सहदेवं युधां श्रेष्ठं मन्त्रिणश्चैव सर्वशः ॥ २७ ॥
मूलम्
ततस्त्वाज्ञापयामास पाण्डवोऽरिनिबर्हणः ।
सहदेवं युधां श्रेष्ठं मन्त्रिणश्चैव सर्वशः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय शत्रुओंका संहार करनेवाले पाण्डुकुमारने योद्धाओंमें श्रेष्ठ सहदेव तथा सम्पूर्ण मन्त्रियोंको आज्ञा दी॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्मिन् क्रतौ यथोक्तानि यज्ञाङ्गानि द्विजातिभिः।
तथोपकरणं सर्वं मङ्गलानि च सर्वशः ॥ २८ ॥
अधियज्ञांश्च सम्भारान् धौम्योक्तान् क्षिप्रमेव हि।
समानयन्तु पुरुषा यथायोगं यथाक्रमम् ॥ २९ ॥
मूलम्
अस्मिन् क्रतौ यथोक्तानि यज्ञाङ्गानि द्विजातिभिः।
तथोपकरणं सर्वं मङ्गलानि च सर्वशः ॥ २८ ॥
अधियज्ञांश्च सम्भारान् धौम्योक्तान् क्षिप्रमेव हि।
समानयन्तु पुरुषा यथायोगं यथाक्रमम् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस यज्ञके लिये ब्राह्मणोंके बताये अनुसार यज्ञके अंगभूत सामान, आवश्यक उपकरण, सब प्रकारकी मांगलिक वस्तुएँ तथा धौम्यजीकी बतायी हुई यज्ञोपयोगी सामग्री—इन सभी वस्तुओंको क्रमशः जैसे मिलें, वैसे शीघ्र ही अपने सेवक जाकर ले आवें॥२८-२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्रसेनो विशोकश्च पूरुश्चार्जुनसारथिः ।
अन्नाद्याहरणे युक्ताः सन्तु मत्प्रियकाम्यया ॥ ३० ॥
मूलम्
इन्द्रसेनो विशोकश्च पूरुश्चार्जुनसारथिः ।
अन्नाद्याहरणे युक्ताः सन्तु मत्प्रियकाम्यया ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इन्द्रसेन, विशोक और अर्जुनका सारथि पूरु, ये मेरा प्रिय करनेकी इच्छासे अन्न आदिके संग्रहके कामपर जुट जायँ॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वकामाश्च कार्यन्तां रसगन्धसमन्विताः ।
मनोरथप्रीतिकरा द्विजानां कुरुसत्तम ॥ ३१ ॥
मूलम्
सर्वकामाश्च कार्यन्तां रसगन्धसमन्विताः ।
मनोरथप्रीतिकरा द्विजानां कुरुसत्तम ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कुरुश्रेष्ठ! जिनको खानेकी प्रायः सभी इच्छा करते हैं, वे रस और गन्धसे युक्त भाँति-भाँतिके मिष्टान्न आदि तैयार कराये जाँय, जो ब्राह्मणोंको उनकी इच्छाके अनुसार प्रीति प्रदान करनेवाले हों’॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद्वाक्यसमकालं च कृतं सर्वं न्यवेदयत्।
सहदेवो युधां श्रेष्ठो धर्मराजे युधिष्ठिरे ॥ ३२ ॥
मूलम्
तद्वाक्यसमकालं च कृतं सर्वं न्यवेदयत्।
सहदेवो युधां श्रेष्ठो धर्मराजे युधिष्ठिरे ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मराज युधिष्ठिरकी यह बात समाप्त होते ही योद्धाओंमें श्रेष्ठ सहदेवने उनसे निवेदन किया, ‘यह सब व्यवस्था हो चुकी है’॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो द्वैपायनो राजन्नृत्विजः समुपानयत्।
वेदानिव महाभागान् साक्षान्मूर्तिमतो द्विजान् ॥ ३३ ॥
मूलम्
ततो द्वैपायनो राजन्नृत्विजः समुपानयत्।
वेदानिव महाभागान् साक्षान्मूर्तिमतो द्विजान् ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! तदनन्तर द्वैपायन व्यासजी बहुत-से ऋत्विजोंको ले आये। वे महाभाग ब्राह्मण मानो साक्षात् मूर्तिमान् वेद ही थे॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वयं ब्रह्मत्वमकरोत् तस्य सत्यवतीसुतः।
धनंजयानामृषभः सुसामा सामगोऽभवत् ॥ ३४ ॥
मूलम्
स्वयं ब्रह्मत्वमकरोत् तस्य सत्यवतीसुतः।
धनंजयानामृषभः सुसामा सामगोऽभवत् ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्वयं सत्यवतीनन्दन व्यासने उस यज्ञमें ब्रह्माका काम सँभाला। धनंजयगोत्रीय ब्राह्मणोंमें श्रेष्ठ सुसामा सामगान करनेवाले हुए॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
याज्ञवल्क्यो बभूवाथ ब्रह्मिष्ठोऽध्वर्युसत्तमः ।
पैलो होता वसोः पुत्रो धौम्येन सहितोऽभवत् ॥ ३५ ॥
मूलम्
याज्ञवल्क्यो बभूवाथ ब्रह्मिष्ठोऽध्वर्युसत्तमः ।
पैलो होता वसोः पुत्रो धौम्येन सहितोऽभवत् ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
और ब्रह्मनिष्ठ याज्ञवल्क्य उस यज्ञके श्रेष्ठतम अध्वर्यु थे। वसुपुत्र पैल धौम्य मुनिके साथ होता बने थे॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतेषां पुत्रवर्गाश्च शिष्याश्च भरतर्षभ।
बभूवुर्होत्रगाः सर्वे वेदवेदाङ्गपारगाः ॥ ३६ ॥
मूलम्
एतेषां पुत्रवर्गाश्च शिष्याश्च भरतर्षभ।
बभूवुर्होत्रगाः सर्वे वेदवेदाङ्गपारगाः ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! इनके पुत्र और शिष्यवर्गके लोग, जो सब-के-सब वेद-वेदांगोंके पारंगत विद्वान् थे, ‘होत्रग’ (सप्तहोता) हुए॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते वाचयित्वा पुण्याहमूहयित्वा च तं विधिम्।
शास्त्रोक्तं पूजयामासुस्तद् देवयजनं महत् ॥ ३७ ॥
मूलम्
ते वाचयित्वा पुण्याहमूहयित्वा च तं विधिम्।
शास्त्रोक्तं पूजयामासुस्तद् देवयजनं महत् ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन सबने पुण्याहवाचन कराकर उस विधिका ऊहन (अर्थात्र ‘राजसूयेन यक्ष्ये, स्वाराज्यमवाप्नवानि’ —मैं स्वाराज्य प्राप्त करूँ, इस उद्देश्यसे राजसूययज्ञ करूँगा, इत्यादि रूपसे संकल्प) कराकर शास्त्रोक्त विधिसे उस महान् यज्ञस्थानका पूजन कराया॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र चक्रुरनुज्ञाताः शरणान्युत शिल्पिनः।
गन्धवन्ति विशालानि वेश्मानीव दिवौकसाम् ॥ ३८ ॥
मूलम्
तत्र चक्रुरनुज्ञाताः शरणान्युत शिल्पिनः।
गन्धवन्ति विशालानि वेश्मानीव दिवौकसाम् ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस स्थानपर राजाकी आज्ञासे शिल्पियोंने देवमन्दिरोंके समान विशाल एवं सुगन्धित भवन बनाये॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत आज्ञापयामास स राजा राजसत्तमः।
सहदेवं तदा सद्यो मन्त्रिणं पुरुषर्षभः ॥ ३९ ॥
आमन्त्रणार्थं दूतांस्त्वं प्रेषयस्वाशुगान् द्रुतम्।
उपश्रुत्य वचो राज्ञः स दूतान् प्राहिणोत् तदा ॥ ४० ॥
मूलम्
तत आज्ञापयामास स राजा राजसत्तमः।
सहदेवं तदा सद्यो मन्त्रिणं पुरुषर्षभः ॥ ३९ ॥
आमन्त्रणार्थं दूतांस्त्वं प्रेषयस्वाशुगान् द्रुतम्।
उपश्रुत्य वचो राज्ञः स दूतान् प्राहिणोत् तदा ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर राजशिरोमणि नरश्रेष्ठ धर्मराज युधिष्ठिरने तुरंत ही मन्त्री सहदेवको आज्ञा दी, ‘सब राजाओं तथा ब्राह्मणोंको आमन्त्रित करनेके लिये तुरंत ही शीघ्रगामी दूत भेजो।’ राजाकी यह बात सुनकर सहदेवने दूतोंको भेजा और कहा—॥३९-४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आमन्त्रयध्वं राष्ट्रेषु ब्राह्मणान् भूमिपानथ।
विशश्च मान्यान् शूद्रांश्च सर्वानानयतेति च ॥ ४१ ॥
मूलम्
आमन्त्रयध्वं राष्ट्रेषु ब्राह्मणान् भूमिपानथ।
विशश्च मान्यान् शूद्रांश्च सर्वानानयतेति च ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तुमलोग सभी राज्योंमें घूम-घूमकर वहाँके राजाओं, ब्राह्मणों, वैश्यों तथा सब माननीय शूद्रोंको निमन्त्रित कर दो और बुला ले आओ’॥४१॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
समाज्ञप्तास्ततो दूताः पाण्डवेयस्य शासनात्।
आमन्त्रयाम्बभूवुश्च आनयंश्चापरान् द्रुतम् ।
तथा परानपि नरानात्मनः शीघ्रगामिनः ॥ ४२ ॥
मूलम्
समाज्ञप्तास्ततो दूताः पाण्डवेयस्य शासनात्।
आमन्त्रयाम्बभूवुश्च आनयंश्चापरान् द्रुतम् ।
तथा परानपि नरानात्मनः शीघ्रगामिनः ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! तदनन्तर पाण्डुपुत्र राजा युधिष्ठिरके आदेशसे सहदेवकी आज्ञा पाकर सब शीघ्रगामी दूत गये और उन्होंने ब्राह्मण आदि सब वर्णोंके लोगोंको निमन्त्रित किया तथा बहुतोंको वे अपने साथ ही शीघ्र बुला लाये। वे अपनेसे सम्बन्ध रखनेवाले अन्य व्यक्तियोंको भी साथ लाना न भूले॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्ते तु यथाकालं कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम्।
दीक्षयाञ्चक्रिरे विप्रा राजसूयाय भारत ॥ ४३ ॥
मूलम्
ततस्ते तु यथाकालं कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम्।
दीक्षयाञ्चक्रिरे विप्रा राजसूयाय भारत ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! तदनन्तर वहाँ आये हुए सब ब्राह्मणोंने ठीक समयपर कुन्तीपुत्र युधिष्ठिरको राजसूययज्ञकी दीक्षा दी॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दीक्षितः स तु धर्मात्मा धर्मराजो युधिष्ठिरः।
जगाम यज्ञायतनं वृतो विप्रैः सहस्रशः ॥ ४४ ॥
मूलम्
दीक्षितः स तु धर्मात्मा धर्मराजो युधिष्ठिरः।
जगाम यज्ञायतनं वृतो विप्रैः सहस्रशः ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यज्ञकी दीक्षा लेकर धर्मात्मा धर्मराज युधिष्ठिर सहस्रों ब्राह्मणोंसे घिरे हुए यज्ञमण्डपमें गये॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भ्रातृभिर्ज्ञातिभिश्चैव सुहृद्भिः सचिवैः सह।
क्षत्रियैश्च मनुष्येन्द्रैर्नानादेशसमागतैः ॥ ४५ ॥
अमात्यैश्च नरश्रेष्ठो धर्मो विग्रहवानिव।
मूलम्
भ्रातृभिर्ज्ञातिभिश्चैव सुहृद्भिः सचिवैः सह।
क्षत्रियैश्च मनुष्येन्द्रैर्नानादेशसमागतैः ॥ ४५ ॥
अमात्यैश्च नरश्रेष्ठो धर्मो विग्रहवानिव।
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय उनके सगे भाई, जाति-बन्धु, सुहृद्, सहायक अनेक देशोंसे आये हुए क्षत्रिय-नरेश तथा मन्त्रिगण भी थे। नरश्रेष्ठ युधिष्ठिर मूर्तिमान् धर्म ही जान पड़ते थे॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आजग्मुर्ब्राह्मणास्तत्र विषयेभ्यस्ततस्ततः ॥ ४६ ॥
सर्वविद्यासु निष्णाता वेदवेदाङ्गपारगाः ।
मूलम्
आजग्मुर्ब्राह्मणास्तत्र विषयेभ्यस्ततस्ततः ॥ ४६ ॥
सर्वविद्यासु निष्णाता वेदवेदाङ्गपारगाः ।
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् वहाँ भिन्न-भिन्न देशोंसे ब्राह्मणलोग आये, जो सम्पूर्ण विद्याओंमें निष्पात तथा वेद-वेदांगोंके पारंगत विद्वान् थे॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषामावसथांश्चक्रुर्धर्मराजस्य शासनात् ॥ ४७ ॥
बह्वन्नाच्छादनैर्युक्तान् सगणानां पृथक् पृथक्।
सर्वर्तुगुणसम्पन्नान् शिल्पिनोऽथ सहस्रशः ॥ ४८ ॥
मूलम्
तेषामावसथांश्चक्रुर्धर्मराजस्य शासनात् ॥ ४७ ॥
बह्वन्नाच्छादनैर्युक्तान् सगणानां पृथक् पृथक्।
सर्वर्तुगुणसम्पन्नान् शिल्पिनोऽथ सहस्रशः ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मराजकी आज्ञासे हजारों शिल्पियोंने आत्मीयजनोंके साथ आये हुए उन ब्राह्मणोंके ठहरनेके लिये पृथक्-पृथक् घर बनाये थे, जो बहुत-से अन्न और वस्त्रोंसे परिपूर्ण थे और जिनमें सभी ऋतुओंमें सुखपूर्वक रहनेकी सुविधाएँ थीं॥४७-४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषु ते न्यवसन् राजन् ब्राह्मणा नृपसत्कृताः।
कथयन्तः कथा बह्वीः पश्यन्तो नटनर्तकान् ॥ ४९ ॥
मूलम्
तेषु ते न्यवसन् राजन् ब्राह्मणा नृपसत्कृताः।
कथयन्तः कथा बह्वीः पश्यन्तो नटनर्तकान् ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! उन गृहोंमें वे ब्राह्मणलोग राजासे सत्कार पाकर निवास करने लगे। वहाँ वे नाना प्रकारकी कथाएँ कहते और नट-नर्तकोंके खेल देखते थे॥४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भुञ्जतां चैव विप्राणां वदतां च महास्वनः।
अनिशं श्रूयते तत्र मुदितानां महात्मनाम् ॥ ५० ॥
मूलम्
भुञ्जतां चैव विप्राणां वदतां च महास्वनः।
अनिशं श्रूयते तत्र मुदितानां महात्मनाम् ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ भोजन करते और बोलते हुए आनन्दमग्न महात्मा ब्राह्मणोंका निरन्तर महान् कोलाहल सुनायी पड़ता था॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दीयतां दीयतामेषां भुज्यतां भुज्यतामिति।
एवम्प्रकाराः संजल्पाः श्रूयन्ते स्मात्र नित्यशः ॥ ५१ ॥
मूलम्
दीयतां दीयतामेषां भुज्यतां भुज्यतामिति।
एवम्प्रकाराः संजल्पाः श्रूयन्ते स्मात्र नित्यशः ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इनको दीजिये, इन्हें परोसिये, भोजन कीजिये, भोजन कीजिये’ इसी प्रकारके शब्द वहाँ प्रतिदिन कानोंमें पड़ते थे॥५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गवां शतसहस्राणि शयनानां च भारत।
रुक्मस्य योषितां चैव धर्मराजः पृथग् ददौ ॥ ५२ ॥
मूलम्
गवां शतसहस्राणि शयनानां च भारत।
रुक्मस्य योषितां चैव धर्मराजः पृथग् ददौ ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! धर्मराज युधिष्ठिरने एक लाख गौएँ, उतनी ही शय्याएँ, एक लाख स्वर्णमुद्राएँ तथा उतनी ही अविवाहित युवतियाँ पृथक्-पृथक् ब्राह्मणोंको दान कीं॥५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रावर्ततैवं यज्ञः स पाण्डवस्य महात्मनः।
पृथिव्यामेकवीरस्य शक्रस्येव त्रिविष्टपे ॥ ५३ ॥
मूलम्
प्रावर्ततैवं यज्ञः स पाण्डवस्य महात्मनः।
पृथिव्यामेकवीरस्य शक्रस्येव त्रिविष्टपे ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार स्वर्गमें इन्द्रकी भाँति भूमण्डलमें अद्वितीय वीर महात्मा पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरका वह यज्ञ प्रारम्भ हुआ॥५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो युधिष्ठिरो राजा प्रेषयामास पाण्डवम्।
नकुलं हास्तिनपुरं भीष्माय पुरुषर्षभः ॥ ५४ ॥
द्रोणाय धृतराष्ट्राय विदुराय कृपाय च।
भ्रातॄणां चैव सर्वेषां येऽनुरक्ता युधिष्ठिरे ॥ ५५ ॥
मूलम्
ततो युधिष्ठिरो राजा प्रेषयामास पाण्डवम्।
नकुलं हास्तिनपुरं भीष्माय पुरुषर्षभः ॥ ५४ ॥
द्रोणाय धृतराष्ट्राय विदुराय कृपाय च।
भ्रातॄणां चैव सर्वेषां येऽनुरक्ता युधिष्ठिरे ॥ ५५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर पुरुषोतम राजा युधिष्ठिरने भीष्म, द्रोणाचार्य, धृतराष्ट्र, विदुर, कृपाचार्य तथा दुर्योधन आदि सब भाइयों एवं अपनेमें अनुराग रखनेवाले अन्य जो लोग वहाँ रहते थे, उन सबको बुलानेके लिये पाण्डुपुत्र नकुलको हस्तिनापुर भेजा॥५४-५५॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि राजसूयपर्वणि राजसूयदीक्षायां त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३३ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्वके अन्तर्गत राजसूयपर्वमें राजसूयदीक्षाविषयक तैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३३॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ४ श्लोक मिलाकर कुल ५९ श्लोक हैं)