०३१ दक्षिणविजयः

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

एकत्रिंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

सहदेवके द्वारा दक्षिण दिशाकी विजय

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथैव सहदेवोऽपि धर्मराजेन पूजितः।
महत्या सेनया राजन् प्रययौ दक्षिणां दिशम् ॥ १ ॥

मूलम्

तथैव सहदेवोऽपि धर्मराजेन पूजितः।
महत्या सेनया राजन् प्रययौ दक्षिणां दिशम् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! सहदेव भी धर्मराज युधिष्ठिरसे सम्मानित हो दक्षिण दिशापर विजय पानेके लिये विशाल सेनाके साथ प्रस्थित हुए॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स शूरसेनान् कार्त्स्न्येन पूर्वमेवाजयत् प्रभुः।
मत्स्यराजं च कौरव्यो वशे चक्रे बलाद् बली ॥ २ ॥

मूलम्

स शूरसेनान् कार्त्स्न्येन पूर्वमेवाजयत् प्रभुः।
मत्स्यराजं च कौरव्यो वशे चक्रे बलाद् बली ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शक्तिशाली सहदेवने सबसे पहले समस्त शूरसेननिवासियोंको पूर्णरूपसे जीत लिया; फिर मत्स्यराज विराटको अपने अधीन बनाया॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अधिराजाधिपं चैव दन्तवक्रं महाबलम्।
जिगाय करदं चैव कृत्वा राज्ये न्यवेशयत् ॥ ३ ॥

मूलम्

अधिराजाधिपं चैव दन्तवक्रं महाबलम्।
जिगाय करदं चैव कृत्वा राज्ये न्यवेशयत् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाओंके अधिपति महाबली दन्तवक्रको भी परास्त किया और उसे कर देनेवाला बनाकर फिर उसी राज्यपर प्रतिष्ठित कर दिया॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुकुमारं वशे चक्रे सुमित्रं च नराधिपम्।
तथैवापरमत्स्यांश्च व्यजयत् स पटच्चरान् ॥ ४ ॥
निषादभूमिं गोशृङ्गं पर्वतप्रवरं तथा।
तरसैवाजयद् धीमान् श्रेणिमन्तं च पार्थिवम् ॥ ५ ॥

मूलम्

सुकुमारं वशे चक्रे सुमित्रं च नराधिपम्।
तथैवापरमत्स्यांश्च व्यजयत् स पटच्चरान् ॥ ४ ॥
निषादभूमिं गोशृङ्गं पर्वतप्रवरं तथा।
तरसैवाजयद् धीमान् श्रेणिमन्तं च पार्थिवम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद राजा सुकुमार तथा सुमित्रको वशमें किया। इसी प्रकार अपर मत्स्यों और लुटेरोंपर भी विजय प्राप्त की। तदनन्तर निषाददेश तथा पर्वतप्रवर गोशृंगको जीतकर बुद्धिमान् सहदेवने राजा श्रेणिमान्‌को वेगपूर्वक परास्त किया॥४-५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नरराष्ट्रं च निर्जित्य कुन्तिभोजमुपाद्रवत्।
प्रीतिपूर्वं च तस्यासौ प्रतिजग्राह शासनम् ॥ ६ ॥

मूलम्

नरराष्ट्रं च निर्जित्य कुन्तिभोजमुपाद्रवत्।
प्रीतिपूर्वं च तस्यासौ प्रतिजग्राह शासनम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर नरराष्ट्रको जीतकर राजा कुन्तिभोजपर धावा किया। परंतु कुन्तिभोजने प्रसन्नताके साथ ही उसका शासन स्वीकार कर लिया॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततश्चर्मण्वतीकूले जम्भकस्यात्मजं नृपम् ।
ददर्श वासुदेवेन शेषितं पूर्ववैरिणा ॥ ७ ॥

मूलम्

ततश्चर्मण्वतीकूले जम्भकस्यात्मजं नृपम् ।
ददर्श वासुदेवेन शेषितं पूर्ववैरिणा ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद चर्मण्वतीके तटपर सहदेवने जम्भकके पुत्रको देखा, जिसे पूर्ववैरी वासुदेवने जीवित छोड़ दिया था॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चक्रे तेन स संग्रामं सहदेवेन भारत।
स तमाजौ विनिर्जित्य दक्षिणाभिमुखो ययौ ॥ ८ ॥

मूलम्

चक्रे तेन स संग्रामं सहदेवेन भारत।
स तमाजौ विनिर्जित्य दक्षिणाभिमुखो ययौ ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! उस जम्भकपुत्रने सहदेवके साथ घोर संग्राम किया; परंतु सहदेव उसे युद्धमें जीतकर दक्षिण दिशाकी ओर बढ़ गये॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सेकानपरसेकांश्च व्यजयत् सुमहाबलः ।
करं तेभ्य उपादाय रत्नानि विविधानि च ॥ ९ ॥
ततस्तेनैव सहितो नर्मदामभितो ययौ।

मूलम्

सेकानपरसेकांश्च व्यजयत् सुमहाबलः ।
करं तेभ्य उपादाय रत्नानि विविधानि च ॥ ९ ॥
ततस्तेनैव सहितो नर्मदामभितो ययौ।

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ महाबली माद्रीकुमारने सेक और अपरसेक देशोंपर विजय पायी और उन सबसे नाना प्रकारके रत्न भेंटमें लिये। तत्पश्चात् सेकाधिपतिको साथ ले उन्होंने नर्मदाकी ओर प्रस्थान किया॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विन्दानुविन्दावावन्त्यौ सैन्येन महताऽऽवृतौ ।
जिगाय समरे वीरावाश्विनेयः प्रतापवान् ॥ १० ॥

मूलम्

विन्दानुविन्दावावन्त्यौ सैन्येन महताऽऽवृतौ ।
जिगाय समरे वीरावाश्विनेयः प्रतापवान् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अश्विनीकुमारोंके पुत्र प्रतापी सहदेवने वहाँ युद्धमें विशाल सेनासे घिरे हुए अवन्तीके राजकुमार विन्द और अनुविन्दको परास्त किया॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो रत्नान्युपादाय पुरं भोजकटं ययौ।
तत्र युद्धमभूद् राजन् दिवसद्वयमच्युत ॥ ११ ॥

मूलम्

ततो रत्नान्युपादाय पुरं भोजकटं ययौ।
तत्र युद्धमभूद् राजन् दिवसद्वयमच्युत ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँसे रत्नोंकी भेंट लेकर वे भोजकट नगरमें गये। अपनी मर्यादासे कभी च्युत न होनेवाले राजन्! वहाँ दो दिनोंतक युद्ध होता रहा॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स विजित्य दुराधर्षं भीष्मकं माद्रिनन्दनः।
कोसलाधिपतिं चैव तथा वेणातटाधिपम् ॥ १२ ॥
कान्तारकांश्च समरे तथा प्राक्कोसलान् नृपान्।
नाटकेयांश्च समरे तथा हेरम्बकान् युधि ॥ १३ ॥

मूलम्

स विजित्य दुराधर्षं भीष्मकं माद्रिनन्दनः।
कोसलाधिपतिं चैव तथा वेणातटाधिपम् ॥ १२ ॥
कान्तारकांश्च समरे तथा प्राक्कोसलान् नृपान्।
नाटकेयांश्च समरे तथा हेरम्बकान् युधि ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

माद्रीनन्दनने उस संग्राममें दुर्धर्ष वीर भीष्मकको परास्त करके कोसलाधिपति, वेणानदीके तटवर्ती प्रदेशोंके स्वामी, कान्तारक तथा पूर्वकोसलके राजाओंको भी समरमें पराजित किया। तत्पश्चात् नाटकेयों और हेरम्बकोंको भी युद्धमें हराया॥१२-१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मारुधं च विनिर्जित्य रम्यग्राममथो बलात्।
नाचीनानर्बुकांश्चैव राज्ञश्चैव महाबलः ॥ १४ ॥
तांस्तानाटविकान् सर्वानजयत् पाण्डुनन्दनः ।
वाताधिपं च नृपतिं वशे चक्रे महाबलः ॥ १५ ॥

मूलम्

मारुधं च विनिर्जित्य रम्यग्राममथो बलात्।
नाचीनानर्बुकांश्चैव राज्ञश्चैव महाबलः ॥ १४ ॥
तांस्तानाटविकान् सर्वानजयत् पाण्डुनन्दनः ।
वाताधिपं च नृपतिं वशे चक्रे महाबलः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाबली पाण्डुनन्दन सहदेवने मारुध तथा रम्यग्रामको बलपूर्वक परास्त करके नाचीन, अर्बुक तथा समस्त वनेचर राजाओंको जीत लिया। तदनन्तर महाबली माद्रीकुमारने राजा वाताधिपको वशमें किया॥१४-१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुलिन्दांश्च रणे जित्वा ययौ दक्षिणतः पुरः।
युयुधे पाण्ड्यराजेन दिवसं नकुलानुजः ॥ १६ ॥

मूलम्

पुलिन्दांश्च रणे जित्वा ययौ दक्षिणतः पुरः।
युयुधे पाण्ड्यराजेन दिवसं नकुलानुजः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर पुलिन्दोंको संग्राममें हराकर नकुलके छोटे भाई सहदेव दक्षिण दिशामें और आगे बढ़ गये। तत्पश्चात् उन्होंने पाण्ड्य-नरेशके साथ एक दिन युद्ध किया॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं जित्वा स महाबाहुः प्रययौ दक्षिणापथम्।
गुहामासादयामास किष्किन्धां लोकविश्रुताम् ॥ १७ ॥

मूलम्

तं जित्वा स महाबाहुः प्रययौ दक्षिणापथम्।
गुहामासादयामास किष्किन्धां लोकविश्रुताम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्हें जीतकर महाबाहु सहदेव दक्षिणापथकी ओर गये और लोकविख्यात किष्किन्धा नामक गुफामें जा पहुँचे॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र वानरराजाभ्यां मैन्देन द्विविदेन च।
युयुधे दिवसान् सप्त न च तौ विकृतिं गतौ॥१८॥

मूलम्

तत्र वानरराजाभ्यां मैन्देन द्विविदेन च।
युयुधे दिवसान् सप्त न च तौ विकृतिं गतौ॥१८॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ वानरराज मैन्द और द्विविदके साथ उन्होंने सात दिनोंतक युद्ध किया; किंतु उन दोनोंका कुछ बिगाड़ न हो सका॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तुष्टौ महात्मानौ सहदेवाय वानरौ।
ऊचतुश्चैव संहृष्टौ प्रीतिपूर्वमिदं वचः ॥ १९ ॥

मूलम्

ततस्तुष्टौ महात्मानौ सहदेवाय वानरौ।
ऊचतुश्चैव संहृष्टौ प्रीतिपूर्वमिदं वचः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब वे दोनों महात्मा वानर अत्यन्त प्रसन्न हो सहदेवसे प्रेमपूर्वक बोले—॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गच्छ पाण्डवशार्दूल रत्नान्यादाय सर्वशः।
अविघ्नमस्तु कार्याय धर्मराजाय धीमते ॥ २० ॥

मूलम्

गच्छ पाण्डवशार्दूल रत्नान्यादाय सर्वशः।
अविघ्नमस्तु कार्याय धर्मराजाय धीमते ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पाण्डवप्रवर! तुम सब प्रकारके रत्नोंकी भेंट लेकर जाओ। परम बुद्धिमान् धर्मराजके कार्यमें कोई विघ्न नहीं पड़ना चाहिये’॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो रत्नान्युपादाय पुरीं माहिष्मतीं ययौ।
तत्र नीलेन राज्ञा स चक्रे युद्धं नरर्षभः ॥ २१ ॥

मूलम्

ततो रत्नान्युपादाय पुरीं माहिष्मतीं ययौ।
तत्र नीलेन राज्ञा स चक्रे युद्धं नरर्षभः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर वे नरश्रेष्ठ वहाँसे रत्नोंकी भेंट लेकर माहिष्मतीपुरीको गये और वहाँ राजा नीलके1 साथ घोर युद्ध किया॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाण्डवः परवीरघ्नः सहदेवः प्रतापवान्।
ततोऽस्य सुमहद् युद्धमासीद् भीरुभयंकरम् ॥ २२ ॥
सैन्यक्षयकरं चैव प्राणानां संशयावहम्।
चक्रे तस्य हि साहाय्यं भगवान् हव्यवाहनः ॥ २३ ॥

मूलम्

पाण्डवः परवीरघ्नः सहदेवः प्रतापवान्।
ततोऽस्य सुमहद् युद्धमासीद् भीरुभयंकरम् ॥ २२ ॥
सैन्यक्षयकरं चैव प्राणानां संशयावहम्।
चक्रे तस्य हि साहाय्यं भगवान् हव्यवाहनः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुवीरोंका नाश करनेवाले पाण्डुपुत्र सहदेव बड़े प्रतापी थे। उनसे राजा नीलका जो महान् युद्ध हुआ, वह कायरोंको भयभीत करनेवाला, सेनाओंका विनाशक और प्राणोंको संशयमें डालनेवाला था। भगवान् अग्निदेव राजा नीलकी सहायता कर रहे थे॥२२-२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो रथा हया नागाः पुरुषाः कवचानि च।
प्रदीप्तानि व्यदृश्यन्त सहदेवबले तदा ॥ २४ ॥

मूलम्

ततो रथा हया नागाः पुरुषाः कवचानि च।
प्रदीप्तानि व्यदृश्यन्त सहदेवबले तदा ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय सहदेवकी सेनामें रथ, घोड़े, हाथी, मनुष्य और कवच सभी आगसे जलते दिखायी देने लगे॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः सुसम्भ्रान्तमना बभूव कुरुनन्दनः।
नोत्तरं प्रतिवक्तुं च शक्तोऽभूज्जनमेजय ॥ २५ ॥

मूलम्

ततः सुसम्भ्रान्तमना बभूव कुरुनन्दनः।
नोत्तरं प्रतिवक्तुं च शक्तोऽभूज्जनमेजय ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनमेजय! इससे कुरुनन्दन सहदेवके मनमें बड़ी घबराहट हुई। वे इसका प्रतीकार करनेमें असमर्थ हो गये॥२५॥

मूलम् (वचनम्)

जनमेजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

किमर्थं भगवान् वह्निः प्रत्यमित्रोऽभवद् युधि।
सहदेवस्य यज्ञार्थं घटमानस्य वै द्विज ॥ २६ ॥

मूलम्

किमर्थं भगवान् वह्निः प्रत्यमित्रोऽभवद् युधि।
सहदेवस्य यज्ञार्थं घटमानस्य वै द्विज ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनमेजयने पूछा— ब्रह्मन्! सहदेव तो यज्ञके लिये ही चेष्टा कर रहे थे, फिर भगवान् अग्निदेव उस युद्धमें उनके विरोधी कैसे हो गये?॥२६॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र माहिष्मतीवासी भगवान् हव्यवाहनः।
श्रूयते हि गृहीतो वै पुरस्तात् पारदारिकः ॥ २७ ॥

मूलम्

तत्र माहिष्मतीवासी भगवान् हव्यवाहनः।
श्रूयते हि गृहीतो वै पुरस्तात् पारदारिकः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजीने कहा— जनमेजय! सुननेमें आया है कि माहिष्मती नगरीमें निवास करनेवाले भगवान् अग्निदेव किसी समय उस नील राजाकी कन्या सुदर्शनाके प्रति आसक्त हो गये॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नीलस्य राज्ञो दुहिता बभूवातीवशोभना।
साग्निहोत्रमुपातिष्ठद् बोधनाय पितुः सदा ॥ २८ ॥

मूलम्

नीलस्य राज्ञो दुहिता बभूवातीवशोभना।
साग्निहोत्रमुपातिष्ठद् बोधनाय पितुः सदा ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा नीलके एक कन्या थी, जो अनुपम सुन्दरी थी। वह सदा अपने पिताके अग्निहोत्रगृहमें अग्निको प्रज्वलित करनेके लिये उपस्थित हुआ करती थी॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्यजनैर्धूयमानोऽपि तावत् प्रज्वलते न सः।
यावच्चारुपुटौष्ठेन वायुना न विधूयते ॥ २९ ॥

मूलम्

व्यजनैर्धूयमानोऽपि तावत् प्रज्वलते न सः।
यावच्चारुपुटौष्ठेन वायुना न विधूयते ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पंखेसे हवा करनेपर भी अग्निदेव तबतक प्रज्वलित नहीं होते थे, जबतक कि वह सुन्दरी अपने मनोहर ओष्ठसम्पुटसे फूँक मारकर हवा न देती थी॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः स भगवानग्निश्चकमे तां सुदर्शनाम्।
नीलस्य राज्ञः सर्वेषामुपनीतश्च सोऽभवत् ॥ ३० ॥

मूलम्

ततः स भगवानग्निश्चकमे तां सुदर्शनाम्।
नीलस्य राज्ञः सर्वेषामुपनीतश्च सोऽभवत् ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् भगवान् अग्नि उस सुदर्शना नामकी राजकन्याको चाहने लगे। इस बातको राजा नील और सभी नागरिक जान गये॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो ब्राह्मणरूपेण रममाणो यदृच्छया।
चकमे तां वरारोहां कन्यामुत्पललोचनाम्।
तं तु राजा यथाशास्त्रमशासद् धार्मिकस्तदा ॥ ३१ ॥

मूलम्

ततो ब्राह्मणरूपेण रममाणो यदृच्छया।
चकमे तां वरारोहां कन्यामुत्पललोचनाम्।
तं तु राजा यथाशास्त्रमशासद् धार्मिकस्तदा ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर एक दिन ब्राह्मणका रूप धारण करके इच्छानुसार घूमते हुए अग्निदेव उस सर्वांगसुन्दरी कमल-नयनी कन्याके पास आये और उसके प्रति कामभाव प्रकट करने लगे। धर्मात्मा राजा नीलने शास्त्रके अनुसार उस ब्राह्मणपर शासन किया॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रजज्वाल ततः कोपाद् भगवान् हव्यवाहनः।
तं दृष्ट्वा विस्मितो राजा जगाम शिरसावनिम् ॥ ३२ ॥

मूलम्

प्रजज्वाल ततः कोपाद् भगवान् हव्यवाहनः।
तं दृष्ट्वा विस्मितो राजा जगाम शिरसावनिम् ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब क्रोधसे भगवान् अग्निदेव अपने रूपमें प्रज्वलित हो उठे। उन्हें इस रूपमें देखकर राजाको बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने पृथ्वीपर मस्तक रखकर अग्निदेवको प्रणाम किया॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः कालेन तां कन्यां तथैव हि तदा नृपः।
प्रददौ विप्ररूपाय वह्नये शिरसा नतः ॥ ३३ ॥
प्रतिगृह्य च तां सुभ्रूं नीलराज्ञः सुतां तदा।
चक्रे प्रसादं भगवांस्तस्य राज्ञो विभावसुः ॥ ३४ ॥

मूलम्

ततः कालेन तां कन्यां तथैव हि तदा नृपः।
प्रददौ विप्ररूपाय वह्नये शिरसा नतः ॥ ३३ ॥
प्रतिगृह्य च तां सुभ्रूं नीलराज्ञः सुतां तदा।
चक्रे प्रसादं भगवांस्तस्य राज्ञो विभावसुः ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् विवाहके योग्य समय आनेपर राजाने उस कन्याको ब्राह्मणरूपधारी अग्निदेवकी सेवामें अर्पित कर दिया और उनके चरणोंमें सिर रखकर नमस्कार किया। राजा नीलकी सुन्दरी कन्याको पत्नीरूपमें ग्रहण करके भगवान् अग्निने राजापर अपना कृपाप्रसाद प्रकट किया॥३३-३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वरेणच्छन्दयामास तं नृपं स्विष्टकृत्तमः।
अभयं च स जग्राह स्वसैन्ये वै महीपतिः ॥ ३५ ॥

मूलम्

वरेणच्छन्दयामास तं नृपं स्विष्टकृत्तमः।
अभयं च स जग्राह स्वसैन्ये वै महीपतिः ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे उनकी अभीष्ट-सिद्धिमें सर्वोत्तम सहायक हो राजासे वर माँगनेका अनुरोध करने लगे। राजाने अपनी सेनाके प्रति अभयदान माँगा॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रभृति ये केचिदज्ञानात् तां पुरीं नृपाः।
जिगीषन्ति बलाद् राजंस्ते दह्यन्ते स्म वह्निना ॥ ३६ ॥

मूलम्

ततः प्रभृति ये केचिदज्ञानात् तां पुरीं नृपाः।
जिगीषन्ति बलाद् राजंस्ते दह्यन्ते स्म वह्निना ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! तभीसे जो कोई नरेश अज्ञानवश उस पुरीको बलपूर्वक जीतना चाहते, उन्हें अग्निदेव जला देते थे॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्यां पुर्यां तदा चैव माहिष्मत्यां कुरूद्वह।
बभूवुरनतिग्राह्या योषितश्छन्दतः किल ॥ ३७ ॥

मूलम्

तस्यां पुर्यां तदा चैव माहिष्मत्यां कुरूद्वह।
बभूवुरनतिग्राह्या योषितश्छन्दतः किल ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुश्रेष्ठ जनमेजय! उस समय माहिष्मतीपुरीमें युवती स्त्रियाँ इच्छानुसार ग्रहण करनेके योग्य नहीं रह गयी थीं (क्योंकि वे स्वतन्त्रतासे ही वरका वरण किया करती थीं)॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमग्निर्वरं प्रादात् स्त्रीणामप्रतिवारणे ।
वरिण्यस्तत्र नार्यो हि यथेष्टं विचरन्त्युत ॥ ३८ ॥

मूलम्

एवमग्निर्वरं प्रादात् स्त्रीणामप्रतिवारणे ।
वरिण्यस्तत्र नार्यो हि यथेष्टं विचरन्त्युत ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अग्निदेवने स्त्रियोंके लिये यह वर दे दिया था कि अपने प्रतिकूल होनेके कारण ही कोई स्त्रियोंको वरका स्वयं ही वरण करनेसे रोक नहीं सकता। इससे वहाँकी स्त्रियाँ स्वेच्छापूर्वक वरका वरण करनेके लिये विचरण किया करती थीं॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वर्जयन्ति च राजानस्तत् पुरं भरतर्षभ।
भयादग्नेर्महाराज तदाप्रभृति सर्वदा ॥ ३९ ॥

मूलम्

वर्जयन्ति च राजानस्तत् पुरं भरतर्षभ।
भयादग्नेर्महाराज तदाप्रभृति सर्वदा ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ जनमेजय! तभीसे सब राजा (जो इस रहस्यसे परिचित थे) अग्निके भयके कारण माहिष्मती-पुरीपर चढ़ाई नहीं करते थे॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सहदेवस्तु धर्मात्मा सैन्यं दृष्ट्वा भयार्दितम्।
परीतमग्निना राजन् नाकम्पत यथाचलः।
उपस्पृश्य शुचिर्भूत्वा सोऽब्रवीत् पावकं ततः ॥ ४० ॥

मूलम्

सहदेवस्तु धर्मात्मा सैन्यं दृष्ट्वा भयार्दितम्।
परीतमग्निना राजन् नाकम्पत यथाचलः।
उपस्पृश्य शुचिर्भूत्वा सोऽब्रवीत् पावकं ततः ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! धर्मात्मा सहदेव अग्निसे व्याप्त हुई अपनी सेनाको भयसे पीड़ित देख पर्वतकी भाँति अविचल भावसे खड़े रहे, भयसे कम्पित नहीं हुए। उन्होंने आचमन करके पवित्र हो अग्निदेवसे इस प्रकार कहा॥४०॥

मूलम् (वचनम्)

सहदेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वदर्थोऽयं समारम्भः कृष्णवर्त्मन् नमोऽस्तु ते।
मुखं त्वमसि देवानां यज्ञस्त्वमसि पावक ॥ ४१ ॥

मूलम्

त्वदर्थोऽयं समारम्भः कृष्णवर्त्मन् नमोऽस्तु ते।
मुखं त्वमसि देवानां यज्ञस्त्वमसि पावक ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सहदेव बोले— कृष्णवर्त्मन्! हमारा यह आयोजन तो आपहीके लिये है, आपको नमस्कार है। पावक! आप देवताओंके मुख हैं, यज्ञस्वरूप हैं॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पावनात् पावकश्चासि वहनाद्धव्यवाहनः ।
वेदास्त्वदर्थं जाता वै जातवेदास्ततो ह्यसि ॥ ४२ ॥

मूलम्

पावनात् पावकश्चासि वहनाद्धव्यवाहनः ।
वेदास्त्वदर्थं जाता वै जातवेदास्ततो ह्यसि ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप सबको पवित्र करनेके कारण पावक हैं और हव्य (हवनीय पदार्थ)-को वहन करनेके कारण हव्यवाहन कहलाते हैं। वेद आपके लिये ही जात अर्थात् प्रकट हुए हैं, इसीलिये आप जातवेदा हैं॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चित्रभानुः सुरेशश्च अनलस्त्वं विभावसो।
स्वर्गद्वारस्पृशश्चासि हुताशो ज्वलनः शिखी ॥ ४३ ॥

मूलम्

चित्रभानुः सुरेशश्च अनलस्त्वं विभावसो।
स्वर्गद्वारस्पृशश्चासि हुताशो ज्वलनः शिखी ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विभावसो! आप ही चित्रभानु, सुरेश और अनल कहलाते हैं। आप सदा स्वर्गद्वारका स्पर्श करते हैं। आप आहुति दिये हुए पदार्थोंको खाते हैं, इसलिये हुताशन हैं। प्रज्वलित होनेसे ज्वलन और शिखा (लपट) धारण करनेसे शिखी हैं॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वैश्वानरस्त्वं पिङ्गेशः प्लवङ्गो भूरितेजसः।
कुमारसूस्त्वं भगवान् रुद्रगर्भो हिरण्यकृत् ॥ ४४ ॥

मूलम्

वैश्वानरस्त्वं पिङ्गेशः प्लवङ्गो भूरितेजसः।
कुमारसूस्त्वं भगवान् रुद्रगर्भो हिरण्यकृत् ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप ही वैश्वानर, पिंगेश, प्लवंग और भूरितेजस् नाम धारण करते हैं। आपने ही कुमार कार्तिकेयको जन्म दिया है, आप ही ऐश्वर्यसम्पन्न होनेके कारण भगवान् हैं। श्रीरुद्रका वीर्य धारण करनेसे आप रुद्रगर्भ कहलाते हैं। सुवर्णके उत्पादक होनेसे आपका नाम हिरण्यकृत् है॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अग्निर्ददातु मे तेजो वायुः प्राणं ददातु मे।
पृथिवी बलमादध्याच्छिवं चापो दिशन्तु मे ॥ ४५ ॥

मूलम्

अग्निर्ददातु मे तेजो वायुः प्राणं ददातु मे।
पृथिवी बलमादध्याच्छिवं चापो दिशन्तु मे ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप अग्नि मुझे तेज दें, वायुदेव प्राणशक्ति प्रदान करें, पृथ्वी मुझमें बलका आधान करें और जल मुझे कल्याण प्रदान करें॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपांगर्भ महासत्त्व जातवेदः सुरेश्वर।
देवानां मुखमग्ने त्वं सत्येन विपुनीहि माम् ॥ ४६ ॥

मूलम्

अपांगर्भ महासत्त्व जातवेदः सुरेश्वर।
देवानां मुखमग्ने त्वं सत्येन विपुनीहि माम् ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जलको प्रकट करनेवाले महान् शक्तिसम्पन्न जातवेदा सुरेश्वर अग्निदेव! आप देवताओंके मुख हैं, अपने सत्यके प्रभावसे आप मुझे पवित्र कीजिये॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋषिभिर्ब्राह्मणैश्चैव दैवतैरसुरैरपि ।
नित्यं सुहुत यज्ञेषु सत्येन विपुनीहि माम् ॥ ४७ ॥

मूलम्

ऋषिभिर्ब्राह्मणैश्चैव दैवतैरसुरैरपि ।
नित्यं सुहुत यज्ञेषु सत्येन विपुनीहि माम् ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऋषि, ब्राह्मण, देवता तथा असुर भी सदा यज्ञ करते समय आपमें आहुति डालते हैं, अपने सत्यके प्रभावसे आप मुझे पवित्र करें॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धूमकेतुः शिखी च त्वं पापहानिलसम्भवः।
सर्वप्राणिषु नित्यस्थः सत्येन विपुनीहि माम् ॥ ४८ ॥

मूलम्

धूमकेतुः शिखी च त्वं पापहानिलसम्भवः।
सर्वप्राणिषु नित्यस्थः सत्येन विपुनीहि माम् ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देव! धूम आपका ध्वज है, आप शिखा धारण करनेवाले हैं, वायुसे आपका प्राकट्य हुआ है। आप समस्त पापोंके नाशक हैं। सम्पूर्ण प्राणियोंके भीतर आप सदा विराजमान होते हैं। अपने सत्यके प्रभावसे आप मुझे पवित्र कीजिये॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं स्तुतोऽसि भगवन् प्रीतेन शुचिना मया।
तुष्टिं पुष्टिं श्रुतिं चैव प्रीतिं चाग्ने प्रयच्छ मे॥४९॥

मूलम्

एवं स्तुतोऽसि भगवन् प्रीतेन शुचिना मया।
तुष्टिं पुष्टिं श्रुतिं चैव प्रीतिं चाग्ने प्रयच्छ मे॥४९॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवन्! मैंने पवित्र होकर प्रेमभावसे आपका इस प्रकार स्तवन किया है। अग्निदेव! आप मुझे तुष्टि, पुष्टि, श्रवण-शक्ति एवं शास्त्रज्ञान और प्रीति प्रदान करें॥४९॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्येवं मन्त्रमाग्नेयं पठन् यो जुहुयाद् विभुम्।
ऋद्धिमान् सततं दान्तः सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ ५० ॥

मूलम्

इत्येवं मन्त्रमाग्नेयं पठन् यो जुहुयाद् विभुम्।
ऋद्धिमान् सततं दान्तः सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! जो द्विज इस प्रकार इन श्लोकरूप आग्नेय मन्त्रोंका पाठ करते हुए (अन्तमें ‘स्वाहा’ बोलकर) भगवान् अग्निदेवको आहुति समर्पित करता है, वह सदा समृद्धिशाली और जितेन्द्रिय होकर सब पापोंसे मुक्त हो जाता है॥५०॥

मूलम् (वचनम्)

सहदेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यज्ञविघ्नमिमं कर्तुं नार्हस्त्वं हव्यवाहन।

मूलम्

यज्ञविघ्नमिमं कर्तुं नार्हस्त्वं हव्यवाहन।

अनुवाद (हिन्दी)

सहदेव बोले— हव्यवाहन! आपको यज्ञमें यह विघ्न नहीं डालना चाहिये॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वा तु माद्रेयः कुशैरास्तीर्य मेदिनीम् ॥ ५१ ॥
विधिवत् पुरुषव्याघ्रः पावकं प्रत्युपाविशत्।
प्रमुखे तस्य सैन्यस्य भीतोद्विग्नस्य भारत ॥ ५२ ॥

मूलम्

एवमुक्त्वा तु माद्रेयः कुशैरास्तीर्य मेदिनीम् ॥ ५१ ॥
विधिवत् पुरुषव्याघ्रः पावकं प्रत्युपाविशत्।
प्रमुखे तस्य सैन्यस्य भीतोद्विग्नस्य भारत ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! ऐसा कहकर नरश्रेष्ठ माद्रीकुमार सहदेव धरतीपर कुश बिछाकर अपनी भयभीत और उद्विग्न सेनाके अग्रभागमें विधिपूर्वक अग्निके सम्मुख धरना देकर बैठ गये॥५१-५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चैनमत्यगाद् वह्निर्वेलामिव महोदधिः।
तमुपेत्य शनैर्वह्निरुवाच कुरुनन्दनम् ॥ ५३ ॥
सहदेवं नृणां देवं सान्त्वपूर्वमिदं वचः।
उत्तिष्ठोत्तिष्ठ कौरव्य जिज्ञासेयं कृता मया।
वेद्मि सर्वमभिप्रायं तव धर्मसुतस्य च ॥ ५४ ॥

मूलम्

न चैनमत्यगाद् वह्निर्वेलामिव महोदधिः।
तमुपेत्य शनैर्वह्निरुवाच कुरुनन्दनम् ॥ ५३ ॥
सहदेवं नृणां देवं सान्त्वपूर्वमिदं वचः।
उत्तिष्ठोत्तिष्ठ कौरव्य जिज्ञासेयं कृता मया।
वेद्मि सर्वमभिप्रायं तव धर्मसुतस्य च ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे महासागर अपनी तटभूमिका उल्लंघन नहीं करता, उसी प्रकार अग्निदेव सहदेवको लाँघकर उनकी सेनामें नहीं गये। वे कुरुकुलको आनन्दित करनेवाले नरदेव सहदेवके पास धीरे-धीरे आकर उन्हें सान्त्वना देते हुए यह वचन बोले—‘कौरव्य! उठो, उठो, मैंने यह तुम्हारी परीक्षा की है। तुम्हारे और धर्मपुत्र युधिष्ठिरके सम्पूर्ण अभिप्रायको मैं जानता हूँ॥५३-५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मया तु रक्षितव्येयं पुरी भरतसत्तम।
यावद् राज्ञो हि नीलस्य कुले वंशधरा इति ॥ ५५ ॥
ईप्सितं तु करिष्यामि मनसस्तव पाण्डव ॥ ५६ ॥

मूलम्

मया तु रक्षितव्येयं पुरी भरतसत्तम।
यावद् राज्ञो हि नीलस्य कुले वंशधरा इति ॥ ५५ ॥
ईप्सितं तु करिष्यामि मनसस्तव पाण्डव ॥ ५६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘परंतु भरतसत्तम! राजा नीलके कुलमें जबतक उनकी वंशपरम्परा चलती रहेगी, तबतक मुझे इस माहिष्मतीपुरीकी रक्षा करनी होगी। पाण्डुकुमार! साथ ही मैं तुम्हारा मनोरथ भी पूर्ण करूँगा’॥५५-५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत उत्थाय हृष्टात्मा प्राञ्जलिः शिरसा नतः।
पूजयामास माद्रेयः पावकं भरतर्षभ ॥ ५७ ॥

मूलम्

तत उत्थाय हृष्टात्मा प्राञ्जलिः शिरसा नतः।
पूजयामास माद्रेयः पावकं भरतर्षभ ॥ ५७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! जनमेजय! यह सुनकर माद्रीकुमार सहदेव प्रसन्नचित्त हो वहाँसे उठे और हाथ जोड़कर एवं सिर झुकाकर उन्होंने अग्निदेवका पूजन किया॥५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पावके विनिवृत्ते तु नीलो राजाभ्यगात् तदा।
पावकस्याज्ञया चैनमर्चयामास पार्थिवः ॥ ५८ ॥
सत्कारेण नरव्याघ्रं सहदेवं युधाम्पतिम्।

मूलम्

पावके विनिवृत्ते तु नीलो राजाभ्यगात् तदा।
पावकस्याज्ञया चैनमर्चयामास पार्थिवः ॥ ५८ ॥
सत्कारेण नरव्याघ्रं सहदेवं युधाम्पतिम्।

अनुवाद (हिन्दी)

अग्निके लौट जानेपर उन्हींकी आज्ञासे राजा नील उस समय वहाँ आये और उन्होंने योद्धाओंके अधिपति पुरुषसिंह सहदेवका सत्कारपूर्वक पूजन किया॥५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रतिगृह्य च तां पूजां करे च विनिवेश्य च॥५९॥
माद्रीसुतस्ततः प्रायाद् विजयी दक्षिणां दिशम्।

मूलम्

प्रतिगृह्य च तां पूजां करे च विनिवेश्य च॥५९॥
माद्रीसुतस्ततः प्रायाद् विजयी दक्षिणां दिशम्।

अनुवाद (हिन्दी)

राजा नीलकी वह पूजा ग्रहणकर और उनपर कर लगाकर विजयी माद्रीकुमार सहदेव दक्षिण दिशाकी ओर बढ़ गये॥५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रैपुरं स वशे कृत्वा राजानममितौजसम् ॥ ६० ॥
निजग्राह महाबाहुस्तरसा पौरवेश्वरम् ।
आकृतिं कौशिकाचार्यं यत्नेन महता ततः ॥ ६१ ॥
वशे चक्रे महाबाहुः सुराष्ट्राधिपतिं तदा।

मूलम्

त्रैपुरं स वशे कृत्वा राजानममितौजसम् ॥ ६० ॥
निजग्राह महाबाहुस्तरसा पौरवेश्वरम् ।
आकृतिं कौशिकाचार्यं यत्नेन महता ततः ॥ ६१ ॥
वशे चक्रे महाबाहुः सुराष्ट्राधिपतिं तदा।

अनुवाद (हिन्दी)

फिर त्रिपुरीके राजा अमितौजाको वशमें करके महाबाहु सहदेवने पौरवेश्वरको वेगपूर्वक बंदी बना लिया। तदनन्तर बड़े भारी प्रयत्नके द्वारा विशाल भुजाओंवाले माद्रीकुमारने सुराष्ट्रदेशके अधिपति कौशिकाचार्य आकृतिको वशमें किया॥६०-६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुराष्ट्रविषयस्थश्च प्रेषयामास रुक्मिणे ॥ ६२ ॥
राज्ञे भोजकटस्थाय महामात्राय धीमते।
भीष्मकाय स धर्मात्मा साक्षादिन्द्रसखाय वै ॥ ६३ ॥
स चास्य प्रतिजग्राह ससुतः शासनं तदा।
प्रीतिपूर्वं महाराज वासुदेवमवेक्ष्य च ॥ ६४ ॥
ततः स रत्नान्यादाय पुनः प्रायाद् युधाम्पतिः।

मूलम्

सुराष्ट्रविषयस्थश्च प्रेषयामास रुक्मिणे ॥ ६२ ॥
राज्ञे भोजकटस्थाय महामात्राय धीमते।
भीष्मकाय स धर्मात्मा साक्षादिन्द्रसखाय वै ॥ ६३ ॥
स चास्य प्रतिजग्राह ससुतः शासनं तदा।
प्रीतिपूर्वं महाराज वासुदेवमवेक्ष्य च ॥ ६४ ॥
ततः स रत्नान्यादाय पुनः प्रायाद् युधाम्पतिः।

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! सुराष्ट्रमें ही ठहरकर धर्मात्मा सहदेवने भोजकटनिवासी रुक्मी तथा विशाल राज्यके अधिपति परम बुद्धिमान् साक्षात् इन्द्रसखा भीष्मकके पास दूत भेजा। पुत्रसहित भीष्मकने वसुदेवनन्दन श्रीकृष्णकी ओर दृष्टि रखकर प्रेमपूर्वक ही सहदेवका शासन स्वीकार कर लिया। तदनन्तर योद्धाओंके अधिपति सहदेव वहाँसे रत्नोंकी भेंट लेकर पुनः आगे बढ़ गये॥६२—६४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः शूर्पारकं चैव तालाकटमथापि च ॥ ६५ ॥
वशे चक्रे महातेजा दण्डकांश्च महाबलः।
सागरद्वीपवासांश्च नृपतीन् म्लेच्छयोनिजान् ॥ ६६ ॥
निषादान् पुरुषादांश्च कर्णप्रावरणानपि ।

मूलम्

ततः शूर्पारकं चैव तालाकटमथापि च ॥ ६५ ॥
वशे चक्रे महातेजा दण्डकांश्च महाबलः।
सागरद्वीपवासांश्च नृपतीन् म्लेच्छयोनिजान् ॥ ६६ ॥
निषादान् पुरुषादांश्च कर्णप्रावरणानपि ।

अनुवाद (हिन्दी)

महाबलशाली महातेजस्वी माद्रीकुमारने शूर्पारक और तालाकट नामक देशोंको जीतते हुए दण्डकारण्यको अपने अधीन कर लिया। तत्पश्चात् समुद्रके द्वीपोंमें निवास करनेवाले म्लेच्छजातीय राजाओं, निषादों तथा राक्षसों, कर्णप्रावरणोंको1 भी परास्त किया॥६५-६६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये च कालमुखा नाम नरराक्षसयोनयः ॥ ६७ ॥

मूलम्

ये च कालमुखा नाम नरराक्षसयोनयः ॥ ६७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कालमुख नामसे प्रसिद्ध जो मनुष्य और राक्षस दोनोंके संयोगसे उत्पन्न हुए योद्धा थे, उनपर भी विजय प्राप्त की॥६७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृत्स्नं कोलगिरिं चैव सुरभीपत्तनं तथा।
द्वीपं ताम्राह्वयं चैव पर्वतं रामकं तथा ॥ ६८ ॥
तिमिङ्गिलं च स नृपं वशे कृत्वा महामतिः।
एकपादांश्च पुरुषान् केरलान् वनवासिनः ॥ ६९ ॥
नगरीं संजयन्तीं च पाखण्डं करहाटकम्।
दूतैरेव वशे चक्रे करं चैनानदापयत् ॥ ७० ॥

मूलम्

कृत्स्नं कोलगिरिं चैव सुरभीपत्तनं तथा।
द्वीपं ताम्राह्वयं चैव पर्वतं रामकं तथा ॥ ६८ ॥
तिमिङ्गिलं च स नृपं वशे कृत्वा महामतिः।
एकपादांश्च पुरुषान् केरलान् वनवासिनः ॥ ६९ ॥
नगरीं संजयन्तीं च पाखण्डं करहाटकम्।
दूतैरेव वशे चक्रे करं चैनानदापयत् ॥ ७० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

समूचे कोलगिरि, सुरभीपत्तन, ताम्रद्वीप, रामकपर्वत तथा तिमिंगिलनरेशको भी अपने वशमें करके परम बुद्धिमान् सहदेवने एक पैरके पुरुषों, केरलों, वनवासियों, संजयन्ती नगरी तथा पाखण्ड और करहाटक देशोंको दूतोंद्वारा संदेश देकर ही अपने अधीन कर लिया और उन सबसे कर वसूल किया॥६८—७०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाण्ड्यांश्च द्रविडांश्चैव सहितांश्चोण्ड्रकेरलैः ।
आन्ध्रांस्तालवनांश्चैव कलिङ्गानुष्ट्रकर्णिकान् ॥ ७१ ॥
आटवीं च पुरीं रम्यां यवनानां पुरं तथा।
दूतैरेव वशे चक्रे करं चैनानदापयत् ॥ ७२ ॥

मूलम्

पाण्ड्यांश्च द्रविडांश्चैव सहितांश्चोण्ड्रकेरलैः ।
आन्ध्रांस्तालवनांश्चैव कलिङ्गानुष्ट्रकर्णिकान् ॥ ७१ ॥
आटवीं च पुरीं रम्यां यवनानां पुरं तथा।
दूतैरेव वशे चक्रे करं चैनानदापयत् ॥ ७२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्ड्य, द्रविड, उण्ड्र, केरल, आन्ध्र, तालवन, कलिंग, उष्ट्रकर्णिक, रमणीय आटवीपुरी तथा यवनोंके नगर—इन सबको उन्होंने दूतोंद्वारा ही वशमें कर लिया और सबको कर देनेके लिये विवश किया॥७१-७२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(समुद्रतीरमासाद्य न्यविशत् पाण्डुनन्दनः ।
सहदेवस्ततो राजन् मन्त्रिभिः सह भारत।
सम्प्रधार्य महाबाहुः सचिवैर्बुद्धिमत्तरैः ॥

मूलम्

(समुद्रतीरमासाद्य न्यविशत् पाण्डुनन्दनः ।
सहदेवस्ततो राजन् मन्त्रिभिः सह भारत।
सम्प्रधार्य महाबाहुः सचिवैर्बुद्धिमत्तरैः ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँसे समुद्रके तटपर पहुँचकर पाण्डुनन्दन सहदेवने सेनाका पड़ाव डाला। भारत! तदनन्तर महाबाहु सहदेवने अत्यन्त बुद्धिमान् मन्त्रणा देनेमें कुशल सचिवोंके साथ बैठकर बहुत देरतक विचारविमर्श किया।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनुमान्य स तां राजन् सहदेवस्त्वरान्वितः।
चिन्तयामास राजेन्द्र भ्रातुः पुत्रं घटोत्कचम्॥

मूलम्

अनुमान्य स तां राजन् सहदेवस्त्वरान्वितः।
चिन्तयामास राजेन्द्र भ्रातुः पुत्रं घटोत्कचम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र जनमेजय! उन सबकी सम्मतिको आदर देते हुए माद्रीकुमारने अपने भतीजे राक्षसराज घटोत्कचका तुरंत चिन्तन किया।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततश्चिन्तितमात्रे तु राक्षसः प्रत्यदृश्यत।
अतिदीर्घो महाकायः सर्वाभरणभूषितः ॥

मूलम्

ततश्चिन्तितमात्रे तु राक्षसः प्रत्यदृश्यत।
अतिदीर्घो महाकायः सर्वाभरणभूषितः ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके चिन्तन करते ही वह बड़े डील-डौलवाला विशालकाय राक्षस दिखायी दिया। उसने सब प्रकारके आभूषण धारण कर रखे थे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नीलजीमूतसंकाशस्तप्तकाञ्चनकुण्डलः ।
विचित्रहारकेयूरः किङ्किणीमणिभूषितः ॥

मूलम्

नीलजीमूतसंकाशस्तप्तकाञ्चनकुण्डलः ।
विचित्रहारकेयूरः किङ्किणीमणिभूषितः ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसके शरीरका रंग मेघोंकी काली घटाके समान था। उसके कानोंमें तपाये हुए सुवर्णके कुण्डल झिलमिला रहे थे। उसके गलेमें हार और भुजाओंमें केयूरकी विचित्र शोभा हो रही थी। कटिभागमें वह किंकिणीकी मणियोंसे विभूषित था।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हेममाली महादंष्ट्रः किरीटी कुक्षिबन्धनः।
ताम्रकेशो हरिश्मश्रुर्भीमाक्षः कनकाङ्गदः ॥

मूलम्

हेममाली महादंष्ट्रः किरीटी कुक्षिबन्धनः।
ताम्रकेशो हरिश्मश्रुर्भीमाक्षः कनकाङ्गदः ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसके कण्ठमें सुवर्णकी माला, मस्तकपर किरीट और कमरमें करधनीकी शोभा हो रही थी। उसकी दाढ़ें बहुत बड़ी थीं, सिरके बाल ताँबेके समान लाल थे, मूँछ-दाढ़ीके बाल हरे दिखायी देते थे एवं आँखें बड़ी भयंकर थीं। उसकी भुजाओंमें सोनेके बाजूबंद चमक रहे थे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रक्तचन्दनदिग्धाङ्गः सूक्ष्माम्बरधरो बली ।
जवेन स ययौ तत्र चालयन्निव मेदिनीम्॥

मूलम्

रक्तचन्दनदिग्धाङ्गः सूक्ष्माम्बरधरो बली ।
जवेन स ययौ तत्र चालयन्निव मेदिनीम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसने अपने सब अंगोंमें लाल चन्दन लगा रखा था। उसके कपड़े बहुत महीन थे। वह बलवान् राक्षस अपने वेगसे समूची पृथ्वीको हिलाता हुआ-सा वहाँ पहुँचा।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो दृष्ट्वा जना राजन्नायान्तं पर्वतोपमम्।
भयाद्धि दुद्रुवुः सर्वे सिंहात् क्षुद्रमृगा यथा॥

मूलम्

ततो दृष्ट्वा जना राजन्नायान्तं पर्वतोपमम्।
भयाद्धि दुद्रुवुः सर्वे सिंहात् क्षुद्रमृगा यथा॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! उस पर्वताकार घटोत्कचको आता देख वहाँके सब लोग भयके मारे भाग खड़े हुए; मानो किसी सिंहके भयसे जंगलके मृग आदि क्षुद्र पशु भाग रहे हों।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आससाद च माद्रेयं पुलस्त्यं रावणो यथा।
अभिवाद्य ततो राजन् सहदेवं घटोत्कचः॥
प्रह्वः कृताञ्जलिस्तस्थौ किं कार्यमिति चाब्रवीत्।

मूलम्

आससाद च माद्रेयं पुलस्त्यं रावणो यथा।
अभिवाद्य ततो राजन् सहदेवं घटोत्कचः॥
प्रह्वः कृताञ्जलिस्तस्थौ किं कार्यमिति चाब्रवीत्।

अनुवाद (हिन्दी)

घटोत्कच माद्रीनन्दन सहदेवके पास आया, मानो रावणने महर्षि पुलस्त्यके पास पदार्पण किया हो। महाराज! तदनन्तर घटोत्कच सहदेवको प्रणाम करके उनके सामने विनीतभावसे हाथ जोड़कर खड़ा हो गया और बोला—‘मेरे लिये क्या आज्ञा है?’

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं मेरुशिखराकारमागतं पाण्डुनन्दनः ॥
सम्परिष्वज्य बाहुभ्यां मूर्ध्न्युपाघ्राय चासकृत्।
पूजयित्वा सहामात्यः प्रीतो वाक्यमुवाच ह॥

मूलम्

तं मेरुशिखराकारमागतं पाण्डुनन्दनः ॥
सम्परिष्वज्य बाहुभ्यां मूर्ध्न्युपाघ्राय चासकृत्।
पूजयित्वा सहामात्यः प्रीतो वाक्यमुवाच ह॥

अनुवाद (हिन्दी)

घटोत्कच मेरुपर्वतके शिखर-जैसा जान पड़ता था। उसको आया देख पाण्डुनन्दन सहदेवने दोनों भुजाओंमें भरकर उसे हृदयसे लगा लिया और बार-बार उसका मस्तक सूँघा। तत्पश्चात् उसका स्वागत-सत्कार करके मन्त्रियोंसहित सहदेव बड़े प्रसन्न हुए और इस प्रकार बोले।

मूलम् (वचनम्)

सहदेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

गच्छ लङ्कां पुरीं वत्स करार्थं मम शासनात्।
तत्र दृष्ट्वा महात्मानं राक्षसेन्द्रं विभीषणम्॥
रत्नानि राजसूयार्थं विविधानि बहूनि च।
उपादाय च सर्वाणि प्रत्यागच्छ महाबल॥

मूलम्

गच्छ लङ्कां पुरीं वत्स करार्थं मम शासनात्।
तत्र दृष्ट्वा महात्मानं राक्षसेन्द्रं विभीषणम्॥
रत्नानि राजसूयार्थं विविधानि बहूनि च।
उपादाय च सर्वाणि प्रत्यागच्छ महाबल॥

अनुवाद (हिन्दी)

सहदेवने कहा— वत्स! तुम मेरी आज्ञासे कर लेनेके लिये लंकापुरीमें जाओ और वहाँ राक्षसराज महात्मा विभीषणसे मिलकर राजसूययज्ञके लिये भाँति-भाँतिके बहुत-से रत्न प्राप्त करो। महाबली वीर! उनकी ओरसे भेंटमें मिली हुई सब वस्तुएँ लेकर शीघ्र यहाँ लौट आओ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नो चेदेवं वदेः पुत्र समर्थमिदमुत्तरम्।
विष्णोर्भुजबलं वीक्ष्य राजसूयमथारभत् ॥
कौन्तेयोः भ्रातृभिः सार्धं सर्वं जानीहि साम्प्रतम्।
स्वस्ति तेऽस्तु गमिष्यामि सर्वं वैश्रवणानुज॥
इत्युक्त्वा शीघ्रमागच्छ मा भूत् कालस्य पर्ययः।

मूलम्

नो चेदेवं वदेः पुत्र समर्थमिदमुत्तरम्।
विष्णोर्भुजबलं वीक्ष्य राजसूयमथारभत् ॥
कौन्तेयोः भ्रातृभिः सार्धं सर्वं जानीहि साम्प्रतम्।
स्वस्ति तेऽस्तु गमिष्यामि सर्वं वैश्रवणानुज॥
इत्युक्त्वा शीघ्रमागच्छ मा भूत् कालस्य पर्ययः।

अनुवाद (हिन्दी)

बेटा! यदि विभीषण तुम्हें भेंट न दें, तो उन्हें अपनी शक्तिका परिचय देते हुए इस प्रकार कहना—‘कुबेरके छोटे भाई लंकेश्वर! कुन्तीकुमार युधिष्ठिरने भगवान् श्रीकृष्णके बाहुबलको देखकर भाइयोंसहित राजसूययज्ञ आरम्भ किया है। आप इस समय इन बातोंको अच्छी तरह जान लें। आपका कल्याण हो, अब मैं यहाँसे चला जाऊँगा।’ इतना कहकर तुम शीघ्र लौट आना; अधिक विलम्ब मत करना।

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाण्डवेनैवमुक्तस्तु मुदा युक्तो घटोत्कचः।
तथेत्युक्त्वा महाराज प्रतस्थे दक्षिणां दिशम्॥
ययौ प्रदक्षिणं कृत्वा सहदेवं घटोत्कचः।)

मूलम्

पाण्डवेनैवमुक्तस्तु मुदा युक्तो घटोत्कचः।
तथेत्युक्त्वा महाराज प्रतस्थे दक्षिणां दिशम्॥
ययौ प्रदक्षिणं कृत्वा सहदेवं घटोत्कचः।)

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— महाराज जनमेजय! पाण्डुकुमार सहदेवके ऐसा कहनेपर घटोत्कच बहुत प्रसन्न हुआ और ‘तथास्तु’ कहकर सहदेवकी परिक्रमा करके दक्षिण दिशाकी ओर चल दिया।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः कच्छगतो धीमान् दूतं माद्रवतीसुतः।
प्रेषयामास हैडिम्बं पौलस्त्याय महात्मने।
विभीषणाय धर्मात्मा प्रीतिपूर्वमरिंदमः ॥ ७३ ॥

मूलम्

ततः कच्छगतो धीमान् दूतं माद्रवतीसुतः।
प्रेषयामास हैडिम्बं पौलस्त्याय महात्मने।
विभीषणाय धर्मात्मा प्रीतिपूर्वमरिंदमः ॥ ७३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार समुद्रके तटपर पहुँचकर बुद्धिमान् शत्रुदमन धर्मात्मा माद्रवतीकुमारने महात्मा पुलस्त्यनन्दन विभीषणके पास प्रेमपूर्वक घटोत्कचको अपना दूत बनाकर भेजा॥७३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(लङ्कामभिमुखो राजन् समुद्रमवलोकयत् ॥
कूर्मग्राहझषाकीर्णं नक्रैर्मीनैस्तथाऽऽकुलम् ।
शुक्तिव्रातैः समाकीर्णं शङ्खानां निचयाकुलम्॥

मूलम्

(लङ्कामभिमुखो राजन् समुद्रमवलोकयत् ॥
कूर्मग्राहझषाकीर्णं नक्रैर्मीनैस्तथाऽऽकुलम् ।
शुक्तिव्रातैः समाकीर्णं शङ्खानां निचयाकुलम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! लंकाकी ओर जाते हुए घटोत्कचने समुद्रको देखा। वह कछुओं, मगरों, नाकों तथा मत्स्य आदि जल-जन्तुओंसे भरा हुआ था। उसमें ढेर-के-ढेर शंख और सीपियाँ छा रही थीं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

स दृष्ट्वा रामसेतुं च चिन्तयन् रामविक्रमम्।
प्रणम्य तमतिक्रम्य याम्यां वेलामलोकयत्॥

मूलम्

स दृष्ट्वा रामसेतुं च चिन्तयन् रामविक्रमम्।
प्रणम्य तमतिक्रम्य याम्यां वेलामलोकयत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीरामके द्वारा बनवाये हुए पुलको देखकर घटोत्कचको भगवान्‌के पराक्रमका चिन्तन हो आया और उस सेतुतीर्थको प्रणाम करके उसने समुद्रके दक्षिणतटकी ओर दृष्टिपात किया।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गत्वा पारं समुद्रस्य दक्षिणं स घटोत्कचः।
ददर्श लङ्कां राजेन्द्र नाकपृष्ठोपमां शुभाम्॥

मूलम्

गत्वा पारं समुद्रस्य दक्षिणं स घटोत्कचः।
ददर्श लङ्कां राजेन्द्र नाकपृष्ठोपमां शुभाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! तत्पश्चात् दक्षिणतटपर पहुँचकर घटोत्कचने लंकापुरी देखी, जो स्वर्गके समान सुन्दर थी।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राकारेणावृतां रम्यां शुभद्वारैश्च शोभिताम्।
प्रासादैर्बहुसाहस्रैः श्वेतरक्तैश्च संकुलाम् ॥

मूलम्

प्राकारेणावृतां रम्यां शुभद्वारैश्च शोभिताम्।
प्रासादैर्बहुसाहस्रैः श्वेतरक्तैश्च संकुलाम् ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसके चारों ओर चहारदीवारी बनी थी। सुन्दर फाटक उस रमणीयपुरीकी शोभा बढ़ाते थे। सफेद और लाल रंगके हजारों महलोंसे वह लंकापुरी भरी हुई थी।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तापनीयगवाक्षेण मुक्ताजालान्तरेण च ।
हैमराजतजालेन दान्तजालैश्च शोभिताम् ॥

मूलम्

तापनीयगवाक्षेण मुक्ताजालान्तरेण च ।
हैमराजतजालेन दान्तजालैश्च शोभिताम् ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँके गवाक्ष (जँगले) सोनेके बने हुए थे और उनके भीतर मोतियोंकी जाली लगी हुई थी। कितने ही गवाक्ष सोने, चाँदी तथा हाथीदाँतकी जालियोंसे सुशोभित थे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हर्म्यगोपुरसम्बाधां रुक्मतोरणसंकुलाम् ।
दिव्यदुन्दुभिनिर्ह्रादामुद्यानवनशोभिताम् ॥

मूलम्

हर्म्यगोपुरसम्बाधां रुक्मतोरणसंकुलाम् ।
दिव्यदुन्दुभिनिर्ह्रादामुद्यानवनशोभिताम् ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कितनी ही अट्टालिकाएँ तथा गोपुर उस नगरीकी शोभा बढ़ाते थे। स्थान-स्थानपर सोनेके फाटक लगे हुए थे। वहाँ दिव्य दुन्दुभियोंकी गम्भीर ध्वनि गूँजती रहती थी। बहुत-से उद्यान और वन उस नगरीकी श्रीवृद्धि कर रहे थे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुष्पगन्धैश्च संकीर्णां रमणीयमहापथाम् ।
नानारत्नैश्च सम्पूर्णामिन्द्रस्येवामरावतीम् ॥

मूलम्

पुष्पगन्धैश्च संकीर्णां रमणीयमहापथाम् ।
नानारत्नैश्च सम्पूर्णामिन्द्रस्येवामरावतीम् ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसमें चारों ओर फूलोंकी सुगन्ध छा रही थी। वहाँकी लंबी-चौड़ी सड़कें बहुत सुन्दर थीं। भाँति-भाँतिके रत्नोंसे भरी-पुरी लंका इन्द्रकी अमरावतीपुरीको भी लज्जित कर रही थी।

विश्वास-प्रस्तुतिः

विवेश स पुरीं लङ्कां राक्षसैश्च निषेविताम्।
ददर्श राक्षसव्राताञ्छूलप्राशधरान् बहून् ॥

मूलम्

विवेश स पुरीं लङ्कां राक्षसैश्च निषेविताम्।
ददर्श राक्षसव्राताञ्छूलप्राशधरान् बहून् ॥

अनुवाद (हिन्दी)

घटोत्कचने राक्षसोंसे सेवित उस लंकापुरीमें प्रवेश किया और देखा, झुंड-के-झुंड राक्षस त्रिशूल और भाले लिये विचर रहे हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानावेषधरान् दक्षान् नारीश्च प्रियदर्शनाः।
दिव्यमाल्याम्बरधरा दिव्याभरणभूषिताः ॥

मूलम्

नानावेषधरान् दक्षान् नारीश्च प्रियदर्शनाः।
दिव्यमाल्याम्बरधरा दिव्याभरणभूषिताः ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे सभी युद्धमें कुशल हैं और नाना प्रकारके वेष धारण करते हैं। घटोत्कचने वहाँकी नारियोंको भी देखा। वे सब-की-सब बड़ी सुन्दर थीं। उनके अंगोंमें दिव्य वस्त्र, दिव्य आभूषण तथा दिव्य हार शोभा दे रहे थे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मदरक्तान्तनयनाः पीनश्रोणिपयोधराः ।
भैमसेनिं ततो दृष्ट्वा हृष्टास्ते विस्मयं गताः॥

मूलम्

मदरक्तान्तनयनाः पीनश्रोणिपयोधराः ।
भैमसेनिं ततो दृष्ट्वा हृष्टास्ते विस्मयं गताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके नेत्रोंके किनारे मदिराके नशेसे कुछ लाल हो रहे थे। उनके नितम्ब और उरोज उभरे हुए तथा मांसल थे। भीमसेनपुत्र घटोत्कचको वहाँ आया देख लंकानिवासी राक्षसोंको बड़ा हर्ष और विस्मय हुआ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आससाद गृहं राज्ञ इन्द्रस्य सदनोपमम्।
स द्वारपालमासाद्य वाक्यमेतदुवाच ह॥

मूलम्

आससाद गृहं राज्ञ इन्द्रस्य सदनोपमम्।
स द्वारपालमासाद्य वाक्यमेतदुवाच ह॥

अनुवाद (हिन्दी)

इधर घटोत्कच इत्रभवनके समान मनोहर राजमहलके द्वारपर जा पहुँचा और द्वारपालसे इस प्रकार बोला।

मूलम् (वचनम्)

घटोत्कच उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुरूणामृषभो राजा पाण्डुर्नाम महाबलः।
कनीयांस्तस्य दायादः सहदेव इति श्रुतः॥

मूलम्

कुरूणामृषभो राजा पाण्डुर्नाम महाबलः।
कनीयांस्तस्य दायादः सहदेव इति श्रुतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

घटोत्कचने कहा— कुरुकुलमें एक श्रेष्ठ राजा हो गये हैं। वे महाबली नरेश ‘पाण्डु’ के नामसे विख्यात थे। उनके सबसे छोटे पुत्रका नाम ‘सहदेव’ है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृष्णमित्रस्य तु गुरो राजसूयार्थमुद्यतः।
तेनाहं प्रेषितो दूतः करार्थं कौरवस्य च॥

मूलम्

कृष्णमित्रस्य तु गुरो राजसूयार्थमुद्यतः।
तेनाहं प्रेषितो दूतः करार्थं कौरवस्य च॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे अपने बड़े भाई युधिष्ठिरका राजसूययज्ञ सम्पन्न करनेके लिये कटिबद्ध हैं। धर्मराज युधिष्ठिरके सहायक भगवान् श्रीकृष्ण हैं। सहदेवने कुरुराज युधिष्ठिरके लिये कर लेनेके निमित्त मुझे दूत बनाकर यहाँ भेजा है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्रष्टुमिच्छामि पौलस्त्यं त्वं क्षिप्रं मां निवेदय।

मूलम्

द्रष्टुमिच्छामि पौलस्त्यं त्वं क्षिप्रं मां निवेदय।

अनुवाद (हिन्दी)

मैं पुलस्त्यनन्दन महाराज विभीषणसे मिलना चाहता हूँ। तुम शीघ्र जाकर उन्हें मेरे आगमनकी सूचना दो।

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य तद् वचनं श्रुत्वा द्वारपालो महीपते।
तथेत्युक्त्वा विवेशाथ भवनं स निवेदकः॥

मूलम्

तस्य तद् वचनं श्रुत्वा द्वारपालो महीपते।
तथेत्युक्त्वा विवेशाथ भवनं स निवेदकः॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! घटोत्कचका वह वचन सुनकर वह द्वारपाल ‘बहुत अच्छा’ कहकर सूचना देनेके लिये राजभवनके भीतर गया।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साञ्जलिः स समाचष्ट सर्वां दूतगिरं तदा।
द्वारपालवचः श्रुत्वा राक्षसेन्द्रो विभीषणः॥
उवाच वाक्यं धर्मात्मा समीपे मे प्रवेश्यताम्।

मूलम्

साञ्जलिः स समाचष्ट सर्वां दूतगिरं तदा।
द्वारपालवचः श्रुत्वा राक्षसेन्द्रो विभीषणः॥
उवाच वाक्यं धर्मात्मा समीपे मे प्रवेश्यताम्।

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ उसने हाथ जोड़कर दूतकी कही हुई सारी बातें कह सुनायीं। द्वारपालकी बात सुनकर धर्मात्मा राक्षसराज विभीषणने उससे कहा—‘दूतको मेरे समीप ले आओ’।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तस्तु राजेन्द्र धर्मज्ञेन महात्मना।
अथ निष्क्रम्य सम्भ्रान्तो द्वाःस्थो हैडिम्बमब्रवीत्॥

मूलम्

एवमुक्तस्तु राजेन्द्र धर्मज्ञेन महात्मना।
अथ निष्क्रम्य सम्भ्रान्तो द्वाःस्थो हैडिम्बमब्रवीत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! धर्मज्ञ महात्मा विभीषणकी ऐसी आज्ञा होनेपर द्वारपाल बड़ी उतावलीके साथ बाहर निकला और घटोत्कचसे बोला—।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एहि दूत नृपं द्रष्टुं क्षिप्रं प्रविश च स्वयम्।
द्वारपालवचः श्रुत्वा प्रविवेश घटोत्कचः॥

मूलम्

एहि दूत नृपं द्रष्टुं क्षिप्रं प्रविश च स्वयम्।
द्वारपालवचः श्रुत्वा प्रविवेश घटोत्कचः॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘दूत! आओ। महाराजसे मिलनेके लिये राजभवनमें शीघ्र प्रवेश करो।’ द्वारपालका कथन सुनकर घटोत्कचने राजभवनमें प्रवेश किया।

विश्वास-प्रस्तुतिः

स प्रविश्य ददर्शाथ राक्षसेन्द्रस्य मन्दिरम्।
ततः कैलाससंकाशं तप्तकाञ्चनतोरणम् ॥

मूलम्

स प्रविश्य ददर्शाथ राक्षसेन्द्रस्य मन्दिरम्।
ततः कैलाससंकाशं तप्तकाञ्चनतोरणम् ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर उसमें प्रवेश करके उसने राक्षसराज विभीषणका महल देखा, जो अपनी उज्ज्वल आभासे कैलासके समान जान पड़ता था। उसका फाटक तपाकर शुद्ध किये हुए सोनेसे तैयार किया गया था।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राकारेण परिक्षिप्तं गोपुरैश्चापि शोभितम्।
हर्म्यप्रासादसम्बाधं नानारत्नसमन्वितम् ॥

मूलम्

प्राकारेण परिक्षिप्तं गोपुरैश्चापि शोभितम्।
हर्म्यप्रासादसम्बाधं नानारत्नसमन्वितम् ॥

अनुवाद (हिन्दी)

चहारदीवारीसे घिरा हुआ वह राजमन्दिर अनेक गोपुरोंसे सुशोभित हो रहा था। उसमें बहुत-सी अट्टालिकाएँ तथा महल बने हुए थे। भाँति-भाँतिके रत्न उस राजभवनकी शोभा बढ़ाते थे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

काञ्चनैस्तापनीयैश्च स्फाटिकै राजतैरपि ।
वज्रवैडूर्यगर्भैश्च स्तम्भेर्दृष्टिमनोहरैः ।
नानाध्वजपताकाभिः सुवर्णाभिश्च चित्रितम् ।

मूलम्

काञ्चनैस्तापनीयैश्च स्फाटिकै राजतैरपि ।
वज्रवैडूर्यगर्भैश्च स्तम्भेर्दृष्टिमनोहरैः ।
नानाध्वजपताकाभिः सुवर्णाभिश्च चित्रितम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

तपाये हुए सुवर्ण, रजत (चाँदी) तथा स्फटिकमणिके बने हुए खम्भे नेत्र और मनको बरबस अपनी ओर खींच लेते थे। उन खम्भोंमें हीरे और वैदूर्य जड़े हुए थे। सुनहरे रंगकी विविध ध्वजा-पताकाओंसे उस भव्य भवनकी विचित्र शोभा हो रही थी।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चित्रमाल्यावृतं रम्यं तप्तकाञ्चनवेदिकम् ॥
तान्‌ दृष्ट्वा तत्र सर्वान् स भैमसेनिर्मनोरमान्।
प्रविशन्नेव हैडिम्बः शुश्राव मुरजस्वनम्॥

मूलम्

चित्रमाल्यावृतं रम्यं तप्तकाञ्चनवेदिकम् ॥
तान्‌ दृष्ट्वा तत्र सर्वान् स भैमसेनिर्मनोरमान्।
प्रविशन्नेव हैडिम्बः शुश्राव मुरजस्वनम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

विचित्र मालाओंसे अलंकृत तथा विशुद्ध स्वर्णमय वेदिकाओंसे विभूषित वह राजभवन बड़ा रमणीय दिखायी दे रहा था। उस महलकी इन सारी मनोरम विशेषताओंको देखकर घटोत्कचने ज्यों ही भीतर प्रवेश किया, त्यों ही उसके कानोंमें मृदंगकी मधुर ध्वनि सुनायी पड़ी।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तन्त्रीगीतसमाकीर्णं समतालमिताक्षरम् ।
दिव्यदुन्दुभिनिर्ह्रादं वादित्रशतसंकुलम् ॥

मूलम्

तन्त्रीगीतसमाकीर्णं समतालमिताक्षरम् ।
दिव्यदुन्दुभिनिर्ह्रादं वादित्रशतसंकुलम् ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ वीणाके तार झंकृत हो रहे थे और उसके लयपर गीत गाया जा रहा था, जिसका एक-एक अक्षर समतालके अनुसार उच्चारित हो रहा था। सैकड़ों वाद्योंके साथ दिव्य दुन्दुभियोंका मधुर घोष गूँज रहा था।

विश्वास-प्रस्तुतिः

स श्रुत्वा मधुरं शब्दं प्रीतिमानभवत् तदा।
ततो विगाह्य हैडिम्बो बहुकक्षां मनोरमाम्॥
स ददर्श महात्मानं द्वाःस्थेन भरतर्षभ।
तं विभीषणमासीनं काञ्चने परमासने॥

मूलम्

स श्रुत्वा मधुरं शब्दं प्रीतिमानभवत् तदा।
ततो विगाह्य हैडिम्बो बहुकक्षां मनोरमाम्॥
स ददर्श महात्मानं द्वाःस्थेन भरतर्षभ।
तं विभीषणमासीनं काञ्चने परमासने॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! वह मधुर शब्द सुनकर घटोत्कचके मनमें बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने अनेक मनोरम कक्षाओंको पार करके द्वारपालके साथ जा सुन्दर स्वर्ण सिंहासनपर बैठे हुए महात्मा विभीषणका दर्शन किया।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिव्ये भास्करसंकाशे मुक्तामणिविभूषिते ।
दिव्याभरणचित्राङ्गं दिव्यरूपधरं विभुम् ॥

मूलम्

दिव्ये भास्करसंकाशे मुक्तामणिविभूषिते ।
दिव्याभरणचित्राङ्गं दिव्यरूपधरं विभुम् ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनका सिंहासन सूर्यके समान प्रकाशित हो रहा था और उसमें मोती तथा मणि आदि रत्न जड़े हुए थे। दिव्य आभूषणोंसे राक्षसराज विभीषणके अंगोंकी विचित्र शोभा हो रही थी। उनका रूप दिव्य था।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धोक्षितं शुभम् ।
विभ्राजमानं वपुषा सूर्यवैश्वानरप्रभम् ॥

मूलम्

दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धोक्षितं शुभम् ।
विभ्राजमानं वपुषा सूर्यवैश्वानरप्रभम् ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे दिव्य माला और दिव्य वस्त्र धारण करके दिव्य गन्धसे अभिषिक्त हो बड़े सुन्दर दिखायी दे रहे थे। उनकी अंगकान्ति सूर्य तथा अग्निके समान उद्भासित हो रही थी।

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपोपविष्टं सचिवैर्देवैरिव शतक्रतुम् ॥
यक्षैर्महारथैर्दिव्यैर्नारीभिः प्रियदर्शनैः ।
गीर्भिर्मङ्गलयुक्ताभिः पूज्यमानं यथाविधि ॥

मूलम्

उपोपविष्टं सचिवैर्देवैरिव शतक्रतुम् ॥
यक्षैर्महारथैर्दिव्यैर्नारीभिः प्रियदर्शनैः ।
गीर्भिर्मङ्गलयुक्ताभिः पूज्यमानं यथाविधि ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे इन्द्रके पास बहुत-से देवता बैठते हैं, उसी प्रकार विभीषणके समीप उनके अनेक सचिव बैठे थे। बहुत-से दिव्य सुन्दर महारथी यक्ष अपनी स्त्रियोंके साथ मंगलयुक्त वाणीद्वारा विभीषणका विधिपूर्वक पूजन कर रहे थे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चामरे व्यजने चाग्र्ये हेमदण्डे महाधने।
गृहीते वरनारीभ्यां धूयमाने च मूर्धनि॥

मूलम्

चामरे व्यजने चाग्र्ये हेमदण्डे महाधने।
गृहीते वरनारीभ्यां धूयमाने च मूर्धनि॥

अनुवाद (हिन्दी)

दो सुन्दरी नारियाँ सुवर्णमय दण्डसे विभूषित बहुमूल्य चँवर तथा व्यजन लेकर उनके मस्तकपर डुला रही थीं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्चिष्मन्तं श्रिया जुष्टं कुबेरवरुणोपमम्।
धर्मे चैव स्थितं नित्यमद्भुतं राक्षसेश्वरम्॥

मूलम्

अर्चिष्मन्तं श्रिया जुष्टं कुबेरवरुणोपमम्।
धर्मे चैव स्थितं नित्यमद्भुतं राक्षसेश्वरम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

राक्षसराज विभीषण कुबेर और वरुणके समान राजलक्ष्मीसे सम्पन्न एवं अद्भुत दिखायी देते थे। उनके अंगोंसे दिव्य प्रभा छिटक रही थी। वे सदा धर्ममें स्थित रहते थे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

राममिक्ष्वाकुनाथं वै स्मरन्तं मनसा सदा।
दृष्ट्वा घटोत्कचो राजन् ववन्दे तं कृताञ्जलिः॥

मूलम्

राममिक्ष्वाकुनाथं वै स्मरन्तं मनसा सदा।
दृष्ट्वा घटोत्कचो राजन् ववन्दे तं कृताञ्जलिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे मन-ही-मन इक्ष्वाकुवंशशिरोमणि श्रीरामचन्द्रजीका स्मरण करते थे। राजन्! उन राक्षसराज विभीषणको देख घटोत्कचने हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रह्वस्तस्थौ महावीर्यः शक्रं चित्ररथो यथा।
तं दूतमागतं दृष्ट्वा राक्षसेन्द्रो विभीषणः॥
पूजयित्वा यथान्यायं सान्त्वपूर्वं वचोऽब्रवीत्।

मूलम्

प्रह्वस्तस्थौ महावीर्यः शक्रं चित्ररथो यथा।
तं दूतमागतं दृष्ट्वा राक्षसेन्द्रो विभीषणः॥
पूजयित्वा यथान्यायं सान्त्वपूर्वं वचोऽब्रवीत्।

अनुवाद (हिन्दी)

और जैसे महापराक्रमी चित्ररथ इन्द्रके सामने नम्र रहते हैं, उसी प्रकार महाबली घटोत्कच भी विनीतभावसे उनके सम्मुख खड़ा हो गया। राक्षसराज विभीषणने उस दूतको आया हुआ देख उसका यथायोग्य सम्मान करके सान्त्वनापूर्ण वचनोंमें कहा।

मूलम् (वचनम्)

विभीषण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कस्य वंशे तु संजातः करमिच्छन् महीपतिः॥
तस्यानुजान् समस्तांश्च पुरं देशं च तस्य वै।
त्वां च कार्यं च तत् सर्वं श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः॥
विस्तरेण मम ब्रूहि सर्वानेतान् पृथक्-पृथक्।

मूलम्

कस्य वंशे तु संजातः करमिच्छन् महीपतिः॥
तस्यानुजान् समस्तांश्च पुरं देशं च तस्य वै।
त्वां च कार्यं च तत् सर्वं श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः॥
विस्तरेण मम ब्रूहि सर्वानेतान् पृथक्-पृथक्।

अनुवाद (हिन्दी)

विभीषणने पूछा— दूत! जो महाराज मुझसे कर लेना चाहते हैं, वे किसके कुलमें उत्पन्न हुए हैं। उनके समस्त भाइयों तथा ग्राम और देशका परिचय दो। मैं तुम्हारे विषयमें भी जानना चाहता हूँ तथा तुम जिस कार्यके लिये कर लेने आये हो, उस समस्त कार्यके विषयमें भी मैं यथार्थरूपसे सुनना चाहता हूँ। तुम मेरी पूछी हुई इन सब बातोंको विस्तारपूर्वक पृथक्-पृथक् बताओ।

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तस्तु हैडिम्बः पौलस्त्येन महात्मना॥
कृताञ्जलिरुवाचाथ सान्त्वयन् राक्षसाधिपम् ।

मूलम्

एवमुक्तस्तु हैडिम्बः पौलस्त्येन महात्मना॥
कृताञ्जलिरुवाचाथ सान्त्वयन् राक्षसाधिपम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! महात्मा विभीषणके इस प्रकार पूछनेपर हिडिम्बाकुमार घटोत्कचने हाथ जोड़कर राक्षसराजको आश्वासन देते हुए कहा।

मूलम् (वचनम्)

घटोत्कच उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोमस्य वंशे राजाऽऽसीत् पाण्डुर्नाम महाबलः।
पाण्डोः पुत्राश्च पञ्चासञ्छक्रतुल्यपराक्रमाः ॥
तेषां ज्येष्ठस्तु नाम्नाभूद् धर्मपुत्र इति श्रुतः।

मूलम्

सोमस्य वंशे राजाऽऽसीत् पाण्डुर्नाम महाबलः।
पाण्डोः पुत्राश्च पञ्चासञ्छक्रतुल्यपराक्रमाः ॥
तेषां ज्येष्ठस्तु नाम्नाभूद् धर्मपुत्र इति श्रुतः।

अनुवाद (हिन्दी)

घटोत्कच बोला— महाराज! चन्द्रवंशमें पाण्डु नामसे प्रसिद्ध एक महाबली राजा हो गये हैं। उनके पाँच पुत्र हैं, जो इन्द्रके समान पराक्रमी हैं। उन पाँचोंमें जो बड़े हैं, वे धर्मपुत्रके नामसे विख्यात हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अजातशत्रुर्धर्मात्मा धर्मो विग्रहवानिव ॥
ततो युधिष्ठिरो राजा प्राप्य राज्यमकारयत्।
गङ्गाया दक्षिणे तीरे नगरे नागसाह्वये॥

मूलम्

अजातशत्रुर्धर्मात्मा धर्मो विग्रहवानिव ॥
ततो युधिष्ठिरो राजा प्राप्य राज्यमकारयत्।
गङ्गाया दक्षिणे तीरे नगरे नागसाह्वये॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके मनमें किसीके प्रति शत्रुता नहीं है; इसलिये लोग उन्हें अजातशत्रु कहते हैं। उनका मन सदा धर्ममें ही लगा रहता है। वे धर्मके मूर्तिमान् स्वरूप जान पड़ते हैं। गंगाके दक्षिणतटपर हस्तिनापुर नामका एक नगर है। राजा युधिष्ठिर वहीं अपना पैतृक राज्य प्राप्त करके उसकी रक्षा करते थे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद् दत्त्वा धृतराष्ट्राय शक्रप्रस्थं ययौ ततः।
भ्रातृभि सह राजेन्द्र शक्रप्रस्थे प्रमोदते॥

मूलम्

तद् दत्त्वा धृतराष्ट्राय शक्रप्रस्थं ययौ ततः।
भ्रातृभि सह राजेन्द्र शक्रप्रस्थे प्रमोदते॥

अनुवाद (हिन्दी)

राक्षसराज! कुछ कालके पश्चात् उन्होंने हस्तिनापुरका राज्य धृतराष्ट्रको सौंप दिया और स्वयं वे भाइयोंसहित इन्द्रप्रस्थ चले गये। इन दिनों वे वहीं आनन्दपूर्वक रहते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गङ्गायमुनयोर्मध्ये तावुभौ नगरोत्तमौ ।
नित्यं धर्मे स्थितो राजा शक्रप्रस्थे प्रशासति॥

मूलम्

गङ्गायमुनयोर्मध्ये तावुभौ नगरोत्तमौ ।
नित्यं धर्मे स्थितो राजा शक्रप्रस्थे प्रशासति॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे दोनों श्रेष्ठ नगर गंगा-यमुनाके बीचमें बसे हुए हैं। नित्य धर्मपरायण राजा युधिष्ठिर इन्द्रप्रस्थमें ही रहकर शासन करते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्यानुजो महाबाहुः भीमसेनो महाबलः।
महातेजा महावीर्यः सिंहतुल्यः स पाण्डवः॥

मूलम्

तस्यानुजो महाबाहुः भीमसेनो महाबलः।
महातेजा महावीर्यः सिंहतुल्यः स पाण्डवः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके छोटे भाई पाण्डुकुमार महाबाहु भीमसेन भी बड़े बलवान् हैं। वे सिंहके समान महापराक्रमी और अत्यन्त तेजस्वी हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दशनागसहस्राणां बले तुल्यः स पाण्डवः।
तस्यानुजोऽर्जुनो नाम महावीर्यपराक्रमः ॥
सुकुमारो महासत्त्वो लोके वीर्येण विश्रुतः।

मूलम्

दशनागसहस्राणां बले तुल्यः स पाण्डवः।
तस्यानुजोऽर्जुनो नाम महावीर्यपराक्रमः ॥
सुकुमारो महासत्त्वो लोके वीर्येण विश्रुतः।

अनुवाद (हिन्दी)

उनमें दस हजार हाथियोंका बल है। उनसे छोटे भाईका नाम अर्जुन है, जो महान् बल-पराक्रमसे सम्पन्न, सुकुमार तथा अत्यन्त धैर्यवान् हैं। उनका पराक्रम विश्वमें विख्यात है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कार्तवीर्यसमो वीर्ये सागरप्रतिमो बले॥
जामदग्न्यसमो ह्यस्त्रे संख्ये रामसमोऽर्जुनः।
रूपे शक्रसमः पार्थस्तेजसा भास्करोपमः॥

मूलम्

कार्तवीर्यसमो वीर्ये सागरप्रतिमो बले॥
जामदग्न्यसमो ह्यस्त्रे संख्ये रामसमोऽर्जुनः।
रूपे शक्रसमः पार्थस्तेजसा भास्करोपमः॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे कुन्तीनन्दन अर्जुन कार्तवीर्य अर्जुनके समान पराक्रमी, सगरपुत्रोंके समान बलवान्, परशुरामजीके समान अस्त्रविद्याके ज्ञाता, श्रीरामचन्द्रजीके समान समरविजयी, इन्द्रके समान रूपवान् तथा भगवान् सूर्यके समान तेजस्वी हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवदानवगन्धर्वैः पिशाचोरगराक्षसैः ।
मानुषैश्च समस्तैश्च अजेयः फाल्गुनो रणे॥

मूलम्

देवदानवगन्धर्वैः पिशाचोरगराक्षसैः ।
मानुषैश्च समस्तैश्च अजेयः फाल्गुनो रणे॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवता, दानव, गन्धर्व, पिशाच, नाग, राक्षस और मनुष्य ये सब मिलकर भी युद्धमें अर्जुनको परास्त नहीं कर सकते।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेन तत् खाण्डवं दावं तर्पितं जातवेदसे।
तरसा धर्षयित्वा तं शक्रं देवगणैः सह॥
लब्धान्यस्त्राणि दिव्यानि तर्पयित्वा हुताशनम्।

मूलम्

तेन तत् खाण्डवं दावं तर्पितं जातवेदसे।
तरसा धर्षयित्वा तं शक्रं देवगणैः सह॥
लब्धान्यस्त्राणि दिव्यानि तर्पयित्वा हुताशनम्।

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने खाण्डववनको जलाकर अग्निदेवको तृप्त किया है। देवताओंसहित इन्द्रको वेगपूर्वक पराजित करके उन्होंने अग्निदेवको संतुष्ट किया और उनसे दिव्यास्त्र प्राप्त किये हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेन लब्धा महाराज दुर्लभा देवतैरपि।
वासुदेवस्य भगिनी सुभद्रा नाम विश्रुता॥

मूलम्

तेन लब्धा महाराज दुर्लभा देवतैरपि।
वासुदेवस्य भगिनी सुभद्रा नाम विश्रुता॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! उन्होंने भगवान् श्रीकृष्णकी बहिन सुभद्राको पत्नीरूपमें प्राप्त किया है, जो देवताओंके लिये भी दुर्लभ थी।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्जुनस्यानुजो राजन् नकुलश्चेति विश्रुतः॥
दर्शनीयतमो लोके मूर्तिमानिव मन्मथः।

मूलम्

अर्जुनस्यानुजो राजन् नकुलश्चेति विश्रुतः॥
दर्शनीयतमो लोके मूर्तिमानिव मन्मथः।

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! अर्जुनके छोटे भाई नकुल नामसे विख्यात हैं, जो इस जगत्‌में मूर्तिमान् कामदेवके समान दर्शनीय हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्यानुजो महातेजाः सहदेव इति श्रुतः।
तेनाहं प्रेषितो राजन् सहदेवेन मारिष॥

मूलम्

तस्यानुजो महातेजाः सहदेव इति श्रुतः।
तेनाहं प्रेषितो राजन् सहदेवेन मारिष॥

अनुवाद (हिन्दी)

नकुलके छोटे भाई महातेजस्वी सहदेवके नामसे विख्यात हैं। माननीय महाराज! उन्हीं सहदेवने मुझे यहाँ भेजा है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहं घटोत्कचो नाम भीमसेनसुतो बली।
मम माता महाभागा हिडिम्बा नाम राक्षसी॥

मूलम्

अहं घटोत्कचो नाम भीमसेनसुतो बली।
मम माता महाभागा हिडिम्बा नाम राक्षसी॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरा नाम घटोत्कच है। मैं भीमसेनका बलवान् पुत्र हूँ। मेरी सौभाग्यशालिनी माताका नाम हिडिम्बा है। वे राक्षसकुलकी कन्या हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पार्थानामुपकारार्थं चरामि पृथिवीमिमाम् ।
आसीत् पृथिव्याः सर्वस्या महीपालो युधिष्ठिरः॥

मूलम्

पार्थानामुपकारार्थं चरामि पृथिवीमिमाम् ।
आसीत् पृथिव्याः सर्वस्या महीपालो युधिष्ठिरः॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं कुन्तीपुत्रोंका उपकार करनेके लिये ही इस पृथ्वीपर विचरता हूँ। महाराज युधिष्ठिर सम्पूर्ण भूमण्डलके शासक हो गये हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजसूयं क्रतुश्रेष्ठमाहर्तुमुपचक्रमे ।
संदिदेश च स भ्रातॄन् करार्थं सर्वतोदिशम्॥

मूलम्

राजसूयं क्रतुश्रेष्ठमाहर्तुमुपचक्रमे ।
संदिदेश च स भ्रातॄन् करार्थं सर्वतोदिशम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने क्रतुश्रेष्ठ राजसूयका अनुष्ठान करनेकी तैयारी की है। उन्हीं महाराजने अपने सब भाइयोंको कर वसूल करनेके लिये सब दिशाओंमें भेजा है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृष्णिवीरेण सहितः संदिदेशानुजान् नृपः।
उदीचीमर्जुनस्तूर्णं करार्थं समुपाययौ ॥

मूलम्

वृष्णिवीरेण सहितः संदिदेशानुजान् नृपः।
उदीचीमर्जुनस्तूर्णं करार्थं समुपाययौ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वृष्णिवीर भगवान् श्रीकृष्णके साथ धर्मराजने जब अपने भाइयोंको दिग्विजयके लिये आदेश दिया, तब महाबली अर्जुन कर वसूल करनेके लिये तुरंत उत्तर दिशाकी ओर चल दिये।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गत्वा शतसहस्राणि योजनानि महाबलः।
जित्वा सर्वान् नृपान्‌ युद्धे हत्वा च तरसा वशी॥
स्वर्गद्वारमुपागम्य रत्नान्यादाय वै भृशम्।

मूलम्

गत्वा शतसहस्राणि योजनानि महाबलः।
जित्वा सर्वान् नृपान्‌ युद्धे हत्वा च तरसा वशी॥
स्वर्गद्वारमुपागम्य रत्नान्यादाय वै भृशम्।

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने लाख योजनकी यात्रा करके सम्पूर्ण राजाओंको युद्धमें हराया है और सामना करनेके लिये आये हुए विपक्षियोंको वेगपूर्वक मारा है। जितेन्द्रिय अर्जुनने स्वर्गके द्वारतक जाकर प्रचुर रत्न-राशि प्राप्त की है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अश्वांश्च विविधान् दिव्यान् सर्वानादाय फाल्गुनः॥
धनं बहुविधं राजन् धर्मपुत्राय वै ददौ।

मूलम्

अश्वांश्च विविधान् दिव्यान् सर्वानादाय फाल्गुनः॥
धनं बहुविधं राजन् धर्मपुत्राय वै ददौ।

अनुवाद (हिन्दी)

नाना प्रकारके दिव्य अश्व उन्हें भेंटमें मिले हैं। इस प्रकार भाँति-भाँतिके धन लाकर उन्होंने धर्मपुत्र युधिष्ठिरकी सेवामें समर्पित किये हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीमसेनो हि राजेन्द्र जित्वा प्राचीं दिशं बलात्॥
वशे कृत्वा महीपालान् पाण्डवाय धनं ददौ।

मूलम्

भीमसेनो हि राजेन्द्र जित्वा प्राचीं दिशं बलात्॥
वशे कृत्वा महीपालान् पाण्डवाय धनं ददौ।

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! युधिष्ठिरके दूसरे भाई भीमसेनने पूर्व दिशामें जाकर उसे बलपूर्वक जीता है और वहाँके राजाओंको अपने वशमें करके पाण्डुपुत्र युधिष्ठिरको बहुत धन अर्पित किया है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिशं प्रतीचीं नकुलः करार्थं प्रययौ तथा॥
सहदेवो दिशं याम्यां जित्वा सर्वान् महीक्षितः।

मूलम्

दिशं प्रतीचीं नकुलः करार्थं प्रययौ तथा॥
सहदेवो दिशं याम्यां जित्वा सर्वान् महीक्षितः।

अनुवाद (हिन्दी)

नकुल कर लेनेके लिये पश्चिम दिशाकी ओर गये हैं और सहदेव सम्पूर्ण राजाओंको जीतते हुए दक्षिण दिशामें बढ़ते चले आये हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मां संदिदेश राजेन्द्र करार्थमिह सत्कृतः॥
पार्थानां चरितं तुभ्यं संक्षेपात् समुदाहृतम्।

मूलम्

मां संदिदेश राजेन्द्र करार्थमिह सत्कृतः॥
पार्थानां चरितं तुभ्यं संक्षेपात् समुदाहृतम्।

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! उन्होंने बड़े सत्कारपूर्वक मुझे आपके यहाँ राजकीय कर देनेके लिये संदेश भेजा है। महाराज! पाण्डवोंका यह चरित्र मैंने अत्यन्त संक्षेपमें आपके समक्ष रखा है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमवेक्ष्य महाराज धर्मराजं युधिष्ठिरम्॥
पावकं राजसूयं च भगवन्तं हरिं प्रभुम्।
एतानवेक्ष्य धर्मज्ञ करं त्वं दातुमर्हसि॥

मूलम्

तमवेक्ष्य महाराज धर्मराजं युधिष्ठिरम्॥
पावकं राजसूयं च भगवन्तं हरिं प्रभुम्।
एतानवेक्ष्य धर्मज्ञ करं त्वं दातुमर्हसि॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप धर्मराज युधिष्ठिरकी ओर देखिये, पवित्र करनेवाले राजसूययज्ञ तथा जगदीश्वर भगवान् श्रीहरिकी ओर भी ध्यान दीजिये। धर्मज्ञ नरेश! इन सबकी ओर दृष्टि रखते हुए आपको मुझे कर देना चाहिये।

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेन तद् भाषितं श्रुत्वा राक्षसेन्द्रो विभीषणः।
प्रीतिमानभवद् राजन् धर्मात्मा सचिवैः सह॥)

मूलम्

तेन तद् भाषितं श्रुत्वा राक्षसेन्द्रो विभीषणः।
प्रीतिमानभवद् राजन् धर्मात्मा सचिवैः सह॥)

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! घटोत्कचकी वह बात सुनकर धर्मात्मा राक्षसराज विभीषण अपने मन्त्रियोंके साथ बड़े प्रसन्न हुए।

विश्वास-प्रस्तुतिः

स चास्य प्रतिजग्राह शासनं प्रीतिपूर्वकम्।
तच्च कालकृतं धीमानभ्यमन्यत स प्रभुः ॥ ७४ ॥

मूलम्

स चास्य प्रतिजग्राह शासनं प्रीतिपूर्वकम्।
तच्च कालकृतं धीमानभ्यमन्यत स प्रभुः ॥ ७४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विभीषणने प्रेमपूर्वक ही उनका शासन स्वीकार कर लिया। शक्तिशाली एवं बुद्धिमान् विभीषणने उसे कालका ही विधान समझा॥७४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(ततो ददौ विचित्राणि कम्बलानि कुथानि च।
दन्तकाञ्चनपर्यङ्कान् मणिहेमविचित्रितान् ॥

मूलम्

(ततो ददौ विचित्राणि कम्बलानि कुथानि च।
दन्तकाञ्चनपर्यङ्कान् मणिहेमविचित्रितान् ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने सहदेवके लिये हाथीकी पीठपर बिछाने योग्य विचित्र कम्बल (कालीन) तथा हाथीदाँत और सुवर्णके बने हुए पलंग दिये, जिनमें सोने तथा रत्न जड़े हुए थे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूषणानि विचित्राणि महार्हाणि बहूनि च।
प्रवालानि च शुभ्राणि मणींश्च विविधान् बहून्॥
काञ्चनानि च भाण्डानि कलशानि घटानि च।
कटाहान्यपि चित्राणि द्रोण्यश्चैव सहस्रशः॥

मूलम्

भूषणानि विचित्राणि महार्हाणि बहूनि च।
प्रवालानि च शुभ्राणि मणींश्च विविधान् बहून्॥
काञ्चनानि च भाण्डानि कलशानि घटानि च।
कटाहान्यपि चित्राणि द्रोण्यश्चैव सहस्रशः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके सिवा बहुत-से विचित्र और बहुमूल्य आभूषण भी भेंट किये। सुन्दर मूँगे, भाँति-भाँतिके मणिरत्न, सोनेके बर्तन, कलश, घड़े, विचित्र कड़ाहे और हजारों जलपात्र समर्पित किये।

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजतानि च भाण्डानि चित्राणि च बहूनि च।
शस्त्राणि रुक्मचित्राणि मणिमुक्तैर्विचित्रितान् ॥

मूलम्

राजतानि च भाण्डानि चित्राणि च बहूनि च।
शस्त्राणि रुक्मचित्राणि मणिमुक्तैर्विचित्रितान् ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इनके सिवा चाँदीके भी बहुत-से ऐसे बर्तन दिये, जिनमें चित्रकारी की गयी थी। कुछ ऐसे शस्त्र भेंट किये, जिनमें सुवर्ण, मणि और मोती जड़े हुए थे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

यज्ञस्य तोरणे युक्तान् ददौ तालांश्चतुर्दश।
रुक्मपङ्कजपुष्पाणि शिबिका मणिभूषिताः ॥

मूलम्

यज्ञस्य तोरणे युक्तान् ददौ तालांश्चतुर्दश।
रुक्मपङ्कजपुष्पाणि शिबिका मणिभूषिताः ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यज्ञके फाटकपर लगानेयोग्य चौदह ताड़ प्रदान किये। सुवर्णमय कमलपुष्प और मणिजटित शिबिकाएँ भी दीं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुकुटानि महार्हाणि हेमवर्णांश्च कुण्डलान्।
हेमपुष्पाण्यनेकानि रुक्ममाल्यानि चापरान् ॥
शङ्खांश्च चन्द्रसंकाशाञ्छतावर्तान् विचित्रिणः ।

मूलम्

मुकुटानि महार्हाणि हेमवर्णांश्च कुण्डलान्।
हेमपुष्पाण्यनेकानि रुक्ममाल्यानि चापरान् ॥
शङ्खांश्च चन्द्रसंकाशाञ्छतावर्तान् विचित्रिणः ।

अनुवाद (हिन्दी)

बहुमूल्य मुकुट, सुनहले कुण्डल, सोनेके बने हुए अनेकानेक पुष्प, सोनेके ही हार तथा चन्द्रमाके समान उज्ज्वल एवं विचित्र शतावर्त शंख भेंट किये।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चन्दनानि च मुख्यानि रुक्मरत्नान्यनेकशः॥
वासांसि च महार्हाणि कम्बलानि बहून्यपि।
अन्यांश्च विविधान् राजन् रत्नानि च बहूनि च॥
स ददौ सहदेवाय तदा राजा विभीषणः।)

मूलम्

चन्दनानि च मुख्यानि रुक्मरत्नान्यनेकशः॥
वासांसि च महार्हाणि कम्बलानि बहून्यपि।
अन्यांश्च विविधान् राजन् रत्नानि च बहूनि च॥
स ददौ सहदेवाय तदा राजा विभीषणः।)

अनुवाद (हिन्दी)

श्रेष्ठ चन्दन, अनेक प्रकारके सुवर्ण तथा रत्न, महँगे वस्त्र, बहुत-से कम्बल, अनेक जातिके रत्न तथा और भी भाँति-भाँतिके बहुमूल्य पदार्थ राजा विभीषणने सहदेवको भेंट किये।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः सम्प्रेषयामास रत्नानि विविधानि च।
चन्दनागुरुकाष्ठानि दिव्यान्याभरणानि च ॥ ७५ ॥
वासांसि च महार्हाणि मणींश्चैव महाधनान्।

मूलम्

ततः सम्प्रेषयामास रत्नानि विविधानि च।
चन्दनागुरुकाष्ठानि दिव्यान्याभरणानि च ॥ ७५ ॥
वासांसि च महार्हाणि मणींश्चैव महाधनान्।

अनुवाद (हिन्दी)

तथा उन्होंने नाना प्रकारके रत्न, चन्दन, अगुरुके काष्ठ, दिव्य आभूषण, बहुमूल्य वस्त्र और विशेष मूल्यवान् मणि-रत्न भी उसके साथ भिजवाये॥७५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(विभीषणं च राजानमभिवाद्य कृताञ्जलिः॥
प्रदक्षिणं परीत्यैव निर्जगाम घटोत्कचः।

मूलम्

(विभीषणं च राजानमभिवाद्य कृताञ्जलिः॥
प्रदक्षिणं परीत्यैव निर्जगाम घटोत्कचः।

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर घटोत्कचने हाथ जोड़कर राजा विभीषणको प्रणाम किया और उनकी परिक्रमा करके वहाँसे प्रस्थान किया।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तानि सर्वाणि रत्नानि अष्टाशीतिर्निशाचराः॥
आजह्रुः समुदा राजन् हैडिम्बेन तदा सह।

मूलम्

तानि सर्वाणि रत्नानि अष्टाशीतिर्निशाचराः॥
आजह्रुः समुदा राजन् हैडिम्बेन तदा सह।

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! घटोत्कचके साथ अट्ठासी निशाचर उन सब रत्नोंको पहुँचानेके लिये प्रसन्नतापूर्वक आये।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रत्नान्यादाय सर्वाणि प्रतस्थे स घटोत्कचः॥
ततो रत्नान्युपादाय हैडिम्बो राक्षसैः सह।
जगाम तूर्णं लङ्कायाः सहदेवपदं प्रति॥
आसेदुः पाण्डवं सर्वे लङ्घयित्वा महोदधिम्॥

मूलम्

रत्नान्यादाय सर्वाणि प्रतस्थे स घटोत्कचः॥
ततो रत्नान्युपादाय हैडिम्बो राक्षसैः सह।
जगाम तूर्णं लङ्कायाः सहदेवपदं प्रति॥
आसेदुः पाण्डवं सर्वे लङ्घयित्वा महोदधिम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार उन सब रत्नोंको साथ ले घटोत्कचने राक्षसोंके साथ लंकासे सहदेवके पड़ावकी ओर प्रस्थान किया और समुद्र लाँघकर वे सब-के-सब पाण्डुनन्दन सहदेवके निकट आ पहुँचे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सहदेवो ददर्शाथ रत्नाहारान् निशाचरान्।
आगतान् भीमसंकाशान् हैडिम्बं च तथा नृप॥

मूलम्

सहदेवो ददर्शाथ रत्नाहारान् निशाचरान्।
आगतान् भीमसंकाशान् हैडिम्बं च तथा नृप॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! सहदेवने रत्न लेकर आये हुए भयंकर निशाचरों तथा घटोत्कचको भी देखा।

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्रमिला नैर्ऋतान् दृष्ट्वा दुद्रुवुस्ते भयार्दिताः।
भैमसेनिस्ततो गत्वा माद्रेयं प्राञ्जलिः स्थितः॥

मूलम्

द्रमिला नैर्ऋतान् दृष्ट्वा दुद्रुवुस्ते भयार्दिताः।
भैमसेनिस्ततो गत्वा माद्रेयं प्राञ्जलिः स्थितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय उन राक्षसोंको देखकर द्राविड़ सैनिक भयभीत हो सब ओर भागने लगे। इतनेमें ही भीमसेनकुमार घटोत्कच माद्रीनन्दन सहदेवके पास आ हाथ जोड़कर खड़ा हो गया।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रीतिमानभवद् दृष्ट्वा रत्नौघं तं च पाण्डवः।
तं परिष्वज्य पाणिभ्यां दृष्ट्वा तान् प्रीतिमानभूत्॥
विसृज्य द्रमिलान् सर्वान् गमनायोपचक्रमे।)

मूलम्

प्रीतिमानभवद् दृष्ट्वा रत्नौघं तं च पाण्डवः।
तं परिष्वज्य पाणिभ्यां दृष्ट्वा तान् प्रीतिमानभूत्॥
विसृज्य द्रमिलान् सर्वान् गमनायोपचक्रमे।)

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डुकुमार सहदेव वह रत्न-राशि देखकर बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने घटोत्कचको दोनों हाथोंसे पकड़कर गले लगाया और दूसरे राक्षसोंकी ओर देखकर भी बड़ी प्रसन्नता प्रकट की। इसके बाद समस्त द्राविड़ सैनिकोंको विदा करके सहदेव वहाँसे लौटनेकी तैयारी करने लगे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

न्यवर्तत ततो धीमान् सहदेवः प्रतापवान् ॥ ७६ ॥

मूलम्

न्यवर्तत ततो धीमान् सहदेवः प्रतापवान् ॥ ७६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तैयारी पूरी हो जानेपर प्रतापी और बुद्धिमान् सहदेव इन्द्रप्रस्थकी ओर चल दिये॥७६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं निर्जित्य तरसा सान्त्वेन विजयेन च।
करदान् पार्थिवान् कृत्वा प्रत्यागच्छदरिंदमः ॥ ७७ ॥

मूलम्

एवं निर्जित्य तरसा सान्त्वेन विजयेन च।
करदान् पार्थिवान् कृत्वा प्रत्यागच्छदरिंदमः ॥ ७७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार बलपूर्वक जीतकर तथा सामनीतिसे समझा-बुझाकर सब राजाओंको अपने अधीन करके उन्हें करद बनाकर शत्रुदमन माद्रीनन्दन इन्द्रप्रस्थमें वापस आ गये॥७७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(रत्नभारमुपादाय ययौ सह निशाचरैः।
इन्द्रप्रस्थं विवेशाथ कम्पयन्निव मेदिनीम्॥

मूलम्

(रत्नभारमुपादाय ययौ सह निशाचरैः।
इन्द्रप्रस्थं विवेशाथ कम्पयन्निव मेदिनीम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

रत्नोंका वह भारी भार साथ लिये निशाचरोंके साथ सहदेवने इन्द्रप्रस्थ नगरमें प्रवेश किया। उस समय वे पैरोंकी धमकसे सारी पृथ्वीको कम्पित करते हुए-से चल रहे थे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्ट्वा युधिष्ठिरं राजन् सहदेवः कृताञ्जलिः।
प्रह्वोऽभिवाद्य तस्थौ स पूजितश्चैव तेन वै॥

मूलम्

दृष्ट्वा युधिष्ठिरं राजन् सहदेवः कृताञ्जलिः।
प्रह्वोऽभिवाद्य तस्थौ स पूजितश्चैव तेन वै॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! युधिष्ठिरको देखते ही सहदेव हाथ जोड़ नम्रतापूर्वक उनके चरणोंमें पड़ गये। फिर विनीतभावसे उनके समीप खड़े हो गये। उस समय युधिष्ठिरने भी उनका बहुत सम्मान किया।

विश्वास-प्रस्तुतिः

लङ्काप्राप्तान् धनौघांश्च दृष्ट्वा तान् दुर्लभान् बहून्।
प्रीतिमानभवद् राजा विस्मयं च ययौ तदा॥

मूलम्

लङ्काप्राप्तान् धनौघांश्च दृष्ट्वा तान् दुर्लभान् बहून्।
प्रीतिमानभवद् राजा विस्मयं च ययौ तदा॥

अनुवाद (हिन्दी)

लंकासे प्राप्त हुई अत्यन्त दुर्लभ एवं प्रचुर धनराशियोंको देखकर राजा युधिष्ठिर बड़े प्रसन्न और विस्मित हुए।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कोटीसहस्रमधिकं हिरण्यस्य महात्मने ।
विचित्रांस्तु मणींश्चैव गोऽजाविमहिषांस्तथा ॥)
धर्मराजाय तत् सर्वं निवेद्य भरतर्षभ।
कृतकर्मा सुखं राजन्नुवास जनमेजय ॥ ७८ ॥

मूलम्

कोटीसहस्रमधिकं हिरण्यस्य महात्मने ।
विचित्रांस्तु मणींश्चैव गोऽजाविमहिषांस्तथा ॥)
धर्मराजाय तत् सर्वं निवेद्य भरतर्षभ।
कृतकर्मा सुखं राजन्नुवास जनमेजय ॥ ७८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ जनमेजय! उस धनराशिमें सहस्र कोटिसे भी अधिक सुवर्ण था। विचित्र मणि एवं रत्न थे। गाय, भैंस, भेड़ और बकरियोंकी संख्या भी अधिक थी। राजन्! इन सबको महात्मा धर्मराजकी सेवामें समर्पित करके कृतकृत्य हो सहदेव सुखपूर्वक राजधानीमें रहने लगे॥७८॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि दिग्विजयपर्वणि सहदेवदक्षिणदिग्विजये एकत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३१ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्वके अन्तर्गत दिग्विजयपर्वमें सहदेवके द्वारा दक्षिण दिशाकी विजयसे सम्बन्ध रखनेवाला इकतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३१॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके १०० श्लोक मिलाकर कुल १७८ श्लोक हैं)


  1. यह इक्ष्वाकुवंशीय दुर्जयका पुत्र था। इसका दूसरा नाम दुर्योधन था। यह राजा बड़ा धर्मात्मा था। इसकी कथा अनुशासनपर्वके दूसरे अध्यायमें आती है। ↩︎ ↩︎