०२८ अर्जुनप्रत्यागतिः

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

अष्टाविंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

किम्पुरुष, हाटक तथा उत्तरकुरुपर विजय प्राप्त करके अर्जुनका इन्द्रप्रस्थ लौटना

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स श्वेतपर्वतं वीरः समतिक्रम्य वीर्यवान्।
देशं किम्पुरुषावासं द्रुमपुत्रेण रक्षितम् ॥ १ ॥
महता संनिपातेन क्षत्रियान्तकरेण ह।
अजयत् पाण्डवश्रेष्ठः करे चैनं न्यवेशयत् ॥ २ ॥

मूलम्

स श्वेतपर्वतं वीरः समतिक्रम्य वीर्यवान्।
देशं किम्पुरुषावासं द्रुमपुत्रेण रक्षितम् ॥ १ ॥
महता संनिपातेन क्षत्रियान्तकरेण ह।
अजयत् पाण्डवश्रेष्ठः करे चैनं न्यवेशयत् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तदनन्तर पराक्रमी वीर पाण्डवश्रेष्ठ अर्जुन धवलगिरिको लाँघकर द्रुमपुत्रके द्वारा सुरक्षित किम्पुरुषदेशमें गये, जहाँ किन्नरोंका निवास था। वहाँ क्षत्रियोंका विनाश करनेवाले भारी संग्रामके द्वारा उन्होंने उस देशको जीत लिया और कर देते रहनेकी शर्तपर उस राजाको पुनः उसी राज्यपर प्रतिष्ठित कर दिया॥१-२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं जित्वा हाटकं नाम देशं गुह्यकरक्षितम्।
पाकशासनिरव्यग्रः सहसैन्यः समासदत् ॥ ३ ॥

मूलम्

तं जित्वा हाटकं नाम देशं गुह्यकरक्षितम्।
पाकशासनिरव्यग्रः सहसैन्यः समासदत् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

किन्नरदेशको जीतकर शान्तचित्त इन्द्रकुमारने सेनाके साथ गुह्यकोंद्वारा सुरक्षित हाटकदेशपर हमला किया॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तांस्तु सान्त्वेन निर्जित्य मानसं सर उत्तमम्।
ऋषिकुल्यास्तथा सर्वा ददर्श कुरुनन्दनः ॥ ४ ॥

मूलम्

तांस्तु सान्त्वेन निर्जित्य मानसं सर उत्तमम्।
ऋषिकुल्यास्तथा सर्वा ददर्श कुरुनन्दनः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

और उन गुह्यकोंको सामनीतिसे समझा-बुझाकर ही वशमें कर लेनेके पश्चात् वे परम उत्तम मानसरोवरपर गये। वहाँ कुरुनन्दन अर्जुनने समस्त ऋषि-कुल्याओं (ऋषियोंके नामसे प्रसिद्ध जल-स्रोतों)-का दर्शन किया॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सरो मानसमासाद्य हाटकानभितः प्रभुः।
गन्धर्वरक्षितं देशमजयत् पाण्डवस्ततः ॥ ५ ॥

मूलम्

सरो मानसमासाद्य हाटकानभितः प्रभुः।
गन्धर्वरक्षितं देशमजयत् पाण्डवस्ततः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मानसरोवरपर पहुँचकर शक्तिशाली पाण्डुकुमारने हाटकदेशके निकटवर्ती गन्धर्वोंद्वारा सुरक्षित प्रदेशपर भी अधिकार प्राप्त कर लिया॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र तित्तिरिकल्माषान् मण्डूकाख्यान् हयोत्तमान्।
लेभे स करमत्यन्तं गन्धर्वनगरात् तदा ॥ ६ ॥

मूलम्

तत्र तित्तिरिकल्माषान् मण्डूकाख्यान् हयोत्तमान्।
लेभे स करमत्यन्तं गन्धर्वनगरात् तदा ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ गन्धर्वनगरसे उन्होंने उस समय करके रूपमें तित्तिरि, कल्माष और मण्डूक नामवाले बहुत-से उत्तम घोड़े प्राप्त किये॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(हेमकूटमथासाद्य न्यविशत् फाल्गुनस्तथा ।
तं हेमकूटं राजेन्द्र समतिक्रम्य पाण्डवः॥
हरिवर्षं विवेशाथ सैन्येन महताऽऽवृतः।
तत्र पार्थो ददर्शाथ बहूनिह मनोरमान्॥
नगरांश्च वनांश्चैव नदीश्च विमलोदकाः।

मूलम्

(हेमकूटमथासाद्य न्यविशत् फाल्गुनस्तथा ।
तं हेमकूटं राजेन्द्र समतिक्रम्य पाण्डवः॥
हरिवर्षं विवेशाथ सैन्येन महताऽऽवृतः।
तत्र पार्थो ददर्शाथ बहूनिह मनोरमान्॥
नगरांश्च वनांश्चैव नदीश्च विमलोदकाः।

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् अर्जुनने हेमकूट पर्वतपर जाकर पड़ाव डाला। राजेन्द्र! फिर हेमकूटको भी लाँघकर वे पाण्डुनन्दन पार्थ अपनी विशाल सेनाके साथ हरिवर्षमें जा पहुँचे। वहाँ उन्होंने बहुत-से मनोरम नगर, सुन्दर वन तथा निर्मल जलसे भरी हुई नदियाँ देखीं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुरुषान् देवकल्पांश्च नारीश्च प्रियदर्शनाः॥
तान् सर्वांस्तत्र दृष्ट्वाथ मुदा युक्तो धनंजयः।

मूलम्

पुरुषान् देवकल्पांश्च नारीश्च प्रियदर्शनाः॥
तान् सर्वांस्तत्र दृष्ट्वाथ मुदा युक्तो धनंजयः।

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँके पुरुष देवताओंके समान तेजस्वी थे। स्त्रियाँ भी परम सुन्दरी थीं। उन सबका अवलोकन करके अर्जुनको वहाँ बड़ी प्रसन्नता हुई।

विश्वास-प्रस्तुतिः

वशे चक्रेऽथ रत्नानि लेभे च सुबहूनि च॥
ततो निषधमासाद्य गिरिस्थानजयत् प्रभुः।
अथ राजन्नतिक्रम्य निषधं शैलमायतम्॥
विवेश मध्यमं वर्षं पार्थो दिव्यमिलावृतम्।

मूलम्

वशे चक्रेऽथ रत्नानि लेभे च सुबहूनि च॥
ततो निषधमासाद्य गिरिस्थानजयत् प्रभुः।
अथ राजन्नतिक्रम्य निषधं शैलमायतम्॥
विवेश मध्यमं वर्षं पार्थो दिव्यमिलावृतम्।

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने हरिवर्षको अपने अधीन कर लिया और वहाँसे बहुतेरे रत्न प्राप्त किये। इसके बाद निषधपर्वतपर जाकर शक्तिशाली अर्जुनने वहाँके निवासियोंको पराजित किया। तदनन्तर विशाल निषधपर्वतको लाँघकर वे दिव्य इलावृतवर्षमें पहुँचे, जो जम्बूद्वीपका मध्यवर्ती भूभाग है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र देवोपमान् दिव्यान् पुरुषान् देवदर्शनान्॥
अदृष्टपूर्वान् सुभगान् स ददर्श धनंजयः।

मूलम्

तत्र देवोपमान् दिव्यान् पुरुषान् देवदर्शनान्॥
अदृष्टपूर्वान् सुभगान् स ददर्श धनंजयः।

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ अर्जुनने देवताओं-जैसे दिखायी देनेवाले देवोपम शक्तिशाली दिव्य पुरुष देखे। वे सब-के-सब अत्यन्त सौभाग्यशाली और अद्भुत थे। उससे पहले अर्जुनने कभी वैसे दिव्य पुरुष नहीं देखे थे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सदनानि च शुभ्राणि नारीश्चाप्सरसंनिभाः॥
दृष्ट्वा तानजयद् रम्यान् स तैश्च ददृशे तदा।

मूलम्

सदनानि च शुभ्राणि नारीश्चाप्सरसंनिभाः॥
दृष्ट्वा तानजयद् रम्यान् स तैश्च ददृशे तदा।

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँके भवन अत्यन्त उज्ज्वल और भव्य थे तथा नारियाँ अप्सराओंके समान प्रतीत होती थीं। अर्जुनने वहाँके रमणीय स्त्री-पुरुषोंको देखा। इनपर भी वहाँके लोगोंकी दृष्टि पड़ी।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जित्वा च तान् महाभागान् करे च विनिवेश्य सः॥
रत्नान्यादाय दिव्यानि भूषणैर्वसनैः सह।
उदीचीमथ राजेन्द्र ययौ पार्थो मुदान्वितः॥

मूलम्

जित्वा च तान् महाभागान् करे च विनिवेश्य सः॥
रत्नान्यादाय दिव्यानि भूषणैर्वसनैः सह।
उदीचीमथ राजेन्द्र ययौ पार्थो मुदान्वितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् उस देशके निवासियोंको अर्जुनने युद्धमें जीत लिया, जीतकर उनपर कर लगाया और फिर उन्हीं बड़भागियोंको वहाँके राज्यपर प्रतिष्ठित कर दिया। फिर वस्त्रों और आभूषणोंके साथ दिव्य रत्नोंकी भेंट लेकर अर्जुन बड़ी प्रसन्नताके साथ वहाँसे उत्तर दिशाकी ओर बढ़ गये।

विश्वास-प्रस्तुतिः

स ददर्श महामेरुं शिखराणां प्रभुं महत्।
तं काञ्चनमयं दिव्यं चतुर्वर्णं दुरासदम्॥
आयतं शतसाहस्रं योजनानां तु सुस्थितम्।
ज्वलन्तमचलं मेरुं तेजोराशिमनुत्तमम् ॥
आक्षिपन्तं प्रभां भानोः स्वशृङ्गैः काञ्जनोज्ज्वलैः।
काञ्चनाभरणं दिव्यं देवगन्धर्वसेवितम् ॥
नित्यपुष्पफलोपेतं सिद्धचारणसेवितम् ।
अप्रमेयमनाधृष्यमधर्मबहुलैर्जनैः ॥

मूलम्

स ददर्श महामेरुं शिखराणां प्रभुं महत्।
तं काञ्चनमयं दिव्यं चतुर्वर्णं दुरासदम्॥
आयतं शतसाहस्रं योजनानां तु सुस्थितम्।
ज्वलन्तमचलं मेरुं तेजोराशिमनुत्तमम् ॥
आक्षिपन्तं प्रभां भानोः स्वशृङ्गैः काञ्जनोज्ज्वलैः।
काञ्चनाभरणं दिव्यं देवगन्धर्वसेवितम् ॥
नित्यपुष्पफलोपेतं सिद्धचारणसेवितम् ।
अप्रमेयमनाधृष्यमधर्मबहुलैर्जनैः ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आगे जाकर उन्हें पर्वतोंके स्वामी गिरिप्रवर महामेरुका दर्शन हुआ, जो दिव्य तथा सुवर्णमय है। उसमें चार प्रकारके रंग दिखायी पड़ते हैं। वहाँतक पहुँचना किसीके लिये भी अत्यन्त कठिन है। उसकी लम्बाई एक लाख योजन है। वह परम उत्तम मेरुपर्वत महान् तेजके पुंज-सा जगमगाता रहता है और अपने सुवर्णमय कान्तिमान् शिखरोंद्वारा सूर्यकी प्रभाको तिरस्कृत करता है। वह सुवर्णभूषित दिव्य पर्वत देवताओं तथा गन्धर्वोंसे सेवित है। सिद्ध और चारण भी वहाँ नित्य निवास करते हैं। उस पर्वतपर सदा फल और फूलोंकी बहुतायत रहती है। उसकी ऊँचाईका कोई माप नहीं है। अधर्मपरायण मनुष्य उस पर्वतका स्पर्श नहीं कर सकते।

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्यालैराचरितं घोरैर्दिव्यौषधिविदीपितम् ।
स्वर्गमावृत्य तिष्ठन्तमुच्छ्रायेण महागिरिम् ॥
अगम्यं मनसाप्यन्यैर्नदीवृक्षसमन्वितम् ।
नानाविहगसङ्घैश्च नादितं सुमनोहरैः ॥
तं दृष्ट्वा फाल्गुनो मेरुं प्रीतिमानभवत् तदा।

मूलम्

व्यालैराचरितं घोरैर्दिव्यौषधिविदीपितम् ।
स्वर्गमावृत्य तिष्ठन्तमुच्छ्रायेण महागिरिम् ॥
अगम्यं मनसाप्यन्यैर्नदीवृक्षसमन्वितम् ।
नानाविहगसङ्घैश्च नादितं सुमनोहरैः ॥
तं दृष्ट्वा फाल्गुनो मेरुं प्रीतिमानभवत् तदा।

अनुवाद (हिन्दी)

बड़े भयंकर सर्प वहाँ विचरण करते हैं। दिव्य ओषधियाँ उस पर्वतको प्रकाशित करती रहती हैं। महागिरि मेरु ऊँचाईद्वारा स्वर्गलोकको भी घेरकर खड़ा है। दूसरे मनुष्य मनसे भी वहाँ नहीं पहुँच सकते। कितनी ही नदियाँ और वृक्ष उस शैल-शिखरकी शोभा बढ़ाते हैं। भाँति-भाँतिके मनोहर पक्षी वहाँ कलरव करते रहते हैं। ऐसे मनोहर मेरुगिरिको देखकर उस समय अर्जुनको बड़ी प्रसन्नता हुई।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरोरिलावृतं वर्षं सर्वतः परिमण्डलम्॥
मेरोस्तु दक्षिणे पार्श्वे जम्बूर्नाम वनस्पतिः।
नित्यपुष्पफलोपेतः सिद्धचारणसेवितः ॥

मूलम्

मेरोरिलावृतं वर्षं सर्वतः परिमण्डलम्॥
मेरोस्तु दक्षिणे पार्श्वे जम्बूर्नाम वनस्पतिः।
नित्यपुष्पफलोपेतः सिद्धचारणसेवितः ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरुके चारों ओर मण्डलाकार इलावृतवर्ष बसा हुआ है। मेरुके दक्षिण पार्श्वमें जम्बू नामका एक वृक्ष है, जो सदा फल और फूलोंसे भरा रहता है। सिद्ध और चारण उस वृक्षका सेवन करते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आस्वर्गमुच्छ्रिता राजन् तस्य शाखा वनस्पतेः।
यस्य नाम्ना त्विदं द्वीपं जम्बूद्वीपमिति श्रुतम्॥

मूलम्

आस्वर्गमुच्छ्रिता राजन् तस्य शाखा वनस्पतेः।
यस्य नाम्ना त्विदं द्वीपं जम्बूद्वीपमिति श्रुतम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! उक्त जम्बूवृक्षकी शाखा ऊँचाईमें स्वर्ग-लोकतक फैली हुई है। उसीके नामपर इस द्वीपको जम्बूद्वीप कहते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तां च जम्बूं ददर्शाथ सव्यसाची परंतपः।
तौ दृष्ट्वाप्रतिमौ लोके जम्बूं मेरुं च संस्थितौ॥
प्रीतिमानभवद् राजन् सर्वतः स विलोकयन्।
तत्र लेभे ततो जिष्णुः सिद्धैर्दिव्यैश्च चारणैः॥
रत्नानि बहुसाहस्रं वस्त्राण्याभरणानि च।
अन्यानि च महार्हाणि तत्र लब्ध्वार्जुनस्तदा॥
आमन्त्रयित्वा तान् सर्वान् यज्ञमुद्दिश्य वै गुरोः।
अथादाय बहून् रत्नान् गमनायोपचक्रमे॥

मूलम्

तां च जम्बूं ददर्शाथ सव्यसाची परंतपः।
तौ दृष्ट्वाप्रतिमौ लोके जम्बूं मेरुं च संस्थितौ॥
प्रीतिमानभवद् राजन् सर्वतः स विलोकयन्।
तत्र लेभे ततो जिष्णुः सिद्धैर्दिव्यैश्च चारणैः॥
रत्नानि बहुसाहस्रं वस्त्राण्याभरणानि च।
अन्यानि च महार्हाणि तत्र लब्ध्वार्जुनस्तदा॥
आमन्त्रयित्वा तान् सर्वान् यज्ञमुद्दिश्य वै गुरोः।
अथादाय बहून् रत्नान् गमनायोपचक्रमे॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुओंको संताप देनेवाले सव्यसाची अर्जुनने उस जम्बूवृक्षको देखा। जम्बू और मेरुगिरि दोनों ही इस जगत्‌में अनुपम हैं। उन्हें देखकर अर्जुनको बड़ी प्रसन्नता हुई। राजन्! वहाँ सब ओर दृष्टिपात करते हुए अर्जुनने सिद्धों और दिव्य चारणोंसे कई सहस्र रत्न, वस्त्र, आभूषण तथा अन्य बहुत-सी बहुमूल्य वस्तुएँ प्राप्त कीं। तदनन्तर उन सबसे विदा ले बड़े भाईके यज्ञके उद्देश्यसे बहुत-से रत्नोंका संग्रह करके वे वहाँसे जानेको उद्यत हुए।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरुं प्रदक्षिणं कृत्वा पर्वतप्रवरं प्रभुः।
ययौ जम्बूनदीतीरे नदीं श्रेष्ठां विलोकयन्॥
स तां मनोरमां दिव्यां जम्बूस्वादुरसावहाम्।

मूलम्

मेरुं प्रदक्षिणं कृत्वा पर्वतप्रवरं प्रभुः।
ययौ जम्बूनदीतीरे नदीं श्रेष्ठां विलोकयन्॥
स तां मनोरमां दिव्यां जम्बूस्वादुरसावहाम्।

अनुवाद (हिन्दी)

पर्वतश्रेष्ठ मेरुको अपने दाहिने करके अर्जुन जम्बूनदीके तटपर गये। वे उस श्रेष्ठ सरिताकी शोभा देखना चाहते थे। वह मनोरम दिव्य नदी जलके रूपमें जम्बूवृक्षके फलोंका स्वादिष्ट रस बहाती थी॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हैमपक्षिगणैर्जुष्टां सौवर्णजलजाकुलाम् ॥
हैमपङ्कां हैमजलां शुभां सौवर्णवालुकाम्।

मूलम्

हैमपक्षिगणैर्जुष्टां सौवर्णजलजाकुलाम् ॥
हैमपङ्कां हैमजलां शुभां सौवर्णवालुकाम्।

अनुवाद (हिन्दी)

सुनहरे पंखोंवाले पक्षी उसका सेवन करते थे। वह नदी सुवर्णमय कमलोंसे भरी हुई थी। उसकी कीचड़ भी स्वर्णमय थी। उसके जलसे भी सुवर्णमयी आभा छिटक रही थी। उस मंगलमयी नदीकी बालुका भी सुवर्णके चूर्ण-सी शोभा पाती थी।

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्वचित् सौवर्णपद्मैश्च संकुलां हेमपुष्पकैः॥
क्वचित्‌ सुपुष्पितैः कीर्णां सुवर्णकुमुदोत्पलैः।
क्वचित् तीररुहैः कीर्णां हैमवृक्षैः सुपुष्पितैः॥

मूलम्

क्वचित् सौवर्णपद्मैश्च संकुलां हेमपुष्पकैः॥
क्वचित्‌ सुपुष्पितैः कीर्णां सुवर्णकुमुदोत्पलैः।
क्वचित् तीररुहैः कीर्णां हैमवृक्षैः सुपुष्पितैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

कहीं-कहीं सुवर्णमय कमलों तथा स्वर्णमय पुष्पोंसे वह व्याप्त थी। कहीं सुन्दर खिले हुए सुवर्णमय कुमुद और उत्पल छाये हुए थे। कहीं उस नदीके तटपर सुन्दर फूलोंसे भरे हुए स्वर्णमय वृक्ष सब ओर फैले हुए थे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तीर्थैश्च रुक्मसोपानैः सर्वतः संकुलां शुभाम्।
विमलैर्मणिजालैश्च नृत्यगीतरवैर्युताम् ॥

मूलम्

तीर्थैश्च रुक्मसोपानैः सर्वतः संकुलां शुभाम्।
विमलैर्मणिजालैश्च नृत्यगीतरवैर्युताम् ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस सुन्दर सरिताके घाटोंपर सब ओर सोनेकी सीढ़ियाँ बनी हुई थीं। निर्मल मणियोंके समूह उसकी शोभा बढ़ाते थे। नृत्य और गीतके मधुर शब्द उस प्रदेशको मुखरित कर रहे थे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दीप्तैर्हेमवितानैश्च समन्ताच्छोभितां शुभाम् ।
तथाविधां नदीं दृष्ट्वा पार्थस्तां प्रशशंस ह॥
अदृष्टपूर्वां राजेन्द्र दृष्ट्वा हर्षमवाप च।

मूलम्

दीप्तैर्हेमवितानैश्च समन्ताच्छोभितां शुभाम् ।
तथाविधां नदीं दृष्ट्वा पार्थस्तां प्रशशंस ह॥
अदृष्टपूर्वां राजेन्द्र दृष्ट्वा हर्षमवाप च।

अनुवाद (हिन्दी)

उसके दोनों तटोंपर सुनहरे और चमकीले चँदोवे तने थे, जिनके कारण जम्बूनदीकी बड़ी शोभा हो रही थी। राजेन्द्र! ऐसी अदृष्टपूर्व नदीका दर्शन करके अर्जुनने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की और वे मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दर्शनीयान् नदीतीरे पुरुषान् सुमनोहरान्॥
तान् नदीसलिलाहारान् सदारानमरोपमान् ।
नित्यं सुखमुदा युक्तान् सर्वालंकारशोभितान्॥

मूलम्

दर्शनीयान् नदीतीरे पुरुषान् सुमनोहरान्॥
तान् नदीसलिलाहारान् सदारानमरोपमान् ।
नित्यं सुखमुदा युक्तान् सर्वालंकारशोभितान्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस नदीके तटपर बहुत-से देवोपम पुरुष अपनी स्त्रियोंके साथ विचर रहे थे। उनका सौन्दर्य देखने ही योग्य था। वे सबके मनको मोह लेते थे। जम्बूनदीका जल ही उनका आहार था। वे सदा सुख और आनन्दमें निमग्न रहनेवाले तथा सब प्रकारके आभूषणोंसे विभूषित थे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेभ्यो बहूनि रत्नानि तदा लेभे धनंजयः।
दिव्यजाम्बूनदं हेमभूषणानि च पेशलम्॥
लब्ध्वा तान् दुर्लभान् पार्थः प्रतीचीं प्रययौ दिशम्।

मूलम्

तेभ्यो बहूनि रत्नानि तदा लेभे धनंजयः।
दिव्यजाम्बूनदं हेमभूषणानि च पेशलम्॥
लब्ध्वा तान् दुर्लभान् पार्थः प्रतीचीं प्रययौ दिशम्।

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय अर्जुनने उनसे भी नाना प्रकारके रत्न प्राप्त किये। दिव्य जाम्बूनद नामक सुवर्ण और भाँति-भाँतिके आभूषण आदि दुर्लभ वस्तुएँ पाकर अर्जुन वहाँसे पश्चिम दिशाकी ओर चल दिये।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नागानां रक्षितं देशमजयच्चार्जुनस्ततः ॥
ततो गत्वा महाराज वारुणीं पाकशासनिः।
गन्धमादनमासाद्य तत्रस्थानजयत् प्रभुः ॥
तं गन्धमादनं राजन्नतिक्रम्य ततोऽर्जुनः।
केतुमालं विवेशाथ वर्षं रत्नसमन्वितम्।
सेवितं देवकल्पैश्च नारीभिः प्रियदर्शनैः॥

मूलम्

नागानां रक्षितं देशमजयच्चार्जुनस्ततः ॥
ततो गत्वा महाराज वारुणीं पाकशासनिः।
गन्धमादनमासाद्य तत्रस्थानजयत् प्रभुः ॥
तं गन्धमादनं राजन्नतिक्रम्य ततोऽर्जुनः।
केतुमालं विवेशाथ वर्षं रत्नसमन्वितम्।
सेवितं देवकल्पैश्च नारीभिः प्रियदर्शनैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उधर जाकर अर्जुनने नागोंद्वारा सुरक्षित प्रदेशपर विजय पायी। महाराज! वहाँसे और पश्चिम जाकर शक्तिशाली अर्जुन गन्धमादन पर्वतपर पहुँच गये और वहाँके रहनेवालोंको जीतकर अपने अधीन बना लिया। राजन्! इस प्रकार गन्धमादन पर्वतको लाँघकर अर्जुन रत्नोंसे सम्पन्न केतुमालवर्षमें गये, जो देवोपम पुरुषों और सुन्दरी स्त्रियोंकी निवासभूमि है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं जित्वा चार्जुनो राजन् करे च विनिवेश्य च।
आहृत्य तत्र रत्नानि दुर्लभानि तथार्जुनः॥
पुनश्च परिवृत्याथ मध्यं देशमिलावृतम्।

मूलम्

तं जित्वा चार्जुनो राजन् करे च विनिवेश्य च।
आहृत्य तत्र रत्नानि दुर्लभानि तथार्जुनः॥
पुनश्च परिवृत्याथ मध्यं देशमिलावृतम्।

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! उस वर्षको जीतकर अर्जुनने उसे कर देनेवाला बना दिया और वहाँसे दुर्लभ रत्न लेकर वे पुनः मध्यवर्ती इलावृतवर्षमें लौट आये।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गत्वा प्राचीं दिशं राजन् सव्यसाची परंतपः॥
मेरुमन्दरयोर्मध्ये शैलोदामभितो नदीम् ।
ये ते कीचकवेणूनां छायां रम्यामुपासते॥
खशाञ्झषांश्च नद्योतान् प्रघसान् दीर्घवेणिकान्।
पशुपांश्च कुलिन्दांश्च तङ्गणान् परतङ्गणान्॥
रत्नान्यादाय सर्वेभ्यो माल्यवन्तं ततो ययौ।
तं माल्यवन्तं शैलेन्द्रं समतिक्रम्य पाण्डवः॥
भद्राश्वं प्रविवेशाथ वर्षं स्वर्गोपमं शुभम्।

मूलम्

गत्वा प्राचीं दिशं राजन् सव्यसाची परंतपः॥
मेरुमन्दरयोर्मध्ये शैलोदामभितो नदीम् ।
ये ते कीचकवेणूनां छायां रम्यामुपासते॥
खशाञ्झषांश्च नद्योतान् प्रघसान् दीर्घवेणिकान्।
पशुपांश्च कुलिन्दांश्च तङ्गणान् परतङ्गणान्॥
रत्नान्यादाय सर्वेभ्यो माल्यवन्तं ततो ययौ।
तं माल्यवन्तं शैलेन्द्रं समतिक्रम्य पाण्डवः॥
भद्राश्वं प्रविवेशाथ वर्षं स्वर्गोपमं शुभम्।

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर शत्रुदमन सव्यसाची अर्जुनने पूर्व दिशामें प्रस्थान किया। मेरु और मन्दराचलके बीच शैलोदा नदीके दोनों तटोंपर जो लोग कीचक और वेणु नामक बाँसोंकी रमणीय छायाका आश्रय लेकर रहते हैं, उन खश, झष, नद्योत, प्रघस, दीर्घवेणिक, पशुप, कुलिन्द, तंगण तथा परतंगण आदि जातियोंको हराकर उन सबसे रत्नोंकी भेंट ले अर्जुन माल्यवान् पर्वतपर गये। तत्पश्चात् गिरिराज माल्यवान्‌को भी लाँघकर उन पाण्डुकुमारने भद्राश्ववर्षमें प्रवेश किया, जो स्वर्गके समान सुन्दर है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्रामरोपमान् रम्यान् पुरुषान् सुखसंयुतान्॥
जित्वा तान् स्ववशे कृत्वा करे च विनिवेश्य च।
आहृत्य सर्वरत्नानि असंख्यानि ततस्ततः॥
नीलं नाम गिरिं गत्वा तत्रस्थानजयत् प्रभुः।

मूलम्

तत्रामरोपमान् रम्यान् पुरुषान् सुखसंयुतान्॥
जित्वा तान् स्ववशे कृत्वा करे च विनिवेश्य च।
आहृत्य सर्वरत्नानि असंख्यानि ततस्ततः॥
नीलं नाम गिरिं गत्वा तत्रस्थानजयत् प्रभुः।

अनुवाद (हिन्दी)

उस देशमें देवताओंके समान सुन्दर और सुखी पुरुष निवास करते थे। अर्जुनने उन सबको जीतकर अपने अधीन कर लिया और उनपर कर लगा दिया। इस प्रकार इधर-उधरसे असंख्य रत्नोंका संग्रह करके शक्तिशाली अर्जुनने नीलगिरिकी यात्रा की और वहाँके निवासियोंको पराजित किया।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो जिष्णुरतिक्रम्य पर्वतं नीलमायतम्॥
विवेश रम्यकं वर्षं संकीर्णं मिथुनैः शुभैः।
तं देशमथ जित्वा च करे च विनिवेश्य च॥
अजयच्चापि बीभत्सुर्देशं गुह्यकरक्षितम् ।
तत्र लेभे च राजेन्द्र सौवर्णान् मृगपक्षिणः॥
अगृह्णाद् यज्ञभूत्यर्थं रमणीयान् मनोरमान्।

मूलम्

ततो जिष्णुरतिक्रम्य पर्वतं नीलमायतम्॥
विवेश रम्यकं वर्षं संकीर्णं मिथुनैः शुभैः।
तं देशमथ जित्वा च करे च विनिवेश्य च॥
अजयच्चापि बीभत्सुर्देशं गुह्यकरक्षितम् ।
तत्र लेभे च राजेन्द्र सौवर्णान् मृगपक्षिणः॥
अगृह्णाद् यज्ञभूत्यर्थं रमणीयान् मनोरमान्।

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर विशाल नीलगिरिको भी लाँघकर सुन्दर नर-नारियोंसे भरे हुए रम्यकवर्षमें उन्होंने प्रवेश किया। उस देशको भी जीतकर अर्जुनने वहाँके निवासियोंपर कर लगा दिया। तत्पश्चात् गुह्यकोंद्वारा सुरक्षित प्रदेशको जीतकर अपने अधिकारमें कर लिया। राजेन्द्र! वहाँ उन्हें सोनेके मृग और पक्षी उपलब्ध हुए, जो देखनेमें बड़े ही रमणीय और मनोरम थे। उन्होंने यज्ञ-वैभवकी समृद्धिके लिये उन मृगों और पक्षियोंको ग्रहण कर लिया।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्यानि लब्ध्वा रत्नानि पाण्डवोऽथ महाबलः॥
गन्धर्वरक्षितं देशमजयत् सगणं तदा।
तत्र रत्नानि दिव्यानि लब्ध्वा राजन्नथार्जुनः॥
श्वेतपर्वतमासाद्य जित्वा पर्वतवासिनः ।
स श्वेतं पर्वतं राजन् समतिक्रम्य पाण्डवः॥
वर्षं हिरण्यकं नाम विवेशाथ महीपते।

मूलम्

अन्यानि लब्ध्वा रत्नानि पाण्डवोऽथ महाबलः॥
गन्धर्वरक्षितं देशमजयत् सगणं तदा।
तत्र रत्नानि दिव्यानि लब्ध्वा राजन्नथार्जुनः॥
श्वेतपर्वतमासाद्य जित्वा पर्वतवासिनः ।
स श्वेतं पर्वतं राजन् समतिक्रम्य पाण्डवः॥
वर्षं हिरण्यकं नाम विवेशाथ महीपते।

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर महाबली पाण्डुनन्दन अन्य बहुत-से रत्न लेकर गन्धर्वोंद्वारा सुरक्षित प्रदेशमें गये और गन्धर्वगणोंसहित उस देशपर अधिकार जमा लिया। राजन्! वहाँ भी अर्जुनको बहुत-से दिव्य रत्न प्राप्त हुए। तदनन्तर उन्होंने श्वेत पर्वतपर जाकर वहाँके निवासियोंको जीता। फिर उस पर्वतको लाँघकर पाण्डुकुमार अर्जुनने हिरण्यकवर्षमें प्रवेश किया।

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तु देशेषु रम्येषु गन्तुं तत्रोपचक्रमे॥
मध्ये प्रासादवृन्देषु नक्षत्राणां शशी यथा।

मूलम्

स तु देशेषु रम्येषु गन्तुं तत्रोपचक्रमे॥
मध्ये प्रासादवृन्देषु नक्षत्राणां शशी यथा।

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! वहाँ पहुँचकर वे उस देशके रमणीय प्रदेशोंमें विचरने लगे। बड़े-बड़े महलोंकी पंक्तियोंमें भ्रमण करते हुए श्वेताश्व अर्जुन नक्षत्रोंके बीच चन्द्रमाके समान सुशोभित होते थे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

महापथेषु राजेन्द्र सर्वतो यान्तमर्जुनम्॥
प्रासादवरशृङ्गस्थाः परया वीर्यशोभया ।
ददृशुस्ताः स्त्रियः सर्वाः पार्थमात्मयशस्करम्॥
तं कलापधरं शूरं सरथं सानुगं प्रभुम्।
सवर्मसुकिरीटं वै संनद्धं सपरिच्छदम्॥
सुकुमारं महासत्त्वं तेजोराशिमनुत्तमम् ।
शक्रोपमममित्रघ्नं परवारणवारणम् ॥
पश्यन्तः स्त्रीगणास्तत्र शक्तिपाणिं स्म मेनिरे।

मूलम्

महापथेषु राजेन्द्र सर्वतो यान्तमर्जुनम्॥
प्रासादवरशृङ्गस्थाः परया वीर्यशोभया ।
ददृशुस्ताः स्त्रियः सर्वाः पार्थमात्मयशस्करम्॥
तं कलापधरं शूरं सरथं सानुगं प्रभुम्।
सवर्मसुकिरीटं वै संनद्धं सपरिच्छदम्॥
सुकुमारं महासत्त्वं तेजोराशिमनुत्तमम् ।
शक्रोपमममित्रघ्नं परवारणवारणम् ॥
पश्यन्तः स्त्रीगणास्तत्र शक्तिपाणिं स्म मेनिरे।

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! जब अर्जुन उत्तम बल और शोभासे सम्पन्न हो हिरण्यकवर्षकी विशाल सड़कोंपर चलते थे, उस समय प्रासादशिखरोंपर खड़ी हुई वहाँकी सुन्दरी स्त्रियाँ उनका दर्शन करती थीं। कुन्तीनन्दन अर्जुन अपने यशको बढ़ानेवाले थे। उन्होंने आभूषण धारण कर रखा था। वे शूरवीर, रथयुक्त, सेवकोंसे सम्पन्न और शक्तिशाली थे। उनके अंगोंमें कवच और मस्तकपर सुन्दर किरीट शोभा दे रहा था। वे कमर कसकर युद्धके लिये तैयार थे और सब प्रकारकी आवश्यक सामग्री उनके साथ थी। वे सुकुमार, अत्यन्त धैर्यवान्, तेजके पुंज, परम उत्तम, इन्द्र-तुल्य पराक्रमी, शत्रुहन्ता तथा शत्रुओंके गजराजोंकी गतिको रोक देनेवाले थे। उन्हें देखकर वहाँकी स्त्रियोंने यही अनुमान लगाया कि इस वीर पुरुषके रूपमें साक्षात् शक्तिधारी कार्तिकेय पधारे हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयं स पुरुषव्याघ्रो रणेऽद्भुतपराक्रमः॥
अस्य बाहुबलं प्राप्य न भवन्त्यसुहृद्‌गणाः।

मूलम्

अयं स पुरुषव्याघ्रो रणेऽद्भुतपराक्रमः॥
अस्य बाहुबलं प्राप्य न भवन्त्यसुहृद्‌गणाः।

अनुवाद (हिन्दी)

वे आपसमें इस प्रकार बातें करने लगीं—‘सखियो! ये जो पुरुषसिंह दिखायी दे रहे हैं, संग्राममें इनका पराक्रम अद्भुत है। इनके बाहुबलका आक्रमण होनेपर शत्रुओंके समुदाय अपना अस्तित्व खो बैठते हैं।’

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति वाचो ब्रुवन्त्यस्ताः स्त्रियः प्रेम्णा धनंजयम्॥
तुष्टुवुः पुष्पवृष्टिं च ससृजुस्तस्य मूर्धनि।

मूलम्

इति वाचो ब्रुवन्त्यस्ताः स्त्रियः प्रेम्णा धनंजयम्॥
तुष्टुवुः पुष्पवृष्टिं च ससृजुस्तस्य मूर्धनि।

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकारकी बातें करती हुई स्त्रियाँ बड़े प्रेमसे अर्जुनकी ओर देखकर उनके गुण गातीं और उनके मस्तकपर फूलोंकी वर्षा करती थीं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्ट्वा ते तु मुदा युक्ताः कौतूहलसमन्विताः॥
रत्नैर्विभूषणैश्चैव अभ्यवर्षन्त पाण्डवम् ।

मूलम्

दृष्ट्वा ते तु मुदा युक्ताः कौतूहलसमन्विताः॥
रत्नैर्विभूषणैश्चैव अभ्यवर्षन्त पाण्डवम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँके सभी निवासी बड़ी प्रसन्नताके साथ कौतूहलवश उन्हें देखते और उनके निकट रत्नों तथा आभूषणोंकी वर्षा करते थे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ जित्वा समस्तांस्तान् करे च विनिवेश्य च॥
मणिहेमप्रवालानि रत्नान्याभरणानि च ।
एतानि लब्ध्वा पार्थोऽपि शृङ्गवन्तं गिरिं ययौ॥
शृङ्गवन्तं च कौन्तेयः समतिक्रम्य फाल्गुनः॥)
उत्तरं कुरुवर्षं तु स समासाद्य पाण्डवः।
इयेष जेतुं तं देशं पाकशासननन्दनः ॥ ७ ॥

मूलम्

अथ जित्वा समस्तांस्तान् करे च विनिवेश्य च॥
मणिहेमप्रवालानि रत्नान्याभरणानि च ।
एतानि लब्ध्वा पार्थोऽपि शृङ्गवन्तं गिरिं ययौ॥
शृङ्गवन्तं च कौन्तेयः समतिक्रम्य फाल्गुनः॥)
उत्तरं कुरुवर्षं तु स समासाद्य पाण्डवः।
इयेष जेतुं तं देशं पाकशासननन्दनः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन सबको जीतकर तथा उनके ऊपर कर लगाकर वहाँसे मणि, सुवर्ण, मूँगे, रत्न तथा आभूषण ले अर्जुन शृंगवान् पर्वतपर चले गये। वहाँसे आगे बढ़कर पाकशासनपुत्र पाण्डव अर्जुनने उत्तर कुरुवर्षमें पहुँचकर उस देशको जीतनेका विचार किया॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत एनं महावीर्यं महाकाया महाबलाः।
द्वारपालाः समासाद्य हृष्टा वचनमब्रुवन् ॥ ८ ॥

मूलम्

तत एनं महावीर्यं महाकाया महाबलाः।
द्वारपालाः समासाद्य हृष्टा वचनमब्रुवन् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इतनेहीमें महापराक्रमी अर्जुनके पास बहुत-से विशालकाय महाबली द्वारपाल आ पहुँचे और प्रसन्नतापूर्वक बोले—॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पार्थ नेदं त्वया शक्यं पुरं जेतुं कथंचन।
उपावर्तस्व कल्याण पर्याप्तमिदमच्युत ॥ ९ ॥
इदं पुरं यः प्रविशेद् ध्रुवं न स भवेन्नरः।
प्रीयामहे त्वया वीर पर्याप्तो विजयस्तव ॥ १० ॥

मूलम्

पार्थ नेदं त्वया शक्यं पुरं जेतुं कथंचन।
उपावर्तस्व कल्याण पर्याप्तमिदमच्युत ॥ ९ ॥
इदं पुरं यः प्रविशेद् ध्रुवं न स भवेन्नरः।
प्रीयामहे त्वया वीर पर्याप्तो विजयस्तव ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पार्थ! इस नगरको तुम किसी तरह जीत नहीं सकते। कल्याणस्वरूप अर्जुन! यहाँसे लौट जाओ। अच्युत! तुम यहाँतक आ गये, यही बहुत हुआ। जो मनुष्य इस नगरमें प्रवेश करता है, निश्चय ही उसकी मृत्यु हो जाती है। वीर! हम तुमसे बहुत प्रसन्न हैं। यहाँतक आ पहुँचना ही तुम्हारी बहुत बड़ी विजय है॥९-१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चात्र किंचिज्जेतव्यमर्जुनात्र प्रदृश्यते।
उत्तराः कुरवो ह्येते नात्र युद्धं प्रवर्तते ॥ ११ ॥
प्रविष्टोऽपि हि कौन्तेय नेह द्रक्ष्यसि किंचन।
न हि मानुषदेहेन शक्यमत्राभिवीक्षितुम् ॥ १२ ॥

मूलम्

न चात्र किंचिज्जेतव्यमर्जुनात्र प्रदृश्यते।
उत्तराः कुरवो ह्येते नात्र युद्धं प्रवर्तते ॥ ११ ॥
प्रविष्टोऽपि हि कौन्तेय नेह द्रक्ष्यसि किंचन।
न हि मानुषदेहेन शक्यमत्राभिवीक्षितुम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अर्जुन! यहाँ कोई जीतनेयोग्य वस्तु नहीं दिखायी देती। यह उत्तर कुरुदेश है। यहाँ युद्ध नहीं होता है। कुन्तीकुमार! इसके भीतर प्रवेश करके भी तुम यहाँ कुछ देख नहीं सकोगे, क्योंकि मानव-शरीरसे यहाँकी कोई वस्तु देखी नहीं जा सकती॥११-१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथेह पुरुषव्याघ्र किंचिदन्यच्चिकीर्षसि ।
तत् प्रब्रूहि करिष्यामो वचनात् तव भारत ॥ १३ ॥

मूलम्

अथेह पुरुषव्याघ्र किंचिदन्यच्चिकीर्षसि ।
तत् प्रब्रूहि करिष्यामो वचनात् तव भारत ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भरतकुलभूषण पुरुषसिंह! यदि यहाँ तुम युद्धके सिवा और कोई काम करना चाहते हो तो बताओ, तुम्हारे कहनेसे हम स्वयं ही उस कार्यको पूर्ण कर देंगे’॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तानब्रवीद् राजन्नर्जुनः प्रहसन्निव ।
पार्थिवत्वं चिकीर्षामि धर्मराजस्य धीमतः ॥ १४ ॥

मूलम्

ततस्तानब्रवीद् राजन्नर्जुनः प्रहसन्निव ।
पार्थिवत्वं चिकीर्षामि धर्मराजस्य धीमतः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! तब अर्जुनने उनसे हँसते हुए कहा—‘मैं अपने भाई बुद्धिमान् धर्मराज युधिष्ठिरको समस्त भूमण्डलका एकमात्र चक्रवर्ती सम्राट् बनाना चाहता हूँ॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न प्रवेक्ष्यामि वो देशं विरुद्धं यदि मानुषैः।
युधिष्ठिराय यत् किंचित् करपण्यं प्रदीयताम् ॥ १५ ॥

मूलम्

न प्रवेक्ष्यामि वो देशं विरुद्धं यदि मानुषैः।
युधिष्ठिराय यत् किंचित् करपण्यं प्रदीयताम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आपलोगोंका देश यदि मनुष्योंके विपरीत पड़ता है तो मैं इसमें प्रवेश नहीं करूँगा। महाराज युधिष्ठिरके लिये करके रूपमें कुछ धन दीजिये’॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो दिव्यानि वस्त्राणि दिव्यान्याभरणानि च।
क्षौमाजिनानि दिव्यानि तस्य ते प्रददुः करम् ॥ १६ ॥

मूलम्

ततो दिव्यानि वस्त्राणि दिव्यान्याभरणानि च।
क्षौमाजिनानि दिव्यानि तस्य ते प्रददुः करम् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब उन द्वारपालोंने अर्जुनको करके रूपमें बहुत-से दिव्य वस्त्र, दिव्य आभूषण तथा दिव्य रेशमी वस्त्र एवं मृगचर्म दिये॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं स पुरुषव्याघ्रो विजित्य दिशमुत्तराम्।
संग्रामान् सुबहून् कृत्वा क्षत्रियैर्दस्युभिस्तथा ॥ १७ ॥
स विनिर्जित्य राज्ञस्तान् करे च विनिवेश्य तु।
धनान्यादाय सर्वेभ्यो रत्नानि विविधानि च ॥ १८ ॥
हयांस्तित्तिरिकल्माषाञ्छुकपत्रनिभानपि ।
मयूरसदृशानन्यान् सर्वाननिलरंहसः ॥ १९ ॥
वृतः सुमहता राजन् बलेन चतुरङ्गिणाः।
आजगाम पुनर्वीरः शक्रप्रस्थं पुरोत्तमम् ॥ २० ॥

मूलम्

एवं स पुरुषव्याघ्रो विजित्य दिशमुत्तराम्।
संग्रामान् सुबहून् कृत्वा क्षत्रियैर्दस्युभिस्तथा ॥ १७ ॥
स विनिर्जित्य राज्ञस्तान् करे च विनिवेश्य तु।
धनान्यादाय सर्वेभ्यो रत्नानि विविधानि च ॥ १८ ॥
हयांस्तित्तिरिकल्माषाञ्छुकपत्रनिभानपि ।
मयूरसदृशानन्यान् सर्वाननिलरंहसः ॥ १९ ॥
वृतः सुमहता राजन् बलेन चतुरङ्गिणाः।
आजगाम पुनर्वीरः शक्रप्रस्थं पुरोत्तमम् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार पुरुषसिंह अर्जुनने क्षत्रिय राजाओं तथा लुटेरोंके साथ बहुत-सी लड़ाइयाँ लड़ी और उत्तर दिशापर विजय प्राप्त की। राजाओंको जीतकर उनसे कर लेते और उन्हें फिर अपने राज्यपर ही स्थापित कर देते थे। राजन्! वे वीर अर्जुन सबसे धन और भाँति-भाँतिके रत्न लेकर तथा भेंटमें मिले हुए वायुके समान वेगवाले तित्तिरि,1 कल्माष, सुग्गापंखी एवं मोर-सदृश सभी घोड़ोंको साथ लिये और विशाल चतुरंगिणी सेनासे घिरे हुए फिर अपने उत्तम नगर इन्द्रप्रस्थमें लौट आये॥१७—२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मराजाय तत् पार्थो धनं सर्वं सवाहनम्।
न्यवेदयदनुज्ञातस्तेन राज्ञा गृहान् ययौ ॥ २१ ॥

मूलम्

धर्मराजाय तत् पार्थो धनं सर्वं सवाहनम्।
न्यवेदयदनुज्ञातस्तेन राज्ञा गृहान् ययौ ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पार्थने घोड़ोंसहित वह सारा धन धर्मराजको सौंप दिया और उनकी आज्ञा लेकर वे महलमें चले गये॥२१॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि दिग्विजयपर्वणि अर्जुनोत्तरदिग्विजये अष्टाविंशोऽध्यायः ॥ २८ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्वके अन्तर्गत दिग्विजयपर्वमें अर्जुनकी उत्तर दिशापर विजयविषयक अट्ठाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२८॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ५८ श्लोक मिलाकर कुल ७९ श्लोक हैं)


  1. तीतरके समान चितकबरे रंगवाले। ↩︎