श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
(दिग्विजयपर्व)
पञ्चविंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
अर्जुन आदि चारों भाइयोंकी दिग्विजयके लिये यात्रा
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
पार्थः प्राप्य धनुः श्रेष्ठमक्षय्यौ च महेषुधी।
रथं ध्वजं सभां चैव युधिष्ठिरमभाषत ॥ १ ॥
मूलम्
पार्थः प्राप्य धनुः श्रेष्ठमक्षय्यौ च महेषुधी।
रथं ध्वजं सभां चैव युधिष्ठिरमभाषत ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! अर्जुन श्रेष्ठ धनुष, दो विशाल एवं अक्षय तूणीर, दिव्य रथ, ध्वज और अद्भुत सभाभवन पहले ही प्राप्त कर चुके थे; अब वे युधिष्ठिरसे बोले॥१॥
मूलम् (वचनम्)
अर्जुन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनुरस्त्रं शरा वीर्यं पक्षो भूमिर्यशो बलम्।
प्राप्तमेतन्मया राजन् दुष्प्रापं यदभीप्सितम् ॥ २ ॥
मूलम्
धनुरस्त्रं शरा वीर्यं पक्षो भूमिर्यशो बलम्।
प्राप्तमेतन्मया राजन् दुष्प्रापं यदभीप्सितम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुनने कहा— राजन्! मुझे धनुष, अस्त्र, बाण, पराक्रम, श्रीकृष्ण-जैसे सहायक, भूमि (राज्य एवं इन्द्रप्रस्थका दुर्ग), यश और बल—ये सभी दुर्लभ एवं मनोवांछित वस्तुएँ प्राप्त हो चुकी हैं॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र कृत्यमहं मन्ये कोशस्य परिवर्धनम्।
करमाहारयिष्यामि राज्ञः सर्वान् नृपोत्तम ॥ ३ ॥
मूलम्
तत्र कृत्यमहं मन्ये कोशस्य परिवर्धनम्।
करमाहारयिष्यामि राज्ञः सर्वान् नृपोत्तम ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नृपश्रेष्ठ! अब मैं अपने कोषको बढ़ाना ही आवश्यक कार्य समझता हूँ। मेरी इच्छा है कि समस्त राजाओंको जीतकर उनसे कर वसूल करूँ॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विजयाय प्रयास्यामि दिशं धनदपालिताम्।
तिथावथ मुहूर्ते च नक्षत्रे चाभिपूजिते ॥ ४ ॥
मूलम्
विजयाय प्रयास्यामि दिशं धनदपालिताम्।
तिथावथ मुहूर्ते च नक्षत्रे चाभिपूजिते ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपकी आज्ञा हो तो उत्तम तिथि, मुहूर्त और नक्षत्रमें कुबेरद्वारा पालित उत्तर दिशाको जीतनेके लिये प्रस्थान करूँ॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(एतच्छ्रुत्वा कुरुश्रेष्ठो धर्मराजः सहानुजः।
प्रहृष्टो मन्त्रिभिश्चैव व्यासधौम्यादिभिः सह॥
ततो व्यासो महाबुद्धिरुवाचेदं वचोऽर्जुनम्।
मूलम्
(एतच्छ्रुत्वा कुरुश्रेष्ठो धर्मराजः सहानुजः।
प्रहृष्टो मन्त्रिभिश्चैव व्यासधौम्यादिभिः सह॥
ततो व्यासो महाबुद्धिरुवाचेदं वचोऽर्जुनम्।
अनुवाद (हिन्दी)
यह सुनकर भाइयोंसहित कुरुश्रेष्ठ धर्मराज युधिष्ठिरको बड़ी प्रसन्नता हुई। साथ ही मन्त्रियों तथा व्यास, धौम्य आदि महर्षियोंको बड़ा हर्ष हुआ। तत्पश्चात् परम बुद्धिमान् व्यासजीने अर्जुनसे कहा।
मूलम् (वचनम्)
व्यास उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधु साध्विति कौन्तेय दिष्ट्या ते बुद्धिरीदृशी।
पृथिवीमखिलां जेतुमेकोऽध्यवसितो भवान् ॥
मूलम्
साधु साध्विति कौन्तेय दिष्ट्या ते बुद्धिरीदृशी।
पृथिवीमखिलां जेतुमेकोऽध्यवसितो भवान् ॥
अनुवाद (हिन्दी)
व्यासजी बोले— कुन्तीनन्दन! मैं तुम्हें बारंबार साधुवाद देता हूँ। सौभाग्यसे तुम्हारी बुद्धिमें ऐसा संकल्प हुआ है। तुम सारी पृथ्वीको अकेले ही जीतनेके लिये उत्साहित हो रहे हो।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धन्यः पाण्डुर्महीपालो यस्य पुत्रस्त्वमीदृशः।
सर्वं प्राप्स्यति राजेन्द्रो धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः॥
त्वद्वीर्येण स धर्मात्मा सार्वभौमत्वमेष्यति।
मूलम्
धन्यः पाण्डुर्महीपालो यस्य पुत्रस्त्वमीदृशः।
सर्वं प्राप्स्यति राजेन्द्रो धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः॥
त्वद्वीर्येण स धर्मात्मा सार्वभौमत्वमेष्यति।
अनुवाद (हिन्दी)
राजा पाण्डु धन्य थे, जिनके पुत्र तुम ऐसे पराक्रमी निकले। तुम्हारे पराक्रमसे धर्मपुत्र धर्मात्मा महाराज युधिष्ठिर सब कुछ पा लेंगे। सार्वभौम सम्राट्के पदपर प्रतिष्ठित होंगे।
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वद्बाहुबलमाश्रित्य राजसूयमवाप्स्यति ॥
सुनयाद् वासुदेवस्य भीमार्जुनबलेन च।
यमयोश्चैव वीर्येण सर्वं प्राप्स्यति धर्मराट्॥
मूलम्
त्वद्बाहुबलमाश्रित्य राजसूयमवाप्स्यति ॥
सुनयाद् वासुदेवस्य भीमार्जुनबलेन च।
यमयोश्चैव वीर्येण सर्वं प्राप्स्यति धर्मराट्॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम्हारे बाहुबलका सहारा पाकर ये राजसूययज्ञ पूर्ण कर लेंगे। भगवान् श्रीकृष्णकी उत्तम नीति, भीम और अर्जुनके बल तथा नकुल और सहदेवके पराक्रमसे धर्मराज युधिष्ठिरको सब कुछ प्राप्त हो जायगा।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्माद् दिशं देवगुप्तामुदीचीं गच्छ फाल्गुन।
शक्तो भवान् सुराञ्जित्वा रत्नान्याहर्तुमोजसा॥
मूलम्
तस्माद् दिशं देवगुप्तामुदीचीं गच्छ फाल्गुन।
शक्तो भवान् सुराञ्जित्वा रत्नान्याहर्तुमोजसा॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये अर्जुन! तुम तो देवताओंद्वारा सुरक्षित उत्तर दिशाकी यात्रा करो; क्योंकि देवताओंको जीतकर वहाँसे बलपूर्वक रत्न ले आनेमें तुम्हीं समर्थ हो।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राचीं भीमो बलश्लाघी प्रयातु भरतर्षभः।
याम्यां तत्र दिशं यातु सहदेवो महारथः॥
प्रतीचीं नकुलो गन्ता वरुणेनाभिपालिताम्।
एषा मे नैष्ठिकी बुद्धिः क्रियतां भरतर्षभाः॥
मूलम्
प्राचीं भीमो बलश्लाघी प्रयातु भरतर्षभः।
याम्यां तत्र दिशं यातु सहदेवो महारथः॥
प्रतीचीं नकुलो गन्ता वरुणेनाभिपालिताम्।
एषा मे नैष्ठिकी बुद्धिः क्रियतां भरतर्षभाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने बलद्वारा दूसरोंसे होड़ लेनेवाले भरतकुल-भूषण भीमसेन पूर्व दिशाकी यात्रा करें। महारथी सहदेव दक्षिण दिशाकी ओर प्रस्थान करें और नकुल वरुणपालित पश्चिम दिशापर आक्रमण करें। भरतश्रेष्ठ पाण्डवो! मेरी बुद्धिका ऐसा ही निश्चय है। तुमलोग इसका पालन करो।
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुत्वा व्यासवचो हृष्टास्तमूचुः पाण्डुनन्दनाः।
मूलम्
श्रुत्वा व्यासवचो हृष्टास्तमूचुः पाण्डुनन्दनाः।
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! व्यासजीकी यह बात सुनकर पाण्डवोंने बड़े हर्षके साथ कहा।
मूलम् (वचनम्)
पाण्डवा ऊचुः
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमस्तु मुनिश्रेष्ठ यथाऽऽज्ञापयसि प्रभो।)
मूलम्
एवमस्तु मुनिश्रेष्ठ यथाऽऽज्ञापयसि प्रभो।)
अनुवाद (हिन्दी)
पाण्डव बोले— मुनिश्रेष्ठ! आप जैसी आज्ञा देते हैं वैसा ही हो।
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनंजयवचः श्रुत्वा धर्मराजो युधिष्ठिरः।
स्निग्धगम्भीरनादिन्या तं गिरा प्रत्यभाषत ॥ ५ ॥
मूलम्
धनंजयवचः श्रुत्वा धर्मराजो युधिष्ठिरः।
स्निग्धगम्भीरनादिन्या तं गिरा प्रत्यभाषत ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! अर्जुनकी पूर्वोक्त बात सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर स्नेहयुक्त गम्भीर वाणीमें उनसे इस प्रकार बोले—॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वस्तिवाच्यार्हतो विप्रान् प्रयाहि भरतर्षभ।
दुर्हृदामप्रहर्षाय सुहृदां नन्दनाय च ॥ ६ ॥
मूलम्
स्वस्तिवाच्यार्हतो विप्रान् प्रयाहि भरतर्षभ।
दुर्हृदामप्रहर्षाय सुहृदां नन्दनाय च ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भरतकुलभूषण! पूजनीय ब्राह्मणोंसे स्वस्तिवाचन कराकर यात्रा करो। तुम्हारी यह यात्रा शत्रुओंका शोक और सुहृदोंका आनन्द बढ़ानेवाली हो॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विजयस्ते ध्रुवं पार्थ प्रियं काममवाप्स्यसि।
मूलम्
विजयस्ते ध्रुवं पार्थ प्रियं काममवाप्स्यसि।
अनुवाद (हिन्दी)
‘पार्थ! तुम्हारी विजय सुनिश्चित है, तुम अभीष्ट कामनाओंको प्राप्त करोगे’॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तः प्रययौ पार्थः सैन्येन महताऽऽवृतः ॥ ७ ॥
अग्निदत्तेन दिव्येन रथेनाद्भुतकर्मणा ।
तथैव भीमसेनोऽपि यमौ च पुरुषर्षभौ ॥ ८ ॥
ससैन्याः प्रययुः सर्वे धर्मराजेन पूजिताः।
मूलम्
इत्युक्तः प्रययौ पार्थः सैन्येन महताऽऽवृतः ॥ ७ ॥
अग्निदत्तेन दिव्येन रथेनाद्भुतकर्मणा ।
तथैव भीमसेनोऽपि यमौ च पुरुषर्षभौ ॥ ८ ॥
ससैन्याः प्रययुः सर्वे धर्मराजेन पूजिताः।
अनुवाद (हिन्दी)
उनके इस प्रकार आदेश देनेपर कुन्तीपुत्र अर्जुन विशाल सेनाके साथ अग्निके दिये हुए अद्भुतकर्मा दिव्य रथद्वारा वहाँसे प्रस्थित हुए। इसी प्रकार भीमसेन तथा नरश्रेष्ठ नकुल-सहदेव—इन सभी भाइयोंने धर्मराजसे सम्मानित हो सेनाओंके साथ दिग्विजयके लिये प्रस्थान किया॥७-८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिशं धनपतेरिष्टामजयत् पाकशासनिः ॥ ९ ॥
भीमसेनस्तथा प्राचीं सहदेवस्तु दक्षिणाम्।
प्रतीचीं नकुलो राजन् दिशं व्यजयतास्त्रवित् ॥ १० ॥
मूलम्
दिशं धनपतेरिष्टामजयत् पाकशासनिः ॥ ९ ॥
भीमसेनस्तथा प्राचीं सहदेवस्तु दक्षिणाम्।
प्रतीचीं नकुलो राजन् दिशं व्यजयतास्त्रवित् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! इन्द्रकुमार अर्जुनने कुबेरकी प्रिय उत्तर दिशापर विजय पायी। भीमसेनने पूर्व दिशा, सहदेवने दक्षिण दिशा तथा अस्त्रवेत्ता नकुलने पश्चिम दिशाको जीता॥९-१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
खाण्डवप्रस्थमध्यस्थो धर्मराजो युधिष्ठिरः ।
आसीत् परमया लक्ष्म्या सुहृद्गणवृतः प्रभुः ॥ ११ ॥
मूलम्
खाण्डवप्रस्थमध्यस्थो धर्मराजो युधिष्ठिरः ।
आसीत् परमया लक्ष्म्या सुहृद्गणवृतः प्रभुः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
केवल धर्मराज युधिष्ठिर सुहृदोंसे घिरे हुए अपनी उत्तम राजलक्ष्मीके साथ खाण्डवप्रस्थमें रह गये थे॥११॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि दिग्विजयपर्वणि दिग्विजयसंक्षेपकथने पञ्चविंशोऽध्यायः ॥ २५ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्वके अन्तर्गत दिग्विजयपर्वमें दिग्विजयका संक्षिप्त वर्णनविषयक पचीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२५॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ९ श्लोक मिलाकर कुल २० श्लोक हैं)