०२४ जरासन्धवधः

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

चतुर्विंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

भीमके द्वारा जरासंधका वध, बंदी राजाओंकी मुक्ति, श्रीकृष्ण आदिका भेंट लेकर इन्द्रप्रस्थमें आना और वहाँसे श्रीकृष्णका द्वारका जाना

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीमसेनस्ततः कृष्णमुवाच यदुनन्दनम् ।
बुद्धिमास्थाय विपुलां जरासंधवधेप्सया ॥ १ ॥

मूलम्

भीमसेनस्ततः कृष्णमुवाच यदुनन्दनम् ।
बुद्धिमास्थाय विपुलां जरासंधवधेप्सया ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तदनन्तर भीमसेनने विशाल बुद्धिका सहारा ले जरासंधके वधकी इच्छासे यदुनन्दन श्रीकृष्णको सम्बोधित करके कहा—॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नायं पापो मया कृष्ण युक्तः स्यादनुरोधितुम्।
प्राणेन यदुशार्दूल बद्धकक्षेण वाससा ॥ २ ॥

मूलम्

नायं पापो मया कृष्ण युक्तः स्यादनुरोधितुम्।
प्राणेन यदुशार्दूल बद्धकक्षेण वाससा ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यदुश्रेष्ठ श्रीकृष्ण! जरासंधने लंगोटसे अपनी कमर खूब कस ली है। यह पापी प्राण रहते मेरे वशमें आनेवाला नहीं जान पड़ता’॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तस्ततः कृष्णः प्रत्युवाच वृकोदरम्।
त्वरयन् पुरुषव्याघ्रो जरासंधवधेप्सया ॥ ३ ॥

मूलम्

एवमुक्तस्ततः कृष्णः प्रत्युवाच वृकोदरम्।
त्वरयन् पुरुषव्याघ्रो जरासंधवधेप्सया ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके ऐसा कहनेपर पुरुषोत्तम श्रीकृष्णने जरासंधके वधके लिये भीमसेनको उत्तेजित करते हुए कहा—॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत् ते दैवं परं सत्त्वं यच्च ते मातरिश्वनः।
बलं भीम जरासंधे दर्शयाशु तदद्य नः ॥ ४ ॥

मूलम्

यत् ते दैवं परं सत्त्वं यच्च ते मातरिश्वनः।
बलं भीम जरासंधे दर्शयाशु तदद्य नः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भीम! तुम्हारा जो सर्वोत्कृष्ट दैवी स्वरूप है और तुम्हें वायुदेवतासे जो दिव्य बल प्राप्त हुआ है, उसे आज हमारे सामने जरासंधपर शीघ्रतापूर्वक दिखाओ॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(तवैष वध्यो दुर्बुद्धिः जरासंधो महारथः।
इत्यन्तरिक्षे त्वश्रौषं यदा वायुरपोह्यते॥

मूलम्

(तवैष वध्यो दुर्बुद्धिः जरासंधो महारथः।
इत्यन्तरिक्षे त्वश्रौषं यदा वायुरपोह्यते॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यह खोटी बुद्धिवाला महारथी जरासंध तुम्हारे हाथोंसे ही मारा जा सकता है। यह बात आकाशमें मुझे उस समय सुनायी पड़ी थी जब कि बलरामजीके द्वारा जरासंधके प्राण लेनेकी चेष्टा की जा रही थी।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोमन्ते पर्वतश्रेष्ठे येनैष परिमोक्षितः।
बलदेवबलं प्राप्य कोऽन्यो जीवेत मागधात्॥

मूलम्

गोमन्ते पर्वतश्रेष्ठे येनैष परिमोक्षितः।
बलदेवबलं प्राप्य कोऽन्यो जीवेत मागधात्॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इसीलिये गिरिश्रेष्ठ गोमन्तपर भैया बलरामने इसे जीवित छोड़ दिया था; अन्यथा बलदेवजीके काबूमें आ जानेपर इस जरासंधके सिवा दूसरा कौन जीवित बच सकता था?

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदस्य मृत्युर्विहितः त्वदृते न महाबल।
वायुं चिन्त्य महाबाहो जहीमं मगधाधिपम्॥)

मूलम्

तदस्य मृत्युर्विहितः त्वदृते न महाबल।
वायुं चिन्त्य महाबाहो जहीमं मगधाधिपम्॥)

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाबली भीम! तुम्हारे सिवा और किसीके द्वारा इसकी मृत्यु नहीं होनेवाली है। महाबाहो! तुम वायुदेवका चिन्तन करके इस मगधराजको मार डालो’।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तस्तदा भीमो जरासंधमरिंदमः ।
उत्क्षिप्य भ्रामयामास बलवन्तं महाबलः ॥ ५ ॥

मूलम्

एवमुक्तस्तदा भीमो जरासंधमरिंदमः ।
उत्क्षिप्य भ्रामयामास बलवन्तं महाबलः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके इस तरह संकेत करनेपर शत्रुओंका दमन करनेवाले महाबली भीमने उस समय बलवान् जरासंधको उठाकर आकाशमें वेगसे घुमाना आरम्भ किया॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(ततस्तु भगवान् कृष्णो जरासंधजिघांसया।
भीमसेनं समालोक्य नलं जग्राह पाणिना॥
द्विधा चिच्छेद वै तत् तु जरासंधवधं प्रति।)

मूलम्

(ततस्तु भगवान् कृष्णो जरासंधजिघांसया।
भीमसेनं समालोक्य नलं जग्राह पाणिना॥
द्विधा चिच्छेद वै तत् तु जरासंधवधं प्रति।)

अनुवाद (हिन्दी)

तब भगवान् श्रीकृष्णने जरासंधका वध करानेकी इच्छासे भीमसेनकी ओर देखकर एक नरकट1 हाथमें ले लिया और उसे (दातुनकी भाँति) दो टुकड़ोंमें चीर डाला (तथा उसे फेंक दिया)। यह जरासंधको मारनेके लिये एक संकेत था।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भ्रामयित्वा शतगुणं जानुभ्यां भरतर्षभ।
बभञ्ज पृष्ठं संक्षिप्य निष्पिष्य विननाद च ॥ ६ ॥

मूलम्

भ्रामयित्वा शतगुणं जानुभ्यां भरतर्षभ।
बभञ्ज पृष्ठं संक्षिप्य निष्पिष्य विननाद च ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ जनमेजय! (भीमने उनके संकेतको समझ लिया और) उन्होंने सौ बार घुमाकर उसे धरतीपर पटक दिया और उसकी पीठको धनुषकी तरह मोड़कर दोनों घुटनोंकी चोटसे उसकी रीढ़ तोड़ डाली, फिर अपने शरीरकी रगड़से पीसते हुए भीमने बड़े जोरसे सिंहनाद किया॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

करे गृहीत्वा चरणं द्वेधा चक्रे महाबलः ॥ ७ ॥

मूलम्

करे गृहीत्वा चरणं द्वेधा चक्रे महाबलः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद अपने एक हाथसे उसका एक पैर पकड़कर और दूसरे पैरपर अपना पैर रखकर महाबली भीमने उसे दो खण्डोंमें चीर डाला॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(पुनः संधाय तु तदा जरासंधः प्रतापवान्॥
भीमेन च समागम्य बाहुयुद्धं चकार ह।
तयोः समभवद् युद्धं तुमुलं रोमहर्षणम्॥
सर्वलोकक्षयकरं सर्वभूतभयावहम् ।
पुनः कृष्णस्तमिरिणं द्विधा विच्छिद्य माधवः॥
व्यत्यस्य प्राक्षिपत् तत् तु जरासंधवधेप्सया।

मूलम्

(पुनः संधाय तु तदा जरासंधः प्रतापवान्॥
भीमेन च समागम्य बाहुयुद्धं चकार ह।
तयोः समभवद् युद्धं तुमुलं रोमहर्षणम्॥
सर्वलोकक्षयकरं सर्वभूतभयावहम् ।
पुनः कृष्णस्तमिरिणं द्विधा विच्छिद्य माधवः॥
व्यत्यस्य प्राक्षिपत् तत् तु जरासंधवधेप्सया।

अनुवाद (हिन्दी)

तब वे दोनों टुकड़े फिरसे जुड़ गये और प्रतापी जरासंध भीमसे भिड़कर बाहुयुद्ध करने लगा। उन दोनों वीरोंका वह युद्ध अत्यन्त भयंकर और रोमांचकारी था। उसे देखकर ऐसा जान पड़ता था मानो सम्पूर्ण जगत्‌का संहार हो जायगा। वह द्वन्द्वयुद्ध सम्पूर्ण प्राणियोंके भयको बढ़ानेवाला था। उस समय भगवान् श्रीकृष्णने पुनः एक नरकट लेकर पहलेकी ही भाँति चीरकर उसके दो टुकड़े कर दिये और उन दोनों टुकड़ोंको अलग-अलग विपरीत दिशामें फेंक दिया। जरासंधके वधके लिये यह दूसरा संकेत था।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीमसेनस्तदा ज्ञात्वा निर्बिभेद च मागधम्॥
द्विधा व्यत्यस्य पादेन प्राक्षिपच्च ननाद ह।

मूलम्

भीमसेनस्तदा ज्ञात्वा निर्बिभेद च मागधम्॥
द्विधा व्यत्यस्य पादेन प्राक्षिपच्च ननाद ह।

अनुवाद (हिन्दी)

भीमसेनने उसे समझकर पुनः मगधराजको दो टुकड़ोंमें चीर डाला और पैरसे ही उन दोनों टुकड़ोंको विपरीत दिशाओंमें करके फेंक दिया। इसके बाद वे विकट गर्जना करने लगे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

शुष्कमांसास्थिमेदस्त्वग्‌भिन्नमस्तिष्कपिण्डकः ॥
शवभूतस्तदा राजन् पिण्डीकृत इवाबभौ।)

मूलम्

शुष्कमांसास्थिमेदस्त्वग्‌भिन्नमस्तिष्कपिण्डकः ॥
शवभूतस्तदा राजन् पिण्डीकृत इवाबभौ।)

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! उस समय जरासंधका शरीर शवरूप होकर मांसके लोंदे-सा जान पड़ने लगा। उसके शरीरके मांस, हड्डियाँ, मेदा और चमड़ा सभी सूख गये थे। मस्तिष्क और शरीर दो भागोंमें विदीर्ण हो गये थे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य निष्पिष्यमाणस्य पाण्डवस्य च गर्जतः।
अभवत् तुमुलो नादः सर्वप्राणिभयंकरः ॥ ८ ॥
वित्रेसुर्मागधाः सर्वे स्त्रीणां गर्भाश्च सुस्रुवुः।
भीमसेनस्य नादेन जरासंधस्य चैव ह ॥ ९ ॥

मूलम्

तस्य निष्पिष्यमाणस्य पाण्डवस्य च गर्जतः।
अभवत् तुमुलो नादः सर्वप्राणिभयंकरः ॥ ८ ॥
वित्रेसुर्मागधाः सर्वे स्त्रीणां गर्भाश्च सुस्रुवुः।
भीमसेनस्य नादेन जरासंधस्य चैव ह ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब जरासंध रगड़ा जा रहा था और पाण्डुकुमार गर्ज-गर्जकर उसे पीसे डालते थे, उस समय भीमसेनकी गर्जना और जरासंधकी चीत्कारसे जो तुमुल नाद प्रकट हुआ, वह समस्त प्राणियोंको भयभीत करनेवाला था। उसे सुनकर सभी मगधनिवासी भयसे थर्रा उठे। स्त्रियोंके तो गर्भतक गिर गये॥८-९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं नु स्याद्धिमवान् भिन्नः किं नु स्विद्‌ दीर्यते मही।
इति वै मागधा जज्ञुर्भीमसेनस्य निःस्वनात् ॥ १० ॥

मूलम्

किं नु स्याद्धिमवान् भिन्नः किं नु स्विद्‌ दीर्यते मही।
इति वै मागधा जज्ञुर्भीमसेनस्य निःस्वनात् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीमसेनकी गर्जना सुनकर मगधके लोग भयभीत होकर सोचने लगे कि ‘कहीं हिमालय पहाड़ तो नहीं फट पड़ा? कहीं पृथ्वी तो विदीर्ण नहीं हो रही है?॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो राज्ञः कुलद्वारि प्रसुप्तमिव तं नृपम्।
रात्रौ गतासुमुत्सृज्य निश्चक्रमुररिंदमाः ॥ ११ ॥

मूलम्

ततो राज्ञः कुलद्वारि प्रसुप्तमिव तं नृपम्।
रात्रौ गतासुमुत्सृज्य निश्चक्रमुररिंदमाः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर शत्रुओंका दमन करनेवाले वे तीनों वीर रातमें राजा जरासंधके प्राणहीन शरीरको सोते हुएके समान राजभवनके द्वारपर छोड़कर वहाँसे चल दिये॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जरासंधरथं कृष्णो योजयित्वा पताकिनम्।
आरोप्य भ्रातरौ चैव मोक्षयामास बान्धवान् ॥ १२ ॥

मूलम्

जरासंधरथं कृष्णो योजयित्वा पताकिनम्।
आरोप्य भ्रातरौ चैव मोक्षयामास बान्धवान् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीकृष्णने जरासंधके ध्वजा-पताकामण्डित दिव्य रथको जोत लिया और उसपर दोनों भाई भीमसेन और अर्जुनको बिठाकर पहाड़ी खोहके पास जा वहाँ कैदमें पड़े हुए अपने बान्धवस्वरूप समस्त राजाओंको छुड़ाया॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते वै रत्नभुजं कृष्णं रत्नार्हाः पृथिवीश्वराः।
राजानश्चक्रुरासाद्य मोक्षिता महतो भयात् ॥ १३ ॥

मूलम्

ते वै रत्नभुजं कृष्णं रत्नार्हाः पृथिवीश्वराः।
राजानश्चक्रुरासाद्य मोक्षिता महतो भयात् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस महान् भयसे छूटे हुए रत्नभोगी नरेशोंने भगवान् श्रीकृष्णसे मिलकर उन्हें विविध रत्नोंसे युक्त कर दिया॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अक्षतः शस्त्रसम्पन्नो जितारिः सह राजभिः।
रथमास्थाय तं दिव्यं निर्जगाम गिरिव्रजात् ॥ १४ ॥

मूलम्

अक्षतः शस्त्रसम्पन्नो जितारिः सह राजभिः।
रथमास्थाय तं दिव्यं निर्जगाम गिरिव्रजात् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्ण क्षतरहित और अस्त्र-शस्त्रोंसे सम्पन्न थे। वे शत्रुपर विजय पा चुके थे, उस अवस्थामें वे उस दिव्य रथपर आरूढ़ हो कैदसे छूटे हुए राजाओंके साथ गिरिव्रज नगरसे बाहर निकले॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यः स सोदर्यवान् नाम द्वियोधी कृष्णसारथिः।
अभ्यासघाती संदृश्यो दुर्जयः सर्वराजभिः ॥ १५ ॥

मूलम्

यः स सोदर्यवान् नाम द्वियोधी कृष्णसारथिः।
अभ्यासघाती संदृश्यो दुर्जयः सर्वराजभिः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस रथका नाम था सोदर्यवान्, उसमें दो महारथी योद्धा एक साथ बैठकर युद्ध कर सकते थे, इस समय भगवान् श्रीकृष्ण उसके सारथि थे। उस रथमें बार-बार शत्रुओंपर आघात करनेकी सुविधा थी तथा वह दर्शनीय होनेके साथ ही समस्त राजाओंके लिये दुर्जय था॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीमार्जुनाभ्यां योधाभ्यामास्थितः कृष्णसारथिः ।
शुशुभे रथवर्योऽसौ दुर्जयः सर्वधन्विभिः ॥ १६ ॥
शक्रविष्णू हि संग्रामे चेरतुस्तारकामये।

मूलम्

भीमार्जुनाभ्यां योधाभ्यामास्थितः कृष्णसारथिः ।
शुशुभे रथवर्योऽसौ दुर्जयः सर्वधन्विभिः ॥ १६ ॥
शक्रविष्णू हि संग्रामे चेरतुस्तारकामये।

अनुवाद (हिन्दी)

भीम और अर्जुन—से दो योद्धा उस रथपर बैठे थे, श्रीकृष्ण सारथिका काम सँभाल रहे थे, सम्पूर्ण धनुर्धर वीरोंके लिये भी उसे जीतना कठिन था। इन दोनों रथियोंके द्वारा उस श्रेष्ठ रथकी ऐसी शोभा हो रही थी मानो इन्द्र और विष्णु एक साथ बैठकर तारकामय संग्राममें विचर रहे हों॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रथेन तेन वै कृष्ण उपारुह्य ययौ तदा ॥ १७ ॥
तप्तचामीकराभेण किङ्किणीजालमालिना ।
मेघनिर्घोषनादेन जैत्रेणामित्रघातिना ॥ १८ ॥

मूलम्

रथेन तेन वै कृष्ण उपारुह्य ययौ तदा ॥ १७ ॥
तप्तचामीकराभेण किङ्किणीजालमालिना ।
मेघनिर्घोषनादेन जैत्रेणामित्रघातिना ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह रथ तपाये हुए सुवर्णके समान कान्तिमान् था। उसमें क्षुद्र घण्टिकाओंसे युक्त झालरें लगी थीं। उसकी घर्घराहट मेघकी गम्भीर गर्जनाके समान जान पड़ती थी। वह शत्रुओंका विघातक और विजय प्रदान करनेवाला था। उसी रथपर सवार हो उसके द्वारा श्रीकृष्णने उस समय यात्रा की॥१७-१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

येन शक्रो दानवानां जघान नवतीर्नव।
तं प्राप्य समहृष्यन्त रथं ते पुरुषर्षभाः ॥ १९ ॥

मूलम्

येन शक्रो दानवानां जघान नवतीर्नव।
तं प्राप्य समहृष्यन्त रथं ते पुरुषर्षभाः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह वही रथ था, जिसके द्वारा इन्द्रने निन्यानबे दानवोंका वध किया था। उस रथको पाकर वे तीनों नरश्रेष्ठ बहुत प्रसन्न हुए॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः कृष्णं महाबाहुं भ्रातृभ्यां सहितं तदा।
रथस्थं मागधा दृष्ट्वा समपद्यन्त विस्मिताः ॥ २० ॥

मूलम्

ततः कृष्णं महाबाहुं भ्रातृभ्यां सहितं तदा।
रथस्थं मागधा दृष्ट्वा समपद्यन्त विस्मिताः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर दोनों फुफेरे भाइयोंके साथ रथपर बैठे हुए महाबाहु श्रीकृष्णको देखकर मगधके निवासी बड़े विस्मित हुए॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हयैर्दिव्यैः समायुक्तो रथो वायुसमो जवे।
अधिष्ठितः स शुशुभे कृष्णेनातीव भारत ॥ २१ ॥

मूलम्

हयैर्दिव्यैः समायुक्तो रथो वायुसमो जवे।
अधिष्ठितः स शुशुभे कृष्णेनातीव भारत ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह रथ वायुके समान वेगशाली था, उसमें दिव्य घोड़े जुते हुए थे। भारत! श्रीकृष्णके बैठ जानेसे उस दिव्य रथकी बड़ी शोभा हो रही थी॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असङ्गो देवविहितस्तस्मिन् रथवरे ध्वजः।
योजनाद् ददृशे श्रीमानिन्द्रायुधसमप्रभः ॥ २२ ॥

मूलम्

असङ्गो देवविहितस्तस्मिन् रथवरे ध्वजः।
योजनाद् ददृशे श्रीमानिन्द्रायुधसमप्रभः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस उत्तम रथपर देवनिर्मित ध्वज फहराता रहता था, जो रथसे अछूता था (रथके साथ उसका लगाव नहीं था, वह बिना आधारके ही उसके ऊपर लहराया करता था)। इन्द्रधनुषके समान प्रकाशमान बहुरंगी एवं शोभाशाली वह ध्वज एक योजन दूरसे ही दीखने लगता था॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चिन्तयामास कृष्णोऽथ गरुत्मन्तं स चाभ्ययात्।
क्षणे तस्मिन् स तेनासीच्चैत्यवृक्ष इवोत्थितः ॥ २३ ॥
व्यादितास्यैर्महानादैः सह भूतैर्ध्वजालयैः ।
तस्मिन् रथवरे तस्थौ गरुत्मान् पन्नगाशनः ॥ २४ ॥

मूलम्

चिन्तयामास कृष्णोऽथ गरुत्मन्तं स चाभ्ययात्।
क्षणे तस्मिन् स तेनासीच्चैत्यवृक्ष इवोत्थितः ॥ २३ ॥
व्यादितास्यैर्महानादैः सह भूतैर्ध्वजालयैः ।
तस्मिन् रथवरे तस्थौ गरुत्मान् पन्नगाशनः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय भगवान् श्रीकृष्णने गरुडजीका स्मरण किया। गरुडजी उसी क्षण वहाँ आ गये। उस रथकी ध्वजामें बहुत-से भूत मुँह बाये हुए विकट गर्जना करते रहते थे। उन्हींके साथ सर्पभोजी गरुडजी भी उस श्रेष्ठ रथपर स्थित हो गये। उनके द्वारा वह ध्वज ऊँचे उठे हुए चैत्य वृक्षके समान सुशोभित हो गया॥२३-२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुर्निरीक्ष्यो हि भूतानां तेजसाभ्यधिकं बभौ।
आदित्य इव मध्याह्ने सहस्रकिरणावृतः ॥ २५ ॥
न स सज्जति वृक्षेषु शस्त्रैश्चापि न रिष्यते।
दिव्यो ध्वजवरो राजन् दृश्यते चेह मानुषैः ॥ २६ ॥

मूलम्

दुर्निरीक्ष्यो हि भूतानां तेजसाभ्यधिकं बभौ।
आदित्य इव मध्याह्ने सहस्रकिरणावृतः ॥ २५ ॥
न स सज्जति वृक्षेषु शस्त्रैश्चापि न रिष्यते।
दिव्यो ध्वजवरो राजन् दृश्यते चेह मानुषैः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब वह उत्तम ध्वज सहस्रों किरणोंसे आवृत मध्याह्नकालके सूर्यकी भाँति अपने तेजसे अधिक प्रकाशित होने लगा। प्राणियोंके लिये उसकी ओर देखना कठिन हो गया। वह वृक्षोंमें कहीं अटकता नहीं था, अस्त्र-शस्त्रोंद्वारा कटता नहीं था। राजन्! वह दिव्य और श्रेष्ठ ध्वज इस लोकके मनुष्योंको दृष्टिगोचर मात्र होता था॥२५-२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमास्थाय रथं दिव्यं पर्जन्यसमनिःस्वनम्।
निर्ययौ पुरुषव्याघ्रः पाण्डवाभ्यां सहाच्युतः ॥ २७ ॥

मूलम्

तमास्थाय रथं दिव्यं पर्जन्यसमनिःस्वनम्।
निर्ययौ पुरुषव्याघ्रः पाण्डवाभ्यां सहाच्युतः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेघके समान गम्भीर घर्घर ध्वनिसे परिपूर्ण उसी दिव्य रथपर भीमसेन और अर्जुनके साथ बैठे हुए पुरुषसिंह भगवान् श्रीकृष्ण नगरसे बाहर निकले॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यं लेभे वासवाद् राजा वसुस्तस्माद् बृहद्रथः।
बृहद्रथात् क्रमेणैव प्राप्तो बार्हद्रथं नृप ॥ २८ ॥

मूलम्

यं लेभे वासवाद् राजा वसुस्तस्माद् बृहद्रथः।
बृहद्रथात् क्रमेणैव प्राप्तो बार्हद्रथं नृप ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! इन्द्रसे उस रथको राजा वसुने प्राप्त किया था। फिर क्रमशः वसुसे बृहद्रथको और बृहद्रथसे जरासंधको वह रथ मिला था॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स निर्याय महाबाहुः पुण्डरीकेक्षणस्ततः।
गिरिव्रजाद् बहिस्तस्थौ समदेशे महायशाः ॥ २९ ॥

मूलम्

स निर्याय महाबाहुः पुण्डरीकेक्षणस्ततः।
गिरिव्रजाद् बहिस्तस्थौ समदेशे महायशाः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महायशस्वी कमलनयन महाबाहु श्रीकृष्ण गिरिव्रजसे बाहर आ समतल भूमिपर खड़े हुए॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्रैनं नागराः सर्वे सत्कारेणाभ्ययुस्तदा।
ब्राह्मणप्रमुखा राजन् विधिदृष्टेन कर्मणा ॥ ३० ॥

मूलम्

तत्रैनं नागराः सर्वे सत्कारेणाभ्ययुस्तदा।
ब्राह्मणप्रमुखा राजन् विधिदृष्टेन कर्मणा ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनमेजय! वहाँ ब्राह्मण आदि सभी नागरिकोंने शास्त्रीय विधिसे उनका सत्कार एवं पूजन किया॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बन्धनाद् विप्रमुक्ताश्च राजानो मधुसूदनम्।
पूजयामासुरूचुश्च स्तुतिपूर्वमिदं वचः ॥ ३१ ॥

मूलम्

बन्धनाद् विप्रमुक्ताश्च राजानो मधुसूदनम्।
पूजयामासुरूचुश्च स्तुतिपूर्वमिदं वचः ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कैदसे छूटे हुए राजाओंने भी मधुसूदनकी पूजा की और उनकी स्तुति करते हुए इस प्रकार कहा—॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैतच्चित्रं महाबाहो त्वयि देवकिनन्दने।
भीमार्जुनबलोपेते धर्मस्य प्रतिपालनम् ॥ ३२ ॥

मूलम्

नैतच्चित्रं महाबाहो त्वयि देवकिनन्दने।
भीमार्जुनबलोपेते धर्मस्य प्रतिपालनम् ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाबाहो! आप देवकी देवीको आनन्दित करनेवाले साक्षात् भगवान् हैं, भीमसेन और अर्जुनका बल भी आपके साथ है। आपके द्वारा जो धर्मकी रक्षा हो रही है, वह आप-सरीखे धर्मावतारके लिये आश्चर्यकी बात नहीं है॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जरासंधह्रदे घोरे दुःखपङ्के निमज्जताम्।
राज्ञां समभ्युद्धरणं यदिदं कृतमद्य वै ॥ ३३ ॥

मूलम्

जरासंधह्रदे घोरे दुःखपङ्के निमज्जताम्।
राज्ञां समभ्युद्धरणं यदिदं कृतमद्य वै ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘प्रभो! हम सब राजा दुःखरूपी पंकसे युक्त जरासंध-रूपी भयानक कुण्डमें डूब रहे थे, आपने जो आज हमारा यह उद्धार किया है, वह आपके योग्य ही है॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विष्णो समवसन्नानां गिरिदुर्गे सुदारुणे।
दिष्ट्या मोक्षाद् यशो दीप्तमाप्तं ते यदुनन्दन ॥ ३४ ॥

मूलम्

विष्णो समवसन्नानां गिरिदुर्गे सुदारुणे।
दिष्ट्या मोक्षाद् यशो दीप्तमाप्तं ते यदुनन्दन ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘विष्णो! अत्यन्त भयंकर पहाड़ी किलेमें कैद हो हम बड़े दुःखसे दिन काट रहे थे। यदुनन्दन! आपने हमें इस संकटसे मुक्त करके अत्यन्त उज्ज्वल यश प्राप्त किया है; यह बड़े सौभाग्यकी बात है॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं कुर्मः पुरुषव्याघ्र शाधि नः प्रणतिस्थितान्।
कृतमित्येव तद् विद्धि नृपैर्यद्यपि दुष्करम् ॥ ३५ ॥

मूलम्

किं कुर्मः पुरुषव्याघ्र शाधि नः प्रणतिस्थितान्।
कृतमित्येव तद् विद्धि नृपैर्यद्यपि दुष्करम् ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पुरुषसिंह! हम आपके चरणोंमें पड़े हैं। आप हमें आज्ञा दीजिये, हम क्या सेवा करें? कोई दुष्कर कार्य हो तो भी आपको यह समझना चाहिये मानो हम सब राजाओंने मिलकर उसे पूर्ण कर ही दिया’॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तानुवाच हृषीकेशः समाश्वास्य महामनाः।
युधिष्ठिरो राजसूयं क्रतुमाहर्तुमिच्छति ॥ ३६ ॥

मूलम्

तानुवाच हृषीकेशः समाश्वास्य महामनाः।
युधिष्ठिरो राजसूयं क्रतुमाहर्तुमिच्छति ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब महामना भगवान् हृषीकेशने उन सबको आश्वासन देकर कहा—‘राजाओ! धर्मराज युधिष्ठिर राजसूययज्ञ करना चाहते हैं॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य धर्मप्रवृत्तस्य पार्थिवत्वं चिकीर्षतः।
सर्वैर्भवद्भिर्विज्ञाय साहाय्यं क्रियतामिति ॥ ३७ ॥

मूलम्

तस्य धर्मप्रवृत्तस्य पार्थिवत्वं चिकीर्षतः।
सर्वैर्भवद्भिर्विज्ञाय साहाय्यं क्रियतामिति ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘धर्ममें तत्पर रहते हुए ही उन्हें सम्राट् पद प्राप्त करनेकी इच्छा हुई है। इस कार्यमें तुम सब लोग उनकी सहायता करो’॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः सुप्रीतमनसस्ते नृपा नृपसत्तम।
तथेत्येवाब्रुवन् सर्वे प्रतिगृह्यास्य तां गिरम् ॥ ३८ ॥

मूलम्

ततः सुप्रीतमनसस्ते नृपा नृपसत्तम।
तथेत्येवाब्रुवन् सर्वे प्रतिगृह्यास्य तां गिरम् ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नृपश्रेष्ठ जनमेजय! तब उन सभी राजाओंने प्रसन्नचित्त हो ‘तथास्तु’ कहकर भगवान्‌की वह आज्ञा शिरोधार्य कर ली॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रत्नभाजं च दाशार्हं चक्रुस्ते पृथिवीश्वराः।
कृच्छ्राज्जग्राह गोविन्दस्तेषां तदनुकम्पया ॥ ३९ ॥

मूलम्

रत्नभाजं च दाशार्हं चक्रुस्ते पृथिवीश्वराः।
कृच्छ्राज्जग्राह गोविन्दस्तेषां तदनुकम्पया ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इतना ही नहीं, उन भूपालोंने दशार्हकुलभूषण भगवान्‌को रत्न भेंट किये। भगवान् गोविन्दने बड़ी कठिनाईसे उन सबपर कृपा करनेके लिये ही वह भेंट स्वीकार की॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जरासंधात्मजश्चैव सहदेवो महामनाः ।
निर्ययौ सजनामात्यः पुरस्कृत्य पुरोहितम् ॥ ४० ॥

मूलम्

जरासंधात्मजश्चैव सहदेवो महामनाः ।
निर्ययौ सजनामात्यः पुरस्कृत्य पुरोहितम् ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर जरासंधका पुत्र महामना सहदेव पुरोहितको आगे करके सेवकों और मन्त्रियोंके साथ नगरसे बाहर निकला॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स नीचैः प्रणतो भूत्वा बहुरत्नपुरोगमः।
सहदेवो नृणां देवं वासुदेवमुपस्थितः ॥ ४१ ॥

मूलम्

स नीचैः प्रणतो भूत्वा बहुरत्नपुरोगमः।
सहदेवो नृणां देवं वासुदेवमुपस्थितः ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसके आगे रत्नोंका बहुत बड़ा भण्डार आ रहा था। सहदेव अत्यन्त विनीतभावसे चरणोंमें पड़कर नरदेव भगवान् वासुदेवकी शरणमें आया था॥४१॥

मूलम् (वचनम्)

(सहदेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत् कृतं पुरुषव्याघ्र मम पित्रा जनार्दन।
तत् ते हृदि महाबाहो न कार्यं पुरुषोत्तम॥

मूलम्

यत् कृतं पुरुषव्याघ्र मम पित्रा जनार्दन।
तत् ते हृदि महाबाहो न कार्यं पुरुषोत्तम॥

अनुवाद (हिन्दी)

सहदेव बोला— पुरुषसिंह जनार्दन! महाबाहु पुरुषोतम! मेरे पिताने जो अपराध किया है, उसे आप अपने हृदयसे निकाल दें।

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वां प्रपन्नोऽस्मि गोविन्द प्रसादं कुरु मे प्रभो।
पितुरिच्छामि संस्कारं कर्तुं देवकिनन्दन॥

मूलम्

त्वां प्रपन्नोऽस्मि गोविन्द प्रसादं कुरु मे प्रभो।
पितुरिच्छामि संस्कारं कर्तुं देवकिनन्दन॥

अनुवाद (हिन्दी)

गोविन्द! मैं आपकी शरणमें आया हूँ। प्रभो! आप मुझपर कृपा कीजिये। देवकीनन्दन! मैं अपने पिताका दाह-संस्कार करना चाहता हूँ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वत्तोऽभ्यनुज्ञां सम्प्राप्य भीमसेनात् तथार्जुनात्।
निर्भयो विचरिष्यामि यथाकामं यथासुखम्॥

मूलम्

त्वत्तोऽभ्यनुज्ञां सम्प्राप्य भीमसेनात् तथार्जुनात्।
निर्भयो विचरिष्यामि यथाकामं यथासुखम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपसे, भीमसेनसे तथा अर्जुनसे आज्ञा लेकर यह कार्य करूँगा और आपकी कृपासे निर्भय हो इच्छानुसार सुखपूर्वक विचरूँगा।

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं विज्ञाप्यमानस्य सहदेवस्य मारिष।
प्रहृष्टो देवकीपुत्रः पाण्डवौ च महारथौ॥

मूलम्

एवं विज्ञाप्यमानस्य सहदेवस्य मारिष।
प्रहृष्टो देवकीपुत्रः पाण्डवौ च महारथौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! सहदेवके इस प्रकार निवेदन करनेपर देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण तथा महारथी भीमसेन और अर्जुन बड़े प्रसन्न हुए।

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्रियतां संस्क्रिया राजन् पितुस्त इति चाब्रुवन्।
तच्छ्रुत्वा वासुदेवस्य पार्थयोश्च स मागधः॥
प्रविश्य नगरं तूर्णं सह मन्त्रिभिरप्युत।
चितां चन्दनकाष्ठैश्च कालेयसरलैस्तथा ॥
कालागुरुसुगन्धैश्च तैलैश्च विविधैरपि ।
घृतधाराक्षतैश्चैव सुमनोभिश्च मागधम् ॥
समन्तादवकीर्यन्त दह्यन्तं मगधाधिपम् ।

मूलम्

क्रियतां संस्क्रिया राजन् पितुस्त इति चाब्रुवन्।
तच्छ्रुत्वा वासुदेवस्य पार्थयोश्च स मागधः॥
प्रविश्य नगरं तूर्णं सह मन्त्रिभिरप्युत।
चितां चन्दनकाष्ठैश्च कालेयसरलैस्तथा ॥
कालागुरुसुगन्धैश्च तैलैश्च विविधैरपि ।
घृतधाराक्षतैश्चैव सुमनोभिश्च मागधम् ॥
समन्तादवकीर्यन्त दह्यन्तं मगधाधिपम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

उन सबने एक स्वरसे कहा—‘राजन्! तुम अपने पिताका अन्त्येष्टि-संस्कार करो।’ भगवान् श्रीकृष्ण तथा दोनों कुन्तीकुमारोंका यह आदेश सुनकर मगधराजकुमारने मन्त्रियोंके साथ शीघ्र ही नगरमें प्रवेश किया। फिर चन्दनकी लकड़ी तथा केसर, देवदारु और काला अगुरु आदि सुगन्धित काष्ठोंसे चिता बनाकर उसपर मगधराजका शव रखा गया। तत्पश्चात् जलती चितामें दग्ध होते हुए मगधराजके शरीरपर नाना प्रकारके चन्दनादि सुगन्धित तैल और घीकी धाराएँ गिरायी गयीं। सब ओरसे अक्षत और फूलोंकी वर्षा की गयी।

विश्वास-प्रस्तुतिः

उदकं तस्य चक्रेऽथ सहदेवः सहानुजः॥
कृत्वा पितुः स्वर्गगतिं निर्ययौ यत्र केशवः।
पाण्डवौ च महाभागौ भीमसेनार्जुनावुभौ॥
स प्रह्वः प्राञ्जलिर्भूत्वा विज्ञापयत माधवम्।

मूलम्

उदकं तस्य चक्रेऽथ सहदेवः सहानुजः॥
कृत्वा पितुः स्वर्गगतिं निर्ययौ यत्र केशवः।
पाण्डवौ च महाभागौ भीमसेनार्जुनावुभौ॥
स प्रह्वः प्राञ्जलिर्भूत्वा विज्ञापयत माधवम्।

अनुवाद (हिन्दी)

शवदाहके पश्चात् सहदेवने अपने छोटे भाईके साथ पिताके लिये जलांजलि दी। इस प्रकार पिताका पारलौकिक कार्य करके राजकुमार सहदेव नगरसे निकलकर उस स्थानमें गया, जहाँ भगवान् श्रीकृष्ण तथा महाभाग पाण्डुपुत्र भीमसेन और अर्जुन विद्यमान थे। उसने नम्रतापूर्वक हाथ जोड़कर भगवान् श्रीकृष्णसे कहा।

मूलम् (वचनम्)

सहदेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इमे रत्नानि भूरीणि गोऽजाविमहिषादयः।
हस्तिनोऽश्वाश्च गोविन्द वासांसि विविधानि च॥
दीयतां धर्मराजाय यथा वा मन्यते भवान्।)

मूलम्

इमे रत्नानि भूरीणि गोऽजाविमहिषादयः।
हस्तिनोऽश्वाश्च गोविन्द वासांसि विविधानि च॥
दीयतां धर्मराजाय यथा वा मन्यते भवान्।)

अनुवाद (हिन्दी)

सहदेवने कहा— प्रभो! ये गाय, भैंस, भेड़-बकरे आदि पशु, बहुत-से रत्न, हाथी-घोड़े और नाना प्रकारके वस्त्र आपकी सेवामें प्रस्तुत हैं। गोविन्द! ये सब वस्तुएँ धर्मराज युधिष्ठिरको दीजिये अथवा आपकी जैसी रुचि हो, उसके अनुसार मुझे सेवाके लिये आदेश दीजिये।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भयार्ताय ततस्तस्मै कृष्णो दत्त्वाभयं तदा।
आददेऽस्य महार्हाणि रत्नानि पुरुषोत्तमः ॥ ४२ ॥

मूलम्

भयार्ताय ततस्तस्मै कृष्णो दत्त्वाभयं तदा।
आददेऽस्य महार्हाणि रत्नानि पुरुषोत्तमः ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह भयसे पीड़ित हो रहा था; पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्णने उसे अभयदान देकर उसके लाये हुए बहुमूल्य रत्नोंकी भेंट स्वीकार कर ली॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभ्यषिञ्चत तत्रैव जरासंधात्मजं मुदा।
गत्वैकत्वं च कृष्णेन पार्थाभ्यां चैव सत्कृतः ॥ ४३ ॥

मूलम्

अभ्यषिञ्चत तत्रैव जरासंधात्मजं मुदा।
गत्वैकत्वं च कृष्णेन पार्थाभ्यां चैव सत्कृतः ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् जरासंधकुमारको प्रसन्नतापूर्वक वहीं पिताके राज्यपर अभिषिक्त कर दिया। श्रीकृष्णने सहदेवको अपना अभिन्न सुहृद् बना लिया, इसलिये भीमसेन और अर्जुनने भी उसका बड़ा सत्कार किया॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विवेश राजा द्युतिमान् बार्हद्रथपुरं नृप।
अभिषिक्तो महाबाहुर्जारासंधिर्महात्मभिः ॥ ४४ ॥

मूलम्

विवेश राजा द्युतिमान् बार्हद्रथपुरं नृप।
अभिषिक्तो महाबाहुर्जारासंधिर्महात्मभिः ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! उन महात्माओंद्वारा अभिषिक्त हो महाबाहु जरासंधपुत्र तेजस्वी राजा सहदेव अपने पिताके नगरमें लौट गया॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृष्णस्तु सह पार्थाभ्यां श्रिया परमया युतः।
रत्नान्यादाय भूरीणि प्रययौ पुरुषर्षभः ॥ ४५ ॥

मूलम्

कृष्णस्तु सह पार्थाभ्यां श्रिया परमया युतः।
रत्नान्यादाय भूरीणि प्रययौ पुरुषर्षभः ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

और पुरुषोत्तम श्रीकृष्णने सर्वोत्तम शोभासे सम्पन्न हो प्रचुर रत्नोंकी भेंट ले दोनों कुन्तीकुमारोंके साथ वहाँसे प्रस्थान किया॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इन्द्रप्रस्थमुपागम्य पाण्डवाभ्यां सहाच्युतः ।
समेत्य धर्मराजानं प्रीयमाणोऽभ्यभाषत ॥ ४६ ॥

मूलम्

इन्द्रप्रस्थमुपागम्य पाण्डवाभ्यां सहाच्युतः ।
समेत्य धर्मराजानं प्रीयमाणोऽभ्यभाषत ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीमसेन और अर्जुनके साथ इन्द्रप्रस्थमें आकर भगवान् श्रीकृष्ण धर्मराज युधिष्ठिरसे मिले और अत्यन्त प्रसन्न होकर बोले—॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिष्ट्या भीमेन बलवाञ्जरासंधो निपातितः।
राजानो मोक्षिताश्चैव बन्धनान्नृपसत्तम ॥ ४७ ॥

मूलम्

दिष्ट्या भीमेन बलवाञ्जरासंधो निपातितः।
राजानो मोक्षिताश्चैव बन्धनान्नृपसत्तम ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नृपश्रेष्ठ! सौभाग्यकी बात है कि महाबली भीमसेनने जरासंधको मार गिराया और समस्त राजाओंको उसकी कैदसे छुड़ा दिया॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिष्ट्या कुशलिनौ चेमौ भीमसेनधनंजयौ।
पुनः स्वनगरं प्राप्तावक्षताविति भारत ॥ ४८ ॥

मूलम्

दिष्ट्या कुशलिनौ चेमौ भीमसेनधनंजयौ।
पुनः स्वनगरं प्राप्तावक्षताविति भारत ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भारत! भाग्यसे ही ये दोनों भाई भीमसेन और अर्जुन अपने नगरमें पुनः सकुशल लौट आये और इन्हें कोई क्षति नहीं पहुँची’॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो युधिष्ठिरः कृष्णं पूजयित्वा यथार्हतः।
भीमसेनार्जुनौ चैव प्रहृष्टः परिषस्वजे ॥ ४९ ॥

मूलम्

ततो युधिष्ठिरः कृष्णं पूजयित्वा यथार्हतः।
भीमसेनार्जुनौ चैव प्रहृष्टः परिषस्वजे ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब युधिष्ठिरने श्रीकृष्णका यथायोग्य सत्कार करके भीमसेन और अर्जुनको भी प्रसन्नतापूर्वक गले लगाया॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः क्षीणे जरासंधे भ्रातृभ्यां विहितं जयम्।
अजातशत्रुरासाद्य मुमुदे भ्रातृभिः सह ॥ ५० ॥

मूलम्

ततः क्षीणे जरासंधे भ्रातृभ्यां विहितं जयम्।
अजातशत्रुरासाद्य मुमुदे भ्रातृभिः सह ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर जरासंधके नष्ट होनेपर अपने दोनों भाइयोंद्वारा की हुई विजयको पाकर अजातशत्रु राजा युधिष्ठिर भाइयोंसहित आनन्दमग्न हो गये॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(हृष्टश्च धर्मराड् वाक्यं जनार्दनमभाषत।

मूलम्

(हृष्टश्च धर्मराड् वाक्यं जनार्दनमभाषत।

अनुवाद (हिन्दी)

फिर धर्मराजने हर्षमें भरकर भगवान् श्रीकृष्णसे कहा।

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वां प्राप्य पुरुषव्याघ्र भीमसेनेन पातितः।
मागधोऽसौ बलोन्मत्तो जरासंधः प्रतापवान्॥

मूलम्

त्वां प्राप्य पुरुषव्याघ्र भीमसेनेन पातितः।
मागधोऽसौ बलोन्मत्तो जरासंधः प्रतापवान्॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— पुरुषसिंह जनार्दन! आपका सहारा पाकर ही भीमसेनने बलके अभिमानसे उन्मत्त रहनेवाले प्रतापी मगधराज जरासंधको मार गिराया है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजसूयं क्रतुश्रेष्ठं प्राप्स्यामि विगतज्वरः।
त्वद्‌बुद्धिबलमाश्रित्य यागार्होऽस्मि जनार्दन ॥

मूलम्

राजसूयं क्रतुश्रेष्ठं प्राप्स्यामि विगतज्वरः।
त्वद्‌बुद्धिबलमाश्रित्य यागार्होऽस्मि जनार्दन ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब मैं निश्चिन्त होकर यज्ञोंमें श्रेष्ठ राजसूयका शुभ अवसर प्राप्त करूँगा। प्रभो! आपके बुद्धि-बलका सहारा पाकर मैं यज्ञ करनेयोग्य हो गया।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पीतं पृथिव्यां युद्धेन यशस्ते पुरुषोत्तम।
जरासंधवधेनैव प्राप्तास्ते विपुलाः श्रियः॥

मूलम्

पीतं पृथिव्यां युद्धेन यशस्ते पुरुषोत्तम।
जरासंधवधेनैव प्राप्तास्ते विपुलाः श्रियः॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुषोत्तम! इस युद्धसे भूमण्डलमें आपके यशका विस्तार हुआ। जरासंधके वधसे ही आपको प्रचुर सम्पत्ति प्राप्त हुई है।

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं सम्भाष्य कौन्तेयः प्रादाद् रथवरं प्रभोः।
प्रतिगृह्य तु गोविन्दो जरासंधस्य तं रथम्॥
प्रहृष्टस्तस्य मुमुदे फाल्गुनेन जनार्दनः।
प्रीतिमानभवद् राजन् धर्मराजपुरस्कृतः ॥)

मूलम्

एवं सम्भाष्य कौन्तेयः प्रादाद् रथवरं प्रभोः।
प्रतिगृह्य तु गोविन्दो जरासंधस्य तं रथम्॥
प्रहृष्टस्तस्य मुमुदे फाल्गुनेन जनार्दनः।
प्रीतिमानभवद् राजन् धर्मराजपुरस्कृतः ॥)

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! ऐसा कहकर कुन्तीनन्दन युधिष्ठिरने भगवान्‌को श्रेष्ठ रथ प्रदान किया। जरासंधके उस रथको पाकर गोविन्द बड़े प्रसन्न हुए और अर्जुनके साथ उसमें बैठकर बड़े हर्षका अनुभव करने लगे। धर्मराज युधिष्ठिरके उस भेंटको अंगीकार करके उन्हें बड़ा संतोष हुआ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथावयः समागम्य भ्रातृभिः सह पाण्डवः।
सत्कृत्य पूजयित्वा च विससर्ज नराधिपान् ॥ ५१ ॥

मूलम्

यथावयः समागम्य भ्रातृभिः सह पाण्डवः।
सत्कृत्य पूजयित्वा च विससर्ज नराधिपान् ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर भाइयोंके साथ जाकर समस्त राजाओंसे उनकी अवस्थाके अनुसार क्रमशः मिले; फिर उन सबका यथायोग्य सत्कार एवं पूजन करके उन्होंने सभी नरपतियोंको विदा कर दिया॥५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युधिष्ठिराभ्यनुज्ञातास्ते नृपा हृष्टमानसाः ।
जग्मुः स्वदेशांस्त्वरिता यानैरुच्चावचैस्ततः ॥ ५२ ॥

मूलम्

युधिष्ठिराभ्यनुज्ञातास्ते नृपा हृष्टमानसाः ।
जग्मुः स्वदेशांस्त्वरिता यानैरुच्चावचैस्ततः ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा युधिष्ठिरकी आज्ञा ले वे सब नरेश मन-ही-मन अत्यन्त प्रसन्न हो अनेक प्रकारकी सवारियोंद्वारा शीघ्रतापूर्वक अपने-अपने देशको चले गये॥५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं पुरुषशार्दूलो महाबुद्धिर्जनार्दनः ।
पाण्डवैर्घातयामास जरासंधमरिं तदा ॥ ५३ ॥

मूलम्

एवं पुरुषशार्दूलो महाबुद्धिर्जनार्दनः ।
पाण्डवैर्घातयामास जरासंधमरिं तदा ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनमेजय! इस प्रकार महाबुद्धिमान् पुरुषसिंह जनार्दनने उस समय पाण्डवोंद्वारा अपने शत्रु जरासंधका वध करवाया॥५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

घातयित्वा जरासंधं बुद्धिपूर्वमरिंदमः ।
धर्मराजमनुज्ञाप्य पृथां कृष्णां च भारत ॥ ५४ ॥
सुभद्रां भीमसेनं च फाल्गुनं यमजौ तथा।
धौम्यमामन्त्रयित्वा च प्रययौ स्वां पुरीं प्रति ॥ ५५ ॥
तेनैव रथमुख्येन मनसस्तुल्यगामिना ।
धर्मराजविसृष्टेन दिव्येनानादयन् दिशः ॥ ५६ ॥

मूलम्

घातयित्वा जरासंधं बुद्धिपूर्वमरिंदमः ।
धर्मराजमनुज्ञाप्य पृथां कृष्णां च भारत ॥ ५४ ॥
सुभद्रां भीमसेनं च फाल्गुनं यमजौ तथा।
धौम्यमामन्त्रयित्वा च प्रययौ स्वां पुरीं प्रति ॥ ५५ ॥
तेनैव रथमुख्येन मनसस्तुल्यगामिना ।
धर्मराजविसृष्टेन दिव्येनानादयन् दिशः ॥ ५६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! जरासंधको बुद्धिपूर्वक मरवाकर शत्रुदमन श्रीकृष्ण धर्मराज युधिष्ठिर, कुन्ती तथा द्रौपदीसे आज्ञा ले, सुभद्रा, भीमसेन, अर्जुन, नकुल, सहदेव तथा धौम्यजीसे भी पूछकर धर्मराजके दिये हुए उसी मनके समान वेगशाली दिव्य एवं उत्तम रथके द्वारा सम्पूर्ण दिशाओंको गुँजाते हुए अपनी द्वारकापुरीको चले गये॥५४—५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो युधिष्ठिरमुखाः पाण्डवा भरतर्षभ।
प्रदक्षिणमकुर्वन्त कृष्णमक्लिष्टकारिणम् ॥ ५७ ॥

मूलम्

ततो युधिष्ठिरमुखाः पाण्डवा भरतर्षभ।
प्रदक्षिणमकुर्वन्त कृष्णमक्लिष्टकारिणम् ॥ ५७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! जाते समय युधिष्ठिर आदि समस्त पाण्डवोंने अनायास ही सब कार्य करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णकी परिक्रमा की॥५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो गते भगवति कृष्णे देवकिनन्दने।
जयं लब्ध्वा सुविपुलं राज्ञां दत्त्वाभयं तदा ॥ ५८ ॥
संवर्धितं यशो भूयः कर्मणा तेन भारत।
द्रौपद्याः पाण्डवा राजन् परां प्रीतिमवर्धयन् ॥ ५९ ॥

मूलम्

ततो गते भगवति कृष्णे देवकिनन्दने।
जयं लब्ध्वा सुविपुलं राज्ञां दत्त्वाभयं तदा ॥ ५८ ॥
संवर्धितं यशो भूयः कर्मणा तेन भारत।
द्रौपद्याः पाण्डवा राजन् परां प्रीतिमवर्धयन् ॥ ५९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! महान् विजयको प्राप्त करके और जरासंधके द्वारा कैद किये हुए उन राजाओंको अभयदान देकर देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्णके चले जानेपर उक्त कर्मके द्वारा पाण्डवोंके यशका बहुत विस्तार हुआ और वे पाण्डव द्रौपदीकी भी प्रीतिको बढ़ाने लगे॥५८-५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन्‌ काले तु यद् युक्तं धर्मकामार्थसंहितम्।
तद् राजा धर्मतश्चक्रे प्रजापालनकीर्तनम् ॥ ६० ॥

मूलम्

तस्मिन्‌ काले तु यद् युक्तं धर्मकामार्थसंहितम्।
तद् राजा धर्मतश्चक्रे प्रजापालनकीर्तनम् ॥ ६० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय धर्म, अर्थ और कामकी सिद्धिके लिये जो उचित कर्तव्य था, उसका राजा युधिष्ठिरने धर्मपूर्वक पालन किया। वे प्रजाओंकी रक्षा करनेके साथ ही उन्हें धर्मका उपदेश भी देते रहते थे॥६०॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि जरासंधवधपर्वणि जरासंधवधे चतुर्विंशोऽध्यायः ॥ २४ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्वके अन्तर्गत जरासंधवधपर्वमें जरासंधवधविषयक चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२४॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २६ श्लोक मिलाकर कुल ८६ श्लोक हैं)


  1. नरकट बेंतकी तरह पोले डंठलका एक पौधा होता है, जो कलम बनानेके काम आता है। ↩︎