०२३ जरासन्धश्रान्तिः

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

त्रयोविंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

जरासंधका भीमसेनके साथ युद्ध करनेका निश्चय, भीम और जरासंधका भयानक युद्ध तथा जरासंधकी थकावट

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तं निश्चितात्मानं युद्धाय यदुनन्दनः।
उवाच वाग्मी राजानं जरासंधमधोक्षजः ॥ १ ॥

मूलम्

ततस्तं निश्चितात्मानं युद्धाय यदुनन्दनः।
उवाच वाग्मी राजानं जरासंधमधोक्षजः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! राजा जरासंधने अपने मनमें युद्धका निश्चय कर लिया है, यह देख बोलनेमें कुशल यदुनन्दन भगवान् श्रीकृष्णने उससे कहा॥१॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीकृष्ण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रयाणां केन ते राजन् योद्‌धुमुत्सहते मनः।
अस्मदन्यतमेनेह सज्जीभवतु को युधि ॥ २ ॥

मूलम्

त्रयाणां केन ते राजन् योद्‌धुमुत्सहते मनः।
अस्मदन्यतमेनेह सज्जीभवतु को युधि ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीकृष्णने पूछा— राजन्! हम तीनोंमेंसे किस एक व्यक्तिके साथ युद्ध करनेके लिये तुम्हारे मनमें उत्साह हो रहा है? हममेंसे कौन तुम्हारे साथ युद्धके लिये तैयार हो?॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तः स नृपतिर्युद्धं वव्रे महाद्युतिः।
जरासंधस्ततो राजा भीमसेनेन मागधः ॥ ३ ॥

मूलम्

एवमुक्तः स नृपतिर्युद्धं वव्रे महाद्युतिः।
जरासंधस्ततो राजा भीमसेनेन मागधः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके इस प्रकार पूछनेपर महातेजस्वी मगधनरेश राजा जरासंधने भीमसेनके साथ युद्ध करना स्वीकार किया॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आदाय रोचनां माल्यं मङ्गल्यान्यपराणि च।
धारयन्नगदान् मुख्यान् निर्वृतीर्वेदनानि च।
उपतस्थे जरासंधं युयुत्सुं वै पुरोहितः ॥ ४ ॥

मूलम्

आदाय रोचनां माल्यं मङ्गल्यान्यपराणि च।
धारयन्नगदान् मुख्यान् निर्वृतीर्वेदनानि च।
उपतस्थे जरासंधं युयुत्सुं वै पुरोहितः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जरासंधको युद्ध करनेके लिये उत्सुक देख उसके पुरोहित गोरोचन, माला, अन्यान्य मांगलिक वस्तुएँ तथा उत्तम-उत्तम ओषधियाँ, जो पीड़ाके समय भी सुख देनेवाली और मूर्च्छाकालमें भी होश बनाये रखनेवाली थीं, लेकर उसके पास आये॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृतस्वस्त्ययनो राजा ब्राह्मणेन यशस्विना।
समनह्यज्जरासंधः क्षात्रं धर्ममनुस्मरन् ॥ ५ ॥

मूलम्

कृतस्वस्त्ययनो राजा ब्राह्मणेन यशस्विना।
समनह्यज्जरासंधः क्षात्रं धर्ममनुस्मरन् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यशस्वी ब्राह्मणके द्वारा स्वस्तिवाचन सम्पन्न हो जानेपर जरासंध क्षत्रियधर्मका स्मरण करके युद्धके लिये कमर कसकर तैयार हो गया॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवमुच्य किरीटं स केशान् समनुगृह्य च।
उदतिष्ठज्जरासंधो वेलातिग इवार्णवः ॥ ६ ॥

मूलम्

अवमुच्य किरीटं स केशान् समनुगृह्य च।
उदतिष्ठज्जरासंधो वेलातिग इवार्णवः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जरासंधने किरीट उतारकर केशोंको कसकर बाँध लिया। तत्पश्चात् वह युद्धके लिये उठकर खड़ा हो गया; मानो महासागर अपनी मर्यादा—तटवर्तिनी भूमिको लाँघ जानेको उद्यत हो गया हो॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उवाच मतिमान् राजा भीमं भीमपराक्रमः।
भीम योत्स्ये त्वया सार्धं श्रेयसा निर्जितं वरम् ॥ ७ ॥

मूलम्

उवाच मतिमान् राजा भीमं भीमपराक्रमः।
भीम योत्स्ये त्वया सार्धं श्रेयसा निर्जितं वरम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय भयानक पराक्रम करनेवाले बुद्धिमान् राजा जरासंधने भीमसेनसे कहा—‘भीम! आओ, मैं तुमसे युद्ध करूँगा; क्योंकि श्रेष्ठ पुरुषसे लड़कर हारना भी अच्छा है’॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वा जरासंधो भीमसेनमरिंदमः ।
प्रत्युद्ययौ महातेजाः शक्रं बल इवासुरः ॥ ८ ॥

मूलम्

एवमुक्त्वा जरासंधो भीमसेनमरिंदमः ।
प्रत्युद्ययौ महातेजाः शक्रं बल इवासुरः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा कहकर महातेजस्वी शत्रुदमन जरासंध भीमसेनकी ओर बढ़ा; मानो बल नामक असुर इन्द्रसे भिड़नेके लिये बढ़ा जा रहा हो॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः सम्मन्त्र्य कृष्णेन कृतस्वस्त्ययनो बली।
भीमसेनो जरासंधमाससाद युयुत्सया ॥ ९ ॥

मूलम्

ततः सम्मन्त्र्य कृष्णेन कृतस्वस्त्ययनो बली।
भीमसेनो जरासंधमाससाद युयुत्सया ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर बलवान् भीमसेन भी श्रीकृष्णसे सलाह लेकर स्वस्तिवाचनके अनन्तर युद्धकी इच्छासे जरासंधके पास आ धमके॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तौ नरशार्दूलौ बाहुशस्त्रौ समीयतुः।
वीरौ परमसंहृष्टावन्योन्यजयकङ्क्षिणौ ॥ १० ॥

मूलम्

ततस्तौ नरशार्दूलौ बाहुशस्त्रौ समीयतुः।
वीरौ परमसंहृष्टावन्योन्यजयकङ्क्षिणौ ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर तो मनुष्योंमें सिंहके समान पराक्रमी वे दोनों वीर अत्यन्त हर्ष और उत्साहमें भरकर एक-दूसरेको जीतनेकी इच्छासे अपनी भुजाओंसे ही आयुधका काम लेते हुए परस्पर भिड़ गये॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

करग्रहणपूर्वं तु कृत्वा पादाभिवन्दनम्।
कक्षैः कक्षां विधुन्वानावास्फोटं तत्र चक्रतुः ॥ ११ ॥

मूलम्

करग्रहणपूर्वं तु कृत्वा पादाभिवन्दनम्।
कक्षैः कक्षां विधुन्वानावास्फोटं तत्र चक्रतुः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पहले उन दोनोंने हाथ मिलाये। फिर एक-दूसरेके चरणोंका अभिवन्दन किया। तत्पश्चात् भुजाओंके मूलभागके संचालनसे वहाँ बँधे हुए बाजूबंदकी डोरको हिलाते हुए वे दोनों वीर वहीं ताल ठोंकने लगे॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्कन्धे दोर्भ्यां समाहत्य निहत्य च मुहुर्मुहुः।
अङ्गमङ्गैः समाश्लिष्य पुनरास्फालनं विभो ॥ १२ ॥

मूलम्

स्कन्धे दोर्भ्यां समाहत्य निहत्य च मुहुर्मुहुः।
अङ्गमङ्गैः समाश्लिष्य पुनरास्फालनं विभो ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! फिर वे दोनों हाथोंसे एक-दूसरेके कंधे-पर बार-बार चोट करते हुए अंग-अंगसे भिड़कर आपसमें गुँथ गये तथा एक-दूसरेको बार-बार रगड़ने लगे॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चित्रहस्तादिकं कृत्वा कक्षाबन्धं च चक्रतुः।
गलगण्डाभिघातेन सस्फुलिङ्गेन चाशनिम् ॥ १३ ॥

मूलम्

चित्रहस्तादिकं कृत्वा कक्षाबन्धं च चक्रतुः।
गलगण्डाभिघातेन सस्फुलिङ्गेन चाशनिम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे कभी हाथोंको बड़े वेगसे सिकोड़ लेते, कभी फैला देते, कभी ऊपर-नीचे चलाते और कभी मुट्ठी बाँध लेते। इस प्रकार चित्रहस्त आदि दाँव दिखाकर उन दोनोंने कक्षाबन्धका प्रयोग किया अर्थात् एक-दूसरेकी काख या कमरमें दोनों हाथ डालकर प्रतिद्वन्द्वीको बाँध लेनेकी चेष्टा की। फिर गलेमें और गालमें ऐसे-ऐसे हाथ मारने लगे कि आगकी चिनगारी-सी निकलने लगी और वज्रपातका-सा शब्द होने लगा॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाहुपाशादिकं कृत्वा पादाहतशिरावुभौ ।
उरोहस्तं ततश्चक्रे पूर्णकुम्भौ प्रयुज्य तौ ॥ १४ ॥

मूलम्

बाहुपाशादिकं कृत्वा पादाहतशिरावुभौ ।
उरोहस्तं ततश्चक्रे पूर्णकुम्भौ प्रयुज्य तौ ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् वे ‘बाहुपाश’ और ‘चरणपाश’ आदि दाँव-पेंचोंसे काम लेते हुए एक-दूसरेपर पैरोंसे ऐसा भीषण प्रहार करने लगे कि शरीरकी नस-नाड़ियाँतक पीड़ित हो उठीं। तदनन्तर दोनोंने दोनोंपर ‘पूर्णकुम्भ’ नामक दाँव लगाया (दोनों हाथोंकी अंगुलियोंको परस्पर गूँथकर उन हाथोंकी हथेलियोंसे शत्रुके सिरको दबाया)। इसके बाद ‘उरोहस्त’ का प्रयोग किया (छातीपर थप्पड़ मारना शुरू कर दिया)॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

करसम्पीडनं कृत्वा गर्जन्तौ वारणाविव।
नर्दन्तौ मेघसंकाशौ बाहुप्रहरणावुभौ ॥ १५ ॥

मूलम्

करसम्पीडनं कृत्वा गर्जन्तौ वारणाविव।
नर्दन्तौ मेघसंकाशौ बाहुप्रहरणावुभौ ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर एक-दूसरेके हाथ दबाकर वे दोनों दो गजराजोंकी भाँति गर्जने लगे। दोनों ही भुजाओंसे प्रहार करते हुए मेघके समान गम्भीर स्वरसे सिंहनाद करने लगे॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तलेनाहन्यमानौ तु अन्योन्यं कृतवीक्षणौ।
सिंहाविव सुसंक्रुद्धावाकृष्याकृष्य युध्यताम् ॥ १६ ॥

मूलम्

तलेनाहन्यमानौ तु अन्योन्यं कृतवीक्षणौ।
सिंहाविव सुसंक्रुद्धावाकृष्याकृष्य युध्यताम् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

थप्पड़ोंकी मार खाकर वे परस्पर घूर-घूरकर देखते और अत्यन्त क्रोधमें भरे हुए दो सिंहोंके समान एक-दूसरेको खींच-खींचकर लड़ने लगे॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अङ्गेनाङ्गं समापीड्य बाहुभ्यामुभयोरपि ।
आवृत्य बाहुभिश्चापि उदरं च प्रचक्रतुः ॥ १७ ॥

मूलम्

अङ्गेनाङ्गं समापीड्य बाहुभ्यामुभयोरपि ।
आवृत्य बाहुभिश्चापि उदरं च प्रचक्रतुः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय दोनों अपने अंगों और भुजाओंसे प्रतिद्वन्द्वीके शरीरको दबाकर शत्रुकी पीठमें अपने गलेकी हँसली भिड़ाकर उसके पेटको दोनों बाँहोंसे कस लेते और उठाकर दूर फेंकते थे॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उभौ कट्यां सुपार्श्वे तु तक्षवन्तौ च शिक्षितौ।
अधोहस्तं स्वकण्ठे तूदरस्योरसि चाक्षिपत् ॥ १८ ॥

मूलम्

उभौ कट्यां सुपार्श्वे तु तक्षवन्तौ च शिक्षितौ।
अधोहस्तं स्वकण्ठे तूदरस्योरसि चाक्षिपत् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार कमरमें और बगलमें भी हाथ लगाकर दोनों प्रतिद्वन्द्वीको पछाड़नेकी चेष्टा करते थे। अपने शरीरको सिकोड़कर शत्रुकी पकड़से छूट जानेकी कला दोनों जानते थे। दोनों ही मल्लयुद्धकी शिक्षामें प्रवीण थे। वे उदरके नीचे हाथ लगाकर दोनों हाथोंसे पेटको लपेट लेते और विपक्षीको कण्ठ एवं छातीतक ऊँचे उठाकर धरतीपर दे मारते थे॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वातिक्रान्तमर्यादं पृष्ठभङ्गं च चक्रतुः।
सम्पूर्णमूर्च्छां बाहुभ्यां पूर्णकुम्भं प्रचक्रतुः ॥ १९ ॥

मूलम्

सर्वातिक्रान्तमर्यादं पृष्ठभङ्गं च चक्रतुः।
सम्पूर्णमूर्च्छां बाहुभ्यां पूर्णकुम्भं प्रचक्रतुः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर वे सारी मर्यादाओंसे ऊँचे उठे हुए ‘पृष्ठभंग’ नामक दाँव-पेंचसे काम लेने लगे (अर्थात् एक-दूसरेकी पीठको धरतीसे लगा देनेकी चेष्टामें लग गये)। दोनों भुजाओंसे सम्पूर्ण मूर्च्छा (उदर आदिमें आघात करके मूर्च्छित करनेका प्रयत्न) तथा पूर्वोक्त पूर्णकुम्भका प्रयोग करने लगे॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तृणपीडं यथाकामं पूर्णयोगं समुष्टिकम्।
एवमादीनि युद्धानि प्रकुर्वन्तौ परस्परम् ॥ २० ॥

मूलम्

तृणपीडं यथाकामं पूर्णयोगं समुष्टिकम्।
एवमादीनि युद्धानि प्रकुर्वन्तौ परस्परम् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर वे अपनी इच्छाके अनुसार ‘तृणपीड’ (रस्सी बनानेके लिये बटे जानेवाले तिनकोंकी भाँति हाथ-पैर आदिको ऐंठना) तथा मुष्टिकाघातसहित पूर्णयोग (मुक्केको एक अंगमें मारनेकी चेष्टा दिखाकर दूसरे अंगमें आघात करना) आदि युद्धके दाँव-पेंचोंका प्रयोग एक-दूसरेपर करने लगे॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तयोर्युद्धं ततो द्रष्टुं समेताः पुरवासिनः।
ब्राह्मणा वणिजश्चैव क्षत्रियाश्च सहस्रशः ॥ २१ ॥
शूद्राश्च नरशार्दूल स्त्रियो वृद्धाश्च सर्वशः।
निरन्तरमभूत् तत्र जनौघैरभिसंवृतम् ॥ २२ ॥

मूलम्

तयोर्युद्धं ततो द्रष्टुं समेताः पुरवासिनः।
ब्राह्मणा वणिजश्चैव क्षत्रियाश्च सहस्रशः ॥ २१ ॥
शूद्राश्च नरशार्दूल स्त्रियो वृद्धाश्च सर्वशः।
निरन्तरमभूत् तत्र जनौघैरभिसंवृतम् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनमेजय! उस समय उनका मल्लयुद्ध देखनेके लिये हजारों पुरवासी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, स्त्रियाँ एवं वृद्ध इकट्ठे हो गये। मनुष्योंकी अपार भीड़से वह स्थान ठसाठस भर गया॥२१-२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तयोरथ भुजाघातान्निग्रहप्रग्रहात् तथा ।
आसीत् सुभीमसम्पातो वज्रपर्वतयोरिव ॥ २३ ॥

मूलम्

तयोरथ भुजाघातान्निग्रहप्रग्रहात् तथा ।
आसीत् सुभीमसम्पातो वज्रपर्वतयोरिव ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन दोनोंकी भुजाओंके आघातसे तथा एक-दूसरेके निग्रह-प्रग्रहसे1 ऐसा भयंकर चटचट शब्द होता था, मानो वज्र और पर्वत परस्पर टकरा रहे हों॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उभौ परमसंहृष्टौ बलेन बलिनां वरौ।
अन्योन्यस्यान्तरं प्रेप्सू परस्परजयैषिणौ ॥ २४ ॥

मूलम्

उभौ परमसंहृष्टौ बलेन बलिनां वरौ।
अन्योन्यस्यान्तरं प्रेप्सू परस्परजयैषिणौ ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बलवानोंमें श्रेष्ठ वे दोनों वीर अत्यन्त हर्ष एवं उत्साहमें भरे हुए थे और एक-दूसरेकी दुर्बलता या असावधानीपर दृष्टि रखते हुए परस्पर बलपूर्वक विजय पानेकी इच्छा रखते थे॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद् भीममुत्सार्यजनं युद्धमासीदुपप्लवे ।
बलिनोः संयुगे राजन् वृत्रवासवयोरिव ॥ २५ ॥

मूलम्

तद् भीममुत्सार्यजनं युद्धमासीदुपप्लवे ।
बलिनोः संयुगे राजन् वृत्रवासवयोरिव ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! उस समरभूमिमें जहाँ वृत्रासुर और इन्द्रकी भाँति उन दोनों बलवान् वीरोंमें संघर्ष छिड़ा था, ऐसा भयंकर युद्ध हुआ कि दर्शकलोग दूर भाग खड़े हुए॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रकर्षणाकर्षणाभ्यामनुकर्षविकर्षणैः ।
आचकर्षतुरन्योन्यं जानुभिश्चावजघ्नतुः ॥ २६ ॥

मूलम्

प्रकर्षणाकर्षणाभ्यामनुकर्षविकर्षणैः ।
आचकर्षतुरन्योन्यं जानुभिश्चावजघ्नतुः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे एक-दूसरेको पीछे ढकेलते और आगे खींचते थे। बार-बार खींचतान और छीना-झपटी करते थे। दोनोंने अपने प्रहारोंसे एक-दूसरेके शरीरमें खरौंच एवं घाव पैदा कर दिये और दोनों दोनोंको पटककर घुटनोंसे मारने तथा रगड़ने लगे॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः शब्देन महता भर्त्सयन्तौ परस्परम्।
पाषाणसंघातनिभैः प्रहारैरभिजघ्नतुः ॥ २७ ॥

मूलम्

ततः शब्देन महता भर्त्सयन्तौ परस्परम्।
पाषाणसंघातनिभैः प्रहारैरभिजघ्नतुः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर बड़े भारी गर्जन-तर्जनके द्वारा आपसमें डाँट बताते हुए एक-दूसरेपर ऐसे प्रहार करने लगे मानो पत्थरोंकी वर्षा कर रहे हों॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्यूढोरस्कौ दीर्घभुजौ नियुद्धकुशलावुभौ ।
बाहुभिः समसज्जेतामायसैः परिघैरिव ॥ २८ ॥

मूलम्

व्यूढोरस्कौ दीर्घभुजौ नियुद्धकुशलावुभौ ।
बाहुभिः समसज्जेतामायसैः परिघैरिव ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दोनोंकी छाती चौड़ी और भुजाएँ बड़ी-बड़ी थीं। दोनों ही मल्लयुद्धमें कुशल थे और लोहेकी परिघ-जैसी मोटी भुजाओंको भिड़ाकर आपसमें गुँथ जाते थे॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कार्तिकस्य तु मासस्य प्रवृत्तं प्रथमेऽहनि।
अनाहारं दिवारात्रमविश्रान्तमवर्तत ॥ २९ ॥

मूलम्

कार्तिकस्य तु मासस्य प्रवृत्तं प्रथमेऽहनि।
अनाहारं दिवारात्रमविश्रान्तमवर्तत ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कार्तिक मासके पहले दिन उन दोनोंका युद्ध प्रारम्भ हुआ और दिन-रात बिना खाये-पिये अविरामगतिसे चलता रहा॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद् वृत्तं तु त्रयोदश्यां समवेतं महात्मनोः।
चतुर्दश्यां निशायां तु निवृत्तो मागधः क्लमात् ॥ ३० ॥

मूलम्

तद् वृत्तं तु त्रयोदश्यां समवेतं महात्मनोः।
चतुर्दश्यां निशायां तु निवृत्तो मागधः क्लमात् ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन महात्माओंका वह युद्ध इसी रूपमें त्रयोदशी-तक होता रहा। चतुर्दशीकी रातमें मगधनरेश जरासंध क्लेशसे थककर युद्धसे निवृत्त-सा होने लगा॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं राजानं तथा क्लान्तं दृष्ट्वा राजञ्जनार्दनः।
उवाच भीमकर्माणं भीमं सम्बोधयन्निव ॥ ३१ ॥

मूलम्

तं राजानं तथा क्लान्तं दृष्ट्वा राजञ्जनार्दनः।
उवाच भीमकर्माणं भीमं सम्बोधयन्निव ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! उसे इस प्रकार थका देख भगवान् श्रीकृष्ण भयानक कर्म करनेवाले भीमसेनको समझाते हुए-से बोले—॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्लान्तः शत्रुर्न कौन्तेय लभ्यः पीडयितुं रणे।
पीड्यमानो हि कार्त्स्न्येन जह्याज्जीवितमात्मनः ॥ ३२ ॥

मूलम्

क्लान्तः शत्रुर्न कौन्तेय लभ्यः पीडयितुं रणे।
पीड्यमानो हि कार्त्स्न्येन जह्याज्जीवितमात्मनः ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुन्तीनन्दन! शत्रु थक गया हो तो युद्धमें उसे अधिक पीड़ा देना उचित नहीं है। यदि उसे पूर्णतः पीड़ा दी जाय तो वह अपने प्राण त्याग देगा॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मात् ते नैव कौन्तेय पीडनीयो जनाधिपः।
सममेतेन युध्यस्व बाहुभ्यां भरतर्षभ ॥ ३३ ॥

मूलम्

तस्मात् ते नैव कौन्तेय पीडनीयो जनाधिपः।
सममेतेन युध्यस्व बाहुभ्यां भरतर्षभ ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अतः पार्थ! तुम्हें राजा जरासंधको अधिक पीड़ा नहीं देनी चाहिये। भरतश्रेष्ठ! तुम अपनी भुजाओंद्वारा इनके साथ समभावसे ही युद्ध करो’॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तः स कृष्णेन पाण्डवः परवीरहा।
जरासंधस्य तद् रूपं ज्ञात्वा चक्रे मतिं वधे ॥ ३४ ॥

मूलम्

एवमुक्तः स कृष्णेन पाण्डवः परवीरहा।
जरासंधस्य तद् रूपं ज्ञात्वा चक्रे मतिं वधे ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णके ऐसा कहनेपर शत्रुवीरोंका नाश करनेवाले पाण्डुकुमार भीमसेनने जरासंधको थका हुआ जानकर उसके वधका विचार किया॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तमजितं जेतुं जरासंधं वृकोदरः।
संरम्भं बलिनां श्रेष्ठो जग्राह कुरुनन्दनः ॥ ३५ ॥

मूलम्

ततस्तमजितं जेतुं जरासंधं वृकोदरः।
संरम्भं बलिनां श्रेष्ठो जग्राह कुरुनन्दनः ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर कुरुकुलको आनन्दित करनेवाले बलवानोंमें श्रेष्ठ वृकोदरने उस अपराजित शत्रु जरासंधको जीतनेके लिये भारी क्रोध धारण किया॥३५॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि जरासंधवधपर्वणि जरासंधक्लान्तौ त्रयोविंशोऽध्यायः ॥ २३ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्वके अन्तर्गत जरासंधवधपर्वमें जरासंधकी थकावटसे सम्बन्ध रखनेवाला तेईसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२३॥


  1. दोनों हाथोंसे शत्रुका कंधा पकड़कर खींचने और उसे नीचे मुख गिरानेकी चेष्टाका नाम ‘निग्रह’ है तथा शत्रुको उत्तान गिरा देनेके लिये उसके पैरोंको पकड़कर खींचना ‘प्रग्रह’ कहलाता है। ↩︎