०२२ राजभवनप्रवेशः

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

द्वाविंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

जरासंध और श्रीकृष्णका संवाद तथा जरासंधकी युद्धके लिये तैयारी एवं जरासंधका श्रीकृष्णके साथ वैर होनेके कारणका वर्णन

मूलम् (वचनम्)

जरासंध उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

न स्मरामि कदा वैरं कृतं युष्माभिरित्युत।
चिन्तयंश्च न पश्यामि भवतां प्रति वैकृतम् ॥ १ ॥

मूलम्

न स्मरामि कदा वैरं कृतं युष्माभिरित्युत।
चिन्तयंश्च न पश्यामि भवतां प्रति वैकृतम् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जरासंध बोला— ब्राह्मणो! मुझे याद नहीं आता कि कब मैंने आपलोगोंके साथ वैर किया है? बहुत सोचनेपर भी मुझे आपके प्रति अपने द्वारा किया हुआ अपराध नहीं दिखायी देता॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वैकृते वासति कथं मन्यध्वं मामनागसम्।
अरिं वै ब्रूत हे विप्राः सतां समय एष हि॥२॥

मूलम्

वैकृते वासति कथं मन्यध्वं मामनागसम्।
अरिं वै ब्रूत हे विप्राः सतां समय एष हि॥२॥

अनुवाद (हिन्दी)

विप्रगण! जब मुझसे अपराध ही नहीं हुआ है, तब मुझ निरपराधको आपलोग शत्रु कैसे मान रहे हैं? यह बताइये। क्या यही साधु पुरुषोंका बर्ताव है?॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ धर्मोपघाताद्धि मनः समुपतप्यते।
योऽनागसि प्रसजति क्षत्रियो हि न संशयः ॥ ३ ॥
अतोऽन्यथा चरल्ँलोके धर्मज्ञः सन् महारथः।
वृजिनां गतिमाप्नोति श्रेयसोऽप्युपहन्ति च ॥ ४ ॥

मूलम्

अथ धर्मोपघाताद्धि मनः समुपतप्यते।
योऽनागसि प्रसजति क्षत्रियो हि न संशयः ॥ ३ ॥
अतोऽन्यथा चरल्ँलोके धर्मज्ञः सन् महारथः।
वृजिनां गतिमाप्नोति श्रेयसोऽप्युपहन्ति च ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

किसीके धर्म (और अर्थ)-में बाधा डालनेसे अवश्य ही मनको बड़ा संताप होता है। जो धर्मज्ञ महारथी क्षत्रिय लोकमें धर्मके विपरीत आचरण करता हुआ किसी निरपराध व्यक्तिपर दूसरोंके धन और धर्मके नाशका दोष लगाता है, वह कष्टमयी गतिको प्राप्त होता है और अपनेको कल्याणसे भी वंचित कर लेता है; इसमें संशय नहीं है॥३-४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रैलोक्ये क्षत्रधर्मो हि श्रेयान् वै साधुचारिणाम्।
नान्यं धर्मं प्रशंसन्ति ये च धर्मविदो जनाः ॥ ५ ॥

मूलम्

त्रैलोक्ये क्षत्रधर्मो हि श्रेयान् वै साधुचारिणाम्।
नान्यं धर्मं प्रशंसन्ति ये च धर्मविदो जनाः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सत्कर्म करनेवाले क्षत्रियोंके लिये तीनों लोकोंमें क्षत्रियधर्म ही श्रेष्ठ है। धर्मज्ञ पुरुष क्षत्रियके लिये अन्य धर्मकी प्रशंसा नहीं करते॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य मेऽद्य स्थितस्येह स्वधर्मे नियतात्मनः।
अनागसं प्रजानां च प्रमादादिव जल्पथ ॥ ६ ॥

मूलम्

तस्य मेऽद्य स्थितस्येह स्वधर्मे नियतात्मनः।
अनागसं प्रजानां च प्रमादादिव जल्पथ ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं अपने मनको वशमें रखकर सदा स्वधर्म (क्षत्रियधर्म)-में स्थित रहता हूँ। प्रजाओंका भी कोई अपराध नहीं करता, ऐसी दशामें भी आपलोग प्रमादसे ही मुझे शत्रु या अपराधी बता रहे हैं॥६॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीकृष्ण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुलकार्यं महाबाहो कश्चिदेकः कुलोद्वहः।
वहते यस्तन्नियोगाद् वयमभ्युद्यतास्त्वयि ॥ ७ ॥

मूलम्

कुलकार्यं महाबाहो कश्चिदेकः कुलोद्वहः।
वहते यस्तन्नियोगाद् वयमभ्युद्यतास्त्वयि ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीकृष्णने कहा— महाबाहो! समूचे कुलमें कोई एक ही पुरुष कुलका भार सँभालता है। उस कुलके सभी लोगोंकी रक्षा आदिका कार्य सम्पन्न करता है। जो वैसे महापुरुष हैं, उन्हींकी आज्ञासे हमलोग आज तुम्हें दण्ड देनेको उद्यत हुए हैं॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वया चोपहृता राजन् क्षत्रिया लोकवासिनः।
तदागः क्रूरमुत्पाद्य मन्यसे किमनागसम् ॥ ८ ॥

मूलम्

त्वया चोपहृता राजन् क्षत्रिया लोकवासिनः।
तदागः क्रूरमुत्पाद्य मन्यसे किमनागसम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! तुमने भूलोकनिवासी क्षत्रियोंको कैद कर लिया है। ऐसे क्रूर अपराधका आयोजन करके भी तुम अपनेको निरपराध कैसे मानते हो?॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजा राज्ञः कथं साधून् हिंस्यान्नृपतिसत्तम।
तद् राज्ञः संनिगृह्य त्वं रुद्रायोपजिहीर्षसि ॥ ९ ॥

मूलम्

राजा राज्ञः कथं साधून् हिंस्यान्नृपतिसत्तम।
तद् राज्ञः संनिगृह्य त्वं रुद्रायोपजिहीर्षसि ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नृपश्रेष्ठ! एक राजा दूसरे श्रेष्ठ राजाओंकी हत्या कैसे कर सकता है? तुम राजाओंको कैद करके उन्हें रुद्रदेवताकी भेंट चढ़ाना चाहते हो?॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्मांस्तदेनो गच्छेद्धि कृतं बार्हद्रथ त्वया।
वयं हि शक्ता धर्मस्य रक्षणे धर्मचारिणः ॥ १० ॥

मूलम्

अस्मांस्तदेनो गच्छेद्धि कृतं बार्हद्रथ त्वया।
वयं हि शक्ता धर्मस्य रक्षणे धर्मचारिणः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बृहद्रथकुमार! तुम्हारे द्वारा किया हुआ यह पाप हम सब लोगोंपर लागू होगा; क्योंकि हम धर्मकी रक्षा करनेमें समर्थ और धर्मका पालन करनेवाले हैं॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनुष्याणां समालम्भो न च दृष्टः कदाचन।
स कथं मानुषैर्देवं यष्टुमिच्छसि शंकरम् ॥ ११ ॥

मूलम्

मनुष्याणां समालम्भो न च दृष्टः कदाचन।
स कथं मानुषैर्देवं यष्टुमिच्छसि शंकरम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

किसी देवताकी पूजाके लिये मनुष्योंका वध कभी नहीं देखा गया। फिर तुम कल्याणकारी देवता भगवान् शिवकी पूजा मनुष्योंकी हिंसाद्वारा कैसे करना चाहते हो?॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सवर्णो हि सवर्णानां पशुसंज्ञां करिष्यसि।
कोऽन्य एवं यथा हि त्वं जरासंध वृथामतिः ॥ १२ ॥

मूलम्

सवर्णो हि सवर्णानां पशुसंज्ञां करिष्यसि।
कोऽन्य एवं यथा हि त्वं जरासंध वृथामतिः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जरासंध! तुम्हारी बुद्धि मारी गयी है, तुम भी उसी वर्णके हो, जिस वर्णके वे राजालोग हैं। क्या तुम अपने ही वर्णके लोगोंको पशुनाम देकर उनकी हत्या करोगे? तुम्हारे-जैसा क्रूर दूसरा कौन है?॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्यां यस्यामवस्थायां यद् यत् कर्म करोति यः।
तस्यां तस्यामवस्थायां तत् फलं समवाप्नुयात् ॥ १३ ॥

मूलम्

यस्यां यस्यामवस्थायां यद् यत् कर्म करोति यः।
तस्यां तस्यामवस्थायां तत् फलं समवाप्नुयात् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो जिस-जिस अवस्थामें जो-जो कर्म करता है, वह उसी-उसी अवस्थामें उसके फलको प्राप्त करता है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते त्वां ज्ञातिक्षयकरं वयमार्तानुसारिणः।
ज्ञातिवृद्धिनिमित्तार्थं विनिहन्तुमिहागताः ॥ १४ ॥

मूलम्

ते त्वां ज्ञातिक्षयकरं वयमार्तानुसारिणः।
ज्ञातिवृद्धिनिमित्तार्थं विनिहन्तुमिहागताः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम अपने ही जाति-भाइयोंके हत्यारे हो और हमलोग संकटमें पड़े हुए दीन-दुःखियोंकी रक्षा करनेवाले हैं; अतः सजातीय बन्धुओंकी वृद्धिके उद्देश्यसे हम तुम्हारा वध करनेके लिये यहाँ आये हैं॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नास्ति लोके पुमानन्यः क्षत्रियेष्विति चैव तत्।
मन्यसे स च ते राजन् सुमहान् बुद्धिविप्लवः ॥ १५ ॥

मूलम्

नास्ति लोके पुमानन्यः क्षत्रियेष्विति चैव तत्।
मन्यसे स च ते राजन् सुमहान् बुद्धिविप्लवः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! तुम जो यह मान बैठे हो कि इस जगत्‌के क्षत्रियोंमें मेरे समान दूसरा कोई नहीं है, यह तुम्हारी बुद्धिका बहुत बड़ा भ्रम है॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

को हि जानन्नभिजनमात्मवान् क्षत्रियो नृप।
नाविशेत् स्वर्गमतुलं रणानन्तरमव्ययम् ॥ १६ ॥

मूलम्

को हि जानन्नभिजनमात्मवान् क्षत्रियो नृप।
नाविशेत् स्वर्गमतुलं रणानन्तरमव्ययम् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! कौन ऐसा स्वाभिमानी क्षत्रिय होगा जो अपने अभिजनको (जातीय बन्धुओंकी रक्षा परम धर्म है, इस बातको) जानते हुए भी युद्ध करके अनुपम एवं अक्षय स्वर्गलोकमें जाना नहीं चाहेगा?॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वर्गं ह्येव समास्थाय रणयज्ञेषु दीक्षिताः।
जयन्ति क्षत्रिया लोकांस्तद् विद्धि मनुजर्षभ ॥ १७ ॥

मूलम्

स्वर्गं ह्येव समास्थाय रणयज्ञेषु दीक्षिताः।
जयन्ति क्षत्रिया लोकांस्तद् विद्धि मनुजर्षभ ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरश्रेष्ठ! स्वर्गप्राप्तिका ही उद्देश्य रखकर रणयज्ञकी दीक्षा लेनेवाले क्षत्रिय अपने अभीष्ट लोकोंपर विजय पाते हैं, यह बात तुम्हें भलीभाँति जाननी चाहिये॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वर्गयोनिर्महद् ब्रह्म स्वर्गयोनिर्महद् यशः।
स्वर्गयोनिस्तपो युद्धे मृत्युः सोऽव्यभिचारवान् ॥ १८ ॥

मूलम्

स्वर्गयोनिर्महद् ब्रह्म स्वर्गयोनिर्महद् यशः।
स्वर्गयोनिस्तपो युद्धे मृत्युः सोऽव्यभिचारवान् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वेदाध्ययन स्वर्गप्राप्तिका कारण है, परोपकाररूप महान् यश भी स्वर्गका हेतु है, तपस्याको भी स्वर्गलोकका साधन बताया गया है; परंतु क्षत्रियके लिये इन तीनोंकी अपेक्षा युद्धमें मृत्युका वरण करना ही स्वर्गप्राप्तिका अमोघ साधन है॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष ह्यैन्द्रो वैजयन्तो गुणैर्नित्यं समाहितः।
येनासुरान् पराजित्य जगत् पाति शतक्रतुः ॥ १९ ॥

मूलम्

एष ह्यैन्द्रो वैजयन्तो गुणैर्नित्यं समाहितः।
येनासुरान् पराजित्य जगत् पाति शतक्रतुः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्षत्रियका यह युद्धमें मरण इन्द्रका वैजयन्त नामक प्रासाद (राजमहल) है। यह सदा सभी गुणोंसे परिपूर्ण है। इसी युद्धके द्वारा शतक्रतु इन्द्र असुरोंको परास्त करके सम्पूर्ण जगत्‌की रक्षा करते हैं॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वर्गमार्गाय कस्य स्याद् विग्रहो वै यथा तव।
मागधैर्विपुलैः सैन्यैर्बाहुल्यबलदर्पितः ॥ २० ॥
मावमंस्थाः परान् राजन्नस्ति वीर्यं नरे नरे।
समं तेजस्त्वया चैव विशिष्टं वा नरेश्वर ॥ २१ ॥

मूलम्

स्वर्गमार्गाय कस्य स्याद् विग्रहो वै यथा तव।
मागधैर्विपुलैः सैन्यैर्बाहुल्यबलदर्पितः ॥ २० ॥
मावमंस्थाः परान् राजन्नस्ति वीर्यं नरे नरे।
समं तेजस्त्वया चैव विशिष्टं वा नरेश्वर ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हमारे साथ जो तुम्हारा युद्ध होनेवाला है, वह तुम्हारे लिये जैसा स्वर्गलोककी प्राप्तिका साधक हो सकता है, वैसा युद्ध और किसको सुलभ है? मेरे पास बहुत बड़ी सेना एवं शक्ति है, इस घमंडमें आकर मगधदेशकी अगणित सेनाओंद्वारा तुम दूसरोंका अपमान न करो। राजन्! प्रत्येक मनुष्यमें बल एवं पराक्रम होता है। महाराज! किसीमें तुम्हारे समान तेज है तो किसीमें तुमसे अधिक भी है॥२०-२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यावदेतदसम्बुद्धं तावदेव भवेत् तव।
विषह्यमेतदस्माकमतो राजन् ब्रवीमि ते ॥ २२ ॥

मूलम्

यावदेतदसम्बुद्धं तावदेव भवेत् तव।
विषह्यमेतदस्माकमतो राजन् ब्रवीमि ते ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भूपाल! जबतक तुम इस बातको नहीं जानते थे, तभीतक तुम्हारा घमंड बढ़ रहा था। अब तुम्हारा यह अभिमान हमलोगोंके लिये असह्य हो उठा है, इसलिये मैं तुम्हें यह सलाह देता हूँ॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जहि त्वं सदृशेष्वेव मानं दर्पं च मागध।
मा गमः ससुतामात्यः सबलश्च यमक्षयम् ॥ २३ ॥

मूलम्

जहि त्वं सदृशेष्वेव मानं दर्पं च मागध।
मा गमः ससुतामात्यः सबलश्च यमक्षयम् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मगधराज! तुम अपने समान वीरोंके साथ अभिमान और घमंड करना छोड़ दो। इस घमंडको रखकर अपने पुत्र, मन्त्री और सेनाके साथ यमलोकमें जानेकी तैयारी न करो॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दम्भोद्भवः कार्तवीर्य उत्तरश्च बृहद्रथः।
श्रेयसो ह्यवमन्येह विनेशुः सबला नृपाः ॥ २४ ॥

मूलम्

दम्भोद्भवः कार्तवीर्य उत्तरश्च बृहद्रथः।
श्रेयसो ह्यवमन्येह विनेशुः सबला नृपाः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दम्भोद्भव, कार्तवीर्य अर्जुन, उत्तर तथा बृहद्रथ—ये सभी नरेश अपनेसे बड़ोंका अपमान करके अपनी सेनासहित नष्ट हो गये॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युयुक्षमाणास्त्वत्तो हि न वयं ब्राह्मणा ध्रुवम्।
शौरिरस्मि हृषीकेशो नृवीरौ पाण्डवाविमौ।
अनयोर्मातुलेयं च कृष्णं मां विद्धि ते रिपुम् ॥ २५ ॥

मूलम्

युयुक्षमाणास्त्वत्तो हि न वयं ब्राह्मणा ध्रुवम्।
शौरिरस्मि हृषीकेशो नृवीरौ पाण्डवाविमौ।
अनयोर्मातुलेयं च कृष्णं मां विद्धि ते रिपुम् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुमसे युद्धकी इच्छा रखनेवाले हमलोग अवश्य ही ब्राह्मण नहीं हैं। मैं वसुदेवपुत्र हृषीकेश हूँ और ये दोनों पाण्डुपुत्र वीरवर भीमसेन और अर्जुन हैं। मैं इन दोनोंके मामाका पुत्र और तुम्हारा प्रसिद्ध शत्रु श्रीकृष्ण हूँ। मुझे अच्छी तरह पहचान लो॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वामाह्वयामहे राजन् स्थिरो युध्यस्व मागध।
मुञ्च वा नृपतीन् सर्वान् गच्छ वा त्वं यमक्षयम्॥२६॥

मूलम्

त्वामाह्वयामहे राजन् स्थिरो युध्यस्व मागध।
मुञ्च वा नृपतीन् सर्वान् गच्छ वा त्वं यमक्षयम्॥२६॥

अनुवाद (हिन्दी)

मगधनरेश! हम तुम्हें युद्धके लिये ललकारते हैं। तुम डटकर युद्ध करो। तुम या तो समस्त राजाओंको छोड़ दो अथवा यमलोककी राह लो॥२६॥

मूलम् (वचनम्)

जरासंध उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाजितान् वै नरपतीनहमादद्मि कांश्चन।
अजितः पर्यवस्थाता कोऽत्र यो न मया जितः ॥ २७ ॥

मूलम्

नाजितान् वै नरपतीनहमादद्मि कांश्चन।
अजितः पर्यवस्थाता कोऽत्र यो न मया जितः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जरासंधने कहा— श्रीकृष्ण! मैं युद्धमें जीते बिना किन्हीं राजाओंको कैद करके यहाँ नहीं लाता हूँ। यहाँ कौन ऐसा शत्रु राजा है, जो दूसरोंसे अजेय होनेपर भी मेरेद्वारा जीत न लिया गया हो?॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षत्रियस्यैतदेवाहुर्धर्म्यं कृष्णोपजीवनम् ।
विक्रम्य वशमानीय कामतो यत् समाचरेत् ॥ २८ ॥

मूलम्

क्षत्रियस्यैतदेवाहुर्धर्म्यं कृष्णोपजीवनम् ।
विक्रम्य वशमानीय कामतो यत् समाचरेत् ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीकृष्ण! क्षत्रियके लिये तो यह धर्मानुकूल जीविका बतायी गयी है कि वह पराक्रम करके शत्रुको अपने वशमें लाकर फिर उसके साथ मनमाना बर्ताव करे॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवतार्थमुपाहृत्य राज्ञः कृष्ण कथं भयात्।
अहमद्य विमुच्येयं क्षात्रं व्रतमनुस्मरन् ॥ २९ ॥

मूलम्

देवतार्थमुपाहृत्य राज्ञः कृष्ण कथं भयात्।
अहमद्य विमुच्येयं क्षात्रं व्रतमनुस्मरन् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीकृष्ण! मैं क्षत्रियके व्रतको सदा याद रखता हुआ देवताको बलि देनेके लिये उपहारके रूपमें लाये हुए इन राजाओंको आज तुम्हारे भयसे कैसे छोड़ सकता हूँ?॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सैन्यं सैन्येन व्यूढेन एक एकेन वा पुनः।
द्वाभ्यां त्रिभिर्वा योत्स्येऽहं युगपत् पृथगेव वा ॥ ३० ॥

मूलम्

सैन्यं सैन्येन व्यूढेन एक एकेन वा पुनः।
द्वाभ्यां त्रिभिर्वा योत्स्येऽहं युगपत् पृथगेव वा ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम्हारी सेना मेरी व्यूहरचनायुक्त सेनाके साथ लड़ ले अथवा तुममेंसे कोई एक मुझ अकेलेके साथ युद्ध करे अथवा मैं अकेला ही तुममेंसे दो या तीनोंके साथ बारी-बारीसे या एक ही साथ युद्ध कर सकता हूँ॥३०॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वा जरासंधः सहदेवाभिषेचनम् ।
आज्ञापयत् तदा राजा युयुत्सुर्भीमकर्मभिः ॥ ३१ ॥

मूलम्

एवमुक्त्वा जरासंधः सहदेवाभिषेचनम् ।
आज्ञापयत् तदा राजा युयुत्सुर्भीमकर्मभिः ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! ऐसा कहकर भयानक कर्म करनेवाले उन तीनों वीरोंके साथ युद्धकी इच्छा रखकर राजा जरासंधने अपने पुत्र सहदेवके राज्याभिषेककी आज्ञा दे दी॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तु सेनापतिं राजा सस्मार भरतर्षभ।
कौशिकं चित्रसेनं च तस्मिन् युद्ध उपस्थिते ॥ ३२ ॥

मूलम्

स तु सेनापतिं राजा सस्मार भरतर्षभ।
कौशिकं चित्रसेनं च तस्मिन् युद्ध उपस्थिते ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! तदनन्तर मगधनरेशने वह युद्ध उपस्थित होनेपर अपने सेनापति कौशिक और चित्रसेनका स्मरण किया (जो उस समय जीवित नहीं थे)॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ययोस्ते नामनी राजन् हंसेति डिम्भकेति च।
पूर्वं संकथितं पुम्भिर्नृलोके लोकसत्कृते ॥ ३३ ॥

मूलम्

ययोस्ते नामनी राजन् हंसेति डिम्भकेति च।
पूर्वं संकथितं पुम्भिर्नृलोके लोकसत्कृते ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! ये वे ही थे, जिनके नाम पहले तुमसे हंस और डिम्भक बताये हैं। मनुष्यलोकके सभी पुरुष उनके प्रति बड़े आदरका भाव रखते थे॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं तु राजन् विभुः शौरी राजानं बलिनां वरम्।
स्मृत्वा पुरुषशार्दूलः शार्दूलसमविक्रमम् ॥ ३४ ॥
सत्यसंधो जरासंधं भुवि भीमपराक्रमम्।
भागमन्यस्य निर्दिष्टमवध्यं मधुभिर्मृधे ॥ ३५ ॥
नात्मनाऽऽत्मवतां मुख्य इयेष मधुसूदनः।
ब्राह्मीमाज्ञां पुरस्कृत्य हन्तुं हलधरानुजः ॥ ३६ ॥

मूलम्

तं तु राजन् विभुः शौरी राजानं बलिनां वरम्।
स्मृत्वा पुरुषशार्दूलः शार्दूलसमविक्रमम् ॥ ३४ ॥
सत्यसंधो जरासंधं भुवि भीमपराक्रमम्।
भागमन्यस्य निर्दिष्टमवध्यं मधुभिर्मृधे ॥ ३५ ॥
नात्मनाऽऽत्मवतां मुख्य इयेष मधुसूदनः।
ब्राह्मीमाज्ञां पुरस्कृत्य हन्तुं हलधरानुजः ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनमेजय! मनस्वी पुरुषोंमें सर्वश्रेष्ठ, सत्यप्रतिज्ञ, मनुष्योंमें सिंहके समान पराक्रमी, वसुदेवपुत्र एवं बलरामके छोटे भाई भगवान् मधुसूदनने दिव्य दृष्टिसे स्मरण करके यह जान लिया था कि सिंहके समान पराक्रमी, बलवानोंमें श्रेष्ठ और भयानक पुरुषार्थ प्रकट करनेवाला यह राजा जरासंध युद्धमें दूसरे वीरका भाग (वध्य) नियत किया गया है। यदुवंशियोंमेंसे किसीके हाथसे उसकी मृत्यु नहीं हो सकती, अतः ब्रह्माजीके आदेशकी रक्षा करनेके लिये उन्होंने स्वयं उसे मारनेकी इच्छा नहीं की॥३४—३६॥

मूलम् (वचनम्)

(जनमेजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

किमर्थं वैरिणावास्तामुभौ तौ कृष्णमागधौ।
कथं च निर्जितः संख्ये जरासंधेन माधवः॥

मूलम्

किमर्थं वैरिणावास्तामुभौ तौ कृष्णमागधौ।
कथं च निर्जितः संख्ये जरासंधेन माधवः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनमेजयने पूछा— मुने! भगवान् श्रीकृष्ण और मगधराज जरासंध दोनों एक-दूसरेके शत्रु क्यों हो गये थे? तथा जरासंधने यदुकुलतिलक श्रीकृष्णको युद्धमें कैसे परास्त किया?।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कश्च कंसो मागधस्य यस्य हेतोः स वैरवान्।
एतदाचक्ष्व मे सर्वं वैशम्पायन तत्त्वतः॥

मूलम्

कश्च कंसो मागधस्य यस्य हेतोः स वैरवान्।
एतदाचक्ष्व मे सर्वं वैशम्पायन तत्त्वतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

कंस मगधराज जरासंधका कौन था, जिसके लिये उसने भगवान्‌से वैर ठान लिया। वैशम्पायनजी! ये सब बातें मुझे यथार्थरूपसे बताइये।

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यादवानामन्ववाये वसुदेवो महामतिः ।
उदपद्यत वार्ष्णेयो ह्युग्रसेनस्य मन्त्रभृत्॥

मूलम्

यादवानामन्ववाये वसुदेवो महामतिः ।
उदपद्यत वार्ष्णेयो ह्युग्रसेनस्य मन्त्रभृत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजीने कहा— राजन्! यदुकुलमें परम बुद्धिमान् वसुदेव उत्पन्न हुए, जो वृष्णिवंशके राजकुमार तथा राजा उग्रसेनके विश्वसनीय मन्त्री थे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

उग्रसेनस्य कंसस्तु बभूव बलवान् सुतः।
ज्येष्ठो बहूनां कौरव्य सर्वशस्त्रविशारदः॥

मूलम्

उग्रसेनस्य कंसस्तु बभूव बलवान् सुतः।
ज्येष्ठो बहूनां कौरव्य सर्वशस्त्रविशारदः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उग्रसेनका पुत्र बलवान् कंस हुआ, जो उनके अनेक पुत्रोंमें सबसे बड़ा था। कुरुनन्दन! कंसने सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रोंकी विद्यामें निपुणता प्राप्त की थी।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जरासंधस्य दुहिता तस्य भार्यातिविश्रुता।
राज्यशुल्केन दत्ता सा जरासंधेन धीमता॥

मूलम्

जरासंधस्य दुहिता तस्य भार्यातिविश्रुता।
राज्यशुल्केन दत्ता सा जरासंधेन धीमता॥

अनुवाद (हिन्दी)

जरासंधकी पुत्री उसकी सुप्रसिद्ध पत्नी थी, जिसे बुद्धिमान् जरासंधने इस शर्तके साथ दिया था कि इसके पतिको तत्काल राजाके पदपर अभिषिक्त किया जाय।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदर्थमुग्रसेनस्य मथुरायां सुतस्तदा ।
अभिषिक्तस्तदामात्यैः स वै तीव्रपराक्रमः॥

मूलम्

तदर्थमुग्रसेनस्य मथुरायां सुतस्तदा ।
अभिषिक्तस्तदामात्यैः स वै तीव्रपराक्रमः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस शुल्ककी पूर्तिके लिये उग्रसेनके उस दुःसह पराक्रमी पुत्रको मन्त्रियोंने मथुराके राज्यपर अभिषिक्त कर दिया।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐश्वर्यबलमत्तस्तु स तदा बलमोहितः।
निगृह्य पितरं भुङ्क्ते तद् राज्यं मन्त्रिभिः सह॥

मूलम्

ऐश्वर्यबलमत्तस्तु स तदा बलमोहितः।
निगृह्य पितरं भुङ्क्ते तद् राज्यं मन्त्रिभिः सह॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब ऐश्वर्यके बलसे उन्मत्त और शारीरिक शक्तिसे मोहित हो कंस अपने पिताको कैद करके मन्त्रियोंके साथ उनका राज्य भोगने लगा।

विश्वास-प्रस्तुतिः

वसुदेवस्य तत् कृत्यं न शृणोति स मन्दधीः।
स तेन सह तद् राज्यं धर्मतः पर्यपालयत्॥

मूलम्

वसुदेवस्य तत् कृत्यं न शृणोति स मन्दधीः।
स तेन सह तद् राज्यं धर्मतः पर्यपालयत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

मन्दबुद्धि कंस वसुदेवजीके कर्तव्य-विषयक उपदेशको नहीं सुनता था, तो भी उसके साथ रहकर वसुदेवजी मथुराके राज्यका धर्मपूर्वक पालन करने लगे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रीतिमान् स तु दैत्येन्द्रो वसुदेवस्य देवकीम्।
उवाह भार्यां स तदा दुहिता देवकस्य या॥

मूलम्

प्रीतिमान् स तु दैत्येन्द्रो वसुदेवस्य देवकीम्।
उवाह भार्यां स तदा दुहिता देवकस्य या॥

अनुवाद (हिन्दी)

दैत्यराज कंसने अत्यन्त प्रसन्न होकर वसुदेवजीके साथ देवकीका ब्याह कर दिया, जो उग्रसेनके भाई देवककी पुत्री थी।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्यामुद्वाह्यमानायां रथेन जनमेजय ।
उपारुरोह वार्ष्णेयं कंसो भूमिपतिस्तदा॥

मूलम्

तस्यामुद्वाह्यमानायां रथेन जनमेजय ।
उपारुरोह वार्ष्णेयं कंसो भूमिपतिस्तदा॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनमेजय! जब रथपर बैठकर देवकी विदा होने लगी, तब राजा कंस भी उसे पहुँचानेके लिये वृष्णिवंश-विभूषण वसुदेवजीके पास उस रथपर जा बैठा।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽन्तरिक्षे वागासीद् देवदूतस्य कस्यचित्।
वसुदेवश्च शुश्राव तां वाचं पार्थिवश्च सः॥

मूलम्

ततोऽन्तरिक्षे वागासीद् देवदूतस्य कस्यचित्।
वसुदेवश्च शुश्राव तां वाचं पार्थिवश्च सः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी समय आकाशमें किसी देवदूतकी वाणी स्पष्ट सुनायी देने लगी। वसुदेवजीने तो उसे सुना ही, राजा कंसने भी सुना।

विश्वास-प्रस्तुतिः

यामेतां वहमानोऽद्य कंसोद्वहसि देवकीम्।
अस्या यश्चाष्टमो गर्भः स ते मृत्युर्भविष्यति॥

मूलम्

यामेतां वहमानोऽद्य कंसोद्वहसि देवकीम्।
अस्या यश्चाष्टमो गर्भः स ते मृत्युर्भविष्यति॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवदूत कह रहा था—‘कंस! आज तू जिस देवकीको रथपर बिठाकर लिये जा रहा है, उसका आठवाँ गर्भ तेरी मृत्युका कारण होगा’।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽवतीर्य ततो राजा खड्‌गमुद्‌धृत्य निर्मलम्।
इयेष तस्या मूर्धानं छेत्तुं परमदुर्मतिः॥

मूलम्

सोऽवतीर्य ततो राजा खड्‌गमुद्‌धृत्य निर्मलम्।
इयेष तस्या मूर्धानं छेत्तुं परमदुर्मतिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह आकाशवाणी सुनते ही अत्यन्त खोटी बुद्धिवाले राजा कंसने म्यानसे चमचमाती हुई तलवार खींच ली और देवकीका सिर काट लेनेका विचार किया।

विश्वास-प्रस्तुतिः

स सान्त्वयंस्तदा कंसं हसन् क्रोधवशानुगम्।
राजन्ननुनयामास वसुदेवो महामतिः ॥

मूलम्

स सान्त्वयंस्तदा कंसं हसन् क्रोधवशानुगम्।
राजन्ननुनयामास वसुदेवो महामतिः ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! उस समय परम बुद्धिमान् वसुदेवजी हँसते हुए क्रोधके वशीभूत हुए कंसको सान्त्वना दे उसकी अनुनय-विनय करने लगे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहिंस्यां प्रमदामाहुः सर्वधर्मेषु पार्थिव।
अकस्मादबलां नारीं हन्तासीमामनागसीम् ॥

मूलम्

अहिंस्यां प्रमदामाहुः सर्वधर्मेषु पार्थिव।
अकस्मादबलां नारीं हन्तासीमामनागसीम् ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पृथ्वीपते! प्रायः सभी धर्मोंमें नारीको अवध्य बताया गया है। क्या तुम इस निर्बल एवं निरपराध नारीको सहसा मार डालोगे?’

विश्वास-प्रस्तुतिः

यच्च तेऽत्र भयं राजन् शक्यते बाधितुं त्वया।
इयं च शक्या पालयितुं समयश्चैव रक्षितुम्॥

मूलम्

यच्च तेऽत्र भयं राजन् शक्यते बाधितुं त्वया।
इयं च शक्या पालयितुं समयश्चैव रक्षितुम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! इससे जो तुम्हें भय प्राप्त होनेवाला है, उसका तो तुम निवारण कर सकते हो। तुम्हें इसकी रक्षा करनी चाहिये और मुझे इसकी प्राणरक्षाके लिये जो शर्त निश्चित हो, उसका पालन करना चाहिये।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्यास्त्वमष्टमं गर्भं जातमात्रं महीपते।
विध्वंसय तदा प्राप्तमेवं परिहृतं भवेत्॥

मूलम्

अस्यास्त्वमष्टमं गर्भं जातमात्रं महीपते।
विध्वंसय तदा प्राप्तमेवं परिहृतं भवेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! इसके आठवें गर्भको तुम पैदा होते ही नष्ट कर देना। इस प्रकार तुमपर आयी हुई विपत्ति टल सकती है’।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं स राजा कथितो वसुदेवेन भारत।
तस्य तद् वचनं चक्रे शूरसेनाधिपस्तदा॥
ततस्तस्यां सम्बभूवुः कुमाराः सूर्यवर्चसः।
जाताञ्जातांस्तु तान् सर्वाञ्जघान मधुरेश्वरः॥

मूलम्

एवं स राजा कथितो वसुदेवेन भारत।
तस्य तद् वचनं चक्रे शूरसेनाधिपस्तदा॥
ततस्तस्यां सम्बभूवुः कुमाराः सूर्यवर्चसः।
जाताञ्जातांस्तु तान् सर्वाञ्जघान मधुरेश्वरः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! वसुदेवजीके ऐसा कहनेपर शूरसेन-देशके राजा कंसने उनकी बात मान ली। तदनन्तर देवकीके गर्भसे सूर्यके समान तेजस्वी अनेक कुमार क्रमशः उत्पन्न हुए। मथुरानरेश कंसने जन्म लेते ही उन सबको मार डालता था।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ तस्यां समभवद् बलदेवस्तु सप्तमः।
याम्यया मायया तं तु यमो राजा विशाम्पते॥
देवक्या गर्भमतुलं रोहिण्या जठरेऽक्षिपत्।
आकृष्य कर्षणात् सम्यक् संकर्षण इति स्मृतः॥
बलश्रेष्ठतया तस्य बलदेव इति स्मृतः।

मूलम्

अथ तस्यां समभवद् बलदेवस्तु सप्तमः।
याम्यया मायया तं तु यमो राजा विशाम्पते॥
देवक्या गर्भमतुलं रोहिण्या जठरेऽक्षिपत्।
आकृष्य कर्षणात् सम्यक् संकर्षण इति स्मृतः॥
बलश्रेष्ठतया तस्य बलदेव इति स्मृतः।

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर देवकीके उदरमें सातवें गर्भके रूपमें बलदेवका आगमन हुआ। राजन्! यमराजने यमसम्बन्धिनी मायाके द्वारा उस अनुपम गर्भको देवकीके उदरसे निकालकर रोहिणीकी कुक्षिमें स्थापित कर दिया। आकर्षण होनेके कारण उस बालकका नाम संकर्षण हुआ। बलमें प्रधान होनेसे उसका नाम बलदेव हुआ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुनस्तस्यां समभवदष्टमो मधुसूदनः ।
तस्य गर्भस्य रक्षां तु चक्रे सोऽभ्यधिकं नृपः॥

मूलम्

पुनस्तस्यां समभवदष्टमो मधुसूदनः ।
तस्य गर्भस्य रक्षां तु चक्रे सोऽभ्यधिकं नृपः॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् देवकीके उदरमें आठवें गर्भके रूपमें साक्षात् भगवान् मधुसूदनका आविर्भाव हुआ। राजा कंसने बड़े यत्नसे उस गर्भकी रक्षा की।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः काले रक्षणार्थं वसुदेवस्य सात्वतः॥
उग्रः प्रयुक्तः कंसेन सचिवः क्रूरकर्मकृत्।
विमूढेषु प्रभावेन बालस्योत्तीर्य तत्र वै॥
उपागम्य स घोषे तु जगाम स महाद्युतिः।
जातमात्रं वासुदेवमथाकृष्य पिता ततः॥
उपजह्रे परिक्रीतां सुतां गोपस्य कस्यचित्।

मूलम्

ततः काले रक्षणार्थं वसुदेवस्य सात्वतः॥
उग्रः प्रयुक्तः कंसेन सचिवः क्रूरकर्मकृत्।
विमूढेषु प्रभावेन बालस्योत्तीर्य तत्र वै॥
उपागम्य स घोषे तु जगाम स महाद्युतिः।
जातमात्रं वासुदेवमथाकृष्य पिता ततः॥
उपजह्रे परिक्रीतां सुतां गोपस्य कस्यचित्।

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर प्रसवकाल आनेपर सात्वतवंशी वसुदेवपर कड़ी नजर रखनेके लिये कंसने उग्र स्वभाववाले अपने क्रूरकर्मा मन्त्रीको नियुक्त किया। परंतु बालस्वरूप श्रीकृष्णके प्रभावसे रक्षकोंके निद्रासे मोहित हो जानेपर वहाँसे उठकर महातेजस्वी वसुदेवजी बालकके साथ व्रजमें चले गये। नवजात वासुदेवको मथुरासे हटाकर पिता वसुदेवने उसके बदलेमें किसी गोपकी पुत्रीको लाकर कंसको भेंट कर दिया।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुमुक्षमाणस्तं शब्दं देवदूतस्य पार्थिवः॥
जघान कंसस्तां कन्यां प्रहसन्ती जगाम सा।
आर्येति वाशती शब्दं तस्मादार्येति कीर्तिता॥

मूलम्

मुमुक्षमाणस्तं शब्दं देवदूतस्य पार्थिवः॥
जघान कंसस्तां कन्यां प्रहसन्ती जगाम सा।
आर्येति वाशती शब्दं तस्मादार्येति कीर्तिता॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवदूतके कहे हुए पूर्वोक्त शब्दका स्मरण करके उसके भयसे छूटनेकी इच्छा रखनेवाले कंसने उस कन्याको भी पृथ्वीपर दे मारा। परंतु वह कन्या उसके हाथसे छूटकर हँसती और आर्य शब्दका उच्चारण करती हुई वहाँसे चली गयी। इसीलिये उसका नाम ‘आर्या’ हुआ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं तं वञ्चयित्वा च राजानं स महामतिः।
वासुदेवं महात्मानं वर्धयामास गोकुले॥

मूलम्

एवं तं वञ्चयित्वा च राजानं स महामतिः।
वासुदेवं महात्मानं वर्धयामास गोकुले॥

अनुवाद (हिन्दी)

परम बुद्धिमान् वसुदेवने इस प्रकार राजा कंसको चकमा देकर गोकुलमें अपने महात्मा पुत्र वासुदेवका पालन कराया।

विश्वास-प्रस्तुतिः

वासुदेवोऽपि गोपेषु ववृधेऽब्जमिवाम्भसि ।
अज्ञायमानः कंसेन गूढोऽग्निरिव दारुषु॥

मूलम्

वासुदेवोऽपि गोपेषु ववृधेऽब्जमिवाम्भसि ।
अज्ञायमानः कंसेन गूढोऽग्निरिव दारुषु॥

अनुवाद (हिन्दी)

वासुदेव भी पानीमें कमलकी भाँति गोपोंमें रहकर बड़े हुए। काठमें छिपी हुई अग्निकी भाँति वे अज्ञातभावसे वहाँ रहने लगे। कंसको उनका पता न चला।

विश्वास-प्रस्तुतिः

विप्रचक्रेऽथ तान्‌ सर्वान्‌ वल्लवान् मधुरेश्वरः।
वर्धमानो महाबाहुस्तेजोबलसमन्वितः ॥

मूलम्

विप्रचक्रेऽथ तान्‌ सर्वान्‌ वल्लवान् मधुरेश्वरः।
वर्धमानो महाबाहुस्तेजोबलसमन्वितः ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मथुरानरेश कंस उन सब गोपोंको बहुत सताया करता था। इधर महाबाहु श्रीकृष्ण बड़े होकर तेज और बलसे सम्पन्न हो गये।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्ते क्लिश्यमानास्तु पुण्डरीकाक्षमच्युतम् ।
भयेन कामादपरे गणशः पर्यवारयन्॥

मूलम्

ततस्ते क्लिश्यमानास्तु पुण्डरीकाक्षमच्युतम् ।
भयेन कामादपरे गणशः पर्यवारयन्॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाके सताये हुए गोपगण भय तथा कामनासे झुंड-के-झुंड एकत्र हो कमलनयन भगवान् श्रीकृष्णको घेरकर संगठित होने लगे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तु लब्ध्वा बलं राजन्नुग्रसेनस्य सम्मतः।
वसुदेवात्मजः सर्वैर्भ्रातृभिः सहितं पुनः॥
निर्जित्य युधि भोजेन्द्रं हत्वा कंसं महाबलः।
अभ्यषिञ्चत् ततो राज्य उग्रसेनं विशाम्पते॥

मूलम्

स तु लब्ध्वा बलं राजन्नुग्रसेनस्य सम्मतः।
वसुदेवात्मजः सर्वैर्भ्रातृभिः सहितं पुनः॥
निर्जित्य युधि भोजेन्द्रं हत्वा कंसं महाबलः।
अभ्यषिञ्चत् ततो राज्य उग्रसेनं विशाम्पते॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! इस प्रकार बलका संग्रह करके महाबली वसुदेवनन्दन श्रीकृष्णने उग्रसेनकी सम्मतिके अनुसार समस्त भाइयोंसहित भोजराज कंसको मारकर पुनः उग्रसेनको ही मथुराके राज्यपर अभिषिक्त कर दिया।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः श्रुत्वा जरासंधो माधवेन हतं युधि।
शूरसेनाधिपं चक्रे कंसपुत्रं तदा नृपः॥

मूलम्

ततः श्रुत्वा जरासंधो माधवेन हतं युधि।
शूरसेनाधिपं चक्रे कंसपुत्रं तदा नृपः॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! जरासंधने जब यह सुना कि श्रीकृष्णने कंसको युद्धमें मार डाला है, तब उसने कंसके पुत्रको शूरसेनदेशका राजा बनाया।

विश्वास-प्रस्तुतिः

स सैन्यं महदुत्थाप्य वासुदेवं प्रसह्य च।
अभ्यषिञ्चत् सुतं तत्र सुताया जनमेजय॥

मूलम्

स सैन्यं महदुत्थाप्य वासुदेवं प्रसह्य च।
अभ्यषिञ्चत् सुतं तत्र सुताया जनमेजय॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनमेजय! उसने बड़ी भारी सेना लेकर आक्रमण किया और वसुदेवनन्दन श्रीकृष्णको हराकर अपनी पुत्रीके पुत्रको वहाँ राज्यपर अभिषिक्त कर दिया।

विश्वास-प्रस्तुतिः

उग्रसेनं च वृष्णींश्च महाबलसमन्वितः।
स तत्र विप्रकुरुते जरासंधः प्रतापवान्॥
एतद् वैरं कौरवेय जरासंधस्य माधवे।

मूलम्

उग्रसेनं च वृष्णींश्च महाबलसमन्वितः।
स तत्र विप्रकुरुते जरासंधः प्रतापवान्॥
एतद् वैरं कौरवेय जरासंधस्य माधवे।

अनुवाद (हिन्दी)

जनमेजय! प्रतापी जरासंध महान् बल और सैनिकशक्तिसे सम्पन्न था। वह उग्रसेन तथा वृष्णिवंशको सदा क्लेश पहुँचाया करता था। कुरुनन्दन! जरासंध और श्रीकृष्णके वैरका यही वृत्तान्त है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आशासितार्थे राजेन्द्र संरुरोध विनिर्जितान्।
पार्थिवैस्तैर्नृपतिभिर्यक्ष्यमाणः समृद्धिमान् ॥
देवश्रेष्ठं महादेवं कृत्तिवासं त्रियम्बकम्।
एतत् सर्वं यथा वृत्तं कथितं भरतर्षभ॥
यथा तु स हतो राजा भीमसेनेन तच्छृणु।)

मूलम्

आशासितार्थे राजेन्द्र संरुरोध विनिर्जितान्।
पार्थिवैस्तैर्नृपतिभिर्यक्ष्यमाणः समृद्धिमान् ॥
देवश्रेष्ठं महादेवं कृत्तिवासं त्रियम्बकम्।
एतत् सर्वं यथा वृत्तं कथितं भरतर्षभ॥
यथा तु स हतो राजा भीमसेनेन तच्छृणु।)

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! समृद्धिशाली जरासंध कृत्तिवासा और त्र्यम्बक नामोंसे प्रसिद्ध देवश्रेष्ठ महादेवजीको भूमण्डलके राजाओंकी बलि देकर उनका यजन करना चाहता था और इसी मनोवांछित प्रयोजनकी सिद्धिके लिये उसने अपने जीते हुए समस्त राजाओंको कैदमें डाल रखा था। भरतश्रेष्ठ! यह सब वृत्तान्त तुम्हें यथावत् बताया गया। अब जिस प्रकार भीमसेनने राजा जरासंधका वध किया, वह प्रसंग सुनो।

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि जरासंधवधपर्वणि जरासंधयुद्धोद्योगे द्वाविंशोऽध्यायः ॥ २२ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्वके अन्तर्गत जरासंधवधपर्वमें जरासंधका युद्धके लिये उद्योगविषयक बाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२२॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ३९ श्लोक मिलाकर कुल ७५ श्लोक हैं)