०२१ नगरप्रवेशः

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

एकविंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

श्रीकृष्णद्वारा मगधकी राजधानीकी प्रशंसा, चैत्यक पर्वतशिखर और नगाड़ोंको तोड़-फोड़-कर तीनोंका नगर एवं राजभवनमें प्रवेश तथा श्रीकृष्ण और जरासंधका संवाद

मूलम् (वचनम्)

वासुदेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष पार्थ महान् भाति पशुमान् नित्यमम्बुमान्।
निरामयः सुवेश्माढ्यो निवेशो मागधः शुभः ॥ १ ॥

मूलम्

एष पार्थ महान् भाति पशुमान् नित्यमम्बुमान्।
निरामयः सुवेश्माढ्यो निवेशो मागधः शुभः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीकृष्ण बोले— कुन्तीनन्दन! देखो, यह मगध-देशकी सुन्दर एवं विशाल राजधानी कैसी शोभा पा रही है। यहाँ पशुओंकी अधिकता है। जलकी भी सदा पूर्ण सुविधा रहती है। यहाँ रोग-व्याधिका प्रकोप नहीं होता। सुन्दर महलोंसे भरा-पूरा यह नगर बड़ा मनोहर प्रतीत होता है॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वैहारो विपुलः शैलो वराहो वृषभस्तथा।
तथा ऋषिगिरिस्तात शुभाश्चैत्यकपञ्चमाः ॥ २ ॥
एते पञ्च महाशृङ्गाः पर्वताः शीतलद्रुमाः।
रक्षन्तीवाभिसंहत्य संहताङ्गा गिरिव्रजम् ॥ ३ ॥

मूलम्

वैहारो विपुलः शैलो वराहो वृषभस्तथा।
तथा ऋषिगिरिस्तात शुभाश्चैत्यकपञ्चमाः ॥ २ ॥
एते पञ्च महाशृङ्गाः पर्वताः शीतलद्रुमाः।
रक्षन्तीवाभिसंहत्य संहताङ्गा गिरिव्रजम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात! यहाँ विहारोपयोगी विपुल, वराह, वृषभ (ऋषभ), ऋषिगिरि (मातंग) तथा पाँचवाँ चैत्यक नामक पर्वत है। बड़े-बड़े शिखरोंवाले ये पाँचों सुन्दर पर्वत शीतल छायावाले वृक्षोंसे सुशोभित हैं और एक साथ मिलकर एक-दूसरेके शरीरका स्पर्श करते हुए मानो गिरिव्रज नगरकी रक्षा कर रहे हैं॥२-३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुष्पवेष्टितशाखाग्रैर्गन्धवद्भिर्मनोहरैः ।
निगूढा इव लोध्राणां वनैः कामिजनप्रियैः ॥ ४ ॥

मूलम्

पुष्पवेष्टितशाखाग्रैर्गन्धवद्भिर्मनोहरैः ।
निगूढा इव लोध्राणां वनैः कामिजनप्रियैः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ लोध नामक वृक्षोंके कई मनोहर वन हैं, जिनसे वे पाँचों पर्वत ढके हुए-से जान पड़ते हैं। उनकी शाखाओंके अग्रभागमें फूल-ही-फूल दिखायी देते हैं। लोधोंके ये सुगन्धित वन कामीजनोंको बहुत प्रिय हैं॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शूद्रायां गौतमो यत्र महात्मा संशितव्रतः।
औशीनर्यामजनयत् काक्षीवाद्यान् सुतान् मुनिः ॥ ५ ॥

मूलम्

शूद्रायां गौतमो यत्र महात्मा संशितव्रतः।
औशीनर्यामजनयत् काक्षीवाद्यान् सुतान् मुनिः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यहीं अत्यन्त कठोर व्रतका पालन करनेवाले महामना गौतमने उशीनरदेशकी शूद्रजातीय कन्याके गर्भसे काक्षीवान् आदि पुत्रोंको उत्पन्न किया था॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गौतमः प्रणयात् तस्माद् यथासौ तत्र सद्मनि।
भजते मागधं वंशं स नृपाणामनुग्रहात् ॥ ६ ॥

मूलम्

गौतमः प्रणयात् तस्माद् यथासौ तत्र सद्मनि।
भजते मागधं वंशं स नृपाणामनुग्रहात् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी कारण वह गौतम मुनि राजाओंके प्रेमसे वहाँ आश्रममें रहता तथा मगधदेशीय राजवंशकी सेवा करता है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अङ्गवङ्गादयश्चैव राजानः सुमहाबलाः ।
गौतमक्षयमभ्येत्य रमन्ते स्म पुरार्जुन ॥ ७ ॥

मूलम्

अङ्गवङ्गादयश्चैव राजानः सुमहाबलाः ।
गौतमक्षयमभ्येत्य रमन्ते स्म पुरार्जुन ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुन! पूर्वकालमें अंग-वंग आदि महाबली राजा भी गौतमके घरमें आकर आनन्दपूर्वक रहते थे॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वनराजीस्तु पश्येमाः पिप्पलानां मनोरमाः।
लोध्राणां च शुभाः पार्थ गौतमौकः समीपजाः ॥ ८ ॥

मूलम्

वनराजीस्तु पश्येमाः पिप्पलानां मनोरमाः।
लोध्राणां च शुभाः पार्थ गौतमौकः समीपजाः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पार्थ! गौतमके आश्रमके निकट लहलहाती हुई पीपल और लोधोंकी इन सुन्दर एवं मनोरम वन-पंक्तियोंको तो देखो॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्बुदः शक्रवापी च पन्नगौ शत्रुतापनौ।
स्वस्तिकस्यालयश्चात्र मणिनागस्य चोत्तमः ॥ ९ ॥

मूलम्

अर्बुदः शक्रवापी च पन्नगौ शत्रुतापनौ।
स्वस्तिकस्यालयश्चात्र मणिनागस्य चोत्तमः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यहाँ अर्बुद और शक्रवापी नामवाले दो नाग रहते हैं, जो अपने शत्रुओंको संतप्त करनेवाले हैं। यहीं स्वस्तिक नाग और मणि नागके भी उत्तम भवन हैं॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपरिहार्या मेघानां मागधा मनुना कृताः।
कौशिको मणिमांश्चैव चक्राते चाप्यनुग्रहम् ॥ १० ॥

मूलम्

अपरिहार्या मेघानां मागधा मनुना कृताः।
कौशिको मणिमांश्चैव चक्राते चाप्यनुग्रहम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुने मगधदेशके निवासियोंको मेघोंके लिये अपरिहार्य (अनुग्राह्य) कर दिया है; (अतः वहाँ सदा ही बादल समयपर यथेष्ट वर्षा करते हैं।) चण्डकौशिक मुनि और मणिमान् नाग भी मगधदेशपर अनुग्रह कर चुके हैं॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(पाण्डरे विपुले चैव तथा वाराहकेऽपि च।
चैत्यके च गिरिश्रेष्ठे मातङ्गे च शिलोच्चये॥
एतेषु पर्वतेन्द्रेषु सर्वसिद्धमहालयाः ।
यतीनामाश्रमाच्चैव मुनीनां च महात्मनाम्॥

मूलम्

(पाण्डरे विपुले चैव तथा वाराहकेऽपि च।
चैत्यके च गिरिश्रेष्ठे मातङ्गे च शिलोच्चये॥
एतेषु पर्वतेन्द्रेषु सर्वसिद्धमहालयाः ।
यतीनामाश्रमाच्चैव मुनीनां च महात्मनाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्वेतवर्णके वृषभ, विपुल, वाराह, गिरिश्रेष्ठ चैत्यक तथा मातंग गिरि—इन सभी श्रेष्ठ पर्वतोंपर सम्पूर्ण सिद्धोंके विशाल भवन हैं तथा यतियों, मुनियों और महात्माओंके बहुत-से आश्रम हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृषभस्य तमालस्य महावीर्यस्य वै तथा।
गन्धर्वरक्षसां चैव नागानां च तथाऽऽलयाः॥)

मूलम्

वृषभस्य तमालस्य महावीर्यस्य वै तथा।
गन्धर्वरक्षसां चैव नागानां च तथाऽऽलयाः॥)

अनुवाद (हिन्दी)

वृषभ, महापराक्रमी तमाल, गन्धर्वों, राक्षसों तथा नागोंके भी निवासस्थान उन पर्वतोंकी शोभा बढ़ाते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं प्राप्य पुरं रम्यं दुराधर्षं समन्ततः।
अर्थसिद्धिं त्वनुपमां जरासंधोऽभिमन्यते ॥ ११ ॥

मूलम्

एवं प्राप्य पुरं रम्यं दुराधर्षं समन्ततः।
अर्थसिद्धिं त्वनुपमां जरासंधोऽभिमन्यते ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार चारों ओरसे दुर्धर्ष उस रमणीय नगरको पाकर जरासंधको यह अभिमान बना रहता है कि मुझे अनुपम अर्थसिद्धि प्राप्त होगी॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वयमासादने तस्य दर्पमद्य हरेमहि।

मूलम्

वयमासादने तस्य दर्पमद्य हरेमहि।

अनुवाद (हिन्दी)

आज हमलोग उसके घरपर ही चलकर उसका सारा घमंड हर लेंगे॥११॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वा ततः सर्वे भ्रातरो विपुलौजसः ॥ १२ ॥
वार्ष्णेयः पाण्डवौ चैव प्रतस्थुर्मागधं पुरम्।
हृष्टपुष्टजनोपेतं चातुर्वर्ण्यसमाकुलम् ॥ १३ ॥

मूलम्

एवमुक्त्वा ततः सर्वे भ्रातरो विपुलौजसः ॥ १२ ॥
वार्ष्णेयः पाण्डवौ चैव प्रतस्थुर्मागधं पुरम्।
हृष्टपुष्टजनोपेतं चातुर्वर्ण्यसमाकुलम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! ऐसी बातें करते हुए वे सभी महातेजस्वी भाई श्रीकृष्ण, अर्जुन और भीमसेन मगधकी राजधानीमें प्रवेश करनेके लिये चल पड़े। वह नगर चारों वर्णोंके लोगोंसे भरा-पूरा था। उसमें रहनेवाले सभी लोग हृष्ट-पुष्ट दिखायी देते थे॥१२-१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्फीतोत्सवमनाधृष्यमासेदुश्च गिरिव्रजम् ।
ततो द्वारमनासाद्य पुरस्य गिरिमुच्छ्रितम् ॥ १४ ॥
बार्हद्रथैः पूज्यमानं तथा नगरवासिभिः।
मगधानां सुरुचिरं चैत्यकान्तं समाद्रवन् ॥ १५ ॥

मूलम्

स्फीतोत्सवमनाधृष्यमासेदुश्च गिरिव्रजम् ।
ततो द्वारमनासाद्य पुरस्य गिरिमुच्छ्रितम् ॥ १४ ॥
बार्हद्रथैः पूज्यमानं तथा नगरवासिभिः।
मगधानां सुरुचिरं चैत्यकान्तं समाद्रवन् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ अधिकाधिक उत्सव होते रहते थे। कोई भी उसको जीत नहीं सकता था। ऐसे गिरिव्रजके निकट वे तीनों जा पहुँचे। वे मुख्य फाटकपर न जाकर नगरके चैत्यक नामक ऊँचे पर्वतपर चले गये। उस नगरमें निवास करनेवाले मनुष्य तथा बृहद्रथ-परिवारके लोग उस पर्वतकी पूजा किया करते थे। मगधदेशकी प्रजाको यह चैत्यक पर्वत बहुत ही प्रिय था॥१४-१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्र मांसादमृषभमाससाद बृहद्रथः ।
तं हत्वा मासतालाभिस्तिस्रो भेरीरकारयत् ॥ १६ ॥

मूलम्

यत्र मांसादमृषभमाससाद बृहद्रथः ।
तं हत्वा मासतालाभिस्तिस्रो भेरीरकारयत् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस स्थानपर राजा बृहद्रथने (वृषभरूपधारी) ऋषभ नामक एक मांसभक्षी राक्षससे युद्ध किया और उसे मारकर उसकी खालसे तीन बड़े-बड़े नगाड़े तैयार कराये, जिनपर चोट करनेसे महीनेभरतक आवाज होती रहती थी॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वपुरे स्थापयामास तेन चानह्य चर्मणा।
यत्र ताः प्राणदन् भेर्यो दिव्यपुष्पावचूर्णिताः ॥ १७ ॥

मूलम्

स्वपुरे स्थापयामास तेन चानह्य चर्मणा।
यत्र ताः प्राणदन् भेर्यो दिव्यपुष्पावचूर्णिताः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाने उन नगाड़ोंको उस राक्षसके चमड़ेसे मढ़ाकर अपने नगरमें रखवा दिया। जहाँ वे नगाड़े बजते थे, वहाँ दिव्य फूलोंकी वर्षा होने लगती थी॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भङ्क्त्वा भेरीत्रयं तेऽपि चैत्यप्राकारमाद्रवन्।
द्वारतोऽभिमुखाः सर्वे ययुर्नानाऽऽयुधास्तदा ॥ १८ ॥
मागधानां सुरुचिरं चैत्यकं तं समाद्रवन्।
शिरसीव समाघ्नन्तो जरासंधं जिघांसवः ॥ १९ ॥

मूलम्

भङ्क्त्वा भेरीत्रयं तेऽपि चैत्यप्राकारमाद्रवन्।
द्वारतोऽभिमुखाः सर्वे ययुर्नानाऽऽयुधास्तदा ॥ १८ ॥
मागधानां सुरुचिरं चैत्यकं तं समाद्रवन्।
शिरसीव समाघ्नन्तो जरासंधं जिघांसवः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन तीनों वीरोंने उपर्युक्त तीनों नगाड़ोंको फोड़कर चैत्यक पर्वतके परकोटेपर आक्रमण किया। उन सबने अनेक प्रकारके आयुध लेकर द्वारके सामने मगध-निवासियोंके परम प्रिय उस चैत्यक पर्वतपर धावा किया था। जरासंधको मारनेकी इच्छा रखकर मानो वे उसके मस्तकपर आघात कर रहे थे॥१८-१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्थिरं सुविपुलं शृङ्गं सुमहत् तत् पुरातनम्।
अर्चितं गन्धमाल्यैश्च सततं सुप्रतिष्ठितम् ॥ २० ॥
विपुलैर्बाहुभिर्वीरास्तेऽभिहत्याभ्यपातयन् ।
ततस्ते मागधं हृष्टाः पुरं प्रविविशुस्तदा ॥ २१ ॥

मूलम्

स्थिरं सुविपुलं शृङ्गं सुमहत् तत् पुरातनम्।
अर्चितं गन्धमाल्यैश्च सततं सुप्रतिष्ठितम् ॥ २० ॥
विपुलैर्बाहुभिर्वीरास्तेऽभिहत्याभ्यपातयन् ।
ततस्ते मागधं हृष्टाः पुरं प्रविविशुस्तदा ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस चैत्यकका विशाल शिखर बहुत पुराना, किंतु सुदृढ़ था। मगधदेशमें उसकी बड़ी प्रतिष्ठा थी। गन्ध और पुष्पकी मालाओंसे उसकी सदा पूजा की जाती थी। श्रीकृष्ण आदि तीनों वीरोंने अपनी विशाल भुजाओंसे टक्कर मारकर उस चैत्यक पर्वतके शिखरको गिरा दिया। तदनन्तर वे अत्यन्त प्रसन्न होकर मगधकी राजधानी गिरिव्रजके भीतर घुसे॥२०-२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतस्मिन्नेव काले तु ब्राह्मणा वेदपारगाः।
दृष्ट्वा तु दुर्निमित्तानि जरासंधमदर्शयन् ॥ २२ ॥

मूलम्

एतस्मिन्नेव काले तु ब्राह्मणा वेदपारगाः।
दृष्ट्वा तु दुर्निमित्तानि जरासंधमदर्शयन् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी समय वेदोंके पारगामी विद्वान् ब्राह्मणोंने अनेक अपशकुन देखकर राजा जरासंधको उनके विषयमें सूचित किया॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पर्यग्न्यकुर्वंश्च नृपं द्विरदस्थं पुरोहिताः।
ततस्तच्छान्तये राजा जरासंधः प्रतापवान्।
दीक्षितो नियमस्थोऽसावुपवासपरोऽभवत् ॥ २३ ॥

मूलम्

पर्यग्न्यकुर्वंश्च नृपं द्विरदस्थं पुरोहिताः।
ततस्तच्छान्तये राजा जरासंधः प्रतापवान्।
दीक्षितो नियमस्थोऽसावुपवासपरोऽभवत् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरोहितोंने राजाको हाथीपर बिठाकर उसके चारों ओर प्रज्वलित आग घुमायी। प्रतापी राजा जरासंधने अनिष्टकी शान्तिके लिये व्रतकी दीक्षा ले नियमोंका पालन करते हुए उपवास किया॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्नातकव्रतिनस्ते तु बाहुशस्त्रा निरायुधाः।
युयुत्सवः प्रविविशुर्जरासंधेन भारत ॥ २४ ॥

मूलम्

स्नातकव्रतिनस्ते तु बाहुशस्त्रा निरायुधाः।
युयुत्सवः प्रविविशुर्जरासंधेन भारत ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! इधर भगवान् श्रीकृष्ण, भीमसेन और अर्जुन स्नातक-व्रतका पालन करनेवाले ब्राह्मणोंके वेषमें अस्त्र-शस्त्रोंका परित्याग करके अपनी भुजाओंसे ही आयुधोंका काम लेते हुए जरासंधके साथ युद्ध करनेकी इच्छा रखकर नगरमें प्रविष्ट हुए॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भक्ष्यमाल्यापणानां च ददृशुः श्रियमुत्तमाम्।
स्फीतां सर्वगुणोपेतां सर्वकामसमृद्धिनीम् ॥ २५ ॥
तां तु दृष्ट्वा समृद्धिं ते वीथ्यां तस्यां नरोत्तमाः।
राजमार्गेण गच्छन्तः कृष्णभीमधनंजयाः ।
बलाद् गृहीत्वा माल्यानि मालाकारान्महाबलाः ॥ २६ ॥

मूलम्

भक्ष्यमाल्यापणानां च ददृशुः श्रियमुत्तमाम्।
स्फीतां सर्वगुणोपेतां सर्वकामसमृद्धिनीम् ॥ २५ ॥
तां तु दृष्ट्वा समृद्धिं ते वीथ्यां तस्यां नरोत्तमाः।
राजमार्गेण गच्छन्तः कृष्णभीमधनंजयाः ।
बलाद् गृहीत्वा माल्यानि मालाकारान्महाबलाः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने खाने-पीनेकी वस्तुओं, फूल-मालाओं तथा अन्य आवश्यक पदार्थोंकी दूकानोंसे सजे हुए हाट-बाटकी अपूर्व शोभा और सम्पदा देखी। नगरका वह वैभव बहुत बढ़ा-चढ़ा, सर्वगुणसम्पन्न तथा समस्त कामनाओंकी पूर्ति करनेवाला था। उस गलीकी अद्भुत समृद्धिको देखकर वे महाबली नरश्रेष्ठ श्रीकृष्ण, भीम और अर्जुन एक मालीसे बलपूर्वक बहुत-सी मालाएँ लेकर नगरकी प्रधान सड़कसे चलने लगे॥२५-२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विरागवसनाः सर्वे स्रग्विणो मृष्टकुण्डलाः।
निवेशनमथाजग्मुर्जरासंधस्य धीमतः ॥ २७ ॥

मूलम्

विरागवसनाः सर्वे स्रग्विणो मृष्टकुण्डलाः।
निवेशनमथाजग्मुर्जरासंधस्य धीमतः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन सबके वस्त्र अनेक रंगके थे। उन्होंने गलेमें हार और कानोंमें चमकीले कुण्डल पहन रखे थे। वे क्रमशः बुद्धिमान् राजा जरासंधके महलके समीप जा पहुँचे॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोवासमिव वीक्षन्तः सिंहा हैमवता यथा।
शालस्तम्भनिभास्तेषां चन्दनागुरुरूषिताः ॥ २८ ॥
अशोभन्त महाराज बाहवो युद्धशालिनाम्।

मूलम्

गोवासमिव वीक्षन्तः सिंहा हैमवता यथा।
शालस्तम्भनिभास्तेषां चन्दनागुरुरूषिताः ॥ २८ ॥
अशोभन्त महाराज बाहवो युद्धशालिनाम्।

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे हिमालयकी गुफाओंमें रहनेवाले सिंह गौओंका स्थान ढूँढ़ते हुए आगे बढ़ते हों, उसी प्रकार वे तीनों वीर राजभवनकी तलाश करते हुए वहाँ पहुँचे थे। महाराज! युद्धमें विशेष शोभा पानेवाले उन तीनों वीरोंकी भुजाएँ साखूके लट्ठे-जैसी सुशोभित हो रही थीं। उनपर चन्दन और अगुरुका लेप किया गया था॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तान्‌ दृष्ट्वा द्विरदप्रख्याञ्शालस्कन्धानिवोद्‌गतान् ।
व्यूढोरस्कान् मागधानां विस्मयः समपद्यत ॥ २९ ॥

मूलम्

तान्‌ दृष्ट्वा द्विरदप्रख्याञ्शालस्कन्धानिवोद्‌गतान् ।
व्यूढोरस्कान् मागधानां विस्मयः समपद्यत ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शालवृक्षके तनेके समान ऊँचे डील और चौड़ी छातीवाले गजराजसदृश उन बलवान् वीरोंको देखकर मगधनिवासियोंको बड़ा आश्चर्य हुआ॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते त्वतीत्य जनाकीर्णाः कक्षास्तिस्रो नरर्षभाः।
अहंकारेण राजानमुपतस्थुर्गतव्यथाः ॥ ३० ॥

मूलम्

ते त्वतीत्य जनाकीर्णाः कक्षास्तिस्रो नरर्षभाः।
अहंकारेण राजानमुपतस्थुर्गतव्यथाः ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे नरश्रेष्ठ लोगोंसे भरी हुई तीन ड्योढ़ियोंको पार करके निर्भय एवं निश्चिन्त हो बड़े अभिमानके साथ राजा जरासंधके निकट गये॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तान् पाद्यमधुपर्कार्हान् गवार्हान्‌ सत्कृतिं गतान्।
प्रत्युत्थाय जरासंध उपतस्थे यथाविधि ॥ ३१ ॥

मूलम्

तान् पाद्यमधुपर्कार्हान् गवार्हान्‌ सत्कृतिं गतान्।
प्रत्युत्थाय जरासंध उपतस्थे यथाविधि ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे पाद्य, मधुपर्क और गोदान पानेके योग्य थे। उनका सर्वत्र सत्कार होता था। उन्हें आया देख जरासंध उठकर खड़ा हो गया और उसने विधिपूर्वक उनका आतिथ्य-सत्कार किया॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उवाच चैतान् राजासौ स्वागतं वोऽस्त्विति प्रभुः।
मौनमासीत् तदा पार्थभीमयोर्जनमेजय ॥ ३२ ॥
तेषां मध्ये महाबुद्धिः कृष्णो वचनमब्रवीत्।
वक्तुं नायाति राजेन्द्र एतयोर्नियमस्थयोः ॥ ३३ ॥
अर्वाङ्निशीथात् परतस्त्वया सार्धं वदिष्यतः।

मूलम्

उवाच चैतान् राजासौ स्वागतं वोऽस्त्विति प्रभुः।
मौनमासीत् तदा पार्थभीमयोर्जनमेजय ॥ ३२ ॥
तेषां मध्ये महाबुद्धिः कृष्णो वचनमब्रवीत्।
वक्तुं नायाति राजेन्द्र एतयोर्नियमस्थयोः ॥ ३३ ॥
अर्वाङ्निशीथात् परतस्त्वया सार्धं वदिष्यतः।

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर शक्तिशाली राजाने इन तीनों अतिथियोंसे कहा—‘आपलोगोंका स्वागत है।’ जनमेजय! उस समय अर्जुन और भीमसेन तो मौन थे। उनमेंसे महाबुद्धिमान् श्रीकृष्णने यह बात कही—‘राजेन्द्र! ये दोनों एक नियम ले चुके हैं; अतः आधी रातसे पहले नहीं बोलते। आधी रातके बाद ये दोनों आपसे बात करेंगे’॥३२-३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यज्ञागारे स्थापयित्वा राजा राजगृहं गतः ॥ ३४ ॥
ततोऽर्धरात्रे सम्प्राप्ते यातो यत्र स्थिता द्विजाः।
तस्य ह्येतद् व्रतं राजन् बभूव भुवि विश्रुतम् ॥ ३५ ॥

मूलम्

यज्ञागारे स्थापयित्वा राजा राजगृहं गतः ॥ ३४ ॥
ततोऽर्धरात्रे सम्प्राप्ते यातो यत्र स्थिता द्विजाः।
तस्य ह्येतद् व्रतं राजन् बभूव भुवि विश्रुतम् ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब राजा उन्हें यज्ञशालामें ठहराकर स्वयं राजभवनमें चला गया। फिर आधी रात होनेपर जहाँ वे ब्राह्मण ठहरे थे, वहाँ वह गया। राजन्! उसका यह नियम भूमण्डलमें विख्यात था॥३४-३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्नातकान् ब्राह्मणान् प्राप्ताञ्छ्रुत्वा स समितिंजयः।
अत्यर्धरात्रे नृपतिः प्रत्युद्‌गच्छति भारत ॥ ३६ ॥

मूलम्

स्नातकान् ब्राह्मणान् प्राप्ताञ्छ्रुत्वा स समितिंजयः।
अत्यर्धरात्रे नृपतिः प्रत्युद्‌गच्छति भारत ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! युद्धविजयी राजा जरासंध स्नातक ब्राह्मणोंका आगमन सुनकर आधी रातके समय भी उनकी आवभगतके लिये उनके पास चला जाता था॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तांस्त्वपूर्वेण वेषेण दृष्ट्वा स नृपसत्तमः।
उपतस्थे जरासंधो विस्मितश्चाभवत् तदा ॥ ३७ ॥

मूलम्

तांस्त्वपूर्वेण वेषेण दृष्ट्वा स नृपसत्तमः।
उपतस्थे जरासंधो विस्मितश्चाभवत् तदा ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन तीनोंको अपूर्व वेषमें देखकर नृपश्रेष्ठ जरासंधको बड़ा विस्मय हुआ। वह उनके पास गया॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते तु दृष्ट्वैव राजानं जरासंधं नरर्षभाः।
इदमूचुरमित्रघ्नाः सर्वे भरतसत्तम ॥ ३८ ॥
स्वस्त्यस्तु कुशलं राजन्निति तत्र व्यवस्थिताः।
तं नृपं नृपशार्दूल प्रेक्षमाणाः परस्परम् ॥ ३९ ॥

मूलम्

ते तु दृष्ट्वैव राजानं जरासंधं नरर्षभाः।
इदमूचुरमित्रघ्नाः सर्वे भरतसत्तम ॥ ३८ ॥
स्वस्त्यस्तु कुशलं राजन्निति तत्र व्यवस्थिताः।
तं नृपं नृपशार्दूल प्रेक्षमाणाः परस्परम् ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतवंशशिरोमणे! शत्रुओंका नाश करनेवाले वे सभी नरश्रेष्ठ राजा जरासंधको देखते ही इस प्रकार बोले—‘महाराज! आपका कल्याण हो।’ जनमेजय! ऐसा कहकर वे तीनों खड़े हो गये तथा कभी राजा जरासंधको और कभी आपसमें एक दूसरेको देखने लगे॥३८-३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तानब्रवीज्जरासंधस्तथा पाण्डवयादवान् ।
आस्यतामिति राजेन्द्र ब्राह्मणच्छद्मसंवृतान् ॥ ४० ॥

मूलम्

तानब्रवीज्जरासंधस्तथा पाण्डवयादवान् ।
आस्यतामिति राजेन्द्र ब्राह्मणच्छद्मसंवृतान् ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! ब्राह्मणोंके छद्मवेषमें छिपे हुए उन पाण्डव तथा यादव वीरोंको लक्ष्य करके जरासंधने कहा—‘आपलोग बैठ जायँ’॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथोपविविशुः सर्वे त्रयस्ते पुरुषर्षभाः।
सम्प्रदीप्तास्त्रयो लक्ष्म्या महाध्वर इवाग्नयः ॥ ४१ ॥

मूलम्

अथोपविविशुः सर्वे त्रयस्ते पुरुषर्षभाः।
सम्प्रदीप्तास्त्रयो लक्ष्म्या महाध्वर इवाग्नयः ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर वे सभी बैठ गये। वे तीनों पुरुषसिंह महान् यज्ञमें प्रज्वलित तीन अग्नियोंकी भाँति अपनी अपूर्व शोभासे उद्भासित हो रहे थे॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तानुवाच जरासंधः सत्यसंधो नराधिपः।
विगर्हमाणः कौरव्य वेषग्रहणवैकृतान् ।
न स्नातकव्रता विप्रा बहिर्माल्यानुलेपनाः ॥ ४२ ॥
भवन्तीति नृलोकेऽस्मिन् विदितं मम सर्वशः।
के यूयं पुष्पवन्तश्च भुजैर्ज्याकृतलक्षणैः ॥ ४३ ॥

मूलम्

तानुवाच जरासंधः सत्यसंधो नराधिपः।
विगर्हमाणः कौरव्य वेषग्रहणवैकृतान् ।
न स्नातकव्रता विप्रा बहिर्माल्यानुलेपनाः ॥ ४२ ॥
भवन्तीति नृलोकेऽस्मिन् विदितं मम सर्वशः।
के यूयं पुष्पवन्तश्च भुजैर्ज्याकृतलक्षणैः ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुनन्दन! उस समय सत्यप्रतिज्ञ राजा जरासंधने वेषग्रहणके विपरीत आचरणवाले उन तीनोंकी निन्दा करते हुए कहा—‘ब्राह्मणो! इस मानव-जगत्‌में सर्वत्र प्रसिद्ध है कि स्नातक-व्रतका पालन करनेवाले ब्राह्मण समावर्तन आदि विशेष निमित्तके बिना माला और चन्दन नहीं धारण करते। मुझे भी यह अच्छी तरह मालूम है। आपलोग कौन हैं? आपके गलेमें फूलोंकी माला है और भुजाओंमें धनुषकी प्रत्यंचाकी रगड़का चिह्न स्पष्ट दिखायी देता है॥४२-४३॥

सूचना (हिन्दी)

जरासंधके भवनमें श्रीकृष्ण, भीमसेन और अर्जुन

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिभ्रतः क्षात्रमोजश्च ब्राह्मण्यं प्रतिजानथ।
एवं विरागवसना बहिर्माल्यानुलेपनाः ।
सत्यं वदत के यूयं सत्यं राजसु शोभते ॥ ४४ ॥

मूलम्

बिभ्रतः क्षात्रमोजश्च ब्राह्मण्यं प्रतिजानथ।
एवं विरागवसना बहिर्माल्यानुलेपनाः ।
सत्यं वदत के यूयं सत्यं राजसु शोभते ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आपलोग क्षत्रियोचित तेज धारण करते हैं, परंतु ब्राह्मण होनेका परिचय दे रहे हैं। इस प्रकार भाँति-भाँतिके रंगीन कपड़े पहने और अकारण माला तथा चन्दन लगाये हुए आप कौन हैं? सच बताइये। राजाओंमें सत्यकी ही शोभा होती है॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चैत्यकस्य गिरेः शृङ्गं भित्त्वा किमिह छद्मना।
अद्वारेण प्रविष्टाः स्थ निर्भया राजकिल्बिषात् ॥ ४५ ॥

मूलम्

चैत्यकस्य गिरेः शृङ्गं भित्त्वा किमिह छद्मना।
अद्वारेण प्रविष्टाः स्थ निर्भया राजकिल्बिषात् ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘चैत्यक पर्वतके शिखरको तोड़कर राजाका अपराध करके भी उससे भयभीत न हो छद्मवेष धारण किये द्वारके बिना ही इस नगरमें जो आपलोग घुस आये हैं, इसका क्या कारण है?॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वदध्वं वाचि वीर्यं च ब्राह्मणस्य विशेषतः।
कर्म चैतद् विलिङ्गस्थं किं वोऽद्य प्रसमीक्षितम् ॥ ४६ ॥

मूलम्

वदध्वं वाचि वीर्यं च ब्राह्मणस्य विशेषतः।
कर्म चैतद् विलिङ्गस्थं किं वोऽद्य प्रसमीक्षितम् ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘बताइये, ब्राह्मणके तो प्रायः वचनमें ही वीरता होती है, उसकी क्रियामें नहीं। आपलोगोंने जो यह पर्वतशिखर तोड़नेका काम किया है, यह आपके वर्ण तथा वेषके सर्वथा विपरीत है, बताइये आपने आज क्या सोच रखा है?॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं च मामुपास्थाय कस्माच्च विधिनार्हणाम्।
प्रतीतां नानुगृह्णीत कार्यं किं वास्मदागमे ॥ ४७ ॥

मूलम्

एवं च मामुपास्थाय कस्माच्च विधिनार्हणाम्।
प्रतीतां नानुगृह्णीत कार्यं किं वास्मदागमे ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इस प्रकार मेरे यहाँ उपस्थित हो मेरे द्वारा विधिपूर्वक अर्पित की हुई इस पूजाको आपलोग ग्रहण क्यों नहीं करते हैं? फिर मेरे यहाँ आनेका प्रयोजन ही क्या है?’॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्ते ततः कृष्णः प्रत्युवाच महामनाः।
स्निग्धगम्भीरया वाचा वाक्यं वाक्यविशारदः ॥ ४८ ॥

मूलम्

एवमुक्ते ततः कृष्णः प्रत्युवाच महामनाः।
स्निग्धगम्भीरया वाचा वाक्यं वाक्यविशारदः ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जरासंधके ऐसा कहनेपर बोलनेमें चतुर महामना श्रीकृष्ण स्निग्ध एवं गम्भीर वाणीमें इस प्रकार बोले॥४८॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीकृष्ण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्नातकान् ब्राह्मणान् राजन् विद्ध्यस्मांस्त्वं नराधिप।
स्नातकव्रतिनो राजन् ब्राह्मणाः क्षत्रिया विशः ॥ ४९ ॥

मूलम्

स्नातकान् ब्राह्मणान् राजन् विद्ध्यस्मांस्त्वं नराधिप।
स्नातकव्रतिनो राजन् ब्राह्मणाः क्षत्रिया विशः ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीकृष्णने कहा— राजन्! तुम हमें (वेषके अनुसार) स्नातक ब्राह्मण समझ सकते हो। वैसे तो स्नातक व्रतका पालन करनेवाले ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य तीनों वर्णोंके लोग होते हैं॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विशेषनियमाश्चैषामविशेषाश्च सन्त्युत ।
विशेषवांश्च सततं क्षत्रियः श्रियमृच्छति ॥ ५० ॥

मूलम्

विशेषनियमाश्चैषामविशेषाश्च सन्त्युत ।
विशेषवांश्च सततं क्षत्रियः श्रियमृच्छति ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन स्नातकोंमें कुछ विशेष नियमका पालन करनेवाले होते हैं और कुछ साधारण। विशेष नियमका पालन करनेवाला क्षत्रिय सदा लक्ष्मीको प्राप्त करता है॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुष्पवत्सु ध्रुवा श्रीश्च पुष्पवन्तस्ततो वयम्।
क्षत्रियो बाहुवीर्यस्तु न तथा वाक्यवीर्यवान्।
अप्रगल्भं वचस्तस्य तस्माद् बार्हद्रथेरितम् ॥ ५१ ॥

मूलम्

पुष्पवत्सु ध्रुवा श्रीश्च पुष्पवन्तस्ततो वयम्।
क्षत्रियो बाहुवीर्यस्तु न तथा वाक्यवीर्यवान्।
अप्रगल्भं वचस्तस्य तस्माद् बार्हद्रथेरितम् ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पुष्प धारण करनेवाले हैं, उनमें लक्ष्मीका निवास ध्रुव है, इसीलिये हमलोग पुष्पमालाधारी हैं। क्षत्रियका बल और पराक्रम उसकी भुजाओंमें होता है, वह बोलनेमें वैसा वीर नहीं होता। बृहद्रथनन्दन! इसीलिये क्षत्रियका वचन धृष्टतारहित (विनययुक्त) बताया गया है॥५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्ववीर्यं क्षत्रियाणां तु बाह्वोर्धाता न्यवेशयत्।
तद् दिदृक्षसि चेद् राजन् द्रष्टास्यद्य न संशयः ॥ ५२ ॥

मूलम्

स्ववीर्यं क्षत्रियाणां तु बाह्वोर्धाता न्यवेशयत्।
तद् दिदृक्षसि चेद् राजन् द्रष्टास्यद्य न संशयः ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विधाताने क्षत्रियोंका अपना बल उनकी भुजाओंमें ही भर दिया है। राजन्! यदि आज उसे देखना चाहते हो तो निश्चय ही देख लोगे॥५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्वारेण रिपोर्गेहं द्वारेण सुहृदो गुहान्।
प्रविशन्ति नरा धीरा द्वाराण्येतानि धर्मतः ॥ ५३ ॥

मूलम्

अद्वारेण रिपोर्गेहं द्वारेण सुहृदो गुहान्।
प्रविशन्ति नरा धीरा द्वाराण्येतानि धर्मतः ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धीर मनुष्य शत्रुके घरमें बिना दरवाजेके और मित्रके घरमें दरवाजेसे जाते हैं। शत्रु और मित्रके लिये ये धर्मतः द्वार बतलाये गये हैं॥५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कार्यवन्तो गृहानेत्य शत्रुतो नार्हणां वयम्।
प्रतिगृह्णीम तद् विद्धि एतन्नः शाश्वतं व्रतम् ॥ ५४ ॥

मूलम्

कार्यवन्तो गृहानेत्य शत्रुतो नार्हणां वयम्।
प्रतिगृह्णीम तद् विद्धि एतन्नः शाश्वतं व्रतम् ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हम अपने कार्यसे तुम्हारे घर आये हैं; अतः शत्रुसे पूजा नहीं ग्रहण कर सकते। इस बातको तुम अच्छी तरह समझ लो। यह हमारा सनातन व्रत है॥५४॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि जरासंधवधपर्वणि कृष्णजरासंधसंवादे एकविंशोऽध्यायः ॥ २१ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्वके अन्तर्गत जरासंधवधपर्वमें श्रीकृष्णजरासंधसंवादविषयक इक्कीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२१॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ३ श्लोक मिलाकर कुल ५७ श्लोक हैं)