श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
(जरासंधवधपर्व)
विंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
युधिष्ठिरके अनुमोदन करनेपर श्रीकृष्ण, अर्जुन और भीमसेनकी मगध-यात्रा
मूलम् (वचनम्)
वासुदेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
पतितौ हंसडिम्भकौ कंसश्च सगणो हतः।
जरासंधस्य निधने कालोऽयं समुपागतः ॥ १ ॥
मूलम्
पतितौ हंसडिम्भकौ कंसश्च सगणो हतः।
जरासंधस्य निधने कालोऽयं समुपागतः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्ण कहते हैं— धर्मराज! जरासंधके मुख्य सहायक हंस और डिम्भक यमुनाजीमें डूब मरे। कंस भी अपने सेवकों और सहायकोंसहित कालके गालमें चला गया। अब जरासंधके नाशका यह उचित अवसर आ पहुँचा है॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न शक्योऽसौ रणे जेतुं सर्वैरपि सुरासुरैः।
बाहुयुद्धेन जेतव्यः स इत्युपलभामहे ॥ २ ॥
मूलम्
न शक्योऽसौ रणे जेतुं सर्वैरपि सुरासुरैः।
बाहुयुद्धेन जेतव्यः स इत्युपलभामहे ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युद्धमें तो सम्पूर्ण देवता और असुर भी उसे जीत नहीं सकते, अतः मेरी समझमें यही आता है कि उसे बाहुयुद्धके द्वारा जीतना चाहिये॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मयि नीतिर्बलं भीमे रक्षिता चावयोर्जयः।
मागधं साधयिष्याम इष्टिं त्रय इवाग्नयः ॥ ३ ॥
मूलम्
मयि नीतिर्बलं भीमे रक्षिता चावयोर्जयः।
मागधं साधयिष्याम इष्टिं त्रय इवाग्नयः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुझमें नीति है, भीमसेनमें बल है और अर्जुन हम दोनोंकी रक्षा करनेवाले हैं; अतः जैसे तीन अग्नियाँ यज्ञकी सिद्धि करती हैं, उसी प्रकार हम तीनों मिलकर जरासंधके वधका काम पूरा कर लेंगे॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रिभिरासादितोऽस्माभिर्विजने स नराधिपः ।
न संदेहो यथा युद्धमेकेनाप्युपयास्यति ॥ ४ ॥
अवमानाच्च लोभाच्च बाहुवीर्याच्च दर्पितः।
भीमसेनेन युद्धाय ध्रुवमप्युपयास्यति ॥ ५ ॥
मूलम्
त्रिभिरासादितोऽस्माभिर्विजने स नराधिपः ।
न संदेहो यथा युद्धमेकेनाप्युपयास्यति ॥ ४ ॥
अवमानाच्च लोभाच्च बाहुवीर्याच्च दर्पितः।
भीमसेनेन युद्धाय ध्रुवमप्युपयास्यति ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब हम तीनों एकान्तमें राजा जरासंधसे मिलेंगे, तब वह हम तीनोंमेंसे किसी एकके साथ द्वन्द्वयुद्ध करना स्वीकार कर लेगा; इसमें संदेह नहीं है। अपमानके भयसे, बड़े योद्धा भीमसेनके साथ लड़नेके लोभसे तथा अपने बाहुबलसे घमंडमें चूर होनेसे जरासंध निश्चय ही भीमसेनके साथ युद्ध करनेको उद्यत होगा॥४-५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अलं तस्य महाबाहुर्भीमसेनो महाबलः।
लोकस्य समुदीर्णस्य निधनायान्तको यथा ॥ ६ ॥
मूलम्
अलं तस्य महाबाहुर्भीमसेनो महाबलः।
लोकस्य समुदीर्णस्य निधनायान्तको यथा ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे उत्पन्न हुए सम्पूर्ण जगत्के विनाशके लिये एक ही यमराज काफी हैं, उसी प्रकार महाबली महाबाहु भीमसेन जरासंधके वधके लिये पर्याप्त हैं॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि मे हृदयं वेत्सि यदि ते प्रत्ययो मयि।
भीमसेनार्जुनौ शीघ्रं न्यासभूतौ प्रयच्छ मे ॥ ७ ॥
मूलम्
यदि मे हृदयं वेत्सि यदि ते प्रत्ययो मयि।
भीमसेनार्जुनौ शीघ्रं न्यासभूतौ प्रयच्छ मे ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! यदि आप मेरे हृदयको जानते हैं और यदि आपका मुझपर विश्वास है तो भीमसेन और अर्जुनको शीघ्र ही धरोहरके रूपमें मुझे दे दीजिये॥७॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तो भगवता प्रत्युवाच युधिष्ठिरः।
भीमार्जुनौ समालोक्य सम्प्रहृष्टमुखौ स्थितौ ॥ ८ ॥
मूलम्
एवमुक्तो भगवता प्रत्युवाच युधिष्ठिरः।
भीमार्जुनौ समालोक्य सम्प्रहृष्टमुखौ स्थितौ ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! भगवान्के ऐसा कहनेपर वहाँ खड़े हुए भीमसेन और अर्जुनका मुख प्रसन्नतासे खिल उठा। उस समय उन दोनोंकी ओर देखकर युधिष्ठिरने इस प्रकार उत्तर दिया॥८॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अच्युताच्युत मा मैवं व्याहरामित्रकर्शन।
पाण्डवानां भवान् नाथो भवन्तं चाश्रिता वयम् ॥ ९ ॥
मूलम्
अच्युताच्युत मा मैवं व्याहरामित्रकर्शन।
पाण्डवानां भवान् नाथो भवन्तं चाश्रिता वयम् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर बोले— अपनी मर्यादासे कभी च्युत न होनेवाले शत्रुसूदन अच्युत! आप ऐसी बात न कहें, न कहें। आप हम सब पाण्डवोंके स्वामी हैं, रक्षक हैं; हम सब लोग आपकी शरणमें हैं॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा वदसि गोविन्द सर्वं तदुपपद्यते।
न हि त्वमग्रतस्तेषां येषां लक्ष्मीः पराङ्मुखी ॥ १० ॥
मूलम्
यथा वदसि गोविन्द सर्वं तदुपपद्यते।
न हि त्वमग्रतस्तेषां येषां लक्ष्मीः पराङ्मुखी ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गोविन्द! आप जैसा कहते हैं, वह सब ठीक है। जिनकी राज्यलक्ष्मी विमुख हो चुकी है, उनके सम्मुख आप आते ही नहीं हैं॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निहतश्च जरासंधो मोक्षिताश्च महीक्षितः।
राजसूयश्च मे लब्धो निदेशे तव तिष्ठतः ॥ ११ ॥
मूलम्
निहतश्च जरासंधो मोक्षिताश्च महीक्षितः।
राजसूयश्च मे लब्धो निदेशे तव तिष्ठतः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपकी आज्ञाके अनुसार चलनेमात्रसे मैं यह मानता हूँ कि जरासंध मारा गया। समस्त राजा उसकी कैदसे छुटकारा पा गये और मेरा राजसूययज्ञ भी पूरा हो गया॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षिप्रमेव यथा त्वेतत् कार्यं समुपपद्यते।
अप्रमत्तो जगन्नाथ तथा कुरु नरोत्तम ॥ १२ ॥
त्रिभिर्भवद्भिर्हि विना नाहं जीवितुमुत्सहे।
धर्मकामार्थरहितो रोगार्त इव दुःखितः ॥ १३ ॥
न शौरिणा विना पार्थो न शौरिः पाण्डवं विना।
नाजेयोऽस्त्यनयोर्लोके कृष्णयोरिति मे मतिः ॥ १४ ॥
मूलम्
क्षिप्रमेव यथा त्वेतत् कार्यं समुपपद्यते।
अप्रमत्तो जगन्नाथ तथा कुरु नरोत्तम ॥ १२ ॥
त्रिभिर्भवद्भिर्हि विना नाहं जीवितुमुत्सहे।
धर्मकामार्थरहितो रोगार्त इव दुःखितः ॥ १३ ॥
न शौरिणा विना पार्थो न शौरिः पाण्डवं विना।
नाजेयोऽस्त्यनयोर्लोके कृष्णयोरिति मे मतिः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जगन्नाथ! पुरुषोत्तम! आप सावधान होकर वही उपाय कीजिये, जिससे यह कार्य शीघ्र ही पूरा हो जाय। जैसे धर्म, काम और अर्थसे रहित रोगातुर मनुष्य अत्यन्त दुःखी हो जीवनसे हाथ धो बैठता है, उसी प्रकार मैं भी आप तीनोंके बिना जीवित नहीं रह सकता। श्रीकृष्णके बिना अर्जुन और पाण्डुपुत्र अर्जुनके बिना श्रीकृष्ण नहीं रह सकते। इन दोनों कृष्णनामधारी वीरोंके लिये लोकमें कोई भी अजेय नहीं है; ऐसा मेरा विश्वास है॥१२—१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयं च बलिनां श्रेष्ठः श्रीमानपि वृकोदरः।
युवाभ्यां सहितो वीरः किं न कुर्यान्महायशाः ॥ १५ ॥
मूलम्
अयं च बलिनां श्रेष्ठः श्रीमानपि वृकोदरः।
युवाभ्यां सहितो वीरः किं न कुर्यान्महायशाः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह बलवानोंमें श्रेष्ठ महायशस्वी कान्तिमान् वीर भीमसेन भी आप दोनोंके साथ रहकर क्या नहीं कर सकता?॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुप्रणीतो बलौघो हि कुरुते कार्यमुत्तमम्।
अंधं बलं जडं प्राहुः प्रणेतव्यं विचक्षणैः ॥ १६ ॥
मूलम्
सुप्रणीतो बलौघो हि कुरुते कार्यमुत्तमम्।
अंधं बलं जडं प्राहुः प्रणेतव्यं विचक्षणैः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
चतुर सेनापतियोंद्वारा अच्छी तरह संचालित की हुई सेना उत्तम कार्य करती है, अन्यथा उस सेनाको अंधी और जड कहते हैं; अतः नीतिनिपुण पुरुषोंद्वारा ही सेनाका संचालन होना चाहिये॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यतो हि निम्नं भवति नयन्ति हि ततो जलम्।
यतश्छिद्रं ततश्चापि नयन्ते धीवरा जलम् ॥ १७ ॥
मूलम्
यतो हि निम्नं भवति नयन्ति हि ततो जलम्।
यतश्छिद्रं ततश्चापि नयन्ते धीवरा जलम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिधर नीची जमीन होती है, उधर ही लोग जल बहाकर ले जाते हैं। जहाँ गड्ढा होता है, उधर ही धीवर भी जल बहाते हैं (इसी प्रकार आपलोग भी जैसे कार्य-साधनमें सुविधा हो, वैसा ही करें)॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मान्नयविधानज्ञं पुरुषं लोकविश्रुतम् ।
वयमाश्रित्य गोविन्दं यतामः कार्यसिद्धये ॥ १८ ॥
मूलम्
तस्मान्नयविधानज्ञं पुरुषं लोकविश्रुतम् ।
वयमाश्रित्य गोविन्दं यतामः कार्यसिद्धये ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसीलिये हम नीतिविधानके ज्ञाता लोकविख्यात महापुरुष श्रीगोविन्दकी शरण लेकर कार्यसिद्धिके लिये प्रयत्न करते हैं॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं प्रज्ञानयबलं क्रियोपायसमन्वितम् ।
पुरस्कुर्वीत कार्येषु कृष्णं कार्यार्थसिद्धये ॥ १९ ॥
मूलम्
एवं प्रज्ञानयबलं क्रियोपायसमन्वितम् ।
पुरस्कुर्वीत कार्येषु कृष्णं कार्यार्थसिद्धये ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार सबके लिये यह उचित है कि कार्य और प्रयोजनकी सिद्धिके लिये सभी कार्योंमें बुद्धि, नीति, बल, प्रयत्न और उपायसे युक्त श्रीकृष्णको ही आगे रखे॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमेव यदुश्रेष्ठ यावत्कार्यार्थसिद्धये ।
अर्जुनः कृष्णमन्वेतु भीमोऽन्वेतु धनंजयम्।
नयो जयो बलं चैव विक्रमे सिद्धिमेष्यति ॥ २० ॥
मूलम्
एवमेव यदुश्रेष्ठ यावत्कार्यार्थसिद्धये ।
अर्जुनः कृष्णमन्वेतु भीमोऽन्वेतु धनंजयम्।
नयो जयो बलं चैव विक्रमे सिद्धिमेष्यति ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदुश्रेष्ठ! इसी प्रकार समस्त कार्योंकी सिद्धिके लिये आपका आश्रय लेना परम आवश्यक है। अर्जुन आप श्रीकृष्णका अनुसरण करें और भीमसेन अर्जुनका। नीति, विजय और बल तीनों मिलकर पराक्रम करें तो उन्हें अवश्य सिद्धि प्राप्त होगी॥२०॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तास्ततः सर्वे भ्रातरो विपुलौजसः।
वार्ष्णेयः पाण्डवेयौ च प्रतस्थुर्मागधं प्रति ॥ २१ ॥
मूलम्
एवमुक्तास्ततः सर्वे भ्रातरो विपुलौजसः।
वार्ष्णेयः पाण्डवेयौ च प्रतस्थुर्मागधं प्रति ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! युधिष्ठिरके ऐसा कहनेपर वे सब महातेजस्वी भाई—श्रीकृष्ण, अर्जुन और भीमसेन मगधराज जरासंधसे भिड़नेके लिये उसकी राजधानीकी ओर चल दिये॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वर्चस्विनां ब्राह्मणानां स्नातकानां परिच्छदम्।
आच्छाद्य सुहृदां वाक्यैर्मनोज्ञैरभिनन्दिताः ॥ २२ ॥
मूलम्
वर्चस्विनां ब्राह्मणानां स्नातकानां परिच्छदम्।
आच्छाद्य सुहृदां वाक्यैर्मनोज्ञैरभिनन्दिताः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने तेजस्वी स्नातक ब्राह्मणोंके-से वस्त्र पहनकर उनके द्वारा अपने क्षत्रियरूपको छिपाकर यात्रा की। उस समय हितैषी सुहृदोंने मनोहर वचनोंद्वारा उन सबका अभिनन्दन किया॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अमर्षादभितप्तानां ज्ञात्यर्थं मुख्यतेजसाम् ।
रविसोमाग्निवपुषां दीप्तमासीत् तदा वपुः ॥ २३ ॥
हतं मेने जरासंधं दृष्ट्वा भीमपुरोगमौ।
एककार्यसमुद्यन्तौ कृष्णौ युद्धेऽपराजितौ ॥ २४ ॥
मूलम्
अमर्षादभितप्तानां ज्ञात्यर्थं मुख्यतेजसाम् ।
रविसोमाग्निवपुषां दीप्तमासीत् तदा वपुः ॥ २३ ॥
हतं मेने जरासंधं दृष्ट्वा भीमपुरोगमौ।
एककार्यसमुद्यन्तौ कृष्णौ युद्धेऽपराजितौ ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जरासंधके प्रति रोषके कारण वे प्रज्वलित-से हो रहे थे। जाति-भाइयोंके उद्धारके लिये उनका महान् तेज प्रकट हुआ था। उस समय सूर्य, चन्द्रमा और अग्निके समान तेजस्वी शरीरवाले उन तीनोंका स्वरूप अत्यन्त उद्भासित हो रहा था। एक ही कार्यके लिये उद्यत हुए और युद्धमें कभी पराजित न होनेवाले उन दोनों (कृष्णोंको अर्थात् नर-नारायणरूप कृष्ण और अर्जुन)-को भीमसेनको आगे लिये जाते देख युधिष्ठिरको निश्चय हो गया कि जरासंध अवश्य मारा जायगा॥२३-२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ईशौ हि तौ महात्मानौ सर्वकार्यप्रवर्तिनौ।
धर्मकामार्थलोकानां कार्याणां च प्रवर्तकौ ॥ २५ ॥
मूलम्
ईशौ हि तौ महात्मानौ सर्वकार्यप्रवर्तिनौ।
धर्मकामार्थलोकानां कार्याणां च प्रवर्तकौ ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्योंकि वे दोनों महात्मा निमेष-उन्मेषसे लेकर महाप्रलयपर्यन्त समस्त कार्योंके नियन्ता तथा धर्म, काम और अर्थसाधनमें लगे हुए लोगोंको तत्सम्बन्धी कार्योंमें लगानेवाले ईश्वर (नर-नारायण) हैं॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुरुभ्यः प्रस्थितास्ते तु मध्येन कुरुजाङ्गलम्।
रम्यं पद्मसरो गत्वा कालकूटमतीत्य च ॥ २६ ॥
गण्डकीं च महाशोणं सदानीरां तथैव च।
एकपर्वतके नद्यः क्रमेणैत्याव्रजन्त ते ॥ २७ ॥
मूलम्
कुरुभ्यः प्रस्थितास्ते तु मध्येन कुरुजाङ्गलम्।
रम्यं पद्मसरो गत्वा कालकूटमतीत्य च ॥ २६ ॥
गण्डकीं च महाशोणं सदानीरां तथैव च।
एकपर्वतके नद्यः क्रमेणैत्याव्रजन्त ते ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे तीनों कुरुदेशसे प्रस्थित हो कुरुजांगलके बीचसे होते हुए रमणीय पद्मसरोवरपर पहुँचे। फिर कालकूट पर्वतको लाँघकर गण्डकी, महाशोण, सदानीरा एवं एकपर्वतक प्रदेशकी सब नदियोंको क्रमशः पार करते हुए आगे बढ़ते गये॥२६-२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्तीर्य सरयूं रम्यां दृष्ट्वा पूर्वांश्च कोसलान्।
अतीत्य जग्मुर्मिथिलां पश्यन्तो विपुला नदीः ॥ २८ ॥
अतीत्य गङ्गां शोणं च त्रयस्ते प्राङ्मुखास्तदा।
कुशचीरच्छदा जग्मुर्मागधं क्षेत्रमच्युताः ॥ २९ ॥
मूलम्
उत्तीर्य सरयूं रम्यां दृष्ट्वा पूर्वांश्च कोसलान्।
अतीत्य जग्मुर्मिथिलां पश्यन्तो विपुला नदीः ॥ २८ ॥
अतीत्य गङ्गां शोणं च त्रयस्ते प्राङ्मुखास्तदा।
कुशचीरच्छदा जग्मुर्मागधं क्षेत्रमच्युताः ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इससे पहले मार्गमें उन्होंने रमणीय सरयू नदी पार करके पूर्वी कोसलप्रदेशमें भी पदार्पण किया था। कोसल पार करके बहुत-सी नदियोंका अवलोकन करते हुए वे मिथिलामें गये। गंगा और शोणभद्रको पार करके वे तीनों अच्युत वीर पूर्वाभिमुख होकर चलने लगे। उन्होंने कुश एवं चीरसे ही अपने शरीरको ढक रखा था। जाते-जाते वे मगधक्षेत्रकी सीमामें पहुँच गये॥२८-२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते शश्वद् गोधनाकीर्णमम्बुमन्तं शुभद्रुमम्।
गोरथं गिरिमासाद्य ददृशुर्मागधं पुरम् ॥ ३० ॥
मूलम्
ते शश्वद् गोधनाकीर्णमम्बुमन्तं शुभद्रुमम्।
गोरथं गिरिमासाद्य ददृशुर्मागधं पुरम् ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर सदा गोधनसे भरे-पूरे, जलसे परिपूर्ण तथा सुन्दर वृक्षोंसे सुशोभित गोरथ पर्वतपर पहुँचकर उन्होंने मगधकी राजधानीको देखा॥३०॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि जरासंधवधपर्वणि कृष्णपाण्डवमागधयात्रायां विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्वके अन्तर्गत जरासंधवधपर्वमें कृष्ण, अर्जुन एवं भीमसेनकी मगधयात्राविषयक बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२०॥