श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
अष्टादशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
जरा राक्षसीका अपना परिचय देना और उसीके नामपर बालकका नामकरण होना
मूलम् (वचनम्)
राक्षस्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
जरा नामास्मि भद्रं ते राक्षसी कामरूपिणी।
तव वेश्मनि राजेन्द्र पूजिता न्यवसं सुखम् ॥ १ ॥
मूलम्
जरा नामास्मि भद्रं ते राक्षसी कामरूपिणी।
तव वेश्मनि राजेन्द्र पूजिता न्यवसं सुखम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राक्षसीने कहा— राजेन्द्र! तुम्हारा कल्याण हो। मेरा नाम जरा है। मैं इच्छानुसार रूप धारण करनेवाली राक्षसी हूँ और तुम्हारे घरमें पूजित हो सुखपूर्वक रहती चली आयी हूँ॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गृहे गृहे मनुष्याणां नित्यं तिष्ठामि राक्षसी।
गृहदेवीति नाम्ना वै पुरा सृष्टा स्वयंभुवा ॥ २ ॥
मूलम्
गृहे गृहे मनुष्याणां नित्यं तिष्ठामि राक्षसी।
गृहदेवीति नाम्ना वै पुरा सृष्टा स्वयंभुवा ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं मनुष्योंके घर-घरमें सदा मौजूद रहती हूँ। कहनेको मैं राक्षसी ही हूँ; किंतु पूर्वकालमें ब्रह्माजीने गृहदेवीके नामसे मेरी सृष्टि की थी॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दानवानां विनाशाय स्थापिता दिव्यरूपिणी।
यो मां भक्त्या लिखेत् कुड्ये सपुत्रां यौवनान्विताम् ॥ ३ ॥
गृहे तस्य भवेद् वृद्धिरन्यथा क्षयमाप्नुयात्।
त्वद्गृहे तिष्ठमानाहं पूजिताहं सदा विभो ॥ ४ ॥
मूलम्
दानवानां विनाशाय स्थापिता दिव्यरूपिणी।
यो मां भक्त्या लिखेत् कुड्ये सपुत्रां यौवनान्विताम् ॥ ३ ॥
गृहे तस्य भवेद् वृद्धिरन्यथा क्षयमाप्नुयात्।
त्वद्गृहे तिष्ठमानाहं पूजिताहं सदा विभो ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
और उन्होंने मुझे दानवोंके विनाशके लिये नियुक्त किया था। मैं दिव्य रूप धारण करनेवाली हूँ। जो अपने घरकी दीवारपर मुझे अनेक पुत्रोंसहित युवती स्त्रीके रूपमें भक्तिपूर्वक लिखता है (मेरा चित्र अंकित करता है), उसके घरमें सदा वृद्धि होती है; अन्यथा उसे हानि उठानी पड़ती है। प्रभो! मैं तुम्हारे घरमें रहकर सदा पूजित होती चली आयी हूँ॥३-४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लिखिता चैव कुड्येषु पुत्रैर्बहुभिरावृता।
गन्धपुष्पैस्तथा धूपैर्भक्ष्यभोज्यैः सुपूजिता ॥ ५ ॥
मूलम्
लिखिता चैव कुड्येषु पुत्रैर्बहुभिरावृता।
गन्धपुष्पैस्तथा धूपैर्भक्ष्यभोज्यैः सुपूजिता ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एवं तुम्हारे घरकी दीवारोंपर मेरा ऐसा चित्र अंकित किया गया है, जिसमें मैं अनेक पुत्रोंसे घिरी हुई खड़ी हूँ। उस चित्रके रूपमें मेरा गन्ध, पुष्प, धूप और भक्ष्य-भोज्य पदार्थोंद्वारा भलीभाँति पूजन होता आ रहा है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
साहं प्रत्युपकारार्थं चिन्तयाम्यनिशं तव।
तवेमे पुत्रशकले दृष्टवत्यस्मि धार्मिक ॥ ६ ॥
संश्लेषिते मया दैवात् कुमारः समपद्यत।
तव भाग्यान्महाराज हेतुमात्रमहं त्विह ॥ ७ ॥
मूलम्
साहं प्रत्युपकारार्थं चिन्तयाम्यनिशं तव।
तवेमे पुत्रशकले दृष्टवत्यस्मि धार्मिक ॥ ६ ॥
संश्लेषिते मया दैवात् कुमारः समपद्यत।
तव भाग्यान्महाराज हेतुमात्रमहं त्विह ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः मैं उस पूजनके बदले तुम्हारा कोई उपकार करनेकी बात सदा सोचती रहती थी। धर्मात्मन्! मैंने तुम्हारे पुत्रके शरीरके इन दोनों टुकड़ोंको देखा और दोनोंको जोड़ दिया। महाराज! दैववश तुम्हारे भाग्यसे ही उन टुकड़ोंके जुड़नेसे यह राजकुमार प्रकट हो गया है। मैं तो इसमें केवल निमित्तमात्र बन गयी हूँ॥६-७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(तस्य बालस्य यत् कृत्यं तत् कुरुष्व नराधिप।
मम नाम्ना च लोकेऽस्मिन् ख्यात एष भविष्यति॥)
मूलम्
(तस्य बालस्य यत् कृत्यं तत् कुरुष्व नराधिप।
मम नाम्ना च लोकेऽस्मिन् ख्यात एष भविष्यति॥)
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! अब इस बालकके लिये जो आवश्यक संस्कार हैं, उन्हें करो। यह इस संसारमें मेरे ही नामसे विख्यात होगा।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरुं वा खादितुं शक्ता किं पुनस्तव बालकम्।
गृहसम्पूजनात् तुष्ट्या मया प्रत्यर्पितस्तव ॥ ८ ॥
मूलम्
मेरुं वा खादितुं शक्ता किं पुनस्तव बालकम्।
गृहसम्पूजनात् तुष्ट्या मया प्रत्यर्पितस्तव ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुझमें सुमेरु पर्वतको भी निगल जानेकी शक्ति है; फिर तुम्हारे इस बच्चेको खा जाना कौन बड़ी बात है? किंतु तुम्हारे घरमें जो मेरी भलीभाँति पूजा होती आयी है, उसीसे संतुष्ट होकर मैंने तुम्हें यह बालक समर्पित किया है॥८॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीकृष्ण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्त्वा तु सा राजंस्तत्रैवान्तरधीयत।
स संगृह्य कुमारं तं प्रविवेश गृहं नृपः ॥ ९ ॥
मूलम्
एवमुक्त्वा तु सा राजंस्तत्रैवान्तरधीयत।
स संगृह्य कुमारं तं प्रविवेश गृहं नृपः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्ण कहते हैं— राजन्! ऐसा कहकर जरा राक्षसी वहीं अन्तर्धान हो गयी और राजा उस बालकको लेकर अपने महलमें चले आये॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य बालस्य यत् कृत्यं तच्चकार नृपस्तदा।
आज्ञापयच्च राक्षस्या मगधेषु महोत्सवम् ॥ १० ॥
मूलम्
तस्य बालस्य यत् कृत्यं तच्चकार नृपस्तदा।
आज्ञापयच्च राक्षस्या मगधेषु महोत्सवम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय राजाने उस बालकके जातकर्म आदि सभी आवश्यक संस्कार सम्पन्न किये और मगधदेशमें जरा राक्षसी (गृहदेवी)-के पूजनका महान् उत्सव मनानेकी आज्ञा दी॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य नामाकरोच्चैव पितामहसमः पिता।
जरया संधितो यस्माज्जरासंधो भवत्वयम् ॥ ११ ॥
मूलम्
तस्य नामाकरोच्चैव पितामहसमः पिता।
जरया संधितो यस्माज्जरासंधो भवत्वयम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्माजीके समान प्रभावशाली राजा बृहद्रथने उस बालकका नाम रखते हुए कहा—‘इसको जराने संधित किया (जोड़ा) है, इसलिये इसका नाम जरासंध होगा’॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽवर्धत महातेजा मगधाधिपतेः सुतः।
प्रमाणबलसम्पन्नो हुताहुतिरिवानलः ।
मातापित्रोर्नन्दिकरः शुक्लपक्षे यथा शशी ॥ १२ ॥
मूलम्
सोऽवर्धत महातेजा मगधाधिपतेः सुतः।
प्रमाणबलसम्पन्नो हुताहुतिरिवानलः ।
मातापित्रोर्नन्दिकरः शुक्लपक्षे यथा शशी ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मगधराजका वह महातेजस्वी बालक माता-पिताको आनन्द प्रदान करते हुए आकार और बलसे सम्पन्न हो घीकी आहुति दी जानेसे प्रज्वलित हुई अग्नि और शुक्लपक्षके चन्द्रमाकी भाँति दिनोदिन बढ़ने लगा॥१२॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि राजसूयारम्भपर्वणि जरासंधोत्पत्तौ अष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्वके अन्तर्गत राजसूयारम्भपर्वमें जरासंधकी उत्पत्तिविषयक अठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१८॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल १३ श्लोक हैं)