श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
सप्तदशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
श्रीकृष्णके द्वारा अर्जुनकी बातका अनुमोदन तथा युधिष्ठिरको जरासंधकी उत्पत्तिका प्रसंग सुनाना
मूलम् (वचनम्)
वासुदेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
जातस्य भारते वंशे तथा कुन्त्याः सुतस्य च।
या वै युक्ता मतिः सेयमर्जुनेन प्रदर्शिता ॥ १ ॥
मूलम्
जातस्य भारते वंशे तथा कुन्त्याः सुतस्य च।
या वै युक्ता मतिः सेयमर्जुनेन प्रदर्शिता ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णने कहा— राजन्! भरतवंशमें उत्पन्न पुरुष और कुन्ती-जैसी माताके पुत्रकी जैसी बुद्धि होनी चाहिये, अर्जुनने यहाँ उसीका परिचय दिया है॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न स्म मृत्युं वयं विद्म रात्रौ वा यदि वा दिवा।
न चापि कंचिदमरमयुद्धेनानुशुश्रुम ॥ २ ॥
मूलम्
न स्म मृत्युं वयं विद्म रात्रौ वा यदि वा दिवा।
न चापि कंचिदमरमयुद्धेनानुशुश्रुम ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! हमलोग यह नहीं जानते कि मौत कब आयेगी? रातमें आयेगी या दिनमें? (क्योंकि उसके नियत समयका ज्ञान किसीको नहीं है।) हमने यह भी नहीं सुना है कि युद्ध न करनेके कारण कोई अमर हो गया हो॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतावदेव पुरुषैः कार्यं हृदयतोषणम्।
नयेन विधिदृष्टेन यदुपक्रमते परान् ॥ ३ ॥
मूलम्
एतावदेव पुरुषैः कार्यं हृदयतोषणम्।
नयेन विधिदृष्टेन यदुपक्रमते परान् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः वीर पुरुषोंका इतना ही कर्तव्य है कि वे अपने हृदयके संतोषके लिये नीतिशास्त्रमें बतायी हुई नीतिके अनुसार शत्रुओंपर आक्रमण करें॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुनयस्यानपायस्य संयोगे परमः क्रमः।
संगत्या जायतेऽसाम्यं साम्यं च न भवेद् द्वयोः ॥ ४ ॥
मूलम्
सुनयस्यानपायस्य संयोगे परमः क्रमः।
संगत्या जायतेऽसाम्यं साम्यं च न भवेद् द्वयोः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दैव आदिकी प्रतिकूलतासे रहित अच्छी नीति एवं सलाह प्राप्त होनेपर आरम्भ किया हुआ कार्य पूर्णरूपसे सफल होता है। शत्रुके साथ भिड़नेपर ही दोनों पक्षोंका अन्तर ज्ञात होता है। दोनों दल सभी बातोंमें समान ही हों, ऐसा सम्भव नहीं॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनयस्यानुपायस्य संयुगे परमः क्षयः।
संशयो जायते साम्याज्जयश्च न भवेद् द्वयोः ॥ ५ ॥
मूलम्
अनयस्यानुपायस्य संयुगे परमः क्षयः।
संशयो जायते साम्याज्जयश्च न भवेद् द्वयोः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसने अच्छी नीति नहीं अपनायी है और उत्तम उपायसे काम नहीं लिया है, उसका युद्धमें सर्वथा विनाश होता है। यदि दोनों पक्षोंमें समानता हो तो संशय ही रहता है तथा दोनोंमेंसे किसीकी भी जय अथवा पराजय नहीं होती॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते वयं नयमास्थाय शत्रुदेहसमीपगाः।
कथमन्तं न गच्छेम वृक्षस्येव नदीरयाः।
पररन्ध्रे पराक्रान्ताः स्वरन्ध्रावरणे स्थिताः ॥ ६ ॥
मूलम्
ते वयं नयमास्थाय शत्रुदेहसमीपगाः।
कथमन्तं न गच्छेम वृक्षस्येव नदीरयाः।
पररन्ध्रे पराक्रान्ताः स्वरन्ध्रावरणे स्थिताः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब हमलोग नीतिका आश्रय लेकर शत्रुके शरीरके निकटतक पहुँच जायँगे, तब जैसे नदीका वेग किनारेके वृक्षको नष्ट कर देता है, उसी प्रकार हम शत्रुका अन्त क्यों न कर डालेंगे? हम अपने छिद्रोंको छिपाये रखकर शत्रुके छिद्रको देखेंगे और अवसर मिलते ही उसपर बलपूर्वक आक्रमण कर देंगे॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्यूढानीकैरतिबलैर्न युद्ध्येदरिभिः सह ।
इति बुद्धिमतां नीतिस्तन्ममापीह रोचते ॥ ७ ॥
मूलम्
व्यूढानीकैरतिबलैर्न युद्ध्येदरिभिः सह ।
इति बुद्धिमतां नीतिस्तन्ममापीह रोचते ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिनकी सेनाएँ मोर्चा बाँधकर खड़ी हों और जो अत्यन्त बलवान् हों, ऐसे शत्रुओंके साथ (सम्मुख होकर) युद्ध नहीं करना चाहिये; यह बुद्धिमानोंकी नीति है। यही नीति यहाँ मुझे भी अच्छी लगती है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनवद्या ह्यसम्बुद्धाः प्रविष्टाः शत्रुसद्म तत्।
शत्रुदेहमुपाक्रम्य तं कामं प्राप्नुयामहे ॥ ८ ॥
मूलम्
अनवद्या ह्यसम्बुद्धाः प्रविष्टाः शत्रुसद्म तत्।
शत्रुदेहमुपाक्रम्य तं कामं प्राप्नुयामहे ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि हम छिपे-छिपे शत्रुके घरतक पहुँच जायँ तो यह हमारे लिये कोई निन्दाकी बात नहीं होगी। फिर हम शत्रुके शरीरपर आक्रमण करके अपना काम बना लेंगे॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एको ह्येव श्रियं नित्यं बिभर्ति पुरुषर्षभः।
अन्तरात्मेव भूतानां तत्क्षयं नैव लक्षये ॥ ९ ॥
मूलम्
एको ह्येव श्रियं नित्यं बिभर्ति पुरुषर्षभः।
अन्तरात्मेव भूतानां तत्क्षयं नैव लक्षये ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह पुरुषोंमें श्रेष्ठ जरासंध प्राणियोंके भीतर स्थित आत्माकी भाँति सदा अकेला ही साम्राज्यलक्ष्मीका उपभोग करता है; अतः उसका और किसी उपायसे नाश होता नहीं दिखायी देता (उसके विनाशके लिये हमें स्वयं प्रयत्न करना होगा)॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथवैनं निहत्याजौ शेषेणापि समाहताः।
प्राप्नुयाम ततः स्वर्गं ज्ञातित्राणपरायणाः ॥ १० ॥
मूलम्
अथवैनं निहत्याजौ शेषेणापि समाहताः।
प्राप्नुयाम ततः स्वर्गं ज्ञातित्राणपरायणाः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अथवा यदि जरासंधको युद्धमें मारकर उसके पक्षमें रहनेवाले शेष सैनिकोंद्वारा हम भी मारे गये तो भी हमें कोई हानि नहीं है। अपने जाति-भाइयोंकी रक्षामें संलग्न होनेके कारण हमें स्वर्गकी ही प्राप्ति होगी॥१०॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृष्ण कोऽयं जरासंधः किंवीर्यः किम्पराक्रमः।
यस्त्वां स्पृष्ट्वाग्निसदृशं न दग्धः शलभो यथा ॥ ११ ॥
मूलम्
कृष्ण कोऽयं जरासंधः किंवीर्यः किम्पराक्रमः।
यस्त्वां स्पृष्ट्वाग्निसदृशं न दग्धः शलभो यथा ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— श्रीकृष्ण! यह जरासंध कौन है? उसका बल और पराक्रम कैसा है जो प्रज्वलित अग्निके समान आपका स्पर्श करके भी पतंगके समान जलकर भस्म नहीं हो गया?॥११॥
मूलम् (वचनम्)
कृष्ण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
शृणु राजन् जरासंधो यद्वीर्यो यत्पराक्रमः।
यथा चोपेक्षितोऽस्माभिर्बहुशः कृतविप्रियः ॥ १२ ॥
मूलम्
शृणु राजन् जरासंधो यद्वीर्यो यत्पराक्रमः।
यथा चोपेक्षितोऽस्माभिर्बहुशः कृतविप्रियः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्णने कहा— राजन्! जरासंधका बल और पराक्रम कैसा है तथा अनेक बार हमारा अप्रिय करनेपर भी हमलोगोंने क्यों उसकी उपेक्षा कर दी, यह सब बता रहा हूँ, सुनिये॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अक्षौहिणीनां तिसृणां पतिः समरदर्पितः।
राजा बृहद्रथो नाम मगधाधिपतिर्बली ॥ १३ ॥
मूलम्
अक्षौहिणीनां तिसृणां पतिः समरदर्पितः।
राजा बृहद्रथो नाम मगधाधिपतिर्बली ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मगधदेशमें बृहद्रथ नामसे प्रसिद्ध एक बलवान् राजा राज्य करते थे। वे तीन अक्षौहिणी सेनाओंके स्वामी और युद्धमें बड़े अभिमानके साथ लड़नेवाले थे॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रूपवान् वीर्यसम्पन्नः श्रीमानतुलविक्रमः ।
नित्यं दीक्षाङ्किततनुः शतक्रतुरिवापरः ॥ १४ ॥
मूलम्
रूपवान् वीर्यसम्पन्नः श्रीमानतुलविक्रमः ।
नित्यं दीक्षाङ्किततनुः शतक्रतुरिवापरः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा बृहद्रथ बड़े ही रूपवान्, बलवान्, धनवान् और अनुपम पराक्रमी थे। उनका शरीर दूसरे इन्द्रकी भाँति सदा यज्ञकी दीक्षाके चिह्नोंसे ही सुशोभित होता रहता था॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेजसा सूर्यसंकाशः क्षमया पृथिवीसमः।
यमान्तकसमः क्रोधे श्रिया वैश्रवणोपमः ॥ १५ ॥
मूलम्
तेजसा सूर्यसंकाशः क्षमया पृथिवीसमः।
यमान्तकसमः क्रोधे श्रिया वैश्रवणोपमः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे तेजमें सूर्य, क्षमामें पृथ्वी, क्रोधमें यमराज और धन-सम्पत्तिमें कुबेरके समान थे॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्याभिजनसंयुक्तैर्गुणैर्भरतसत्तम ।
व्याप्तेयं पृथिवी सर्वा सूर्यस्येव गभस्तिभिः ॥ १६ ॥
मूलम्
तस्याभिजनसंयुक्तैर्गुणैर्भरतसत्तम ।
व्याप्तेयं पृथिवी सर्वा सूर्यस्येव गभस्तिभिः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! जैसे सूर्यकी किरणोंसे यह सारी पृथ्वी आच्छादित हो जाती है, उसी प्रकार उनके उत्तम कुलोचित सद्गुणोंसे समस्त भूमण्डल व्याप्त हो रहा था—सर्वत्र उनके गुणोंकी चर्चा एवं प्रशंसा होती रहती थी॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स काशिराजस्य सुते यमजे भरतर्षभ।
उपयेमे महावीर्यो रूपद्रविणसंयुते ।
तयोश्चकार समयं मिथः स पुरुषर्षभः ॥ १७ ॥
नातिवर्तिष्य इत्येवं पत्नीभ्यां संनिधौ तदा।
स ताभ्यां शुशुभे राजा पत्नीभ्यां वसुधाधिपः ॥ १८ ॥
प्रियाभ्यामनुरूपाभ्यां करेणुभ्यामिव द्विपः ।
मूलम्
स काशिराजस्य सुते यमजे भरतर्षभ।
उपयेमे महावीर्यो रूपद्रविणसंयुते ।
तयोश्चकार समयं मिथः स पुरुषर्षभः ॥ १७ ॥
नातिवर्तिष्य इत्येवं पत्नीभ्यां संनिधौ तदा।
स ताभ्यां शुशुभे राजा पत्नीभ्यां वसुधाधिपः ॥ १८ ॥
प्रियाभ्यामनुरूपाभ्यां करेणुभ्यामिव द्विपः ।
अनुवाद (हिन्दी)
भरतकुलभूषण! महापराक्रमी राजा बृहद्रथने काशिराजकी दो जुड़वीं कन्याओंके साथ, जो अपनी रूप-सम्पत्तिसे अपूर्व शोभा पा रही थीं, विवाह किया और उन नरश्रेष्ठने एकान्तमें अपनी दोनों पत्नियोंके समीप यह प्रतिज्ञा की कि मैं तुम दोनोंके साथ कभी विषम व्यवहार नहीं करूँगा (अर्थात् दोनोंके प्रति समानरूपसे मेरा प्रेमभाव बना रहेगा)। जैसे दो हथिनियोंके साथ गजराज सुशोभित होता है, उसी प्रकार वे महाराज बृहद्रथ अपने मनके अनुरूप दोनों प्रिय पत्नियोंके साथ शोभा पाने लगे॥१७-१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तयोर्मध्यगतश्चापि रराज वसुधाधिपः ॥ १९ ॥
गङ्गायमुनयोर्मध्ये मूर्तिमानिव सागरः ।
मूलम्
तयोर्मध्यगतश्चापि रराज वसुधाधिपः ॥ १९ ॥
गङ्गायमुनयोर्मध्ये मूर्तिमानिव सागरः ।
अनुवाद (हिन्दी)
जब वे दोनों पत्नियोंके बीच विराजमान होते, उस समय ऐसा जान पड़ता, मानो गंगा और यमुनाके बीचमें मूर्तिमान् समुद्र सुशोभित हो रहा है॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विषयेषु निमग्नस्य तस्य यौवनमभ्यगात् ॥ २० ॥
न च वंशकरः पुत्रस्तस्याजायत कश्चन।
मङ्गलैर्बहुभिर्होमैः पुत्रकामाभिरिष्टिभिः ।
नाससाद नृपश्रेष्ठः पुत्रं कुलविवर्धनम् ॥ २१ ॥
मूलम्
विषयेषु निमग्नस्य तस्य यौवनमभ्यगात् ॥ २० ॥
न च वंशकरः पुत्रस्तस्याजायत कश्चन।
मङ्गलैर्बहुभिर्होमैः पुत्रकामाभिरिष्टिभिः ।
नाससाद नृपश्रेष्ठः पुत्रं कुलविवर्धनम् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विषयोंमें डूबे हुए राजाकी सारी जवानी बीत गयी, परंतु उन्हें कोई वंश चलानेवाला पुत्र नहीं प्राप्त हुआ। उन श्रेष्ठ नरेशने बहुत-से मांगलिक कृत्य, होम और पुत्रेष्टियज्ञ कराये, तो भी उन्हें वंशकी वृद्धि करनेवाले पुत्रकी प्राप्ति नहीं हुई॥२०-२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ काक्षीवतः पुत्रं गौतमस्य महात्मनः।
शुश्राव तपसि श्रान्तमुदारं चण्डकौशिकम् ॥ २२ ॥
यदृच्छयाऽऽगतं तं तु वृक्षमूलमुपाश्रितम्।
पत्नीभ्यां सहितो राजा सर्वरत्नैरतोषयत् ॥ २३ ॥
मूलम्
अथ काक्षीवतः पुत्रं गौतमस्य महात्मनः।
शुश्राव तपसि श्रान्तमुदारं चण्डकौशिकम् ॥ २२ ॥
यदृच्छयाऽऽगतं तं तु वृक्षमूलमुपाश्रितम्।
पत्नीभ्यां सहितो राजा सर्वरत्नैरतोषयत् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक दिन उन्होंने सुना कि गौतमगोत्रीय महात्मा काक्षीवान्के पुत्र परम उदार चण्डकौशिक मुनि तपस्यासे उपरत होकर अकस्मात् इधर आ गये हैं और एक वृक्षके नीचे बैठे हैं। यह समाचार पाकर राजा बृहद्रथ अपनी दोनों पत्नियों (एवं पुरवासियों)-के साथ उनके पास गये तथा सब प्रकारके रत्नों (मुनिजनोचित उत्कृष्ट वस्तुओं)-की भेंट देकर उन्हें संतुष्ट किया॥२२-२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(बृहद्रथं च स ऋषिः यथावत् प्रत्यनन्दत।
उपविष्टश्च तेनाथ अनुज्ञातो महात्मना॥
तमपृच्छत् तदा विप्रः किमागमनमित्यथ।
पौरैरनुगतस्यैव पत्नीभ्यां सहितस्य च॥
मूलम्
(बृहद्रथं च स ऋषिः यथावत् प्रत्यनन्दत।
उपविष्टश्च तेनाथ अनुज्ञातो महात्मना॥
तमपृच्छत् तदा विप्रः किमागमनमित्यथ।
पौरैरनुगतस्यैव पत्नीभ्यां सहितस्य च॥
अनुवाद (हिन्दी)
महर्षिने भी यथोचित बर्तावद्वारा बृहद्रथको प्रसन्न किया। उन महात्माकी आज्ञा पाकर राजा उनके निकट बैठे। उस समय ब्रह्मर्षि चण्डकौशिकने उनसे पूछा—‘राजन्! अपनी दोनों पत्नियों और पुरवासियोंके साथ यहाँ तुम्हारा आगमन किस उद्देश्यसे हुआ है?’।
विश्वास-प्रस्तुतिः
स उवाच मुनिं राजा भगवन् नास्ति मे सुतः।
अपुत्रस्य वृथा जन्म इत्याहुर्मुनिसत्तम॥
मूलम्
स उवाच मुनिं राजा भगवन् नास्ति मे सुतः।
अपुत्रस्य वृथा जन्म इत्याहुर्मुनिसत्तम॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब राजाने मुनिसे कहा—‘भगवन्! मेरे कोई पुत्र नहीं है। मुनिश्रेष्ठ! लोग कहते हैं कि पुत्रहीन मनुष्यका जन्म व्यर्थ है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तादृशस्य हि राज्येन वृद्धत्वे किं प्रयोजनम्।
सोऽहं तपश्चरिष्यामि पत्नीभ्यां सहितो वने॥
मूलम्
तादृशस्य हि राज्येन वृद्धत्वे किं प्रयोजनम्।
सोऽहं तपश्चरिष्यामि पत्नीभ्यां सहितो वने॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस बुढ़ापेमें पुत्रहीन रहकर मुझे राज्यसे क्या प्रयोजन है? इसलिये अब मैं दोनों पत्नियोंके साथ तपोवनमें रहकर तपस्या करूँगा।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाप्रजस्य मुने कीर्तिः स्वर्गश्चैवाक्षयो भवेत्।
एवमुक्तस्य राज्ञा तु मुनेः कारुण्यमागतम्॥)
मूलम्
नाप्रजस्य मुने कीर्तिः स्वर्गश्चैवाक्षयो भवेत्।
एवमुक्तस्य राज्ञा तु मुनेः कारुण्यमागतम्॥)
अनुवाद (हिन्दी)
‘मुने! संतानहीन मनुष्यको न तो इस लोकमें कीर्ति प्राप्त होती है और न परलोकमें अक्षय स्वर्ग ही प्राप्त होता है।’ राजाके ऐसा कहनेपर महर्षिको दया आ गयी।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमब्रवीत् सत्यधृतिः सत्यवागृषिसत्तमः ।
परितुष्टोऽस्मि राजेन्द्र वरं वरय सुव्रत ॥ २४ ॥
ततः सभार्यः प्रणतस्तमुवाच बृहद्रथः।
पुत्रदर्शननैराश्याद् वाष्पसंदिग्धया गिरा ॥ २५ ॥
मूलम्
तमब्रवीत् सत्यधृतिः सत्यवागृषिसत्तमः ।
परितुष्टोऽस्मि राजेन्द्र वरं वरय सुव्रत ॥ २४ ॥
ततः सभार्यः प्रणतस्तमुवाच बृहद्रथः।
पुत्रदर्शननैराश्याद् वाष्पसंदिग्धया गिरा ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब धैर्यसे सम्पन्न और सत्यवादी मुनिवर चण्डकौशिकने राजा बृहद्रथसे कहा—‘उत्तम व्रतका पालन करनेवाले राजेन्द्र! मैं तुमपर संतुष्ट हूँ। तुम इच्छानुसार वर माँगो।’ यह सुनकर राजा बृहद्रथ अपनी दोनों रानियोंके साथ मुनिके चरणोंमें पड़ गये और पुत्रदर्शनसे निराश होनेके कारण नेत्रोंसे आँसू बहाते हुए गद्गद वाणीमें बोले॥२४-२५॥
मूलम् (वचनम्)
राजोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगवन् राज्यमुत्सृज्य प्रस्थितोऽहं तपोवनम्।
किं वरेणाल्पभाग्यस्य किं राज्येनाप्रजस्य मे ॥ २६ ॥
मूलम्
भगवन् राज्यमुत्सृज्य प्रस्थितोऽहं तपोवनम्।
किं वरेणाल्पभाग्यस्य किं राज्येनाप्रजस्य मे ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाने कहा— भगवन्! मैं तो अब राज्य छोड़कर तपोवनकी ओर चल पड़ा हूँ। मुझ अभागे और संतानहीनको वर अथवा राज्यकी क्या आवश्यकता?॥२६॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीकृष्ण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतच्छ्रुत्वा मुनिर्ध्यानमगमत् क्षुभितेन्द्रियः ।
तस्यैव चाम्रवृक्षस्यच्छायायां समुपाविशत् ॥ २७ ॥
मूलम्
एतच्छ्रुत्वा मुनिर्ध्यानमगमत् क्षुभितेन्द्रियः ।
तस्यैव चाम्रवृक्षस्यच्छायायां समुपाविशत् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्ण कहते हैं— राजाका यह कातर वचन सुनकर मुनिकी इन्द्रियाँ क्षुब्ध हो गयीं (उनका हृदय पिघल गया)। तब वे ध्यानस्थ हो गये और उसी आम्रवृक्षकी छायामें बैठे रहे॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्योपविष्टस्य मुनेरुत्सङ्गे निपपात ह।
अवातमशुकादष्टमेकमाम्रफलं किल ॥ २८ ॥
मूलम्
तस्योपविष्टस्य मुनेरुत्सङ्गे निपपात ह।
अवातमशुकादष्टमेकमाम्रफलं किल ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसी समय वहाँ बैठे हुए मुनिकी गोदमें एक आमका फल गिरा। वह न हवाके चलनेसे गिरा था, न किसी तोतेने ही उस फलमें अपनी चोंच गड़ायी थी॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत् प्रगृह्य मुनिश्रेष्ठो हृदयेनाभिमन्त्र्य च।
राज्ञे ददावप्रतिमं पुत्रसम्प्राप्तिकारणम् ॥ २९ ॥
मूलम्
तत् प्रगृह्य मुनिश्रेष्ठो हृदयेनाभिमन्त्र्य च।
राज्ञे ददावप्रतिमं पुत्रसम्प्राप्तिकारणम् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुनिश्रेष्ठ चण्डकौशिकने उस अनुपम फलको हाथमें ले लिया और उसे मन-ही-मन अभिमन्त्रित करके पुत्रकी प्राप्ति करानेके लिये राजाको दे दिया॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उवाच च महाप्राज्ञस्तं राजानं महामुनिः।
गच्छ राजन् कृतार्थोऽसि निवर्तस्व नराधिप ॥ ३० ॥
मूलम्
उवाच च महाप्राज्ञस्तं राजानं महामुनिः।
गच्छ राजन् कृतार्थोऽसि निवर्तस्व नराधिप ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् उन महाज्ञानी महामुनिने राजासे कहा—‘राजन्! तुम्हारा मनोरथ पूर्ण हो गया। नरेश्वर! अब तुम अपनी राजधानीको लौट जाओ॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(एष ते तनयो राजन् मा तप्सीस्त्वं तपो वने।
प्रजाः पालय धर्मेण एष धर्मो महीक्षिताम्॥
मूलम्
(एष ते तनयो राजन् मा तप्सीस्त्वं तपो वने।
प्रजाः पालय धर्मेण एष धर्मो महीक्षिताम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! यह फल तुम्हें पुत्रप्राप्ति करायेगा, अब तुम वनमें जाकर तपस्या न करो; धर्मपूर्वक प्रजाका पालन करो। यही राजाओंका धर्म है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
यजस्व विविधैर्यज्ञैरिन्द्रं तर्पय चेन्दुना।
पुत्रं राज्ये प्रतिष्ठाप्य तत आश्रममाव्रज॥
मूलम्
यजस्व विविधैर्यज्ञैरिन्द्रं तर्पय चेन्दुना।
पुत्रं राज्ये प्रतिष्ठाप्य तत आश्रममाव्रज॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘नाना प्रकारके यज्ञोंद्वारा भगवान्का यजन करो और देवराज इन्द्रको सोमरससे तृप्त करो। फिर पुत्रको राज्यसिंहासनपर बिठाकर वानप्रस्थाश्रममें आ जाना।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अष्टौ वरान् प्रयच्छामि तव पुत्रस्य पार्थिव।
ब्रह्मण्यतामजेयत्वं युद्धेषु च तथा रतिम्॥
मूलम्
अष्टौ वरान् प्रयच्छामि तव पुत्रस्य पार्थिव।
ब्रह्मण्यतामजेयत्वं युद्धेषु च तथा रतिम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भूपाल! मैं तुम्हारे पुत्रके लिये आठ वर देता हूँ—वह ब्राह्मणभक्त होगा, युद्धमें अजेय होगा, उसकी युद्धविषयक रुचि कभी कम न होगी’।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रियातिथेयतां चैव दीनानामन्ववेक्षणम् ।
तथा बलं च सुमहल्लोके कीर्तिं च शाश्वतीम्॥
अनुरागं प्रजानां च ददौ तस्मै स कौशिकः।)
मूलम्
प्रियातिथेयतां चैव दीनानामन्ववेक्षणम् ।
तथा बलं च सुमहल्लोके कीर्तिं च शाश्वतीम्॥
अनुरागं प्रजानां च ददौ तस्मै स कौशिकः।)
अनुवाद (हिन्दी)
‘वह अतिथियोंका प्रेमी होगा, दीन-दुखियोंपर उसकी सदा कृपा-दृष्टि बनी रहेगी, उसका बल महान् होगा, लोकमें उसकी अक्षय कीर्तिका विस्तार होगा और प्रजाजनोंपर उसका सदा स्नेह बना रहेगा।’ इस प्रकार चण्डकौशिक मुनिने उसके लिये ये आठ वर दिये।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतच्छ्रुत्वा मुनेर्वाक्यं शिरसा प्रणिपत्य च।
मुनेः पादौ महाप्राज्ञः स नृपः स्वगृहं गतः ॥ ३१ ॥
मूलम्
एतच्छ्रुत्वा मुनेर्वाक्यं शिरसा प्रणिपत्य च।
मुनेः पादौ महाप्राज्ञः स नृपः स्वगृहं गतः ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुनिका यह वचन सुनकर उन परम बुद्धिमान् राजा बृहद्रथने उनके दोनों चरणोंमें मस्तक रखकर प्रणाम किया और अपने घरको लौट गये॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथासमयमाज्ञाय तदा स नृपसत्तमः।
द्वाभ्यामेकं फलं प्रादात् पत्नीभ्यां भरतर्षभ ॥ ३२ ॥
मूलम्
यथासमयमाज्ञाय तदा स नृपसत्तमः।
द्वाभ्यामेकं फलं प्रादात् पत्नीभ्यां भरतर्षभ ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! उन उत्तम नरेशने उचित कालका विचार करके दोनों पत्नियोंके लिये वह एक फल दे दिया॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते तदाम्रं द्विधा कृत्वा भक्षयामासतुः शुभे।
भावित्वादपि चार्थस्य सत्यवाक्यतया मुनेः ॥ ३३ ॥
तयोः समभवद् गर्भः फलप्राशनसम्भवः।
ते च दृष्ट्वा स नृपतिः परां मुदमवाप ह॥३४॥
मूलम्
ते तदाम्रं द्विधा कृत्वा भक्षयामासतुः शुभे।
भावित्वादपि चार्थस्य सत्यवाक्यतया मुनेः ॥ ३३ ॥
तयोः समभवद् गर्भः फलप्राशनसम्भवः।
ते च दृष्ट्वा स नृपतिः परां मुदमवाप ह॥३४॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन दोनों शुभस्वरूपा रानियोंने उस आमके दो टुकड़े करके एक-एक टुकड़ा खा लिया। होनेवाली बात होकर ही रहती है, इसलिये तथा मुनिकी सत्यवादिताके प्रभावसे वह फल खानेके कारण दोनों रानियोंको गर्भ रह गये। उन्हें गर्भवती हुई देखकर राजाको बड़ी प्रसन्नता हुई॥३३-३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ काले महाप्राज्ञ यथासमयमागते।
प्रजायेतामुभे राजञ्छरीरशकले तदा ॥ ३५ ॥
मूलम्
अथ काले महाप्राज्ञ यथासमयमागते।
प्रजायेतामुभे राजञ्छरीरशकले तदा ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाप्राज्ञ युधिष्ठिर! प्रसवकाल पूर्ण होनेपर उन दोनों रानियोंने यथासमय अपने गर्भसे शरीरका एक-एक टुकड़ा पैदा किया॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकाक्षिबाहुचरणे अर्धोदरमुखस्फिचे ।
दृष्ट्वा शरीरशकले प्रवेपतुरुभे भृशम् ॥ ३६ ॥
मूलम्
एकाक्षिबाहुचरणे अर्धोदरमुखस्फिचे ।
दृष्ट्वा शरीरशकले प्रवेपतुरुभे भृशम् ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रत्येक टुकड़ेमें एक आँख, एक हाथ, एक पैर, आधा पेट, आधा मुँह और कटिके नीचेका आधा भाग था। एक शरीरके उन टुकड़ोंको देखकर वे दोनों भयके मारे थर-थर काँपने लगीं॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उद्विग्ने सह सम्मन्त्र्य ते भगिन्यौ तदाबले।
सजीवे प्राणिशकले तत्यजाते सुदुःखिते ॥ ३७ ॥
मूलम्
उद्विग्ने सह सम्मन्त्र्य ते भगिन्यौ तदाबले।
सजीवे प्राणिशकले तत्यजाते सुदुःखिते ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनका हृदय उद्विग्न हो उठा; अबला ही तो थीं। उन दोनों बहिनोंने अत्यन्त दुःखी होकर परस्पर सलाह करके उन दोनों टुकड़ोंको, जिनमें जीव तथा प्राण विद्यमान थे, त्याग दिया॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तयोर्धात्र्यौ सुसंवीते कृत्वा ते गर्भसम्प्लवे।
निर्गम्यान्तःपुरद्वारात् समुत्सृज्याभिजग्मतुः ॥ ३८ ॥
मूलम्
तयोर्धात्र्यौ सुसंवीते कृत्वा ते गर्भसम्प्लवे।
निर्गम्यान्तःपुरद्वारात् समुत्सृज्याभिजग्मतुः ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन दोनोंकी धायें गर्भके उन टुकड़ोंको कपड़ेसे ढककर अन्तःपुरके दरवाजेसे बाहर निकलीं और चौराहेपर फेंककर चली गयीं॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते चतुष्पथनिक्षिप्ते जरा नामाथ राक्षसी।
जग्राह मनुजव्याघ्र मांसशोणितभोजना ॥ ३९ ॥
मूलम्
ते चतुष्पथनिक्षिप्ते जरा नामाथ राक्षसी।
जग्राह मनुजव्याघ्र मांसशोणितभोजना ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरुषसिंह! चौराहेपर फेंके हुए उन टुकड़ोंको रक्त और मांस खानेवाली जरा नामकी एक राक्षसीने उठा लिया॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्तुकामा सुखवहे शकले सा तु राक्षसी।
संयोजयामास तदा विधानबलचोदिता ॥ ४० ॥
मूलम्
कर्तुकामा सुखवहे शकले सा तु राक्षसी।
संयोजयामास तदा विधानबलचोदिता ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विधाताके विधानसे प्रेरित होकर उस राक्षसीने उन दोनों टुकड़ोंको सुविधापूर्वक ले जानेयोग्य बनानेकी इच्छासे उस समय जोड़ दिया॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते समानीतमात्रे तु शकले पुरुषर्षभ।
एकमूर्तिधरो वीरः कुमारः समपद्यत ॥ ४१ ॥
मूलम्
ते समानीतमात्रे तु शकले पुरुषर्षभ।
एकमूर्तिधरो वीरः कुमारः समपद्यत ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरश्रेष्ठ! उन टुकड़ोंका परस्पर संयोग होते ही एक शरीरधारी वीर कुमार बन गया॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः सा राक्षसी राजन् विस्मयोत्फुल्ललोचना।
न शशाक समुद्वोढुं वज्रसारमयं शिशुम् ॥ ४२ ॥
मूलम्
ततः सा राक्षसी राजन् विस्मयोत्फुल्ललोचना।
न शशाक समुद्वोढुं वज्रसारमयं शिशुम् ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! यह देखकर राक्षसीके नेत्र आश्चर्यसे खिल उठे। उसे वह शिशु वज्रके सारतत्त्वका बना जान पड़ा। राक्षसी उसे उठाकर ले जानेमें असमर्थ हो गयी॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बालस्ताम्रतलं मुष्टिं कृत्वा चास्ये निधाय सः।
प्राक्रोशदतिसंरब्धः सतोय इव तोयदः ॥ ४३ ॥
मूलम्
बालस्ताम्रतलं मुष्टिं कृत्वा चास्ये निधाय सः।
प्राक्रोशदतिसंरब्धः सतोय इव तोयदः ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस बालकने अपने लाल हथेलीवाले हाथोंकी मुट्ठी बाँधकर मुँहमें डाल ली और अत्यन्त क्रुद्ध होकर जलसे भरे मेघकी भाँति गम्भीर स्वरसे रोना शुरू कर दिया॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेन शब्देन सम्भ्रान्तः सहसान्तःपुरे जनः।
निर्जगाम नरव्याघ्र राज्ञा सह परंतप ॥ ४४ ॥
मूलम्
तेन शब्देन सम्भ्रान्तः सहसान्तःपुरे जनः।
निर्जगाम नरव्याघ्र राज्ञा सह परंतप ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतप नरव्याघ्र! बालकके उस रोने-चिल्लानेके शब्दसे रनिवासकी सब स्त्रियाँ घबरा उठीं तथा राजाके साथ सहसा बाहर निकलीं॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते चाबले परिम्लाने पयःपूर्णपयोधरे।
निराशे पुत्रलाभाय सहसैवाभ्यगच्छताम् ॥ ४५ ॥
मूलम्
ते चाबले परिम्लाने पयःपूर्णपयोधरे।
निराशे पुत्रलाभाय सहसैवाभ्यगच्छताम् ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दूधसे भरे हुए स्तनोंवाली वे दोनों अबला रानियाँ भी, जो पुत्रप्राप्तिकी आशा छोड़ चुकी थीं, मलिन मुख हो सहसा बाहर निकल आयीं॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ दृष्ट्वा तथाभूते राजानं चेष्टसंततिम्।
तं च बालं सुबलिनं चिन्तयामास राक्षसी ॥ ४६ ॥
नार्हामि विषये राज्ञो वसन्ती पुत्रगृद्धिनः।
बालं पुत्रमिमं हन्तुं धार्मिकस्य महात्मनः ॥ ४७ ॥
मूलम्
अथ दृष्ट्वा तथाभूते राजानं चेष्टसंततिम्।
तं च बालं सुबलिनं चिन्तयामास राक्षसी ॥ ४६ ॥
नार्हामि विषये राज्ञो वसन्ती पुत्रगृद्धिनः।
बालं पुत्रमिमं हन्तुं धार्मिकस्य महात्मनः ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन दोनों रानियोंको उस प्रकार उदास, राजाको संतान पानेके लिये उत्सुक तथा उस बालकको अत्यन्त बलवान् देखकर राक्षसीने सोचा, ‘मैं इस राजाके राज्यमें रहती हूँ। यह पुत्रकी इच्छा रखता है; अतः इस धर्मात्मा तथा महात्मा नरेशके बालक पुत्रकी हत्या करना मेरे लिये उचित नहीं है’॥४६-४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा तं बालमुपादाय मेघलेखेव भास्करम्।
कृत्वा च मानुषं रूपमुवाच वसुधाधिपम् ॥ ४८ ॥
मूलम्
सा तं बालमुपादाय मेघलेखेव भास्करम्।
कृत्वा च मानुषं रूपमुवाच वसुधाधिपम् ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा विचारकर उस राक्षसीने मानवीका रूप धारण किया और जैसे मेघमाला सूर्यको धारण करे, उसी प्रकार वह उस बालकको गोदमें उठाकर भूपालसे बोली॥४८॥
मूलम् (वचनम्)
राक्षस्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
बृहद्रथ सुतस्तेऽयं मया दत्तः प्रगृह्यताम्।
तव पत्नीद्वये जातो द्विजातिवरशासनात्।
धात्रीजनपरित्यक्तो मयायं परिरक्षितः ॥ ४९ ॥
मूलम्
बृहद्रथ सुतस्तेऽयं मया दत्तः प्रगृह्यताम्।
तव पत्नीद्वये जातो द्विजातिवरशासनात्।
धात्रीजनपरित्यक्तो मयायं परिरक्षितः ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राक्षसीने कहा— बृहद्रथ! यह तुम्हारा पुत्र है, जिसे मैंने तुम्हें दिया है। तुम इसे ग्रहण करो। ब्रह्मर्षिके वरदान एवं आशीर्वादसे तुम्हारी पत्नियोंके गर्भसे इसका जन्म हुआ है। धायोंने इसे घरके बाहर लाकर डाल दिया था; किंतु मैंने इसकी रक्षा की है॥४९॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीकृष्ण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्ते भरतश्रेष्ठ काशिराजसुते शुभे।
तं बालमभिपद्याशु प्रस्रवैरभ्यषिञ्चताम् ॥ ५० ॥
मूलम्
ततस्ते भरतश्रेष्ठ काशिराजसुते शुभे।
तं बालमभिपद्याशु प्रस्रवैरभ्यषिञ्चताम् ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्ण कहते हैं— भरतकुलभूषण! तब काशिराजकी उन दोनों शुभलक्षणा कन्याओंने उस बालकको तुरंत गोदमें लेकर उसे स्तनोंके दूधसे सींच दिया॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः स राजा संहृष्टः सर्वं तदुपलभ्य च।
अपृच्छद्धेमगर्भाभां राक्षसीं तामराक्षसीम् ॥ ५१ ॥
मूलम्
ततः स राजा संहृष्टः सर्वं तदुपलभ्य च।
अपृच्छद्धेमगर्भाभां राक्षसीं तामराक्षसीम् ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह सब देख-सुनकर राजाके हर्षकी सीमा न रही। उन्होंने सुवर्णकी-सी कान्तिवाली उस राक्षसीसे, जो स्वरूप-से राक्षसी नहीं जान पड़ती थी, इस प्रकार पूछा॥५१॥
मूलम् (वचनम्)
राजोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
का त्वं कमलगर्भाभे मम पुत्रप्रदायिनी।
कामया ब्रूहि कल्याणि देवता प्रतिभासि मे ॥ ५२ ॥
मूलम्
का त्वं कमलगर्भाभे मम पुत्रप्रदायिनी।
कामया ब्रूहि कल्याणि देवता प्रतिभासि मे ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाने कहा— कमलके भीतरी भागके समान मनोहर कान्तिवाली कल्याणी! मुझे पुत्र प्रदान करनेवाली तुम कौन हो? बताओ। मुझे तो ऐसा जान पड़ता है कि तुम इच्छानुसार विचरनेवाली कोई देवी हो॥५२॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि राजसूयारम्भपर्वणि जरासंधोत्पत्तौ सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्वके अन्तर्गत राजसूयारम्भपर्वमें जरासंधकी उत्पत्तिविषयक सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१७॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ९ श्लोक मिलाकर कुल ६१ श्लोक हैं)