श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
षोडशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
जरासंधको जीतनेके विषयमें युधिष्ठिरके उत्साहहीन होनेपर अर्जुनका उत्साहपूर्ण उद्गार
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सम्राड्गुणमभीप्सन् वै युष्मान् स्वार्थपरायणः।
कथं प्रहिणुयां कृष्ण सोऽहं केवलसाहसात् ॥ १ ॥
मूलम्
सम्राड्गुणमभीप्सन् वै युष्मान् स्वार्थपरायणः।
कथं प्रहिणुयां कृष्ण सोऽहं केवलसाहसात् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर बोले— श्रीकृष्ण! मैं सम्राट्के गुणोंको प्राप्त करनेकी इच्छा रखकर स्वार्थसाधनमें तत्पर हो केवल साहसके भरोसे आपलोगोंको जरासंधके पास कैसे भेज दूँ?॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भीमार्जुनावुभौ नेत्रे मनो मन्ये जनार्दनम्।
मनश्चक्षुर्विहीनस्य कीदृशं जीवितं भवेत् ॥ २ ॥
मूलम्
भीमार्जुनावुभौ नेत्रे मनो मन्ये जनार्दनम्।
मनश्चक्षुर्विहीनस्य कीदृशं जीवितं भवेत् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीमसेन और अर्जुन मेरे दोनों नेत्र हैं और जनार्दन आपको मैं अपना मन मानता हूँ। अपने मन और नेत्रोंको खो देनेपर मेरा यह जीवन कैसा हो जायगा?॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जरासंधबलं प्राप्य दुष्पारं भीमविक्रमम्।
यमोऽपि न विजेताऽऽजौ तत्र वः किं विचेष्टितम् ॥ ३ ॥
मूलम्
जरासंधबलं प्राप्य दुष्पारं भीमविक्रमम्।
यमोऽपि न विजेताऽऽजौ तत्र वः किं विचेष्टितम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जरासंधकी सेनाका पार पाना कठिन है। उसका पराक्रम भयानक है। युद्धमें उस सेनाका सामना करके यमराज भी विजयी नहीं हो सकते, फिर वहाँ आपलोगोंका प्रयत्न क्या कर सकता है?॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(कथं जित्वा पुनर्यूयमस्मान् सम्प्रति यास्यथ।)
अस्मिंस्त्वर्थान्तरे युक्तमनर्थः प्रतिपद्यते ।
तस्मान्न प्रतिपत्तिस्तु कार्या युक्ता मता मम ॥ ४ ॥
मूलम्
(कथं जित्वा पुनर्यूयमस्मान् सम्प्रति यास्यथ।)
अस्मिंस्त्वर्थान्तरे युक्तमनर्थः प्रतिपद्यते ।
तस्मान्न प्रतिपत्तिस्तु कार्या युक्ता मता मम ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपलोग किस प्रकार उसे जीतकर फिर हमारे पास लौट सकेंगे? यह कार्य हमारे लिये इष्ट फलके विपरीत फल देनेवाला जान पड़ता है। इसमें लगे हुए मनुष्यको निश्चय ही अनर्थकी प्राप्ति होती है। इसलिये अबतक हम जिसे करना चाहते थे, उस राजसूययज्ञकी ओर ध्यान देना उचित नहीं जान पड़ता॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथाहं विमृशाम्येकस्तत् तावच्छ्रूयतां मम।
संन्यासं रोचये साधु कार्यस्यास्य जनार्दन।
प्रतिहन्ति मनो मेऽद्य राजसूयो दुराहरः ॥ ५ ॥
मूलम्
यथाहं विमृशाम्येकस्तत् तावच्छ्रूयतां मम।
संन्यासं रोचये साधु कार्यस्यास्य जनार्दन।
प्रतिहन्ति मनो मेऽद्य राजसूयो दुराहरः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनार्दन! इस विषयमें मैं अकेले जैसा सोचता हूँ, मेरे उस विचारको आप सुनें। मुझे तो इस कार्यको छोड़ देना ही अच्छा लगता है। राजसूयका अनुष्ठान बहुत कठिन है। अब यह मेरे मनको निरुत्साह कर रहा है॥५॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
पार्थः प्राप्य धनुः श्रेष्ठमक्षय्ये च महेषुधी।
रथं ध्वजं सभां चैव युधिष्ठिरमभाषत ॥ ६ ॥
मूलम्
पार्थः प्राप्य धनुः श्रेष्ठमक्षय्ये च महेषुधी।
रथं ध्वजं सभां चैव युधिष्ठिरमभाषत ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! कुन्तीनन्दन अर्जुन उत्तम गाण्डीव धनुष, दो अक्षय तूणीर, दिव्य रथ, ध्वजा और सभा प्राप्त कर चुके थे; इससे उत्साहित होकर वे युधिष्ठिरसे बोले॥६॥
मूलम् (वचनम्)
अर्जुन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनुः शस्त्रं शरा वीर्यं पक्षो भूमिर्यशो बलम्।
प्राप्तमेतन्मया राजन् दुष्प्रापं यदभीप्सितम् ॥ ७ ॥
मूलम्
धनुः शस्त्रं शरा वीर्यं पक्षो भूमिर्यशो बलम्।
प्राप्तमेतन्मया राजन् दुष्प्रापं यदभीप्सितम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुनने कहा— राजन्! धनुष, शस्त्र, बाण, पराक्रम, श्रेष्ठ सहायक, भूमि, यश और बलकी प्राप्ति बड़ी कठिनाईसे होती है; किंतु ये सभी दुर्लभ वस्तुएँ मुझे अपनी इच्छाके अनुकूल प्राप्त हुई हैं॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुले जन्म प्रशंसन्ति वैद्याः साधु सुनिष्ठिताः।
बलेन सदृशं नास्ति वीर्यं तु मम रोचते ॥ ८ ॥
मूलम्
कुले जन्म प्रशंसन्ति वैद्याः साधु सुनिष्ठिताः।
बलेन सदृशं नास्ति वीर्यं तु मम रोचते ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अनुभवी विद्वान् उत्तम कुलमें जन्मकी बड़ी प्रशंसा करते हैं; परंतु बलके समान वह भी नहीं है। मुझे तो बल-पराक्रम ही श्रेष्ठ जान पड़ता है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृतवीर्यकुले जातो निर्वीर्यः किं करिष्यति।
निर्वीर्ये तु कुले जातो वीर्यवांस्तु विशिष्यते ॥ ९ ॥
मूलम्
कृतवीर्यकुले जातो निर्वीर्यः किं करिष्यति।
निर्वीर्ये तु कुले जातो वीर्यवांस्तु विशिष्यते ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महापराक्रमी राजा कृतवीर्यके कुलमें उत्पन्न होकर भी जो स्वयं निर्बल है, वह क्या करेगा? निर्बल कुलमें जन्म लेकर भी जो बलवान् और पराक्रमी है, वही श्रेष्ठ है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षत्रियः सर्वशो राजन् यस्य वृत्तिर्द्विषज्जये।
सर्वैर्गुणैर्विहीनोऽपि वीर्यवान् हि तरेद् रिपून् ॥ १० ॥
मूलम्
क्षत्रियः सर्वशो राजन् यस्य वृत्तिर्द्विषज्जये।
सर्वैर्गुणैर्विहीनोऽपि वीर्यवान् हि तरेद् रिपून् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! शत्रुओंको जीतनेमें जिसकी प्रवृत्ति हो, वही सब प्रकारसे श्रेष्ठ क्षत्रिय है। बलवान् पुरुष सब गुणोंसे हीन हो, तो भी वह शत्रुओंके संकटसे पार हो सकता है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वैरपि गुणैर्युक्तो निर्वीर्यः किं करिष्यति।
गुणीभूता गुणाः सर्वे तिष्ठन्ति हि पराक्रमे ॥ ११ ॥
मूलम्
सर्वैरपि गुणैर्युक्तो निर्वीर्यः किं करिष्यति।
गुणीभूता गुणाः सर्वे तिष्ठन्ति हि पराक्रमे ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो निर्बल है, वह सर्वगुणसम्पन्न होकर भी क्या करेगा? पराक्रममें सभी गुण उसके अंग बनकर रहते हैं॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जयस्य हेतुः सिद्धिर्हि कर्म दैवं च संश्रितम्।
संयुक्तो हि बलैः कश्चित् प्रमादान्नोपयुज्यते ॥ १२ ॥
मूलम्
जयस्य हेतुः सिद्धिर्हि कर्म दैवं च संश्रितम्।
संयुक्तो हि बलैः कश्चित् प्रमादान्नोपयुज्यते ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! सिद्धि (मनोयोग) और प्रारब्धके अनुकूल पुरुषार्थ ही विजयका हेतु है। कोई बलसे संयुक्त होनेपर भी प्रमाद करे—कर्तव्यमें मन न लगावे, तो वह अपने उद्देश्यमें सफल नहीं हो सकता॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेन द्वारेण शत्रुभ्यः क्षीयते सबलो रिपुः ॥ १३ ॥
मूलम्
तेन द्वारेण शत्रुभ्यः क्षीयते सबलो रिपुः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रमादरूप छिद्रके कारण बलवान् शत्रु भी अपने शत्रुओंद्वारा मारा जाता है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दैन्यं यथा बलवति तथा मोहो बलान्विते।
तावुभौ नाशकौ हेतू राज्ञा त्याज्यौ जयार्थिना ॥ १४ ॥
मूलम्
दैन्यं यथा बलवति तथा मोहो बलान्विते।
तावुभौ नाशकौ हेतू राज्ञा त्याज्यौ जयार्थिना ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बलवान् पुरुषमें जैसे दीनताका होना बड़ा भारी दोष है, वैसे ही बलिष्ठ पुरुषमें मोहका होना भी महान् दुर्गुण है। दीनता और मोह दोनों विनाशके कारण हैं; अतः विजय चाहनेवाले राजाके लिये वे दोनों ही त्याज्य हैं॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जरासंधविनाशं च राज्ञां च परिरक्षणम्।
यदि कुर्याम यज्ञार्थं किं ततः परमं भवेत् ॥ १५ ॥
मूलम्
जरासंधविनाशं च राज्ञां च परिरक्षणम्।
यदि कुर्याम यज्ञार्थं किं ततः परमं भवेत् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि हम राजसूययज्ञकी सिद्धिके लिये जरासंधका विनाश तथा कैदमें पड़े हुए राजाओंकी रक्षा कर सकें तो इससे उत्तम और क्या हो सकता है?॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनारम्भे हि नियतो भवेदगुणनिश्चयः।
गुणान्निःसंशयाद् राजन् नैर्गुण्यं मन्यसे कथम् ॥ १६ ॥
मूलम्
अनारम्भे हि नियतो भवेदगुणनिश्चयः।
गुणान्निःसंशयाद् राजन् नैर्गुण्यं मन्यसे कथम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि हम यज्ञका आरम्भ नहीं करते हैं तो निश्चय ही हमारी अयोग्यता एवं दुर्बलता प्रकट होती है; अतः राजन्! सुनिश्चित गुणकी उपेक्षा करके आप निर्गुणताका कलंक क्यों स्वीकार कर रहे हैं?॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
काषायं सुलभं पश्चान्मुनीनां शममिच्छताम्।
साम्राज्यं तु भवेच्छक्यं वयं योत्स्यामहे परान् ॥ १७ ॥
मूलम्
काषायं सुलभं पश्चान्मुनीनां शममिच्छताम्।
साम्राज्यं तु भवेच्छक्यं वयं योत्स्यामहे परान् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा करनेपर तो शान्तिकी इच्छा रखनेवाले संन्यासियोंका गेरुआ वस्त्र ही हमें सुलभ होगा, परंतु हमलोग साम्राज्यको प्राप्त करनेमें समर्थ हैं; अतः हमलोग शत्रुओंसे अवश्य युद्ध करेंगे॥१७॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि राजसूयारम्भपर्वणि जरासंधवधमन्त्रणे षोडशोऽध्यायः ॥ १६ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्वके अन्तर्गत राजसूयारम्भपर्वमें जरासंधवधके लिये मन्त्रणाविषयक सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१६॥