०१५ जरासन्ध-चिन्ता

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

पञ्चदशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

जरासंधके विषयमें राजा युधिष्ठिर, भीम और श्रीकृष्णकी बातचीत

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

उक्तं त्वया बुद्धिमता यन्नान्यो वक्तुमर्हति।
संशयानां हि निर्मोक्ता त्वन्नान्यो विद्यते भुवि ॥ १ ॥

मूलम्

उक्तं त्वया बुद्धिमता यन्नान्यो वक्तुमर्हति।
संशयानां हि निर्मोक्ता त्वन्नान्यो विद्यते भुवि ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— श्रीकृष्ण! आप परम बुद्धिमान् हैं, आपने जैसी बात कही है, वैसी दूसरा कोई नहीं कह सकता। इस पृथ्वीपर आपके सिवा समस्त संशयोंको मिटानेवाला और कोई नहीं है॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गृहे गृहे हि राजानः स्वस्य स्वस्य प्रियंकराः।
न च साम्राज्यमाप्तास्ते सम्राट्‌छब्दो हि कृच्छ्रभाक् ॥ २ ॥

मूलम्

गृहे गृहे हि राजानः स्वस्य स्वस्य प्रियंकराः।
न च साम्राज्यमाप्तास्ते सम्राट्‌छब्दो हि कृच्छ्रभाक् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आजकल तो घर-घरमें राजा हैं और सभी अपना-अपना प्रिय कार्य करते हैं, परंतु वे सम्राट्‌पदको नहीं प्राप्त कर सके; क्योंकि सम्राट्‌की पदवी बड़ी कठिनाईसे मिलती है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं परानुभावज्ञः स्वं प्रशंसितुमर्हति।
परेण समवेतस्तु यः प्रशस्यः स पूज्यते ॥ ३ ॥

मूलम्

कथं परानुभावज्ञः स्वं प्रशंसितुमर्हति।
परेण समवेतस्तु यः प्रशस्यः स पूज्यते ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो दूसरोंके प्रभावको जानता है, वह अपनी प्रशंसा कैसे कर सकता है? दूसरेके साथ मुकाबला होनेपर भी जो प्रशंसनीय बना रह जाय, उसीकी सर्वत्र पूजा होती है॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विशाला बहुला भूमिर्बहुरत्नसमाचिता ।
दूरं गत्वा विजानाति श्रेयो वृष्णिकुलोद्वह ॥ ४ ॥

मूलम्

विशाला बहुला भूमिर्बहुरत्नसमाचिता ।
दूरं गत्वा विजानाति श्रेयो वृष्णिकुलोद्वह ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वृष्णिकुलभूषण! यह पृथ्वी बहुत विशाल है, अनेक प्रकारके रत्नोंसे भरी हुई है, मनुष्य दूर जाकर (सत्पुरुषोंका संग करके) यह समझ पाता है कि अपना कल्याण कैसे होगा॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शममेव परं मन्ये शमात् क्षेमं भवेन्मम।
आरम्भे पारमेष्ठ्ये तु न प्राप्यमिति मे मतिः ॥ ५ ॥

मूलम्

शममेव परं मन्ये शमात् क्षेमं भवेन्मम।
आरम्भे पारमेष्ठ्ये तु न प्राप्यमिति मे मतिः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं तो मन और इन्द्रियोंके संयमको ही सबसे उत्तम मानता हूँ, उसीसे मेरा भला होगा। राजसूय-यज्ञका आरम्भ करनेपर भी उसके फलस्वरूप ब्रह्मलोककी प्राप्ति अपने लिये असम्भव है—मेरी तो यही धारणा है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमेते हि जानन्ति कुले जाता मनस्विनः।
कश्चित् कदाचिदेतेषां भवेच्छ्रेष्ठो जनार्दन ॥ ६ ॥

मूलम्

एवमेते हि जानन्ति कुले जाता मनस्विनः।
कश्चित् कदाचिदेतेषां भवेच्छ्रेष्ठो जनार्दन ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनार्दन! ये उत्तम कुलमें उत्पन्न मनस्वी सभासद् ऐसा जानते हैं कि इनमें कभी कोई श्रेष्ठ (सर्वविजयी) भी हो सकता है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वयं चैव महाभाग जरासंधभयात् तदा।
शङ्किताः स्म महाभाग दौरात्म्यात् तस्य चानघ ॥ ७ ॥
अहं हि तव दुर्धर्ष भुजवीर्याश्रयः प्रभो।
नात्मानं बलिनं मन्ये त्वयि तस्माद् विशङ्किते ॥ ८ ॥

मूलम्

वयं चैव महाभाग जरासंधभयात् तदा।
शङ्किताः स्म महाभाग दौरात्म्यात् तस्य चानघ ॥ ७ ॥
अहं हि तव दुर्धर्ष भुजवीर्याश्रयः प्रभो।
नात्मानं बलिनं मन्ये त्वयि तस्माद् विशङ्किते ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पापरहित महाभाग! हम भी जरासंधके भयसे तथा उसकी दुष्टतासे सदा शंकित रहते हैं। किसीसे परास्त न होनेवाले प्रभो! मैं तो आपके ही बाहुबलका भरोसा रखता हूँ। जब आप ही जरासंधसे शंकित हैं, तब तो मैं अपनेको उसके सामने कदापि बलवान् नहीं मान सकता॥७-८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वत्सकाशाच्च रामाच्च भीमसेनाच्च माधव।
अर्जुनाद् वा महाबाहो हन्तुं शक्यो न वेति वै।
एवं जानन् हि वार्ष्णेय विमृशामि पुनः पुनः ॥ ९ ॥

मूलम्

त्वत्सकाशाच्च रामाच्च भीमसेनाच्च माधव।
अर्जुनाद् वा महाबाहो हन्तुं शक्यो न वेति वै।
एवं जानन् हि वार्ष्णेय विमृशामि पुनः पुनः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाबाहु माधव! आपसे, बलरामजीसे, भीमसेनसे अथवा अर्जुनसे वह मारा जा सकता है या नहीं? वार्ष्णेय! (आपकी शक्ति अनन्त है,) यह जानते हुए भी मैं बार-बार इसी बातपर विचार करता रहता हूँ॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वं मे प्रमाणभूतोऽसि सर्वकार्येषु केशव।
तच्छ्रुत्वा चाब्रवीद् भीमो वाक्यं वाक्यविशारदः ॥ १० ॥

मूलम्

त्वं मे प्रमाणभूतोऽसि सर्वकार्येषु केशव।
तच्छ्रुत्वा चाब्रवीद् भीमो वाक्यं वाक्यविशारदः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

केशव! मेरे लिये सभी कार्योंमें आप ही प्रमाण हैं। युधिष्ठिरका यह वचन सुनकर बोलनेमें चतुर भीमसेनने यह वचन कहा॥१०॥

मूलम् (वचनम्)

भीम उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनारम्भपरो राजा वल्मीक इव सीदति।
दुर्बलश्चानुपायेन बलिनं योऽधितिष्ठति ॥ ११ ॥

मूलम्

अनारम्भपरो राजा वल्मीक इव सीदति।
दुर्बलश्चानुपायेन बलिनं योऽधितिष्ठति ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीमसेन बोले— महाराज! जो राजा उद्योग नहीं करता तथा जो दुर्बल होकर भी उचित उपाय अथवा युक्तिसे काम न लेकर किसी बलवान्‌से भिड़ जाता है, वे दोनों दीमकोंके बनाये हुए मिट्टीके ढेरके समान नष्ट हो जाते हैं॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतन्द्रितश्च प्रायेण दुर्बलो बलिनं रिपुम्।
जयेत् सम्यक् प्रयोगेण नीत्यार्थानात्मनो हितान् ॥ १२ ॥

मूलम्

अतन्द्रितश्च प्रायेण दुर्बलो बलिनं रिपुम्।
जयेत् सम्यक् प्रयोगेण नीत्यार्थानात्मनो हितान् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु जो आलस्य त्यागकर उत्तम युक्ति एवं नीतिसे काम लेता है, वह दुर्बल होनेपर भी बलवान् शत्रुको जीत लेता है और अपने लिये हितकर एवं अभीष्ट अर्थ प्राप्त करता है॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृष्णे नयो मयि बलं जयः पार्थे धनंजये।
मागधं साधयिष्याम इष्टिं त्रय इवाग्नयः ॥ १३ ॥

मूलम्

कृष्णे नयो मयि बलं जयः पार्थे धनंजये।
मागधं साधयिष्याम इष्टिं त्रय इवाग्नयः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीकृष्णमें नीति है, मुझमें बल है और अर्जुनमें विजयकी शक्ति है। हम तीनों मिलकर मगधराज जरासंधके वधका कार्य पूरा कर लेंगे; ठीक उसी तरह, जैसे तीनों अग्नियाँ यज्ञकी सिद्धि कर देती हैं॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(त्वद्‌बुद्धिबलमाश्रित्य सर्वं प्राप्स्यति धर्मराट्।
जयोऽस्माकं हि गोविन्द येषां नाथो भवान् सदा॥)

मूलम्

(त्वद्‌बुद्धिबलमाश्रित्य सर्वं प्राप्स्यति धर्मराट्।
जयोऽस्माकं हि गोविन्द येषां नाथो भवान् सदा॥)

अनुवाद (हिन्दी)

गोविन्द! आपके बुद्धिबलका आश्रय लेकर धर्मराज युधिष्ठिर सब कुछ पा सकते हैं। जिनकी सदा रक्षा करनेवाले आप हैं, उनकी—हम पाण्डवोंकी विजय निश्चित है।

मूलम् (वचनम्)

कृष्ण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्थानारभते बालो नानुबन्धमवेक्षते ।
तस्मादरिं न मृष्यन्ति बालमर्थपरायणम् ॥ १४ ॥
जित्वा जय्यान् यौवनाश्विः पालनाच्च भगीरथः।
कार्तवीर्यस्तपोवीर्याद् बलात् तु भरतो विभुः ॥ १५ ॥

मूलम्

अर्थानारभते बालो नानुबन्धमवेक्षते ।
तस्मादरिं न मृष्यन्ति बालमर्थपरायणम् ॥ १४ ॥
जित्वा जय्यान् यौवनाश्विः पालनाच्च भगीरथः।
कार्तवीर्यस्तपोवीर्याद् बलात् तु भरतो विभुः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीकृष्णने कहा— राजन्! अज्ञानी मनुष्य बड़े-बड़े कार्योंका आरम्भ तो कर देता है, परंतु उनके परिणामकी ओर नहीं देखता। अतः केवल अपने स्वार्थसाधनमें लगे हुए विवेकशून्य शत्रुके व्यवहारको वीर पुरुष नहीं सह सकते। युवनाश्वके पुत्र मान्धाताने जीतनेयोग्य शत्रुओंको जीतकर सम्राट्‌का पद प्राप्त किया था। भगीरथ प्रजाका पालन करनेसे, कार्तवीर्य (सहस्रबाहु अर्जुन) तपोबलसे तथा राजा भरत स्वाभाविक बलसे सम्राट् हुए थे॥१४-१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋद्ध्या मरुत्तस्तान् पञ्च सम्राजस्त्वनुशुश्रुम।
साम्राज्यमिच्छतस्ते तु सर्वाकारं युधिष्ठिर ॥ १६ ॥
निग्राह्यलक्षणं प्राप्तिर्धर्मार्थनयलक्षणैः ॥ १७ ॥

मूलम्

ऋद्ध्या मरुत्तस्तान् पञ्च सम्राजस्त्वनुशुश्रुम।
साम्राज्यमिच्छतस्ते तु सर्वाकारं युधिष्ठिर ॥ १६ ॥
निग्राह्यलक्षणं प्राप्तिर्धर्मार्थनयलक्षणैः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार राजा मरुत्त अपनी समृद्धिके प्रभावसे सम्राट् बने थे। अबतक उन पाँच सम्राटोंका ही नाम हम सुनते आ रहे हैं। युधिष्ठिर! वे मान्धाता आदि एक-एक गुणसे ही सम्राट् हो सके थे; परंतु आप तो सम्पूर्णरूपसे सम्राट्‌पद प्राप्त करना चाहते हैं। साम्राज्य-प्राप्तिके जो पाँच गुण—शत्रुविजय, प्रजापालन, तपःशक्ति, धन-समृद्धि और उत्तम नीति हैं, उन सबसे आप सम्पन्न हैं॥१६-१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बार्हद्रथो जरासंधस्तद् विद्धि भरतर्षभ।
न चैनमनुरुद्ध्यन्ते कुलान्येकशतं नृपाः।
तस्मादिह बलादेव साम्राज्यं कुरुते हि सः ॥ १८ ॥

मूलम्

बार्हद्रथो जरासंधस्तद् विद्धि भरतर्षभ।
न चैनमनुरुद्ध्यन्ते कुलान्येकशतं नृपाः।
तस्मादिह बलादेव साम्राज्यं कुरुते हि सः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु भरतश्रेष्ठ! आपके मार्गमें बृहद्रथका पुत्र जरासंध बाधक है, यह आपको जान लेना चाहिये। क्षत्रियोंके जो एक सौ कुल हैं, वे कभी उसका अनुसरण नहीं करते, अतः वह बलसे ही अपना साम्राज्य स्थापित कर रहा है॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रत्नभाजो हि राजानो जरासंधमुपासते।
न च तुष्यति तेनापि बाल्यादनयमास्थितः ॥ १९ ॥

मूलम्

रत्नभाजो हि राजानो जरासंधमुपासते।
न च तुष्यति तेनापि बाल्यादनयमास्थितः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो रत्नोंके अधिपति हैं, ऐसे राजालोग (धन देकर) जरासंधकी उपासना करते हैं, परंतु वह उससे भी संतुष्ट नहीं होता। अपनी विवेकशून्यताके कारण अन्यायका आश्रय ले उनपर अत्याचार ही करता है॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मूर्धाभिषिक्तं नृपतिं प्रधानपुरुषो बलात्।
आदत्ते न च नो दृष्टोऽभागः पुरुषतः क्वचित् ॥ २० ॥

मूलम्

मूर्धाभिषिक्तं नृपतिं प्रधानपुरुषो बलात्।
आदत्ते न च नो दृष्टोऽभागः पुरुषतः क्वचित् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आजकल वह प्रधान पुरुष बनकर मूर्धाभिषिक्त राजाको बलपूर्वक बंदी बना लेता है। जिनका विधि-पूर्वक राज्यपर अभिषेक हुआ है, ऐसे पुरुषोंमेंसे कहीं किसी एकको भी हमने ऐसा नहीं देखा, जिसे उसने बलिका भाग न बना लिया हो—कैदमें न डाल रखा हो॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं सर्वान् वशे चक्रे जरासंधः शतावरान्।
तं दुर्बलतरो राजा कथं पार्थ उपैष्यति ॥ २१ ॥

मूलम्

एवं सर्वान् वशे चक्रे जरासंधः शतावरान्।
तं दुर्बलतरो राजा कथं पार्थ उपैष्यति ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार जरासंधने लगभग सौ राजकुलोंके राजाओंमेंसे कुछको छोड़कर सबको वशमें कर लिया है। कुन्तीनन्दन! कोई अत्यन्त दुर्बल राजा उससे भिड़नेका साहस कैसे करेगा॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रोक्षितानां प्रमृष्टानां राज्ञां पशुपतेर्गृहे।
पशूनामिव का प्रीतिर्जीविते भरतर्षभ ॥ २२ ॥

मूलम्

प्रोक्षितानां प्रमृष्टानां राज्ञां पशुपतेर्गृहे।
पशूनामिव का प्रीतिर्जीविते भरतर्षभ ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! रुद्रदेवताको बलि देनेके लिये जल छिड़ककर एवं मार्जन करके शुद्ध किये हुए पशुओंकी भाँति जो पशुपतिके मन्दिरमें कैद हैं, उन राजाओंको अब अपने जीवनमें क्या प्रीति रह गयी है?॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षत्रियः शस्त्रमरणो यदा भवति सत्कृतः।
ततः स्म मागधं संख्ये प्रतिबाधेम यद् वयम् ॥ २३ ॥

मूलम्

क्षत्रियः शस्त्रमरणो यदा भवति सत्कृतः।
ततः स्म मागधं संख्ये प्रतिबाधेम यद् वयम् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्षत्रिय जब युद्धमें अस्त्र-शस्त्रोंद्वारा मारा जाता है, तब यह उसका सत्कार है; अतः हमलोग जरासंधको द्वन्द्व-युद्धमें मार डालें॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

षडशीतिः समानीताः शेषा राजंश्चतुर्दश।
जरासंधेन राजानस्ततः क्रूरं प्रवर्त्स्यते ॥ २४ ॥

मूलम्

षडशीतिः समानीताः शेषा राजंश्चतुर्दश।
जरासंधेन राजानस्ततः क्रूरं प्रवर्त्स्यते ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! जरासंधने सौमेंसे छियासी (प्रतिशत) राजाओंको तो कैद कर लिया है, केवल चौदह (प्रतिशत) बाकी हैं। उनको भी बंदी बनानेके पश्चात् वह क्रूर कर्ममें प्रवृत्त होगा॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राप्नुयात्‌ स यशो दीप्तं तत्र यो विघ्नमाचरेत्।
जयेद् यश्च जरासंधं स सम्राण्नियतं भवेत् ॥ २५ ॥

मूलम्

प्राप्नुयात्‌ स यशो दीप्तं तत्र यो विघ्नमाचरेत्।
जयेद् यश्च जरासंधं स सम्राण्नियतं भवेत् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो उसके इस कर्ममें विघ्न डालेगा, वह उज्ज्वल यशका भागी होगा तथा जो जरासंधको जीत लेगा, वह निश्चय ही सम्राट् होगा॥२५॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि राजसूयारम्भपर्वणि कृष्णवाक्ये पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्वके अन्तर्गत राजसूयारम्भपर्वमें श्रीकृष्णवाक्य-विषयक पंद्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१५॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल २६ श्लोक हैं)