श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
चतुर्दशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
श्रीकृष्णकी राजसूययज्ञके लिये सम्मति
मूलम् (वचनम्)
श्रीकृष्ण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वैर्गुणैर्महाराज राजसूयं त्वमर्हसि ।
जानतस्त्वेव ते सर्वं किंचिद् वक्ष्यामि भारत ॥ १ ॥
मूलम्
सर्वैर्गुणैर्महाराज राजसूयं त्वमर्हसि ।
जानतस्त्वेव ते सर्वं किंचिद् वक्ष्यामि भारत ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्णने कहा— महाराज! आपमें सभी सद्गुण विद्यमान हैं; अतः आप राजसूययज्ञ करनेके लिये योग्य हैं। भारत! आप सब कुछ जानते हैं, तो भी आपके पूछनेपर मैं इस विषयमें कुछ निवेदन करता हूँ॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जामदग्न्येन रामेण क्षत्रं यदवशेषितम्।
तस्मादवरजं लोके यदिदं क्षत्रसंज्ञितम् ॥ २ ॥
मूलम्
जामदग्न्येन रामेण क्षत्रं यदवशेषितम्।
तस्मादवरजं लोके यदिदं क्षत्रसंज्ञितम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जमदग्निनन्दन परशुरामने पूर्वकालमें जब क्षत्रियोंका संहार किया था, उस समय लुक-छिपकर जो क्षत्रिय शेष रह गये, वे पूर्ववर्ती क्षत्रियोंकी अपेक्षा निम्नकोटिके हैं। इस प्रकार इस समय संसारमें नाम-मात्रके क्षत्रिय रह गये हैं॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृतोऽयं कुलसंकल्पः क्षत्रियैर्वसुधाधिप ।
निदेशवाग्भिस्तत् ते ह विदितं भरतर्षभ ॥ ३ ॥
मूलम्
कृतोऽयं कुलसंकल्पः क्षत्रियैर्वसुधाधिप ।
निदेशवाग्भिस्तत् ते ह विदितं भरतर्षभ ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पृथ्वीपते! इन क्षत्रियोंने पूर्वजोंके कथनानुसार सामूहिकरूपसे यह नियम बना लिया है कि हममेंसे जो समस्त क्षत्रियोंको जीत लेगा, वही सम्राट् होगा। भरतश्रेष्ठ! यह बात आपको भी मालूम ही होगी॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐलस्येक्ष्वाकुवंशस्य प्रकृतिं परिचक्षते ।
राजानः श्रेणिबद्धाश्च तथान्ये क्षत्रिया भुवि ॥ ४ ॥
मूलम्
ऐलस्येक्ष्वाकुवंशस्य प्रकृतिं परिचक्षते ।
राजानः श्रेणिबद्धाश्च तथान्ये क्षत्रिया भुवि ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस समय श्रेणिबद्ध (सब-के-सब) राजा तथा भूमण्डलके दूसरे क्षत्रिय भी अपनेको सम्राट् पुरूरवा तथा इक्ष्वाकुकी संतान कहते हैं॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐलवंश्याश्च ये राजंस्तथैवेक्ष्वाकवो नृपाः।
तानि चैकशतं विद्धि कुलानि भरतर्षभ ॥ ५ ॥
मूलम्
ऐलवंश्याश्च ये राजंस्तथैवेक्ष्वाकवो नृपाः।
तानि चैकशतं विद्धि कुलानि भरतर्षभ ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ राजन्! पुरूरवा तथा इक्ष्वाकुके वंशमें जो नरेश आजकल हैं, उनके एक सौ कुल विद्यमान हैं; यह बात आप अच्छी तरह जान लें॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ययातेस्त्वेव भोजानां विस्तरो गुणतो महान्।
भजतेऽद्य महाराज विस्तरं स चतुर्दिशम् ॥ ६ ॥
तेषां तथैव तां लक्ष्मीं सर्वक्षत्रमुपासते।
मूलम्
ययातेस्त्वेव भोजानां विस्तरो गुणतो महान्।
भजतेऽद्य महाराज विस्तरं स चतुर्दिशम् ॥ ६ ॥
तेषां तथैव तां लक्ष्मीं सर्वक्षत्रमुपासते।
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! आजकल राजा ययातिके कुलमें गुणकी दृष्टिसे भोजवंशियोंका ही अधिक विस्तार हुआ है। भोजवंशी बढ़कर चारों दिशाओंमें फैल गये हैं तथा आजके सभी क्षत्रिय उन्हींकी धन-सम्पत्तिका आश्रय ले रहे हैं॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदानीमेव वै राजन् जरासंधो महीपतिः ॥ ७ ॥
अभिभूय श्रियं तेषां कुलानामभिषेचितः।
स्थितो मूर्ध्नि नरेन्द्राणामोजसाऽऽक्रम्य सर्वशः ॥ ८ ॥
मूलम्
इदानीमेव वै राजन् जरासंधो महीपतिः ॥ ७ ॥
अभिभूय श्रियं तेषां कुलानामभिषेचितः।
स्थितो मूर्ध्नि नरेन्द्राणामोजसाऽऽक्रम्य सर्वशः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! अभी-अभी भूपाल जरासंध उन समस्त क्षत्रियकुलोंकी राजलक्ष्मीको लाँघकर राजाओंद्वारा सम्राट्के पदपर अभिषिक्त हुआ है और वह अपने बल-पराक्रमसे सबपर आक्रमण करके समस्त राजाओंका सिरमौर हो रहा है॥७-८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽवनिं मध्यमां भुक्त्वा मिथोभेदममन्यत।
प्रभुर्यस्तु परो राजा यस्मिन्नेकवशे जगत् ॥ ९ ॥
मूलम्
सोऽवनिं मध्यमां भुक्त्वा मिथोभेदममन्यत।
प्रभुर्यस्तु परो राजा यस्मिन्नेकवशे जगत् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जरासंध मध्यभूमिका उपभोग करते हुए समस्त राजाओंमें परस्पर फूट डालनेकी नीतिको पसंद करता है। इस समय वही सबसे प्रबल एवं उत्कृष्ट राजा है। यह सारा जगत् एकमात्र उसीके वशमें है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स साम्राज्यं महाराज प्राप्तो भवति योगतः।
तं स राजा जरासंधं संश्रित्य किल सर्वशः ॥ १० ॥
राजन् सेनापतिर्जातः शिशुपालः प्रतापवान्।
मूलम्
स साम्राज्यं महाराज प्राप्तो भवति योगतः।
तं स राजा जरासंधं संश्रित्य किल सर्वशः ॥ १० ॥
राजन् सेनापतिर्जातः शिशुपालः प्रतापवान्।
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! वह अपनी राजनीतिक युक्तियोंसे इस समय सम्राट् बन बैठा है। राजन्! कहते हैं, प्रतापी राजा शिशुपाल सब प्रकारसे जरासंधका आश्रय लेकर ही उसका प्रधान सेनापति हो गया है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमेव च महाराज शिष्यवत् समुपस्थितः ॥ ११ ॥
वक्रः करूषाधिपतिर्मायायोधी महाबलः ।
मूलम्
तमेव च महाराज शिष्यवत् समुपस्थितः ॥ ११ ॥
वक्रः करूषाधिपतिर्मायायोधी महाबलः ।
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर! मायायुद्ध करनेवाला महाबली करूषराज दन्तवक्र भी जरासंधके सामने शिष्यकी भाँति हाथ जोड़े खड़ा रहता है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपरौ च महावीर्यौ महात्मानौ समाश्रितौ ॥ १२ ॥
जरासंधं महावीर्यं तौ हंसडिम्भकावुभौ।
मूलम्
अपरौ च महावीर्यौ महात्मानौ समाश्रितौ ॥ १२ ॥
जरासंधं महावीर्यं तौ हंसडिम्भकावुभौ।
अनुवाद (हिन्दी)
विशालकाय अन्य दो महापराक्रमी योद्धा सुप्रसिद्ध हंस और डिम्भक भी महाबली जरासंधकी शरण ले चुके थे॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दन्तवक्रः करूषश्च करभो मेघवाहनः।
मूर्ध्ना दिव्यमणिं बिभ्रद् यमद्भुतमणिं विदुः ॥ १३ ॥
मूलम्
दन्तवक्रः करूषश्च करभो मेघवाहनः।
मूर्ध्ना दिव्यमणिं बिभ्रद् यमद्भुतमणिं विदुः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
करूषदेशका राजा दन्तवक्र, करभ और मेघवाहन—ये सभी सिरपर दिव्य मणिमय मुकुट धारण करते हुए भी जरासंधको अपने मस्तककी अद्भुत मणि मानते हैं (अर्थात् उसके चरणोंमें सिर झुकाते रहते हैं)॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुरं च नरकं चैव शास्ति यो यवनाधिपः।
अपर्यन्तबलो राजा प्रतीच्यां वरुणो यथा ॥ १४ ॥
भगदत्तो महाराज वृद्धस्तव पितुः सखा।
स वाचा प्रणतस्तस्य कर्मणा च विशेषतः ॥ १५ ॥
स्नेहबद्धश्च मनसा पितृवद् भक्तिमांस्त्वयि।
मूलम्
मुरं च नरकं चैव शास्ति यो यवनाधिपः।
अपर्यन्तबलो राजा प्रतीच्यां वरुणो यथा ॥ १४ ॥
भगदत्तो महाराज वृद्धस्तव पितुः सखा।
स वाचा प्रणतस्तस्य कर्मणा च विशेषतः ॥ १५ ॥
स्नेहबद्धश्च मनसा पितृवद् भक्तिमांस्त्वयि।
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! जो मुर और नरक नामक देशका शासन करते हैं, जिनकी सेना अनन्त है, जो वरुणके समान पश्चिम दिशाके अधिपति कहे जाते हैं, जिनकी वृद्धावस्था हो चली है तथा जो आपके पिताके मित्र रहे हैं, वे यवनाधिपति राजा भगदत्त भी वाणी तथा क्रियाद्वारा भी जरासंधके सामने विशेषरूपसे नतमस्तक रहते हैं; फिर वे मन-ही-मन तुम्हारे स्नेहपाशमें बँधे हैं और जैसे पिता अपने पुत्रपर प्रेम रखता है, वैसे ही उनका तुम्हारे ऊपर वात्सल्यभाव बना हुआ है॥१४-१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रतीच्यां दक्षिणं चान्तं पृथिव्याः प्रति यो नृपः ॥ १६ ॥
मातुलो भवतः शूरः पुरुजित् कुन्तिवर्धनः।
स ते सन्नतिमानेकः स्नेहतः शत्रुसूदनः ॥ १७ ॥
मूलम्
प्रतीच्यां दक्षिणं चान्तं पृथिव्याः प्रति यो नृपः ॥ १६ ॥
मातुलो भवतः शूरः पुरुजित् कुन्तिवर्धनः।
स ते सन्नतिमानेकः स्नेहतः शत्रुसूदनः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो भारतभूमिके पश्चिमसे लेकर दक्षिणतकके भागपर शासन करते हैं, आपके मामा वे शत्रुसंहारक शूरवीर कुन्तिभोजकुलवर्द्धक पुरुजित् अकेले ही स्नेहवश आपके प्रति प्रेम और आदरका भाव रखते हैं॥१६-१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जरासंधं गतस्त्वेव पुरा यो न मया हतः।
पुरुषोत्तमविज्ञातो योऽसौ चेदिषु दुर्मतिः ॥ १८ ॥
आत्मानं प्रतिजानाति लोकेऽस्मिन् पुरुषोत्तमम्।
आदत्ते सततं मोहाद् यः स चिह्नं च मामकम्॥१९॥
वङ्गपुण्ड्रकिरातेषु राजा बलसमन्वितः ।
पौण्ड्रको वासुदेवेति योऽसौ लोकेऽभिविश्रुतः ॥ २० ॥
मूलम्
जरासंधं गतस्त्वेव पुरा यो न मया हतः।
पुरुषोत्तमविज्ञातो योऽसौ चेदिषु दुर्मतिः ॥ १८ ॥
आत्मानं प्रतिजानाति लोकेऽस्मिन् पुरुषोत्तमम्।
आदत्ते सततं मोहाद् यः स चिह्नं च मामकम्॥१९॥
वङ्गपुण्ड्रकिरातेषु राजा बलसमन्वितः ।
पौण्ड्रको वासुदेवेति योऽसौ लोकेऽभिविश्रुतः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसे मैंने पहले मारा नहीं, उपेक्षावश छोड़ रखा है, जिसकी बुद्धि बड़ी खोटी है, जो चेदिदेशमें पुरुषोत्तम समझा जाता है, इस जगत्में जो अपने-आपको पुरुषोतम ही कहकर बताया करता है और मोहवश सदा मेरे शंख-चक्र आदि चिह्नोंको धारण करता है; वंग, पुण्ड्र तथा किरातदेशका जो राजा है तथा लोकमें वासुदेवके नामसे जिसकी प्रसिद्धि हो रही है, वह बलवान् राजा पौण्ड्रक भी जरासंधसे ही मिला हुआ है॥१८—२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चतुर्थभाग् महाराज भोज इन्द्रसखो बली।
विद्याबलाद् यो व्यजयत् सपाण्ड्यक्रथकैशिकान् ॥ २१ ॥
भ्राता यस्याकृतिः शूरो जामदग्न्यसमोऽभवत्।
स भक्तो मागधं राजा भीष्मकः परवीरहा ॥ २२ ॥
मूलम्
चतुर्थभाग् महाराज भोज इन्द्रसखो बली।
विद्याबलाद् यो व्यजयत् सपाण्ड्यक्रथकैशिकान् ॥ २१ ॥
भ्राता यस्याकृतिः शूरो जामदग्न्यसमोऽभवत्।
स भक्तो मागधं राजा भीष्मकः परवीरहा ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! जो पृथ्वीके एक चौथाई भागके स्वामी हैं, इन्द्रके सखा हैं, बलवान् हैं, जिन्होंने अस्त्र-विद्याके बलसे पाण्ड्य, क्रथ और कैशिक देशोंपर विजय पायी है, जिनका भाई आकृति जमदग्निनन्दन परशुरामके समान शौर्यसम्पन्न है, वे भोजवंशी शत्रुहन्ता राजा भीष्मक (मेरे श्वशुर होते हुए) भी मगधराज जरासंधके भक्त हैं॥२१-२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रियाण्याचरतः प्रह्वान् सदा सम्बन्धिनस्ततः।
भजतो न भजत्यस्मानप्रियेषु व्यवस्थितः ॥ २३ ॥
मूलम्
प्रियाण्याचरतः प्रह्वान् सदा सम्बन्धिनस्ततः।
भजतो न भजत्यस्मानप्रियेषु व्यवस्थितः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हम सदा उनका प्रिय करते रहते हैं, उनके प्रति नम्रता दिखाते हैं और उनके सगे-सम्बन्धी हैं; तो भी वे हम-जैसे अपने भक्तोंको तो नहीं अपनाते हैं और हमारे शत्रुओंसे मिलते-जुलते हैं॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न कुलं स बलं राजन्नभ्यजानात् तथाऽऽत्मनः।
पश्यमानो यशो दीप्तं जरासंधमुपस्थितः ॥ २४ ॥
मूलम्
न कुलं स बलं राजन्नभ्यजानात् तथाऽऽत्मनः।
पश्यमानो यशो दीप्तं जरासंधमुपस्थितः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! वे अपने बल और कुलकी ओर भी ध्यान नहीं देते, केवल जरासंधके उज्ज्वल यशकी ओर देखकर उसके आश्रित बन गये हैं॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उदीच्याश्च तथा भोजाः कुलान्यष्टादश प्रभो।
जरासंधभयादेव प्रतीचीं दिशमास्थिताः ॥ २५ ॥
मूलम्
उदीच्याश्च तथा भोजाः कुलान्यष्टादश प्रभो।
जरासंधभयादेव प्रतीचीं दिशमास्थिताः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! इसी प्रकार उत्तर दिशामें निवास करनेवाले भोजवंशियोंके अठारह कुल जरासंधके ही भयसे भागकर पश्चिम दिशामें रहने लगे हैं॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शूरसेना भद्रकारा बोधाः शाल्वाः पटच्चराः।
सुस्थलाश्च सुकुट्टाश्च कुलिन्दाः कुन्तिभिः सह ॥ २६ ॥
शाल्वायनाश्च राजानः सोदर्यानुचरैः सह।
दक्षिणा ये च पञ्चालाः पूर्वाः कुन्तिषु कोशलाः ॥ २७ ॥
तथोत्तरां दिशं चापि परित्यज्य भयार्दिताः।
मत्स्याः संन्यस्तपादाश्च दक्षिणां दिशमाश्रिताः ॥ २८ ॥
मूलम्
शूरसेना भद्रकारा बोधाः शाल्वाः पटच्चराः।
सुस्थलाश्च सुकुट्टाश्च कुलिन्दाः कुन्तिभिः सह ॥ २६ ॥
शाल्वायनाश्च राजानः सोदर्यानुचरैः सह।
दक्षिणा ये च पञ्चालाः पूर्वाः कुन्तिषु कोशलाः ॥ २७ ॥
तथोत्तरां दिशं चापि परित्यज्य भयार्दिताः।
मत्स्याः संन्यस्तपादाश्च दक्षिणां दिशमाश्रिताः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शूरसेन, भद्रकार, बोध, शाल्व, पटच्चर, सुस्थल, सुकुट्ट, कुलिन्द, कुन्ति तथा शाल्वायन आदि राजा भी अपने भाइयों तथा सेवकोंके साथ दक्षिण दिशामें भाग गये हैं। जो लोग दक्षिण पंचाल एवं पूर्वी कुन्तिप्रदेशमें रहते थे, वे सभी क्षत्रिय तथा कोशल, मत्स्य, संन्यस्तपाद आदि राजपूत भी जरासंधके भयसे पीड़ित हो उत्तर दिशाको छोड़कर दक्षिण दिशाका ही आश्रय ले चुके हैं॥२६—२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथैव सर्वपञ्चाला जरासंधभयार्दिताः ।
स्वराज्यं सम्परित्यज्य विद्रुताः सर्वतो दिशम् ॥ २९ ॥
मूलम्
तथैव सर्वपञ्चाला जरासंधभयार्दिताः ।
स्वराज्यं सम्परित्यज्य विद्रुताः सर्वतो दिशम् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसी प्रकार समस्त पंचालदेशीय क्षत्रिय जरासंधके भयसे दुःखी हो अपना राज्य छोड़कर चारों दिशाओंमें भाग गये हैं॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कस्यचित् त्वथ कालस्य कंसो निर्मथ्य यादवान्।
बार्हद्रथसुते देव्यावुपागच्छद् वृथामतिः ॥ ३० ॥
मूलम्
कस्यचित् त्वथ कालस्य कंसो निर्मथ्य यादवान्।
बार्हद्रथसुते देव्यावुपागच्छद् वृथामतिः ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुछ समय पहलेकी बात है, व्यर्थ बुद्धिवाले कंसने समस्त यादवोंको कुचलकर जरासंधकी दो पुत्रियोंके साथ विवाह किया॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्तिः प्राप्तिश्च नाम्ना ते सहदेवानुजेऽबले।
बलेन तेन स्वज्ञातीनभिभूय वृथामतिः ॥ ३१ ॥
श्रैष्ठ्यं प्राप्तः स तस्यासीदतीवापनयो महान्।
मूलम्
अस्तिः प्राप्तिश्च नाम्ना ते सहदेवानुजेऽबले।
बलेन तेन स्वज्ञातीनभिभूय वृथामतिः ॥ ३१ ॥
श्रैष्ठ्यं प्राप्तः स तस्यासीदतीवापनयो महान्।
अनुवाद (हिन्दी)
उनके नाम थे अस्ति और प्राप्ति। वे दोनों अबलाएँ सहदेवकी छोटी बहिनें थीं। निःसार बुद्धिवाला कंस जरासंधके ही बलसे अपने जाति-भाइयोंको अपमानित करके सबका प्रधान बन बैठा था। यह उसका बहुत बड़ा अत्याचार था॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भोजराजन्यवृद्धैश्च पीड्यमानैर्दुरात्मना ॥ ३२ ॥
ज्ञातित्राणमभीप्सद्भिरस्मत्सम्भावना कृता ।
मूलम्
भोजराजन्यवृद्धैश्च पीड्यमानैर्दुरात्मना ॥ ३२ ॥
ज्ञातित्राणमभीप्सद्भिरस्मत्सम्भावना कृता ।
अनुवाद (हिन्दी)
उस दुरात्मासे पीड़ित हो भोजराजवंशके बड़े-बूढ़े लोगोंने जाति-भाइयोंकी रक्षाके लिये हमसे प्रार्थना की॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दत्त्वाक्रूराय सुतनुं तामाहुकसुतां तदा ॥ ३३ ॥
संकर्षणद्वितीयेन ज्ञातिकार्यं मया कृतम्।
हतौ कंससुनामानौ मया रामेण चाप्युत ॥ ३४ ॥
मूलम्
दत्त्वाक्रूराय सुतनुं तामाहुकसुतां तदा ॥ ३३ ॥
संकर्षणद्वितीयेन ज्ञातिकार्यं मया कृतम्।
हतौ कंससुनामानौ मया रामेण चाप्युत ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब मैंने आहुककी पुत्री सुतनुका विवाह अक्रूरसे करा दिया और बलरामजीको साथी बनाकर जाति-भाइयोंका कार्य सिद्ध किया। मैंने और बलरामजीने कंस और सुनामाको मार डाला॥३३-३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भये तु समतिक्रान्ते जरासंधे समुद्यते।
मन्त्रोऽयं मन्त्रितो राजन् कुलैरष्टादशावरैः ॥ ३५ ॥
मूलम्
भये तु समतिक्रान्ते जरासंधे समुद्यते।
मन्त्रोऽयं मन्त्रितो राजन् कुलैरष्टादशावरैः ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इससे कंसका भय तो जाता रहा; परंतु जरासंध कुपित हो हमसे बदला लेनेको उद्यत हो गया। राजन्! उस समय भोजवंशके अठारह कुलों (मन्त्री-पुरोहित आदि)-ने मिलकर इस प्रकार विचार-विमर्श किया—॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनारभन्तो निघ्नन्तो महास्त्रैः शत्रुघातिभिः।
न हन्यामो वयं तस्य त्रिभिर्वर्षशतैर्बलम् ॥ ३६ ॥
मूलम्
अनारभन्तो निघ्नन्तो महास्त्रैः शत्रुघातिभिः।
न हन्यामो वयं तस्य त्रिभिर्वर्षशतैर्बलम् ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदि हमलोग शत्रुओंका अन्त करनेवाले बड़े-बड़े अस्त्रोंद्वारा निरन्तर आघात करते रहें, तो भी तीन सौ वर्षोंमें भी उसकी सेनाका नाश नहीं कर सकते॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य ह्यमरसंकाशौ बलेन बलिनां वरौ।
नामभ्यां हंसडिम्भकावशस्त्रनिधनावुभौ ॥ ३७ ॥
मूलम्
तस्य ह्यमरसंकाशौ बलेन बलिनां वरौ।
नामभ्यां हंसडिम्भकावशस्त्रनिधनावुभौ ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘क्योंकि बलवानोंमें श्रेष्ठ हंस और डिम्भक उसके सहायक हैं, जो बलमें देवताओंके समान हैं। उन दोनोंको यह वरदान प्राप्त है कि वे किसी अस्त्र-शस्त्रसे नहीं मारे जा सकते’॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तावुभौ सहितौ वीरौ जरासंधश्च वीर्यवान्।
त्रयस्त्रयाणां लोकानां पर्याप्ता इति मे मतिः ॥ ३८ ॥
मूलम्
तावुभौ सहितौ वीरौ जरासंधश्च वीर्यवान्।
त्रयस्त्रयाणां लोकानां पर्याप्ता इति मे मतिः ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भैया युधिष्ठिर! मेरा तो ऐसा विश्वास है कि एक साथ रहनेवाले वे दोनों वीर हंस और डिम्भक तथा पराक्रमी जरासंध—ये तीनों मिलकर तीनों लोकोंका सामना करनेके लिये पर्याप्त थे॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हि केवलमस्माकं यावन्तोऽन्ये च पार्थिवाः।
तथैव तेषामासीच्च बुद्धिर्बुद्धिमतां वर ॥ ३९ ॥
मूलम्
न हि केवलमस्माकं यावन्तोऽन्ये च पार्थिवाः।
तथैव तेषामासीच्च बुद्धिर्बुद्धिमतां वर ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ नरेश! यह केवल मेरा ही मत नहीं है, दूसरे भी जितने भूमिपाल हैं, उन सबका यही विचार रहा है॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ हंस इति ख्यातः कश्चिदासीन्महान् नृपः।
रामेण स हतस्तत्र संग्रामेऽष्टादशावरे ॥ ४० ॥
मूलम्
अथ हंस इति ख्यातः कश्चिदासीन्महान् नृपः।
रामेण स हतस्तत्र संग्रामेऽष्टादशावरे ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जरासंधके साथ जब सत्रहवीं बार युद्ध हो रहा था, उसमें हंस नामसे प्रसिद्ध कोई दूसरा राजा भी लड़ने आया था, वह उस युद्धमें बलरामजीके हाथसे मारा गया॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हतो हंस इति प्रोक्तमथ केनापि भारत।
तच्छ्रुत्वा डिम्भको राजन् यमुनाम्भस्यमज्जत ॥ ४१ ॥
मूलम्
हतो हंस इति प्रोक्तमथ केनापि भारत।
तच्छ्रुत्वा डिम्भको राजन् यमुनाम्भस्यमज्जत ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! यह देख किसी सैनिकने चिल्लाकर कहा—‘हंस मारा गया।’ राजन्! उसकी वह बात कानमें पड़ते ही डिम्भक अपने भाईको मरा हुआ जान यमुनाजीमें कूद पड़ा॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विना हंसेन लोकेऽस्मिन् नाहं जीवितुमुत्सहे।
इत्येतां मतिमास्थाय डिम्भको निधनं गतः ॥ ४२ ॥
मूलम्
विना हंसेन लोकेऽस्मिन् नाहं जीवितुमुत्सहे।
इत्येतां मतिमास्थाय डिम्भको निधनं गतः ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं हंसके बिना इस संसारमें जीवित नहीं रह सकता।’ ऐसा निश्चय करके डिम्भकने अपनी जान दे दी॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा तु डिम्भकं श्रुत्वा हंसः परपुरंजयः।
प्रपेदे यमुनामेव सोऽपि तस्यां न्यमज्जत ॥ ४३ ॥
मूलम्
तथा तु डिम्भकं श्रुत्वा हंसः परपुरंजयः।
प्रपेदे यमुनामेव सोऽपि तस्यां न्यमज्जत ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
डिम्भककी इस प्रकार मृत्यु हुई सुनकर शत्रु-नगरीको जीतनेवाला हंस भी भाईके शोकसे यमुनामें ही कूद पड़ा और उसीमें डूबकर मर गया॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तौ स राजा जरासंधः श्रुत्वा च निधनं गतौ।
पुरं शून्येन मनसा प्रययौ भरतर्षभ ॥ ४४ ॥
मूलम्
तौ स राजा जरासंधः श्रुत्वा च निधनं गतौ।
पुरं शून्येन मनसा प्रययौ भरतर्षभ ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! उन दोनोंकी मृत्यु हुई सुनकर राजा जरासंध हताश हो गया और उत्साहशून्य हृदयसे अपनी राजधानीको लौट गया॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो वयममित्रघ्न तस्मिन् प्रतिगते नृपे।
पुनरानन्दिनः सर्वे मथुरायां वसामहे ॥ ४५ ॥
मूलम्
ततो वयममित्रघ्न तस्मिन् प्रतिगते नृपे।
पुनरानन्दिनः सर्वे मथुरायां वसामहे ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुसूदन! उसके इस प्रकार लौट जानेपर हम सब लोग पुनः मथुरामें आनन्दपूर्वक रहने लगे॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा त्वभ्येत्य पितरं सा वै राजीवलोचना।
कंसभार्या जरासंधं दुहिता मागधं नृपम्।
चोदयत्येव राजेन्द्र पतिव्यसनदुःखिता ॥ ४६ ॥
पतिघ्नं मे जहीत्येवं पुनः पुनररिंदम।
मूलम्
यदा त्वभ्येत्य पितरं सा वै राजीवलोचना।
कंसभार्या जरासंधं दुहिता मागधं नृपम्।
चोदयत्येव राजेन्द्र पतिव्यसनदुःखिता ॥ ४६ ॥
पतिघ्नं मे जहीत्येवं पुनः पुनररिंदम।
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुदमन राजेन्द्र! फिर जब पतिके शोकसे पीड़ित हुई कंसकी कमललोचना भार्या अपने पिता मगधनरेश जरासंधके पास जाकर उसे बार-बार उकसाने लगी कि मेरे पतिके घातकको मार डालो॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो वयं महाराज तं मन्त्रं पूर्वमन्त्रितम् ॥ ४७ ॥
संस्मरन्तो विमनसो व्यपयाता नराधिप।
मूलम्
ततो वयं महाराज तं मन्त्रं पूर्वमन्त्रितम् ॥ ४७ ॥
संस्मरन्तो विमनसो व्यपयाता नराधिप।
अनुवाद (हिन्दी)
तब हमलोग भी पहले की हुई गुप्त मन्त्रणाको स्मरण करके उदास हो गये। महाराज! फिर तो हम मथुरासे भाग खड़े हुए॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पृथक्त्वेन महाराज संक्षिप्य महतीं श्रियम् ॥ ४८ ॥
पलायामो भयात् तस्य ससुतज्ञातिबान्धवाः।
इति संचिन्त्य सर्वे स्म प्रतीचीं दिशमाश्रिताः ॥ ४९ ॥
मूलम्
पृथक्त्वेन महाराज संक्षिप्य महतीं श्रियम् ॥ ४८ ॥
पलायामो भयात् तस्य ससुतज्ञातिबान्धवाः।
इति संचिन्त्य सर्वे स्म प्रतीचीं दिशमाश्रिताः ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! उस समय हमने यही निश्चय किया कि ‘यहाँकी विशाल सम्पत्तिको पृथक्-पृथक् बाँटकर थोड़ी-थोड़ी करके पुत्र एवं भाई-बन्धुओंके साथ शत्रुके भयसे भाग चलें।’ ऐसा विचार करके हम सबने पश्चिम दिशाकी शरण ली॥४८-४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुशस्थलीं पुरीं रम्यां रैवतेनोपशोभिताम्।
ततो निवेशं तस्यां च कृतवन्तो वयं नृप ॥ ५० ॥
मूलम्
कुशस्थलीं पुरीं रम्यां रैवतेनोपशोभिताम्।
ततो निवेशं तस्यां च कृतवन्तो वयं नृप ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
और राजन्! रैवतक पर्वतसे सुशोभित रमणीय कुशस्थली पुरीमें जाकर हमलोग निवास करने लगे॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथैव दुर्गसंस्कारं देवैरपि दुरासदम्।
स्त्रियोऽपि यस्यां युध्येयुः किमु वृष्णिमहारथाः ॥ ५१ ॥
मूलम्
तथैव दुर्गसंस्कारं देवैरपि दुरासदम्।
स्त्रियोऽपि यस्यां युध्येयुः किमु वृष्णिमहारथाः ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हमने कुशस्थली दुर्गकी ऐसी मरम्मत करायी कि देवताओंके लिये भी उसमें प्रवेश करना कठिन हो गया। अब तो उस दुर्गमें रहकर स्त्रियाँ भी युद्ध कर सकती हैं, फिर वृष्णिकुलके महारथियोंकी तो बात ही क्या है?॥५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्यां वयममित्रघ्न निवसामोऽकुतोभयाः ।
आलोच्य गिरिमुख्यं तं मागधं तीर्णमेव च ॥ ५२ ॥
माधवाः कुरुशार्दूल परां मुदमवाप्नुवन्।
मूलम्
तस्यां वयममित्रघ्न निवसामोऽकुतोभयाः ।
आलोच्य गिरिमुख्यं तं मागधं तीर्णमेव च ॥ ५२ ॥
माधवाः कुरुशार्दूल परां मुदमवाप्नुवन्।
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुसूदन! हमलोग द्वारकापुरीमें सब ओरसे निर्भय होकर रहते हैं। कुरुश्रेष्ठ! गिरिराज रैवतककी दुर्गमताका विचार करके अपनेको जरासंधके संकटसे पार हुआ मानकर हम सभी मधुवंशियोंको बड़ी प्रसन्नता प्राप्त हुई है॥५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं वयं जरासंधादभितः कृतकिल्बिषाः ॥ ५३ ॥
सामर्थ्यवन्तः सम्बन्धाद् गोमन्तं समुपाश्रिताः।
मूलम्
एवं वयं जरासंधादभितः कृतकिल्बिषाः ॥ ५३ ॥
सामर्थ्यवन्तः सम्बन्धाद् गोमन्तं समुपाश्रिताः।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! हम जरासंधके अपराधी हैं, अतः शक्तिशाली होते हुए भी जिस स्थानसे हमारा सम्बन्ध था, उसे छोड़कर गोमान् (रैवतक) पर्वतके आश्रयमें आ गये हैं॥५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रियोजनायतं सद्म त्रिस्कन्धं योजनावधि ॥ ५४ ॥
योजनान्ते शतद्वारं वीरविक्रमतोरणम् ।
अष्टादशावरैर्नद्धं क्षत्रियैर्युद्धदुर्मदैः ॥ ५५ ॥
मूलम्
त्रियोजनायतं सद्म त्रिस्कन्धं योजनावधि ॥ ५४ ॥
योजनान्ते शतद्वारं वीरविक्रमतोरणम् ।
अष्टादशावरैर्नद्धं क्षत्रियैर्युद्धदुर्मदैः ॥ ५५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रैवतकी दुर्गकी लम्बाई तीन योजनकी है। एक-एक योजनपर सेनाओंके तीन-तीन दलोंकी छावनी है। प्रत्येक योजनके अन्तमें सौ-सौ द्वार हैं, जो सेनाओंसे सुरक्षित हैं। वीरोंका पराक्रम ही उस गढ़का प्रधान फाटक है। युद्धमें उन्मत्त होकर पराक्रम दिखानेवाले अठारह यादववंशी क्षत्रियोंसे वह दुर्ग सुरक्षित है॥५४-५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अष्टादश सहस्राणि भ्रातॄणां सन्ति नः कुले।
आहुकस्य शतं पुत्रा एकैकस्त्रिदशावरः ॥ ५६ ॥
मूलम्
अष्टादश सहस्राणि भ्रातॄणां सन्ति नः कुले।
आहुकस्य शतं पुत्रा एकैकस्त्रिदशावरः ॥ ५६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हमारे कुलमें अठारह हजार भाई हैं। आहुकके सौ पुत्र हैं, जिनमेंसे एक-एक देवताओंके समान पराक्रमी हैं॥५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चारुदेष्णः सह भ्रात्रा चक्रदेवोऽथ सात्यकिः।
अहं च रौहिणेयश्च साम्बः प्रद्युम्न एव च ॥ ५७ ॥
एवमतिरथाः सप्त राजन्नन्यान् निबोध मे।
कृतवर्मा ह्यनाधृष्टिः समीकः समितिंजयः ॥ ५८ ॥
कङ्कः शङ्कुश्च कुन्तिश्च सप्तैते वै महारथाः।
पुत्रौ चान्धकभोजस्य वृद्धो राजा च ते दश ॥ ५९ ॥
मूलम्
चारुदेष्णः सह भ्रात्रा चक्रदेवोऽथ सात्यकिः।
अहं च रौहिणेयश्च साम्बः प्रद्युम्न एव च ॥ ५७ ॥
एवमतिरथाः सप्त राजन्नन्यान् निबोध मे।
कृतवर्मा ह्यनाधृष्टिः समीकः समितिंजयः ॥ ५८ ॥
कङ्कः शङ्कुश्च कुन्तिश्च सप्तैते वै महारथाः।
पुत्रौ चान्धकभोजस्य वृद्धो राजा च ते दश ॥ ५९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने भाईके साथ चारुदेष्ण, चक्रदेव, सात्यकि, मैं, बलरामजी, साम्ब और प्रद्युम्न—ये सात अतिरथी वीर हैं। राजन्! अब मुझसे दूसरोंका परिचय सुनिये। कृतवर्मा, अनाधृष्टि, समीक, समितिंजय, कंक, शंकु और कुन्ति—ये सात महारथी हैं। अन्धक भोजके दो पुत्र और बूढ़े राजा उग्रसेनको भी गिन लेनेपर उन महारथियोंकी संख्या दस हो जाती है॥५७—५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वज्रसंहनना वीरा वीर्यवन्तो महारथाः।
स्मरन्तो मध्यमं देशं वृष्णिमध्ये व्यवस्थिताः ॥ ६० ॥
मूलम्
वज्रसंहनना वीरा वीर्यवन्तो महारथाः।
स्मरन्तो मध्यमं देशं वृष्णिमध्ये व्यवस्थिताः ॥ ६० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये सभी वीर वज्रके समान सुदृढ़ शरीरवाले, पराक्रमी और महारथी हैं, जो मध्यदेशका स्मरण करते हुए वृष्णिकुलमें निवास करते हैं॥६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(वितद्रुर्झल्लिबभ्रू च उद्धवोऽथ विदूरथः।
वसुदेवोग्रसेनौ च सप्तैते मन्त्रिपुङ्गवाः॥
प्रसेनजिच्च यमलो राजराजगुणान्वितः ।
स्यमन्तको मणिर्यस्य रुक्मं निस्रवते बहु॥)
मूलम्
(वितद्रुर्झल्लिबभ्रू च उद्धवोऽथ विदूरथः।
वसुदेवोग्रसेनौ च सप्तैते मन्त्रिपुङ्गवाः॥
प्रसेनजिच्च यमलो राजराजगुणान्वितः ।
स्यमन्तको मणिर्यस्य रुक्मं निस्रवते बहु॥)
अनुवाद (हिन्दी)
वितद्रु, झल्लि, बभ्रु, उद्धव, विदूरथ, वसुदेव तथा उग्रसेन—ये सात मुख्य मन्त्री हैं। प्रसेनजित् और सत्राजित्—ये दोनों जुड़वें बन्धु कुबेरोपम सद्गुणोंसे सुशोभित हैं। उनके पास जो ‘स्यमन्तक’ नामक मणि है, उससे प्रचुरमात्रामें सुवर्ण झरता रहता है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
स त्वं सम्राड्गुणैर्युक्तः सदा भरतसत्तम।
क्षत्रे सम्राजमात्मानं कर्तुमर्हसि भारत ॥ ६१ ॥
मूलम्
स त्वं सम्राड्गुणैर्युक्तः सदा भरतसत्तम।
क्षत्रे सम्राजमात्मानं कर्तुमर्हसि भारत ॥ ६१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतवंशशिरोमणे! आप सदा ही सम्राट्के गुणोंसे युक्त हैं। अतः भारत! आपको क्षत्रियसमाजमें अपनेको सम्राट् बना लेना चाहिये॥६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(दुर्योधनं शान्तनवं द्रोणं द्रौणायनिं कृपम्।
कर्णं च शिशुपालं च रुक्मिणं च धनुर्धरम्॥
एकलव्यं द्रुमं श्वेतं शैब्यं शकुनिमेव च।
एतानजित्वा संग्रामे कथं शक्नोषि तं क्रतुम्॥
अथैते गौरवेणैव न योत्स्यन्ति नराधिपाः।)
मूलम्
(दुर्योधनं शान्तनवं द्रोणं द्रौणायनिं कृपम्।
कर्णं च शिशुपालं च रुक्मिणं च धनुर्धरम्॥
एकलव्यं द्रुमं श्वेतं शैब्यं शकुनिमेव च।
एतानजित्वा संग्रामे कथं शक्नोषि तं क्रतुम्॥
अथैते गौरवेणैव न योत्स्यन्ति नराधिपाः।)
अनुवाद (हिन्दी)
दुर्योधन, भीष्म, द्रोण, अश्वत्थामा, कृपाचार्य, कर्ण, शिशुपाल, रुक्मी, धनुर्धर एकलव्य, द्रुम, श्वेत, शैब्य तथा शकुनि—इन सब वीरोंको संग्राममें जीते बिना आप कैसे वह यज्ञ कर सकते हैं? परंतु ये नरश्रेष्ठ आपका गौरव मानकर युद्ध नहीं करेंगे।
विश्वास-प्रस्तुतिः
न तु शक्यं जरासंधे जीवमाने महाबले।
राजसूयस्त्वयावाप्तुमेषा राजन् मतिर्मम ॥ ६२ ॥
मूलम्
न तु शक्यं जरासंधे जीवमाने महाबले।
राजसूयस्त्वयावाप्तुमेषा राजन् मतिर्मम ॥ ६२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
किंतु राजन्! मेरी सम्मति यह है कि जबतक महाबली जरासंध जीवित है, तबतक आप राजसूययज्ञ पूर्ण नहीं कर सकते॥६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेन रुद्धा हि राजानः सर्वे जित्वा गिरिव्रजे।
कन्दरे पर्वतेन्द्रस्य सिंहेनेव महाद्विपाः ॥ ६३ ॥
मूलम्
तेन रुद्धा हि राजानः सर्वे जित्वा गिरिव्रजे।
कन्दरे पर्वतेन्द्रस्य सिंहेनेव महाद्विपाः ॥ ६३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसने सब राजाओंको जीतकर गिरिव्रजमें इस प्रकार कैद कर रखा है, मानो सिंहने किसी महान् पर्वतकी गुफामें बड़े-बड़े गजराजोंको रोक रखा हो॥६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स हि राजा जरासंधो यियक्षुर्वसुधाधिपैः।
महादेवं महात्मानमुमापतिमरिंदम ॥ ६४ ॥
आराध्य तपसोग्रेण निर्जितास्तेन पार्थिवाः।
प्रतिज्ञायाश्च पारं स गतः पार्थिवसत्तम ॥ ६५ ॥
मूलम्
स हि राजा जरासंधो यियक्षुर्वसुधाधिपैः।
महादेवं महात्मानमुमापतिमरिंदम ॥ ६४ ॥
आराध्य तपसोग्रेण निर्जितास्तेन पार्थिवाः।
प्रतिज्ञायाश्च पारं स गतः पार्थिवसत्तम ॥ ६५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुदमन! राजा जरासंधने उमावल्लभ महात्मा महादेवजीकी उग्र तपस्याके द्वारा आराधना करके एक विशेष प्रकारकी शक्ति प्राप्त कर ली है; इसीलिये वे सभी राजा उससे परास्त हो गये हैं। वह राजाओंकी बलि देकर एक यज्ञ करना चाहता है। नृपश्रेष्ठ! वह अपनी प्रतिज्ञा प्रायः पूरी कर चुका है॥६४-६५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स हि निर्जित्य निर्जित्य पार्थिवान् पृतनागतान्।
पुरमानीय बद्ध्वा च चकार पुरुषव्रजम् ॥ ६६ ॥
मूलम्
स हि निर्जित्य निर्जित्य पार्थिवान् पृतनागतान्।
पुरमानीय बद्ध्वा च चकार पुरुषव्रजम् ॥ ६६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्योंकि उसने सेनाके साथ आये हुए राजाओंको एक-एक करके जीता है और अपनी राजधानीमें लाकर उन्हें कैद करके राजाओंका बहुत बड़ा समुदाय एकत्र कर लिया है॥६६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वयं चैव महाराज जरासंधभयात् तदा।
मथुरां सम्परित्यज्य गता द्वारवतीं पुरीम् ॥ ६७ ॥
मूलम्
वयं चैव महाराज जरासंधभयात् तदा।
मथुरां सम्परित्यज्य गता द्वारवतीं पुरीम् ॥ ६७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! उस समय हम भी जरासंधके भयसे ही पीड़ित हो मथुराको छोड़कर द्वारकापुरीमें चले गये (और अबतक वहीं निवास करते हैं)॥६७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि त्वेनं महाराज यज्ञं प्राप्तुमभीप्ससि।
यतस्व तेषां मोक्षाय जरासंधवधाय च ॥ ६८ ॥
मूलम्
यदि त्वेनं महाराज यज्ञं प्राप्तुमभीप्ससि।
यतस्व तेषां मोक्षाय जरासंधवधाय च ॥ ६८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! यदि आप इस यज्ञको पूर्णरूपसे सम्पन्न करना चाहते हैं तो उन कैदी राजाओंको छुड़ाने और जरासंधको मारनेका प्रयत्न कीजिये॥६८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समारम्भो न शक्योऽयमन्यथा कुरुनन्दन।
राजसूयश्च कार्त्स्न्येन कर्तुं मतिमतां वर ॥ ६९ ॥
मूलम्
समारम्भो न शक्योऽयमन्यथा कुरुनन्दन।
राजसूयश्च कार्त्स्न्येन कर्तुं मतिमतां वर ॥ ६९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ कुरुनन्दन! ऐसा किये बिना राजसूययज्ञका आयोजन पूर्णरूपसे सफल न हो सकेगा॥६९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(जरासंधवधोपायश्चिन्त्यतां भरतर्षभ ।
तस्मिन् जिते जितं सर्वं सकलं पार्थिवं बलम्॥)
मूलम्
(जरासंधवधोपायश्चिन्त्यतां भरतर्षभ ।
तस्मिन् जिते जितं सर्वं सकलं पार्थिवं बलम्॥)
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! आप जरासंधके वधका उपाय सोचिये। उसके जीत लिये जानेपर समस्त भूपालोंकी सेनाओंपर विजय प्राप्त हो जायगी।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्येषा मे मती राजन् यथा वा मन्यसेऽनघ।
एवंगते ममाचक्ष्व स्वयं निश्चित्य हेतुभिः ॥ ७० ॥
मूलम्
इत्येषा मे मती राजन् यथा वा मन्यसेऽनघ।
एवंगते ममाचक्ष्व स्वयं निश्चित्य हेतुभिः ॥ ७० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
निष्पाप नरेश! मेरा मत तो यही है, फिर आप जैसा उचित समझें, करें। ऐसी दशामें स्वयं हेतु और युक्तियोंद्वारा कुछ निश्चय करके मुझे बताइये॥७०॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि राजसूयारम्भपर्वणि कृष्णवाक्ये चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्वके अन्तर्गत राजसूयारम्भपर्वमें श्रीकृष्णवाक्य-विषयक चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१४॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ५ श्लोक मिलाकर कुल ७५ श्लोक हैं)