२३१ शार्ङ्गकाभयदानम्

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

एकत्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

शार्ङ्गकोंके स्तवनसे प्रसन्न होकर अग्निदेवका उन्हें अभय देना

मूलम् (वचनम्)

जरितारिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुरतः कृच्छ्रकालस्य धीमाञ्जागर्ति पूरुषः।
स कृच्छ्रकालं सम्प्राप्य व्यथां नैवैति कर्हिचित् ॥ १ ॥

मूलम्

पुरतः कृच्छ्रकालस्य धीमाञ्जागर्ति पूरुषः।
स कृच्छ्रकालं सम्प्राप्य व्यथां नैवैति कर्हिचित् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जरितारि बोला— बुद्धिमान् पुरुष संकटकाल आनेके पहले ही सजग हो जाता है, वह संकटका समय आ जानेपर कभी व्यथित नहीं होता॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्तु कृच्छ्रमनुप्राप्तं विचेता नावबुध्यते।
स कृच्छ्रकाले व्यथितो न श्रेयो विन्दते महत् ॥ २ ॥

मूलम्

यस्तु कृच्छ्रमनुप्राप्तं विचेता नावबुध्यते।
स कृच्छ्रकाले व्यथितो न श्रेयो विन्दते महत् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मूढ़चित्त जीव आनेवाले संकटको नहीं जानता, वह संकटके समय व्यथित होनेके कारण महान् कल्याणसे वंचित रह जाता है॥२॥

मूलम् (वचनम्)

सारिसृक्क उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

धीरस्त्वमसि मेधावी प्राणकृच्छ्रमिदं च नः।
प्राज्ञः शूरो बहूनां हि भवत्येको न संशयः ॥ ३ ॥

मूलम्

धीरस्त्वमसि मेधावी प्राणकृच्छ्रमिदं च नः।
प्राज्ञः शूरो बहूनां हि भवत्येको न संशयः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सारिसृक्कने कहा— भैया! तुम धीर और बुद्धिमान् हो और हमारे लिये यह प्राणसंकटका समय है (अतः इससे तुम्हीं हमारी रक्षा कर सकते हो); क्योंकि बहुतोंमें कोई एक ही बुद्धिमान् और शूरवीर होता है, इसमें संशय नहीं है॥३॥

मूलम् (वचनम्)

स्तम्बमित्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्येष्ठस्तातो भवति वै ज्येष्ठो मुञ्चति कृच्छ्रतः।
ज्येष्ठश्चेन्न प्रजानाति कनीयान् किं करिष्यति ॥ ४ ॥

मूलम्

ज्येष्ठस्तातो भवति वै ज्येष्ठो मुञ्चति कृच्छ्रतः।
ज्येष्ठश्चेन्न प्रजानाति कनीयान् किं करिष्यति ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्तम्बमित्र बोला— बड़ा भाई पिताके तुल्य है, बड़ा भाई ही संकटसे छुड़ाता है। यदि बड़ा भाई ही आनेवाले भय और उससे बचनेके उपायको न जाने तो छोटा भाई क्या करेगा?॥४॥

मूलम् (वचनम्)

द्रोण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

हिरण्यरेतास्त्वरितो ज्वलन्नायाति नः क्षयम्।
सप्तजिह्वाननः क्रूरो लेलिहानो विसर्पति ॥ ५ ॥

मूलम्

हिरण्यरेतास्त्वरितो ज्वलन्नायाति नः क्षयम्।
सप्तजिह्वाननः क्रूरो लेलिहानो विसर्पति ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्रोणने कहा— यह जाज्वल्यमान अग्नि हमारे घोंसलेकी ओर तीव्र वेगसे आ रहा है। इसके मुखमें सात जिह्वाएँ हैं और यह क्रूर अग्नि समस्त वृक्षोंको चाटता हुआ सब ओर फैल रहा है॥५॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं सम्भाष्य तेऽन्योन्यं मन्दपालस्य पुत्रकाः।
तुष्टुवुः प्रयता भूत्वा यथाग्निं शृणु पार्थिव ॥ ६ ॥

मूलम्

एवं सम्भाष्य तेऽन्योन्यं मन्दपालस्य पुत्रकाः।
तुष्टुवुः प्रयता भूत्वा यथाग्निं शृणु पार्थिव ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! इस प्रकार आपसमें बातें करके मन्दपालके वे पुत्र एकाग्रचित्त हो अग्निदेवकी स्तुति करने लगे; वह स्तुति सुनो॥६॥

मूलम् (वचनम्)

जरितारिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

आत्मासि वायोर्ज्वलन शरीरमसि वीरुधाम्।
योनिरापश्च ते शुक्रं योनिस्त्वमसि चाम्भसः ॥ ७ ॥

मूलम्

आत्मासि वायोर्ज्वलन शरीरमसि वीरुधाम्।
योनिरापश्च ते शुक्रं योनिस्त्वमसि चाम्भसः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जरितारिने कहा— अग्निदेव! आप वायुके आत्मस्वरूप और वनस्पतियोंके शरीर हैं। तृण-लता आदिकी योनि पृथ्वी और जल तुम्हारे वीर्य हैं, जलकी योनि भी तुम्हीं हो॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऊर्ध्वं चाधश्च सर्पन्ति पृष्ठतः पार्श्वतस्तथा।
अर्चिषस्ते महावीर्य रश्मयः सवितुर्यथा ॥ ८ ॥

मूलम्

ऊर्ध्वं चाधश्च सर्पन्ति पृष्ठतः पार्श्वतस्तथा।
अर्चिषस्ते महावीर्य रश्मयः सवितुर्यथा ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महावीर्य! आपकी ज्वालाएँ सूर्यकी किरणोंके समान ऊपर-नीचे, आगे-पीछे तथा अगल-बगल सब ओर फैल रही हैं॥८॥

मूलम् (वचनम्)

सारिसृक्क उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

माता प्रणष्टा पितरं न विद्मः
पक्षा जाता नैव नो धूमकेतो।
न नस्त्राता विद्यते वै त्वदन्य-
स्तस्मादस्मांस्त्राहि बालांस्त्वमग्ने ॥ ९ ॥

मूलम्

माता प्रणष्टा पितरं न विद्मः
पक्षा जाता नैव नो धूमकेतो।
न नस्त्राता विद्यते वै त्वदन्य-
स्तस्मादस्मांस्त्राहि बालांस्त्वमग्ने ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सारिसृक्क बोला— धूममयी ध्वजासे सुशोभित अग्निदेव! हमारी माता चली गयी, पिताका भी हमें पता नहीं है और हमारे अभी पंखतक नहीं निकले हैं। हमारा आपके सिवा दूसरा कोई रक्षक नहीं है; अतः आप ही हम बालकोंकी रक्षा करें॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदग्ने ते शिवं रूपं ये च ते सप्त हेतयः।
तेन नः परिपाहि त्वमार्त्तान् वै शरणैषिणः ॥ १० ॥

मूलम्

यदग्ने ते शिवं रूपं ये च ते सप्त हेतयः।
तेन नः परिपाहि त्वमार्त्तान् वै शरणैषिणः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अग्ने! आपका जो कल्याणमय स्वरूप है तथा आपकी जो सात ज्वालाएँ हैं, उन सबके द्वारा आप शरणमें आनेकी इच्छावाले हम आर्त प्राणियोंकी रक्षा कीजिये॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वमेवैकस्तपसे जातवेदो
नान्यस्तप्ता विद्यते गोषु देव।
ऋषीनस्मान् बालकान् पालयस्व
परेणास्मान् प्रेहि वै हव्यवाह ॥ ११ ॥

मूलम्

त्वमेवैकस्तपसे जातवेदो
नान्यस्तप्ता विद्यते गोषु देव।
ऋषीनस्मान् बालकान् पालयस्व
परेणास्मान् प्रेहि वै हव्यवाह ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जातवेदा! एकमात्र आप ही सर्वत्र तपते हैं। देव! सूर्यकी किरणोंमें तपनेवाला पुरुष भी आपसे भिन्न नहीं है। हव्यवाहन! हम बालक ऋषि हैं; हमारी रक्षा कीजिये। हमसे दूर चले जाइये॥११॥

मूलम् (वचनम्)

स्तम्बमित्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वमग्ने त्वमेवैकस्त्वयि सर्वमिदं जगत्।
त्वं धारयसि भूतानि भुवनं त्वं बिभर्षि च ॥ १२ ॥

मूलम्

सर्वमग्ने त्वमेवैकस्त्वयि सर्वमिदं जगत्।
त्वं धारयसि भूतानि भुवनं त्वं बिभर्षि च ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्तम्बमित्रने कहा— अग्ने! एकमात्र आप ही सब कुछ हैं, यह सम्पूर्ण जगत् आपमें ही प्रतिष्ठित है। आप ही प्राणियोंका पालन और जगत्‌को धारण करते हैं॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वमग्निर्हव्यवाहस्त्वं त्वमेव परमं हविः।
मनीषिणस्त्वां जानन्ति बहुधा चैकधापि च ॥ १३ ॥

मूलम्

त्वमग्निर्हव्यवाहस्त्वं त्वमेव परमं हविः।
मनीषिणस्त्वां जानन्ति बहुधा चैकधापि च ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप ही अग्नि, आप ही हव्यका वहन करनेवाले और आप ही उत्तम हविष्य हैं। मनीषी पुरुष आपको ही अनेक और एकरूपमें स्थित जानते हैं॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सृष्ट्वा लोकांस्त्रीनिमान् हव्यवाह
काले प्राप्ते पचसि पुनः समिद्धः।
त्वं सर्वस्य भुवनस्य प्रसूति-
स्त्वमेवाग्ने भवसि पुनः प्रतिष्ठा ॥ १४ ॥

मूलम्

सृष्ट्वा लोकांस्त्रीनिमान् हव्यवाह
काले प्राप्ते पचसि पुनः समिद्धः।
त्वं सर्वस्य भुवनस्य प्रसूति-
स्त्वमेवाग्ने भवसि पुनः प्रतिष्ठा ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हव्यवाह! आप इन तीनों लोकोंकी सृष्टि करके प्रलयकाल आनेपर पुनः प्रज्वलित हो इन सबका संहार कर देते हैं। अतः अग्ने! आप सम्पूर्ण जगत्‌के उत्पत्तिस्थान हैं और आप ही इसके लयस्थान भी हैं॥१४॥

मूलम् (वचनम्)

द्रोण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वमन्नं प्राणिभिर्भुक्तमन्तर्भूतो जगत्पते ।
नित्यप्रवृद्धः पचसि त्वयि सर्वं प्रतिष्ठितम् ॥ १५ ॥

मूलम्

त्वमन्नं प्राणिभिर्भुक्तमन्तर्भूतो जगत्पते ।
नित्यप्रवृद्धः पचसि त्वयि सर्वं प्रतिष्ठितम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्रोण बोला— जगत्पते! आप ही शरीरके भीतर रहकर प्राणियोंद्वारा खाये हुए अन्नको सदा उद्दीप्त होकर पचाते हैं। सम्पूर्ण विश्व आपमें ही प्रतिष्ठित है॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सूर्यो भूत्वा रश्मिभिर्जातवेदो
भूमेरम्भो भूमिजातान् रसांश्च ।
विश्वानादाय पुनरुत्सृज्य काले
दृष्ट्वा वृष्ट्या भावयसीह शुक्र ॥ १६ ॥

मूलम्

सूर्यो भूत्वा रश्मिभिर्जातवेदो
भूमेरम्भो भूमिजातान् रसांश्च ।
विश्वानादाय पुनरुत्सृज्य काले
दृष्ट्वा वृष्ट्या भावयसीह शुक्र ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शुक्लवर्णवाले सर्वज्ञ अग्निदेव! आप ही सूर्य होकर अपनी किरणोंद्वारा पृथ्वीसे जलको और सम्पूर्ण पार्थिव रसोंको ग्रहण करते हैं तथा पुनः समय आनेपर आवश्यकता देखकर वर्षाके द्वारा इस पृथ्वीपर जलरूपमें उन सब रसोंको प्रस्तुत कर देते हैं॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वत्त एताः पुनः शुक्र वीरुधों हरितच्छदाः।
जायन्ते पुष्करिण्यश्च सुभद्रश्च महोदधिः ॥ १७ ॥

मूलम्

त्वत्त एताः पुनः शुक्र वीरुधों हरितच्छदाः।
जायन्ते पुष्करिण्यश्च सुभद्रश्च महोदधिः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उज्ज्वलवर्णवाले अग्ने! फिर आपसे ही हरे-हरे पत्तोंवाले वनस्पति उत्पन्न होते हैं और आपसे ही पोखरियाँ तथा कल्याणमय महासागर पूर्ण होते हैं॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदं वै सद्म तिग्मांशो वरुणस्य परायणम्।
शिवस्त्राता भवास्माकं मास्मानद्य विनाशय ॥ १८ ॥

मूलम्

इदं वै सद्म तिग्मांशो वरुणस्य परायणम्।
शिवस्त्राता भवास्माकं मास्मानद्य विनाशय ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रचण्ड किरणोंवाले अग्निदेव! हमारा यह शरीररूप घर रसनेन्द्रियाधिपति वरुणदेवका आलम्बन है। आप आज शीतल एवं कल्याणमय बनकर हमारे रक्षक होइये; हमें नष्ट न कीजिये॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पिङ्गाक्ष लोहितग्रीव कृष्णवर्त्मन् हुताशन।
परेण प्रेहि मुञ्चास्मान् सागरस्य गृहानिव ॥ १९ ॥

मूलम्

पिङ्गाक्ष लोहितग्रीव कृष्णवर्त्मन् हुताशन।
परेण प्रेहि मुञ्चास्मान् सागरस्य गृहानिव ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पिंगल नेत्र तथा लोहित ग्रीवावाले हुताशन! आप कृष्णवर्त्मा हैं। समुद्रतटवर्ती गृहोंकी भाँति हमें भी छोड़ दीजिये। दूरसे ही निकल जाइये॥१९॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तो जातवेदा द्रोणेन ब्रह्मवादिना।
द्रोणमाह प्रतीतात्मा मन्दपालप्रतिज्ञया ॥ २० ॥

मूलम्

एवमुक्तो जातवेदा द्रोणेन ब्रह्मवादिना।
द्रोणमाह प्रतीतात्मा मन्दपालप्रतिज्ञया ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! ब्रह्मवादी द्रोणके द्वारा इस प्रकार प्रार्थना की जानेपर प्रसन्नचित्त हुए अग्निने मन्दपालसे की हुई प्रतिज्ञाका स्मरण करके द्रोणसे कहा॥२०॥

मूलम् (वचनम्)

अग्निरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋषिर्द्रोणस्त्वमसि वै ब्रह्म तद् व्याहृतं त्वया।
ईप्सितं ते करिष्यामि न च ते विद्यते भयम्॥२१॥

मूलम्

ऋषिर्द्रोणस्त्वमसि वै ब्रह्म तद् व्याहृतं त्वया।
ईप्सितं ते करिष्यामि न च ते विद्यते भयम्॥२१॥

अनुवाद (हिन्दी)

अग्नि बोले— जान पड़ता है, तुम द्रोण ऋषि हो; क्योंकि तुमने उस ब्रह्मका ही प्रतिपादन किया है। मैं तुम्हारा अभीष्ट सिद्ध करूँगा, तुम्हें कोई भय नहीं है॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन्दपालेन वै यूयं मम पूर्वं निवेदिताः।
वर्जयेः पुत्रकान् मह्यं दहन् दावमिति स्म ह ॥ २२ ॥

मूलम्

मन्दपालेन वै यूयं मम पूर्वं निवेदिताः।
वर्जयेः पुत्रकान् मह्यं दहन् दावमिति स्म ह ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मन्दपाल मुनिने पहले ही मुझसे तुमलोगोंके विषयमें निवेदन किया था कि ‘आप खाण्डववनका दाह करते समय मेरे पुत्रोंको बचा दीजियेगा’॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य तद् वचनं द्रोण त्वया यच्चेह भाषितम्।
उभयं मे गरीयस्तु ब्रूहि किं करवाणि ते।
भृशं प्रीतोऽस्मि भद्रं ते ब्रह्मन् स्तोत्रेण सत्तम ॥ २३ ॥

मूलम्

तस्य तद् वचनं द्रोण त्वया यच्चेह भाषितम्।
उभयं मे गरीयस्तु ब्रूहि किं करवाणि ते।
भृशं प्रीतोऽस्मि भद्रं ते ब्रह्मन् स्तोत्रेण सत्तम ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्रोण! तुम्हारे पिताका यह वचन और तुमने यहाँ जो कुछ कहा है, वह भी मेरे लिये गौरवकी वस्तु है। बोलो, तुम्हारी और कौन-सी इच्छा पूर्ण करूँ? ब्रह्मन्! साधुशिरोमणे! तुम्हारा कल्याण हो। तुम्हारे इस स्तोत्रसे मैं बहुत प्रसन्न हूँ॥२३॥

मूलम् (वचनम्)

द्रोण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इमे मार्जारकाः शुक्र नित्यमुद्वेजयन्ति नः।
एतान् कुरुष्व दग्धांस्त्वं हुताशन सबान्धवान् ॥ २४ ॥

मूलम्

इमे मार्जारकाः शुक्र नित्यमुद्वेजयन्ति नः।
एतान् कुरुष्व दग्धांस्त्वं हुताशन सबान्धवान् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्रोणने कहा— शुक्लस्वरूप अग्ने! ये बिलाव हमें प्रतिदिन उद्विग्न करते रहते हैं। हुताशन! आप इन्हें बन्धु-बान्धवोंसहित भस्म कर डालिये॥२४॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा तत् कृतवानग्निरभ्यनुज्ञाय शाङ्‌र्गकान्।
ददाह खाण्डवं दावं समिद्धो जनमेजय ॥ २५ ॥

मूलम्

तथा तत् कृतवानग्निरभ्यनुज्ञाय शाङ्‌र्गकान्।
ददाह खाण्डवं दावं समिद्धो जनमेजय ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! शार्ङ्गकोंकी अनुमतिसे अग्निदेवने वैसा ही किया और प्रज्वलित होकर वे सम्पूर्ण खाण्डववनको जलाने लगे॥२५॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि मयदर्शनपर्वणि शार्ङ्गकोपाख्याने एकत्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २३१ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत मयदर्शनपर्वमें शार्ङ्गकोपाख्यानविषयक दो सौ इकतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२३१॥